Tuesday, August 9, 2011

महान सेनानी सुभाष चन्द्र बोस.....................

महान स्वतंत्रता सेनानी नेताजी सेनानी सुभाष चन्द्र बोस तेजस्वी नेता ,प्रखर वक्ता , वीर क्रन्तिकारी और कुशल नेत्रत्व्कर्ता थे ! उन्होंने भारत को स्वतंत्र कराने के लिए देश और विदेश में हर संभव प्रयास किया और अंत में अपने प्राणों का बलिदान कर दिया पर बहुत दुःख की बात है की उन्हें जो सम्मान मिलना चाहिए था वह नहीं मिला यहाँ तक की उनकी म्रत्यु का रहस्य आज भी एक रहस्य ही है ! हमारी केंद्र सरकार के लिए यह कितने शर्म की बात है वह जानबूझकर नेताजी जैसे अमर शहीद की रहस्मय म्रत्यु पर पर्दा डाले हुए है ताकि दूसरे देशों से उसके सम्बन्ध ख़राब न हों !
                                                           शुरूआती जीवन ----
 
सुभाष जी का जन्म 23- जनवरी-1897 को कटक (उडीसा ) में एक संपन्न बंगाली कायस्थ परिवार में हुआ था !उनके पिता जानकीनाथ बोस प्रतिष्ठित वकील थे और उनकी माँ प्रभावती देवी सात्विक महिला थीं ! वह अपने 14 भाई-बहनों में 9 वीं संतान थे !
बचपन से ही उन पर स्वामी विवेकानंद के विचारों का भी बहुत प्रभाव पड़ा था और उनका हृदय अंग्रेजों के अन्याय व मानवता की दुर्दशा से द्रवित हो उठता था ! जब एक दिन किशोर सुभाष ने अखबार में पढ़ा की जाजपुर में हैजे का भीषण प्रकोप फेला है तो वह तुरंत जाजपुर जाकर रोगियों की सेवा करने में लग गए और कई महीनों तक पीड़ितों की सेवा में लगे रहे !
उन्होंने छठी कक्षा तक की शिक्षा कटक के ही अंग्लो स्कूल (अब स्टीवर्ट स्कूल) और उसके बाद की शिक्षा रेवनशा कालेजिएट स्कूल ( Ravenshaw Collegiate School ) से प्राप्त की ! इसके बाद आगे की शिक्षा के लिए उन्होंने कलकत्ता के प्रतिष्ठित प्रेसिडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया ! उनमें शुरू से ही राष्ट्रप्रेम की भावना कूट-कूट कर भरी थी इसीलिए जब कॉलेज में प्रो.ओटन (Professor Oaten) ने भारत-विरोधी टीका-टिप्पणी की तो सुभाष ने उस पर हमला कर दिया पर इसके दंड स्वरुप उन्हें कॉलेज से निकाल दिया गया ! सुभाष राष्ट्र-प्रेमी होने के साथ-साथ तीव्र बुद्धि के भी थे और उन्होंने 1911 में मेट्रिक परीक्षा में पूरे कलकत्ता प्रान्त में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया ! 1918 में उन्होंने प्रसिद्ध स्कोटिश चर्च कॉलेज (Scottish Church College) से दर्शन-शास्त्र में बी.ए. किया !
उन्होंने लन्दन जाकर सिविल सेवा परीक्षा दी जिसमें उनका चोथा स्थान प्राप्त किया ! इसमें उनके उच्च अंकों के आधार पर उन्हें सिविल सेवा में स्वतः नियुक्ति मिल गयी पर तब उन्होंने यह कहते हुए आइ.सी.एस. ( Indian civil services) से त्यागपत्र दे दिया की " किसी शासन का अंत करने का सबसे अच्छा तरीका है की उससे अलग हो जाओ !" और एक बार फिर अपने देशप्रेम का परिचय दिया !
इस समय भारत में सभी राष्ट्रवादी लोग जलियांवाला काण्ड(1919) और दमनात्मक रोलेक्ट एक्ट (1919) से स्तब्ध और उग्र थे ! स्वदेश वापस आकर सुभाष ने "स्वराज समाचारपत्र " में लेख लिखे व देशबंधु चितरंजन दास और महात्मा गाँधी की प्रेरणा से वह भारतीय राष्ट्रिय कांग्रेस में शामिल हो गए और " बंगाल प्रांतीय कांग्रेस कमेटी " के प्रचार का भार अपने ऊपर ले लिया ! जब महात्मा गाँधी ने देश में असहयोग आन्दोलन की शुरुआत की तब सुभाष जी ने भी उसमें पूरा भाग लिया ! भारत में उनके राजनीतिक गुरु चितरंजन दास थे ! जब सी.आर. दास कलकत्ता के मेयर चुने गए तब भी सुभाष ने उनके साथ कार्य किया ! सुभाष को देशबंधु ने राष्ट्रिय स्वयं सेवक दल का सेनापति बना दिया !उनकी संगठन क्षमता व कोशल से अंग्रेज सरकार घबरा गयी और उसने संगठन को गेर-कानूनी करार कर दिया और दल के कई युवकों को जेल में डाल दिया ! सुभाष को भी पकड़कर अलीपुर जेल में डाल दिया गया और उन्हें 6 महीनों की सजा हुई ! यह उनकी पहली जेल-यात्रा थी और फिर तो वह कई बार जेल गए ! 1925 में भी जब राष्ट्रवादियों की धर-पकड़ हुई तब सुभाष को भी गिरफ्तार किया गया और मांडले( म्यांमार) जेल में कैद कर दिया गया , जहां उन्हें टी.बी. रोग का संक्रमण हो गया !

                                             राष्ट्रीय राजनीति में प्रवेश --------

      जेल में दो साल बिताने के बाद बोस बाहर आ गए ! वह कांग्रस पार्टी के जनरल सेक्रेटरी चुने गए और जवाहरलाल नेहरु ,आदि के साथ स्वतंत्रता आन्दोलन में लग गए ! पर इस बार फिर अंग्रेज सरकार ने सुभाष को नागरिक अवज्ञा (civil disobedience) के जुर्म में गिरफ्तार कर लिया ! पर अंग्रेज सरकार का दमन उनके जोश और जनता में उनकी लोकप्रियता को कम नहीं कर सका और 1930 में वह कलकत्ता के मेयर चुने गए ! 1933 में सुभाष यूरोप की यात्रा पर गए और 1935 में वापस आये ! उन्होंने भारतीय छात्रों और यूरोपीय राजनेताओं , जिनमें मुसोलोनी भी था, से मुलाक़ात की !उन्होंने पार्टी संगठन का ध्यान से अवलोकन किया और साम्यवाद व फासीवाद की कार्रवाई को देखा ! उन्होंने पाया की विश्व युद्ध की चर्चा सर्वत्र है !
                                       कांग्रेस का अध्यक्ष चुना जाना गांधीजी से मतभेद और फॉरवर्ड ब्लोक की स्थापना -
1938 तक वह राष्ट्रीय स्तर के नेता बन चुके थे ! इसी वर्ष वह कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए अपना नाम देने हो गए और 1938 में कांग्रेस के के अधिवेशन में वह कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए ! उनका लक्ष्य था -> बिनाशर्त पूर्ण स्वराज , जिसमें अंग्रेज सरकार के प्रति बल प्रयोग की भी बात थी ! यह बात महात्मा गाँधी की सोच से मेल नहीं खाती थी और महात्मा गाँधी ने सुभाष जी के 1939 में अध्यक्ष पद हेतु दोबारा नामांकन का भी विरोध किया पर सुभाष 1939 के त्रिपुरी अधिवेशन में दूसरी बार भी अध्यक्ष चुने गए , बोस स्ट्रेचर पर कांग्रेस की मीटिंग में भाग लेने गए ! गांधीजी पट्टाभि सीतारामैय्या का समर्थन कर रहे थे और उनके हारने पर गांधीजी ने कहा की पट्टाभि सीतारामैय्या की हार उनकी हार है ! इस मतभेद से कांग्रेस पार्टी में फूट पड गयी ! सुभाष ने पार्टी में एकता बनाए रखने का प्रयास किया लेकिन गांधीजी नहीं माने और उन्होंने सुभाष को अपनी कार्यकारणी खुद ही बना लेने को कहा ! इस मतभेद से उनके और नेहरु के बीच भी दरार पड गयी !
1939 के त्रिपुरी अधिवेशन में उन्होंने अपने अध्यक्षीय भाषण में सुझाव दिया की - ' स्वाधीनता की राष्ट्रिय मांग एक निश्चित समय के अंदर पूरी करने के लिए ब्रिटिश सरकार के सामने रखी जाए और उस समय-सीमा में मांग पूरी न होने पर हमें सविनय अवज्ञा आन्दोलन और सत्याग्रह शुरू कर देना चाहिए ! ' पर कांग्रेस वर्किंग कोम्मित्ती के गाँधी -वादी धड़े के निरंतर व्यवधान और विरोध के कारण आखिरकार सुभाष को अप्रैल-1939 को कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा !
कांग्रेस से अलग होकर उन्होंने 22-जून-1939 को forward bloc की स्थापना की जिसका प्रमुख उद्देश्य था वाम पंथ (लेफ्ट ) को मजबूत बनाना !
सुभाष का मानना था की जब अंग्रेज द्वितीय विश्व-युद्ध में फंसे हैं तभी हमें उनकी राजनितिक अस्थिरता का फायदा उठाना चाहिए और स्वतंत्रता के लिए प्रयास करना चाहिए न की यह इंतज़ार करना चाहिए की युद्ध की समाप्ति पर अंग्रेज हमें स्वतंत्रता दे दें !( जो की गांधीजी , नेहरु ,आदि की सोच थी !)
द्वितीय-विश्व युद्ध के शुरू होने पर उन्होंने इस बात का व्यापक विरोध किया की वायसराय लिनलिथगो ने बिना कांग्रस नेतृत्व से सलाह किये भारत को भी युद्ध में कैसे शामिल कर लिया ! पर जब वह गांधीजी को सहमत नहीं कर पाए तो उन्होंने स्वयं ही जन - विरोध का आयोजन किया और ब्लैक-होल घटना की याद में अंग्रेजों द्वारा बनाये गए " होल्वेल स्मारक चिह्न " को मिटा देने का आह्वाहन किया ! अंग्रेजों ने उन्हें पकड़ कर जेल में डाल दिया पर सुभाष द्वारा 7 दिनों तक भूख-हड़ताल करने और जेल के बाहर जनता द्वारा भरी आन्दोलन करने के बाद सरकार को उन्हें मजबूरन छोड़ देना पड़ा पर अब उन्हें घर में ही (सी.बी.आई. द्वारा) नजरबन्द कर दिया गया !
गांधीजी और उनके विचारों का अंतर इसी से पता चलता है की उनका मानना था की " अगर कोई तुम्हें एक थप्पड़ मरे तो तुम उसे दो थप्पड़ मारो ! "
                                            नजरबंदी से जर्मनी तक -------------
इस नजरबंदी से भी उन्हें लाभ ही हुआ ! सुभाष जानते थे की चूंकि उन पर अभी दो केस विचाराधीन हैं इसीलिए युद्ध ख़त्म होने तक ब्रिटिश सरकार उन्हें देश से बाहर नहीं जाने देगी ! इस स्थिति ने उनके जर्मनी जाने का मार्ग बनाया ! abwehr ( जर्मनी की सैन्य गुप्तचार सेवा ) के सहयोग से वह अफगानिस्तान और रूस होते हुए जर्मनी पहुंचे ! 19-जनवरी-1941 को अंग्रेज सरकार की कठोर निगरानी के बीच( अपने भतीजे शिशिर बोस के साथ) घर से निकले ! उन्होंने पश्तून इंश्योरेंस एजेंट पठान "जियाउद्दीन" का वेश बनाया और कलकत्ता से वह पेशावर पहुँच गए ! वहाँ उनकी भेंट अकबर शाह , मोहम्मद शाह और भगत राम तलवार से हुई ! अपने सहियोगियों की मदद से वह काबुल होते हुए रूस पहुंचे ! उनका मानना था की अंग्रेज सरकार से पारंपरिक शत्रुता होने के कारण सोवियत रूस भारत में अंग्रेजों के खिलाफ बड़े विद्रोह का समर्थन करेगा पर मोस्को पहुँचने पर उन्हें रूस की प्रतिक्रिया बहुत निराशाजनक लगी ! उन्हें तुरंत ही मोस्को में जर्मन राजदूत को सौंप दिया गया ! जर्मन राजदूत ने उन्हें विशेष कोरिअर विमान से बर्लिन भेज दिया ! मोस्को से वह इटली के कुलीन काउंट ओरलांडो मोजाता (Count Orlando Mazzotta) के पासपोर्ट पर रोम होते हुए बर्लिन पहुंचे !

1941 में , जब अंग्रेजों को पता चला की बोस धुरी-राष्ट्रों से सहयोग की अपेक्षा कर रहे हैं तो उसने अपने एजेंटों को आदेश दिया की वह उन्हें जर्मनी पहुँचने से पहले ही रास्ते में ही उनकी हत्या कर दें !
नेताजी 2 -अप्रैल-1941 को बर्लिन पहुंचे जहां उनका भरपूर स्वागत हुआ ! जर्मन सरकार के पर-राष्ट्र विभाग ने उन्हें " फ्यूहरर ऑफ़ इण्डिया" की उपाधि दी ! जर्मनी की जनता ने ही उन्हें "नेताजी" नाम से संबोधित किया !वहाँ पहुंचकर वह अपने मिशन में लग गए ! उन्होंने धुरी-राष्ट्रों की सैनिक शक्तियों की मदद से भारत की स्वतंत्रता का प्रयास शुरू कर दिया ! उन्होंने युद्ध का मोर्चा देखा और युद्ध-विद्या की ट्रेनिंग ली तथा फील्ड मार्शल बन गए ! बर्लिन में उन्होंने "फ्री इंडिया सेण्टर " ,"आजाद हिंद रेडियो" की स्थापना की और 4500 भारतीय युद्ध-बंदियों को मिलाकर "भारतीय सेना" (Indian Legion) का गठन किया ! यह वह युद्ध-बंदी थे जिन्होंने दक्षिण अफ्रीका में अंग्रेज सेना की ओर से युद्ध किया था ओर धुरी-राष्ट्रों द्वारा बंदी बना लिए गए थे !इसके सदस्यों ने हिटलर और बोस के सामने वफादारी की शपथ ली ! सुभाष ने बर्लिन रेडियो से अंग्रेज विरोधी और भारत समर्थक जोशीला भाषण दिया !
7-दिस.-1941 को जापान , जर्मनी के साथ विश्व युद्ध में शामिल हो गया और 16-फर.-1942 को जापान ने अंग्रेजों के विश्व प्रसिद्ध समुद्री गढ़ सिंगापूर पर कब्ज़ा कर लिया ! इसके बाद जापान ने मलय से म्यांमार तक का पूरा प्रदेश जीत लिया !
नेताजी ने अपना ध्यान दक्षिण-पूर्व एशिया की ओर केन्द्रित किया जहां बड़ी संख्या में भारतीय बसे थे इसीलिए यहाँ अंग्रेजी-राज के खिलाफ ओप्निवेशिक शासन विरोधी शक्ति की स्थापना की अच्छी संभावना थी !
                               आई.एन.ऐ का नेतृत्व और "अस्थायी सरकार " की स्थापना---------------------
इन दिनों भारत के पुराने और प्रसिद्ध क्रन्तिकारी रास बिहारी बोस जापान में थे ! इन्हीं रास बिहारी बोस की अध्यक्षता में बेंकाक में 14-जून से 23-जून-1942 के बीच एक सम्मलेन हुआ ,जिसे "बेंकाक सम्मलेन" के नाम से जाना जाता है ! इसमें जापान से लेकर म्यांमार तक के देशों में रहने वाले असंख्य भारतीय शामिल हुए !इस सम्मलेन में " भारतीय स्वतंत्रता लीग " की विधिवत घोषणा की गयी और सुभाष को वहाँ आने का निमंत्रण दिया गया !
इस निमंत्रण को स्वीकार कर सुभाष 8-फ़रवरी-1943 को जर्मनी से चले और जर्मनी से वह उत्तमाषा अन्तेरीप (cape of good hope) होते हुए , जर्मनी और जापानी पनडुब्बियों द्वारा ,तीन महीनों की यात्रा के बाद मई-1943 को टोक्यो पहुंचे !जापान के प्रधानमन्त्री तोजो ने उनका स्वागत किया !उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया की उनका एकमात्र लक्ष्य - भारत की स्वतंत्रता है ! उन्होंने जापान की यह मांग स्वीकार कर ली की युद्ध के दोरान भारत जापान का सहयोगी रहेगा ! सुभाष ने टोक्यो रेडियो से अंग्रेजों के खिलाफ और भारत की आजादी के लिए अपना प्रथम सन्देश दिया ! इसके बाद जापान ने उन्हें सिंगापूर में अपनी सेना बनाने में मदद की !
इस समय , सितम्बर-1942 तक कैप्टन मोहन सिंह के नेतृत्व में सिंगापुर में " आजाद हिंद फ़ौज " का गठन भी हो चुका था (जापान द्वारा सुदूर पूर्व में पकडे गए अंग्रेज सेना के भारतीय युद्ध-बंदियों को मिलाकर), जिसका उद्देश्य था-जापान की मदद से भारत को अंग्रेज राज से स्वतंत्रता कराना ! 2- जुलाई-1943 को सुभाष सिंगापुर पहुंचे जहां 5-जुलाई-1943 को हुए सम्मलेन में रास बिहारी बोस ने संगठन की अध्यक्षता सौंप दी और स्वयं आई.एन.ऐ. के परामर्शदाता बन गए ! सुभाष में शुरू से ही अद्भुत संगठन कोशल और नेतृत्व शमता थी उन्होंने एन.आई.ऐ. को दोबारा संगठित किया और दक्षिण-पूर्व एशिया में रहने वाली असंख्य प्रवासी भारतीय जनसँख्या के बीच उसे भारी लोकप्रियता दिलाई ! इन प्रवासी भारतीयों ने सुभाष के आह्वाहन पर न केवल आर्थिक मदद की बल्कि भारी संख्या में वह आई.ऍन. ऐ. में भर्ती भी हुए !इस समय इसमें लगभग 40,000 सैनिक थी और इसमें " झाँसी की रानी " नाम की एक महिला रेजिमेंट भी थी जिसकी नेता कैप्टन लक्ष्मी स्वामीनाथन सहगल थीं ! यह एशिया में अपनी तरह की पहली रेजिमेंट थी ! इससे स्पष्ट हो जाता है की उस समय भारतीयों में सुभाष किस तरह लोकप्रिय थे की उनके एक इशारे पर हजारों भारतीय पुरुषों के साथ-साथ महिलाएं भी अपने प्राणों की आहुति देने को तत्पर थीं !
21-अक्टूबर-1943 को सुभाष ने आजाद हिंद फ़ौज के सर्वोच्च सेनापति की हैसियत से सिंगापुरमें " स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार " ( अर्जी हुकूमत-ए-आजाद हिंद / Provisional Government of Free India ) की स्थापना की व 23- अक्टूबर-1943 को अस्थायी सरकार ने "मित्र राष्ट्रों " के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी ! !वह स्वयं इस अस्थायी सरकार के प्रधानमन्त्री और सर्वोच्च सेनापति बने और अपने पद की शपथ इन शब्दों में ली ,
" मैं सुभाष चन्द्र बोस ईश्वर की पवित्र सौगंध खाकर कहता हूँ की मैं भारत और उसके ३ करोड़ वासियों की स्वतंत्रता के लिए अपनी अंतिम सांस तक युद्ध करता रहूँगा !"
इस सरकार की स्थिति का अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं की इटली, आयरलैंड , जापान , चीन , जर्मनी ,जैसे संसार के 9 देशों ने इस अस्थायी सरकार को मान्यता दी थी और हाल की रिसर्चों के आधार पर पता चला है की इसे सोवियत रूस ने भी मान्यता दी थी ! इस अस्थायी सरकार ने 5-6 नवम्बर-1943 को टोक्यो में हुए " ग्रेटर ईस्ट एशिया कोंफ्रेंस " ( या टोक्यो कोंफ्रेंस ) में ओब्जर्वेर की हेसियत से भाग लिया !
7-जनवरी-1944 को नेताजी ने अस्थायी सरकार का मुख्यालय रंगून स्थानांतरित कर दिया !5-अप्रैल-1944 को " आजाद हिंद बैंक " का उदघाटन रंगून में हुआ ! इस अस्थायी सरकार की अपनी मुद्रा ,पोस्टेज स्टाम्प ,कोर्ट और सिविल कोड भी था !
जापान द्वारा अंडमान -निकोबार द्वीपों पर अधिकार करने के एक वर्ष पश्चात जापान ने 8-नवम्बर-1943 को अंदमान और निकोबार द्वीप समूहों को नेताजी की इस अस्थायी सरकार को सौंप दिया ! ले. कर्नल ऐ.डी. लोंगानाथन को यहाँ का आजाद हिंद गवर्नर बनाया गया !मेजर जर्नल लोंगानाथन प्रथम विश्व युद्ध के दोरान ब्रिटिश भारतीय सेना में भारतीय डॉक्टर थे ! द्वितीय विश्व युद्ध के दोरान सिंगापूर के पतन के पश्चात वह सुभाष चन्द्र बोस के नेतृत्व में आई.एन.ऐ में भर्ती हो गए थे !1943 के अंत में नेताजी स्वयं इन द्वीपों में आये ! अंडमान द्वीप का नाम " शहीद द्वीप " और निकोबार द्वीप का नाम " स्वराज द्वीप" रखा गया तथा स्वतंत्र भारत का झंडा यहाँ फेहराया गया !
फिर भी , इन द्वीपों के प्रशासन पर जापानी नोसेना का महत्वपूर्ण नियंत्रण बना रहा और नेताजी की इन द्वीपों की एकमात्र यात्रा के दोरान जापानी अधिकारीयों द्वारा उन्हें स्थानीय जनता से दूर रखा गया ! द्वीपवासियों ने उन्हें अपनी पीड़ा बताने की बहुत कोशिश की पर वे सफल न हो सके ! इस अधूरे प्रशासनिक नियंत्रण से क्रुद्ध होकर ले. कर्नल लोंगानाथन ने अपना पद त्याग दिया और रंगून में स्थित सरकार के हेड क्वार्टर में वापस पहुँच गए !
आई.एन.ऐ. की प्रथम जिम्मेदारी थी पूर्वोत्तर भारत में मणिपुर सीमा पर जापानी अभियान में साथ देना ! आई.एन.ऐ. की स्पेशल फोर्सिस ने , आंग सन ( म्यांमार की नेता "अंग-सान-सू-की" के पिता )और बा माव द्वारा संगठित " बर्मीज नॅशनल आर्मी " के साथ अराकान और कोहिमा व इम्फाल में शत्रु -सेना के विरुद्ध अभियान में बड़े पैमाने पर योगदान दिया ! उत्तर-पूर्व में मणिपुर के मोइरंग क्षेत्र में , भारतीय मुख्य-भूमि पर, भारतीय-तिरंगा पहली बार फेहराया गया!
इस सेना ने तामू,कोहिया ,पालेल,आदि स्थानों पर कब्ज़ा कर लिया और इम्फाल को घेर लिया पर वर्षा शुरू हो जाने से जापान की हवाई सहायता बंद हो गयी अत: सेना को पीछे लौटना पड़ा और उसे भारी नुक्सान हुआ ! जापान, बर्मा और आई.एन.ऐ की गाँधी और नेहरु ब्रिगेड ने ओपरेशन U-GO के अधीन कोहिमा और इम्फाल के नगरों की घेराबंदी की पर कोमन्वेल्थ शक्तियों से उन्हें जीत नहीं सके ! 12- अक्टूबर -1944 तक जापानियों और को भारत से पूरी तरह हट जाना पड़ा ! जापान की इस हार के साथ ही अस्थायी सरकार का भारत की मुख्य भूमि पर बेस बनाने का सपना भी टूट गया !
नेताजी को उम्मीद थी की जब ब्रिटिश भारतीय सेना के भारतीय सैनिकों को यह पता चलेगा की आई.एन.ऐ के सैनिक ब्रिटिश भारत पर बाहर से हमला कर रहे हैं , तो वह भी बड़ी संख्या में ब्रिटिश सेना को छोड़ देंगे ! पर दुर्भाग्य से , पर्याप्त पैमाने पर ऐसा नहीं हो सका ! इसके बजाय जब युद्ध में जापान की स्थिति बदतर हुई तो आई.एन.ऐ के सैनिकों ने उससे अलग होना शुरू कर दिया ! इसी समय सेना को दी जाने वाली जापान की आर्थिक मदद भी घट गयी !
आई.एन.ऐ को जापानी सेना के साथ पीछे लौटना पड़ा परन्तु बर्मा के तहत बर्मा की सुरक्षा के प्रति भी प्रतिबद्ध थी बर्मा समरभूमि में ब्रिटिश भारतीय सेना से निर्णायक युद्ध लड़ने पड़े ! रंगून के हाथ से निकलने से अस्थायी सरकार को बहुत बड़ा धक्का लगा और अस्थायी सरकार भंग हो गयी ! ले. कर्नल ऐ.डी. लोंगानाथन के नेतृत्व में आई.एन.ऐ के बहुत बड़े हिस्से ने ब्रिटिश भारतीय सेना के सामने आत्मसमर्पण कर दिया था ऐसे में बची हुई सेना बोस के साथ मलय की ओर प्रस्थान किया !
अनेक कठिनाइयों को झेलते हुए उन्होंने सेना का मनोबल बनाये रखा ! 4-जुलाई-1944 को बर्मा में आई.एन.ऐ. की रैली को संबोधित करते हुए नेताजी ने अपना सुप्रसिद्ध और जोशीला नारा दिया " तुम मुझे खून दो मैं तुन्हें आजादी दूंगा !" और भारत की जनता से अपील की की वह ब्रिटिश राज को ख़त्म करने में उनकी मदद करे !
6-जुलाई- 1944 को सिंगापूर में आजाद हिंद रेडियो से दिए गए अपने सन्देश में नेताजी ने ही महात्मा गाँधी को पहली बार " राष्ट्र पिता " कहा था ! उनके अन्य प्रसिद्ध नारे थे " दिल्ली चलो " और " जय हिंद " !
7-मई-1945 को जर्मनी ने आत्मसमर्पण कर दिया और 6 व 9 अगस्त-1945 को हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बमों का हमला होने के साथ ही जापान ने भी हार मान ली !
नेताजी को जापान की हार का अंदेशा था अत: उन्होंने जापान द्वारा रूस से सम्बन्ध स्थापित करना चाहा परन्तु जापानियों ने उनकी मदद नहीं की ! उनका मानना था की दिल्ली का रास्ता टोक्यो होकर नहीं मोस्को होकर जाता है !

                                       कथित म्रत्यु-------------
कहा जाता है की जब नेताजी टोक्यो जा रहे थे तब 18 -अगस्त-1945 में ताइपेइ (ताइवान की राजधानी ) में , वह जिस जापानी विमान से जा रहे थे वह दुर्घटनाग्रस्त हो गया और इस हादसे में नेताजी बुरी तरह घायल हुए और एक स्थानीय अस्पताल में 4 घंटे बाद उनकी म्रत्यु हो गयी ! वहीँ उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया ! इस घटना का आधार कैप्टन योशिदा तेनेयोशी (Captain Yoshida Taneyoshi) की गवाही मानी जाती है , जो की एक ब्रिटिश जासूस ( एजेंट 1189) था !
शव न मिलने के कारण उनके जीवित होने को लेकर कई तरह के अनुमान लगाये जाते हैं !
एक अनुमान के मुताबिक नेताजी की म्रत्यु विमान हादसे में न होकर , बाद में साइबेरिया में रूसी कैद के दोरान हुई !

                                      भारत सरकार की संदेहास्पद उदासीनता --------------------
इस मामले की जांच के लिए भारत सरकार द्वारा कई कमेटियां बनायीं गयीं ! मई-1946 को भारत सरकार ने नेताजी की कथित म्रत्यु की जांच करने के लिए चार सदस्यीय " शाह नवाज कमिटी " को जापान भेजा गया ! परन्तु , तब भारत सरकार ने , ताइवान सरकार से अपने राजनेतिक संबंधों के अभाव का हवाला देते हुए , ताइवान सरकार से जांच में सहयोग नहीं लिया !
परन्तु , इसके बाद 1999 में जस्टिस मुखर्जी की अध्यक्षता में बनाये गए "मुखर्जी आयोग " ने इस मामले की 1999 से 2005 तक जांच की ! आयोग ने ताइवान सरकार से संपर्क किया और एक महत्वपूर्ण खुलासा करते हुए बताया की 18 -अगस्त-1945 को नेताजी को ले जाने वाला विमान ताइपेइ में दुर्घटनाग्रस्त नहीं हुआ था , यहाँ तक की उस दिन तो ताइपेइ में कोई भी विमान दुर्घटना नहीं हुई थी !ताइवान सरकार के इस दावे की पुष्टि मुखर्जी आयोग को मिली " U.S. Department of State" की रिपोर्ट भी करती है !

पर यह कितनी बड़ी शर्म और संदेह की बात है की जब 8-नवम्बर- 2005 को आयोग ने अपनी रिपोर्ट केंद्र सरकार को सौंपी और 17-मई- 2006 को जाकर यह सदन में रखी गयी , इसमें कहा गया था की नेताजी की म्रत्यु विमान हादसे में नहीं हुई है और इस आधार पर टोक्यो (जापान) के रंकोजी मंदिर में रखी गयी अस्थियाँ भी उनकी नहीं हैं ! पर तत्कालीन यू.पी.ऐ. सरकार ने बिना कोई कारण बताये मुखर्जी आयोग की रिपोर्ट को अस्वीकृत (reject) कर दिया !

केंद्र सरकार के पास ऐसे अनेक दस्तावेज हैं जो नेताजी की रहस्यमय म्रत्यु और उनके लापता होने के राज से पर्दा उठा सकते हैं पर केंद्र सरकार उनका खुलासा नहीं करना चाहती क्योंकि उसका कहना है की ऐसा करने से भारत के अन्य देशों के साथ सम्बन्ध ख़राब हो सकते हैं !

इसी तरह 1992 में नेताजी को मरणोपरांत दिया गया सम्मान " भारत रत्न " भी सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर वापस ले लिया गया ! यह निर्णय ने सुप्रीम कोर्ट एक जनहित याचिका के सम्बन्ध में दिया था !
हाँ, सरकार ने इतना जरूर किया है की संसद भवन में उनकी एक तस्वीर टांगी गयी है , पश्चिम बंगाल की विधान सभा के सामने उनकी मूर्ती लगाईं है और दम-दम एयरपोर्ट (कलकत्ता ) का नाम नेताजी सुभाष चन्द्र बोस इंटर्नेशनल एयरपोर्ट कर दिया !

                                                                 गुमनामी बाबा ----------------
कई लोगों का मानना है की 1985 तक फैजाबाद (यू.पी.) के राम भवन में रहने वाले हिन्दू सन्यासी " भगवानजी " या " गुमनामी बाबा" वास्तव में सुभाष चन्द्र बोस ही थे ! लगभग चार अवसरों पर उन्होंने स्वयं यह कहा था की वह नेताजी ही हैं ! उनकी म्रत्यु के पश्चात कोर्ट के आदेश पर उनकी चीजों को कस्टडी में ले लिया गया ! बाद में ,मुखर्जी आयोग ने इनकी जांच की परन्तु किसी पक्के सबूत के अभाव में इस दावे को ख़ारिज कर दिया ! हालांकि , " हिन्दुस्तान टाइम्स " द्वारा की गयी स्वतंत्र जांच में यह संभावना व्यक्त की गयी की संभवत: वह नेताजी ही थे ! कुछ लोगों का मानना है की गुमनामी बाबा की म्रत्यु 16-सितम्बर-1985 को हुई थी पर कुछ ऐसा नहीं मानते हैं !
गुमनामी बाबा की कहानी उनकी म्रत्यु के बाद सामने आई थी ! कहा जाता है की उनका अंतिम संस्कार सरयू नदी के किनारे , रात के अँधेरे में केवल एक मोटरसायकल की हेडलाईट की रोशनी में , कर दिया गया था और उनकी पहचान छुपाने के लिए तेज़ाब डालकर उनका चेहरा भी ख़राब कर दिया गया था ! उनके अंतिम संस्कार के स्थान पर एक स्मारक बना है जहां फैजाबाद के बंगाली लोग आज भी उनके जन्मदिन पर श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं ! हालाँकि " भगवानजी " का जीवन और कार्य आज भी रहस्य ही हैं !

                                                 जस्टिस मुखर्जी का मत ------------------
जस्टिस मनोज कुमार मुखर्जी ने अपनी रिपोर्ट में इस सवाल पर की ' फैजाबाद के गुमनामी बाबा नेताजी थे या नहीं ' जवाब दिया था की ' जवाब देना जरूरी नहीं है !' क्योंकि कोई पक्के सबूत नहीं थे लेकिन एक डाक्यूमेन्टरी निर्माण के दोरान उन्होंने माना की उनके अनुसार भगवानजी ही " गुमनामी बाबा " थे ! इस रहस्योद्घाटन से इस सच्चाई को बल मिलता है की नेताजी 1945 के विमान हादसे में नहीं मारे गए थे बल्कि भारत में ही थे !
इतने सबूतों के बाद भी भारत सरकार की चुप्पी पर क्या कहा जा सकता है ?

                                         व्यक्तिगत जीवन -----------------
नेताजी ने अपनी ऑस्ट्रियन सेक्रेटरी एमिली से 1937 में विवाह किया था और उन दोनों की एक पुत्री हुई - अनीता बोस , जो की औग्स्बर्ग विश्वविध्यालय में अर्थशास्त्री हैं !
नेताजी का मानना था अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध में भगवद गीता प्रेरणा का महान स्त्रोत है! वह स्वयं को समाजवादी कहते थे और उनका मानना था की भारत में समाजवाद का जन्म स्वामी विवेकानंद जी के विचारों से ही हुआ है !
23-अगस्त-2007 को जापानी प्रधानमंत्री शिंजो आबे अपनी भारत यात्रा के दोरान सुभाष चन्द्र बोस मेमोरिअल हॉल (कलकत्ता) गए और उन्होंने नेताजी के परिवार से कहा , " जापानी बोस जी की ब्रिटिश राज के दोरान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व करने की अदम्य इच्छा से अत्यधिक द्रवित हैं और जापान में नेताजी बहुत ही सम्मानित नाम हैं !"

                                                       लाल किले पर नेताजी की कुर्सी ------------------
5-अप्रैल-1944 को रंगून में " आजाद हिंद बैंक " के उदघाटन के अवसर पर नेताजी ने जिस कुर्सी का प्रयोग किया था वही आज हम लाल किले पर रखी देखते हैं ! उदघाटन के बाद यह कुर्सी नेताजी के निवास स्थान (51, University Avenue, Rangoon) पर रख दी गयी ,जहाँ आजाद हिंद का ओफिस भी था !बाद में अंग्रेजों द्वारा रंगून पर कब्ज़ा कर लिया गया ! रंगून छोड़ते वक्त अंग्रेजों ने यह कुर्सी रंगून के मशहूर व्यवसायी ऐ.टी.आहूजा को सौंप दी ! भारत सरकार को आधिकारिक रूप से यह कुर्सी जनवरी-1979 को मिली ! 7-जुलाई-1981 को इसे लाल किले पर स्थापित कर दिया गया !

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