Friday, August 5, 2011

1947 के पूर्व की स्थिति-----------

 
1950 से 2006 तक के प्रस्ताव यहाँ समाविष्ट है। पहले के क्यों नहीं? संघ की स्थापना तो 1925 में हुई थी ? ऐसे प्रश्न किसी के मन में आ सकते हैं। उसका सरल कारण यह है कि, 1950 के पहले प्रस्ताव पारित नहीं होते थे। उस कालखण्ड में, स्वतंत्रता प्राप्त करना यही एक मात्र लक्ष्य था। और संघ की कार्यरचना उसी लक्ष्य को सामने रखकर की गयी थी। उस समय, जो प्रतिज्ञा स्वयंसेवक लेते थे, उसमें और आज की प्रतिज्ञा में थोड़ा अन्तर है। ''हिन्दु राष्ट्र को स्वतंत्र करने के लिये मैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का घटक बना हूँ'' - इस प्रकार की शब्दावली थी। अब उसके स्थान पर ''हिन्दु राष्ट्र की सर्वांगीण उन्नति करने के लिये मैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का घटक बना हूँ''- ऐसी शब्दावली है। इस शब्दावली से ही संघ के सामने का तत्कालिक लक्ष्य क्या था ? इसका पता चलता है। यह भी सब लोग भलीभांति जानते हैं कि संघ के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार बाल्यकाल से ही क्रांतिकारक प्रवृत्ति के धनी थे। डॉक्टरी पढ़ने के लिये जब वे कलकत्ता गये, तब क्रांतिकारियों के साथ उनका और घनिष्ठ सम्बन्ध आया। वे अनुशीलन समिति के अंतरंग सदस्य भी थे। क्रांतिकारियों की सब गतिविधियों का ज्ञान और तंत्र सीख कर वे नागपुर लौटे। किन्तु उनके जब यह ध्यान में आया कि जब तक क्रांतिकार्य के लिये समाज की सहानुभूति प्राप्त नहीं होगी और जब तक सामान्य जनमानस में स्वातंत्र्य की आकंक्षा उदित नहीं होगी तब तक क्रांतिकारियों का बलिदान और हौतात्म्य सफल नहीं होगा। तब उन्होंने अपने को राष्ट्रीय काँग्रेस के कार्य में स्वयं झोंक दिया। वहाँ अग्रेसर होकर कार्य करते समय, यह भी उनके ध्यान में आया कि केवल स्वतंत्रता की आकांक्षा सामान्य जनमानस में उत्पन्न होने से काम नहीं चलेगा। उस लक्ष्य को लेकर अग्रगामी कार्यकर्ताओं के एक संगठित गुट की भी आवश्यकता रहेगी। रेलगाड़ी का इंजिन जो काम करता है, वैसा काम यह नेतृत्व करेगा। इसी हेतु, उन्होंने हर शहर में तीन प्रतिशत और गांवों में एक प्रतिशत गणवेशधारी सदा सन्नद्ध तरुण स्वयंसेवक तैयार करने का लक्ष्य सामने रखा। अत: अपने कार्य का बहुत अधिक गाजावाजा वे नहीं चाहते थे। कार्य हो, उसके साथ जनता का परिचय हो, और कार्य के लक्ष्य के साथ समाज भावना जुड़ जाये, इसी हेतु से सारी रचना थी। एक घण्टे की पूर्व सूचना मिलते ही स्वयंसेवकों का एकत्रीकरण हो इसका अभ्यास भी उन्होंने शुरु किया था, जो 1947 तक कार्य का एक आवश्यक भाग था। इसके कारण संघ एक गुप्त संगठन है, ऐसा प्रचार भी होता था। संघ के विरोधी बीच-बीच में इस प्रकार के अपप्रचार की रट लगाते थे। महात्मा जी की 30 जनवरी को हत्या हुई, उसके एक दिन बाद तुरंत 31 जनवरी को, नागपुर की शाखा की ओर से उनको श्रद्धांजलि अर्पण करने हेतु, जो प्रात:काल में स्वयंसेवकों का एकत्रीकरण हुआ, उससे लोग चकित हुए थे और दुर्भावना से ग्रस्त लोगों ने यह भी प्रचार किया कि गांधीजी की हत्या संघ की साजिश है और यह बात संघ को ज्ञात होगी ही तभी तो इतनी सुबह हजारों का एकत्रीकरण हो सका। जिनको घण्टे-दो घण्टो की सूचना पर एकत्र आने का अभ्यास था, उनको कई घण्टे पहले सूचना मिलने पर एकत्र आना कौन सी कठिन बात थी। संघ की कार्यपद्धति से अनभिज्ञ लोग ही इस प्रकार के दुष्प्रचार से प्रभावित हुये थे। 1949 में, संघ का लिखित संविधान जब भारत सरकार को दिया गया, तब वहाँ की आजीवन प्रतिज्ञा का प्रावधान पढ़कर भारत सरकार के सचिव ने प.पू. गुरुजी को पत्र में लिखा था, कि आजीवन प्रतिज्ञा यह किसी गुप्त संगठन की विशेषता हो सकती है। इस आपत्ति को श्री गुरुजी ने करारा जवाब देकर गृह मन्त्रालय की इस टिप्पणी को खारिज किया, यह बात अलग है। किन्तु संघ के बारे में कुछ लोगों में यह धारणा थी, यह सत्य है। अत: समाज जीवन के अन्य विषयों के सम्बन्ध में कोई प्रस्ताव पारित होने का उस काल में सम्भव ही नहीं था।
15 अगस्त 1947 के बाद परिस्थिति में अन्तर आया। इस नयी परिस्थिति के परिप्रेक्ष्य में संपूर्ण समाज के संगठन के रूप में- न कि समाज के अन्दर एक संगठित टोली के रूप में- संघ का प्रस्तुतीकरण हुआ। अत: धीरे-धीरे इन सभी क्षेत्रों में संघ के कार्यकर्ता गये। साथ ही समाज के विभिन्न क्षेत्रों के सम्बन्ध में संघ की राय क्या है, यह बताना भी आवश्यक हो गया।
मैंने यहाँ पर संघ यह संपूर्ण समाज का संगठन है यह बात कही। इसकी पुनरुक्ति आवश्यक है। ''संपूर्ण समाज का संगठन''। समाज का ही राष्ट्र बनता है। People Are The NationA अंग्रेजी में अनेकों बार Nation के पर्याय के रूप में People शब्द आता है। संघ की प्रारंभ से ही यह मौलिक धारणा रही है कि यहाँ का हिन्दु समाज ही राष्ट्र है। वह समाज ही राष्ट्रीय है। हिन्दु शब्द का प्रयोग संघ में कभी भी विशिष्ट उपासना, पंथ या संप्रदाय के अर्थ में नहीं किया गया है। वह प्रत्येक व्यक्ति की अलग-अलग विशेषता हो सकती है। और संघ सभी विशेषताओं को मानता है, उनका आदर करता है। ऐसे अनेक संप्रदायों, पंथों तथा विश्वासों के लिये हिन्दु राष्ट्र में स्थान है। क्योंकि हिन्दु, विविधता का सम्मान करने वाला है। संघ ने 'राष्ट्रीय' अर्थ में ही 'हिन्दु' को प्रस्तुत किया है। उस का धयेय हिन्दुओं का संगठन करने का है। लेकिन उसका नामाभिधन 'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ' है। संघ के लिये 'हिन्दु' और 'राष्ट्रीय' समकक्ष है।
मुख्य और आनुषंगिक
समाज जीवन के अनेक क्षेत्र होते हैं। अनेक विधायें होती हैं। राजनीति, धर्म, अर्थ, शिक्षा, किसान, मजदूर, विद्यार्थी, शिक्षक, महिलाएं, वनवासी, कितने ही क्षेत्र गिनायें जा सकते हैं। संपूर्ण समाज का संगठन यानि इन सभी क्षेत्रों का संगठन और संगठन का अर्थ है एक समान राष्ट्रीय विचार से प्रत्येक क्षेत्र का अनुप्राणित होना और उस क्षेत्र के कार्यकर्ता चरित्र संपन्न होना। संगठन शब्द में जो 'सम' यह उपसर्ग है, उसका अर्थ ही केवल एकत्रीकरण नहीं, तो संस्कारयुक्त लोगों का एकत्रीकरण। चारित्र्य की शिक्षा और तद्नुसार आचरण को प्रेरित करने वाले संस्कारों की व्यवस्था वाला एकत्रीकरण हैं। संगठन केवल गठन नहीं, सम्यक् गठन होता है। सम्यक् गठन के लिये चारित्र्य युक्त लोगों का एकत्रीकरण अनिवार्य है। इस का और एक अर्थ यह होता है कि 'राष्ट्र' सर्वोपरि है, सर्वश्रेष्ठ है, बाकी क्षेत्र, कितने भी महत्त्व के हो, वे सारे राष्ट्र के सम्बन्ध में आनुषंगिक है। अत: संघ की दोनों अधिकारिणीयों द्वारा पारित प्रस्ताव, राष्ट्रजीवन को प्रभावित करने वाले, समाज जीवन के सभी क्षेत्रों के सम्बन्ध में है। कुछ लोगों का कहना है कि संघ अपने आप को सांस्कृतिक संगठन मानता है, वैसा बताता है फिर भी राजनीतिक विषयों पर प्रस्ताव पारित करता है यह कैसे ? इन लोगों की राष्ट्र और राज्य की संकल्पनाओं के अर्थछटाओं से अनभिज्ञता हो इस प्रश्न के मूल में है। राजनीतिक विषयों पर संघ के वही प्रस्ताव है, जो राष्ट्र जीवन पर, राष्ट्रीय मुख्य धारा पर प्रभाव डालते हैं।
राष्ट्र को खतरे
संघ का मूलभूत विचार यह है कि यह राष्ट्र एक है, इसकी संस्कृति एक है और जनता एक है। ''एक देश, एक जन, एक संस्कृति, एक राष्ट्र''- यह संघ की आरम्भ से ही आधारभूत भूमिका रही है। अत: देश की अखण्डता को जब-जब भी खतरे उत्पन्न हुये, संघ ने उनकी चेतावनी देने के लिये प्रस्ताव परित किये। 15 अगस्त 1947 को जब देश का विभाजन हुआ, तब, संघ के उस समय के सरसंघचालक श्री गुरुजी ने, अपने अनेक भाषणों में, उसका कड़ा विरोध किया। विभाजन के बाद, संघ, पाकिस्तान से आये अपने हिन्दु शरणार्थियों की सेवा में, उनके पुनर्वसन में जुट गया किन्तु, पाकिस्तान बनने मात्र से देश की अखण्डता को संभाव्य खतरे कम नहीं हुये। उत्तर-पूर्व में भारत को तोड़ने के षड्यंत्र चले। इसमें ईसाई मिशनरी संस्थाओं की अहम् भूमिका रहीं। नागालैण्ड टूटते-टूटते बच गया। मिजोरम, असम राज्य का एक छोटा सा जिला आज उसकी आबादी केवल सात लाख है, जब मिजोरम को स्वतंत्र राज्य के रूप में प्रस्थापित करने का हिंसक आंदोलन प्रारंभ हुआ, तब उसकी जनसंख्या तीन लाख भी नहीं थी। मिजो नेशनल फ्रंट का निर्माण हुआ। शासन ने कठोरता से उस उग्र आंदोलन को समाप्त तो किया, लेकिन उसका अलग से एक राज्य भी बना दिया। इसके द्वारा प्रोत्साहित होकर अन्य प्रदेशों में भी हिंसक आंदोलन चले। आज भी त्रिपुरा और मणिपुर में चल रहे हैं। जनजातियों में से विशिष्ट समूहों को ईसाई बनाकर उनको बगावत के लिये प्रोत्साहित किया जाता है। इस खतरे की ओर शासन और जनता का ध्यान आकर्षित करने हेतु, संघ के अनेक प्रस्ताव हैं।
मुसलमानों को पाकिस्तान का स्वतंत्र, स्वायत्त राज्य मिलने से भी उनका समाधान नहीं हुआ। पश्चिम पाकिस्तान की हिन्दु प्रजा को, पाकिस्तान से निकालने के लिये, उसी समय घोर अत्याचार किये गये। पाकिस्तान में हिन्दु आबादी का 18 प्रतिशत था। आज केवल 1 प्रतिशत है। पूर्व में जो पाकिस्तान का हिस्सा था, वहाँ से भी हिन्दुओं को भगाने का कार्यक्रम शुरू हुआ। अब वह हिस्सा पाकिस्तान का भाग नहीं है। बांगलादेश बन गया है। यह आजादी, उसको भारत की सहायता से प्राप्त हुई है। किन्तु बांगलादेश की सरकार कृतज्ञता भाव से शून्य है। वहाँ से भी हिंदुओं को भगाना चालू है। इतना ही नहीं तो उसकी जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा भारत में अवैध रूप से गत पचास वर्षों में घुसपैठ कर रहा है। यह सब वहाँ की सरकार की शह पर हो रहा है। असम और पश्चिम बंगाल के कई जिले मुस्लिम बहुल हो गये हैं, और कुछ होने की कगार पर है। जहाँ हिंदू अल्पसंख्यक हो जाता है, वह हिस्सा भारत से टूटने का खतरा पैदा होता है। राष्ट्र की अखण्डता को संभाव्य इस खतरे की ओर ध्यान खींचने वाले प्रस्ताव यहाँ है।
पंजाब और कश्मीर
पाकिस्तान 1971 में टूटा। इसका अमरिका स्थित कुछ षक्ति केंद्रों को बड़ा सदमा हुआ। मानो अमरिका ही टूटा। उन्होंने बदले की भावना से अभिभूत होकर पाकिस्तान के कंधो पर बंदूक रखकर भारत को तोड़ने का बीड़ा उठाया। प्रथम पंजाब को तोड़ने के प्रयास हुए और बाद में कश्मीर को। पंजाब में तो सफलता नहीं मिली। किन्तु कश्मीर अभी भी धाधाक रहा है। आतंकवाद अभी भी वहाँ कायम है। इन दोनों विषयों पर संघ के प्रस्ताव हैं। पंजाब के बारे में प्रस्ताव व तद्नुसार व्यवहार के कारण पंजाब का आतंकवाद समाप्त हुआ। गलत रास्ते पर जाने वाले सिक्खों के कारण हिन्दु मानस चिढ़कर अपने ही सिक्ख बंधुओं के खिलाफ खड़ा नहीं हुआ। आतंकवादी भी सिक्ख समाज की सहानुभूति निरन्तर प्राप्त नहीं कर सकें। पंजाब बच गया। संघ के सबसे अधिक प्रस्ताव कश्मीर के बारे में हैं। धारा 370, कश्मीर को भारत तोड़ने की धारा हैं। अलगाववाद की जननी है, भ्रष्टाचार को पोषित करने वाली है, अत: उसको समाप्त करना चाहिये, यह राष्ट्रहित की बात कई प्रस्तावों द्वारा नि:संदिग्ध शब्दों में बतायी गई है। किन्तु वह धारा अभी भी कायम है। संघ का सबसे नूतन प्रस्ताव 2002 में पारित हुआ, जिसमें जम्मू-कश्मीर राज्य की पुनर्रचना की मांग का समर्थन किया गया है।
राष्ट्र की एकरसता के लिये
अपना स्वतंत्र राष्ट्र है। उसके शासन की सार्वभौमता अबाधित रहे इस हेतु अमरिका के साथ संभाव्य आणविक समझौते के खिलाफ चेतावनी दी गयी है। अपना राष्ट्र 'एकात्म और एकरस रहे, इस हेतु जो वर्ग सचमुच पिछड़े हैं, या छुआछूत जैसी बुरी रूढ़ि के शिकार हुये थे, उनको समान बिन्दु पर लाने के लिये आरक्षण की सुविधा शासन द्वारा दी गयी है। उसके खिलाफ कही-कही पर जन-आंदोलन भी हुये थे। संघ ने आरक्षण का समर्थन करने वाला प्रस्ताव 1981 में ही पारित किया था, जो आज भी सार्थक है। मुसलमान हो या ईसाई, उनको अपनी उपासना के लिये स्वतंत्रता रहे इसका संघ ने हमेशा समर्थन किया है। किन्तु व्यक्तिधर्म की स्वतंत्रता होते हुए भी समान समाजधर्म और राष्ट्रधर्म के पालन की आवश्यकता को भी संघ ने अधोरेखित किया है। समान नागरी संहिता का संघ पक्षधर है, यह बताने वाला एक प्रस्ताव है। मुसलमान और ईसाई अपने अनुयायियों की संख्या बढ़ाने पर लगे हैं। संविधान की धारा 24 में, सभी मजहबों, सम्प्रदायों, पंथों, विश्वासों को आचरण और प्रसार का मौलिक अधिकार दिया गया है। किन्तु मुसलमान और ईसाई इस प्रावधान का दुरुपयोग कर, अपनी संख्या बढ़ाने के लिये प्रलोभन और आतंक का सहारा लेते हैं। स्वयं गलत काम करते हैं। उसके खिलाफ जनता में प्रतिक्रिया प्रकट हुई तो बिना छानबीन के संघ पर निरर्गल आरोप मढ़ देते हैं। इस अहितकारी गतिविधियों का निषेध करने वाले प्रस्ताव हैं। इस साजिश को रोकने के लिये, 1979 में श्री ओम प्रकाश त्यागी जी ने एक प्रस्ताव संसद में रखा था। वह उनको वापस लेना पड़ा। किन्तु अब कई राज्यों की सरकारों को यह महसूस हुआ है कि धारा 24 का दुरूपयोग ईसाई मिशनरी कर रहें हैं। इन राज्यों ने 'धर्म स्वातंत्र्य' के गलत उपयोग के खिलाफ कानून किये हैं। मध्य-प्रदेश और उड़ीसा की कांग्रेस सरकारों ने इसके बारे में पहले से ही कानून किये हुये थे। उस सूचि में अब गुजरात, छत्तीसगढ़ और हिमाचल प्रदेश भी अंतर्भूत हो गये हैं। तमिलनाडु में भी यह कानून पारित हुआ था। किन्तु संकुचित राजनीतिक स्वार्थ के कारण उसी सरकार ने उसको निरस्त किया। इसमें विशेष उल्लेखनीय बात यह है कि सन् 2004 में हिमाचल प्रदेश की कांग्रेस सरकार ने भी यह कानून अभी-अभी पारित किया है। किन्तु आवश्यकता तो केन्द्र शासन में यह प्रस्ताव पारित करने की है, तथा उन्हीं पंथो, संप्रदायों और मजहबों को प्रचार और प्रसार की छूट रहे, जो अन्य पंथों, संप्रदायों, तथा विश्वासों के अस्तित्व को मान्यता देते हैं। इस हेतु संविधान में संशोधन की भी आवश्यकता है।
अपने देश को समृद्ध बनाने के लिये, तथा ग्रामीण जनता के विकास के लिये गोरक्षा आवश्यक है। पूरे देश में यह कानून होना चाहिये, इस संघ के आग्रह को प्रकट करनेवाले भी प्रस्ताव हैं। आर्थिक क्षेत्र में अपना देश आत्मनिर्भर रहे, इस हेतु स्वदेशी का आग्रह संघ द्वारा अनेकों बार प्रकट किया हुआ है। उसके सम्बन्ध में भी प्रस्ताव हैं।
मान बिन्दुओं की पुन: प्रतिष्ठा
प्रत्येक राष्ट्र का एक इतिहास होता है। भारत का भी गौरवपूर्ण प्राचीन इतिहास है। इस प्रदीर्घ इतिहास में, राष्ट्र के कुछ मानबिन्दु निश्चित हुए हैं। मानव जीवन के उदात्त मूल्य प्रस्थापित करने के लिये, अपने स्वार्थ के बलिदान द्वारा कीमत चुकाने वाले महापुरुष हुए हैं। ये सारे हमारे सांस्कृतिक आदर्श हैं। उनकी उपासना के लिये उनके मंदिर भी खड़े किये हैं। ये सारे मंदिर पवित्रता के प्रतीक हैं। शत्रु इन्हें नष्ट, भ्रष्ट करने पर तुले रहते हैं। पराजितों को और अपमानित करना यही उनका लक्ष्य रहता है। आठवी शताब्दी से पश्चिम की ओर से, इस्लाम के अनुयायी राष्ट्रों ने भारत पर जो आक्रमण किया, वे यहाँ के मानबिन्दुओं पर आघात करने से नहीं चूके। बाबर, औरंगजेब आदि अनेक मुस्लिम शासकों ने हिन्दुओं की भावनाओं पर चोट पहुँचाने के लिए ही, इन मानबिन्दुओं पर आघात किये। अयोध्या, काशी और मथुरा, ये भगवान् श्रीराम, भगवान् शिव और भगवान् श्रीकृष्ण की प्रतिमाओं से मंडित पवित्र स्थान हैं। दुष्ट आक्रान्ताओं ने उन पर आक्रमण कर उन्हें भ्रष्ट करने का जी तोड़ प्रयास किया। इनमें उनको सफलता भी मिली। उनके आक्रमण के और राष्ट्र के अपमान के प्रतीक अभी भी खड़े है। कोई भी स्वाभिमानी राष्ट्र ऐसे अपमान के प्रतीकों को बर्दाश्त नहीं करता। उनको उखाड़ कर फेंक देता है। किन्तु लज्जा की बात यह है कि भारत में ये अपमान के स्मारक अभी खड़े हैं। समाज के धुरंधर नेताओं को यह अपमान के प्रतीक चुभते नहीं, यह और भी शर्मनाक बात हैं। इन सब पवित्रतम् स्थानों के अपमान का कलंक धो डालने हेतु अनेक संस्थाए खड़ी हुई हैं। उनके शांतिपूर्ण आंदोलन भी चले हैं। अपने ही लोग इन आंदोलनों की उनको सांप्रदायिक कहकर निंदा करते हैं। रा.स्व.संघ, इन स्थानों की पुन: प्रतिष्ठा का पक्षधर है। रामजन्मभूमि को मुक्त करने के आंदोलन का वह प्रखर पक्षधर हैं। काशी और मथुरा की मुक्ति भी वह चाहता है। इन मानबिन्दुओं के अपमान चिन्हों को नष्ट कर उन्हें पुन: गौरवान्वित करने की उस की चाह को आविष्कृत करने वाले प्रस्ताव भी यहाँ है।
सभी विषयों का परामर्श तो प्रस्तावना में नहीं लिया जा सकता, न ही उसकी आवश्यकता है। संक्षेप में इतना ही बताया जा सकता है कि ये सारे प्रस्ताव राष्ट्र की आत्मा की वेदना उसकी चाह तथा उसका स्वाभिमान प्रकट करने वाली सच्ची राष्ट्रभक्ति की जो भावना होती है, उसका आविष्कार करते हैं। संघ को समझना यानि राष्ट्रभक्ति की भावना को समझना है। इस हेतु इन प्रस्तावों का वाचन, अध्ययन और मनन सभी के लिये उपयुक्त रहेगा, ऐसा मेरा विश्वास है।

'१५ अगस्त का ऐतिहासिक महत्व'----------


१५ अगस्त कैलंडर(२०११) ग्रेगोरी कैलंडर के अनुसार वर्ष का २२७वॉ (लीप वर्ष मे २२८ वॉ) दिन है। साल मे अभी और १३८ दिन बाकी है।
१५ अगस्त का ऐतिहासिक महत्व को प्रदर्शित करने वाली कुछ प्रमुख घटनाएँ निम्नलिखित हैं---
(१) सन् १९४५- जापान का आत्म समर्पण, मित्र राष्ट्रों में खुशी की लहर
(२) सन् १९४७-भारतीय स्वतंत्रता दिवस। सन् १९४७ ईसवी को वर्षो तक ब्रिटिश साम्राज्यवाद के पिरुद्ध संघर्ष करने के पश्चात भारत की जनता इस देश को स्वतंत्र कराने में सफल हुई। १६वीं शताब्दी में अंग्रेज़ों ने भारत में अपना प्रभाव बनाना आरंभ कर दिया था। और १७वीं शताब्दी में ब्रिटेन ने भारत में अपने योरोपीय प्रतिद्वन्द्वी फ़्रांस और इसी प्रकार तैमूरी मुग़लों को पराजित करके इस देश पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया। भारतीय जनता ने अंग्रेज़ों के विरुद्ध कई बार आंदोलन छेड़ा किंतु अंग्रेज़ों ने उसे कुचल दिया। सन् १८९५ में भारतीय नेशनल कॉग्रेस का गठन हुआ और फिर जनता के आंदोलन संगठित होने लगे। स्वतंत्रता आंदोलन से महात्मा गांधी के जुड़ने और उनके नेतृत्व में सत्याग्रह और असहयोग आंदोलनों के कारण ब्रिटेन को सन् १९४७ में अपने सबसे बड़े उपनिवेश से हाथ धोना पड़ा।
(३) सन् १९४७- बलुचिस्तान पाकिस्तान में मिल गया।
(४) सन् १९४७- हैदराबाद के निजाम ने भारत में विलय से इनकार कर स्वतंत्र रहने की घोषणा की।
(५) सन् १९४८- कोरिया प्रायद्वीप के विभाजन के पश्चात दक्षिणी केरिया नामक एक स्वाधीन देश अस्त्तिव में आया। बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में कोरिया प्रायद्वीप को चीन व जापान जैसे क्षेत्र के बड़े देशों के अतिक्रमण और अतिग्रहण का सामना करना पड़ा। सन् १९०५ में जापान ने कोरिया पर अधिकार कर लिया। परंतु द्वितीय विश्व युद्ध में जापान की पराजय के बाद सोवियत संघ ने इसके उत्तरी भाग पर और अमरीका ने दक्षिणी भाग पर अधिकार कर लिया। चूंकि उत्तरी कोरिया में सोवियत संघ और कम्यूनिज्म की और दक्षिण में पश्चिमी देशों की पक्षधर की पक्षधर सरकार थी इस लिए कोरिया प्रायद्वीप दो अलग देशैं में विभाजित हो गया।
(६) सन् १९६०- कॉगो गणराज्य में फ़्रांस से स्वतंत्रता मिली। अतीत में कॉगो पश्चिमी अफ़्रीक़ा का एक भाग था जिसमें वर्तमान अंगोला और कॉगों डेमोक्रेटिक भी शामिल थे। पुर्तग़ालियों ने १५वीं शताब्दी में इसक्षेत्र की खोज की परंतु यह देश वर्षों तक फ़्रांस का उपनिवेश रहा।
(७) सन् १९७५- बंग्लादेश के तत्कालीन राष्ट्रपति शेख मुजिबुर रहमान, बांगलादेश के राष्ट्राध्यक्ष की एक सैनिक विद्रोह में हत्या कर दी गयी। वे बंग्लादेश की स्वाधीनता के संस्थापकों में थे ।
(८) सन् १९९०- रुस के तत्कालीन राष्ट्रपति मीखाईल गोरबाचोफ ने इस देश के नोबल पुरुस्कार विजेता लेखक एलैग्ज़न्डर सोलहेनित्सिन को दोबारा रुस की नाग़रिकता दी। उन्हें सन् १९७४ में भयावह उपन्यास लिखने के कारण देश से निकाल दिया गया था।
१५ अगस्त को निम्नलिखित कुछ प्रसिद्द व्यक्तियों के जन्मदिन हैं:-
(१) सन् १००१ - डंकन पहिला, स्कॉटलैण्ड का राजा.
(२) सन् १७६९ - नेपोलियन बोनापार्ट, फ्रांस का सम्राट.
(३) सन् १८१३ - जुल्स ग्रेव्ही, फ्रांस के राष्ट्राध्यक्ष
(४) सन् १८७२ - श्री अरविंद, भारतीय तत्त्वज्ञानी
(५) सन् १८८६ - बिल व्हिटली, ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट खिळाडी
(६) सन् १९२२- लुकज़ फ़ॉस, जर्मन संगीतकार (निधन-सन् 2009)
(७) सन् १९२७ - एडी लेडबीटर, अँग्रेज क्रिकेट खिळाडी
(८) सन् १९४५ - बेगम खालिदा जिया, बांगलादेश की प्रधानमंत्री
(९) सन् १९४७ - राखी गुलझार, भारतीय अभिनेत्री.
(१०) सन् १९५१ - जॉन चाइल्ड्स, अँग्रेज़ क्रिकेट खिळाडी
(११) सन् १९५१ - रंजन गुणतिलके, श्रीलंकाई क्रिकेट खिळाडी
(१२) सन् १९६३ - जॅक रसेल, अँग्रेज क्रिकेट खिळाडी
(१३) सन् १९६८ - डेब्रा मेसिंग, अमेरिकन अभिनेत्री.
(१४) सन् १९७२ - बेन ऍफ्लेक, अमेरिकन अभिनेता.
(१५) सन् १९७५ - विजय भारद्वाज, भारतीय क्रिकेट खिळाडी
१५ अगस्त को निम्नलिखित कुछ प्रसिद्द व्यक्तियों का निधन हुआ:-
(१) सन् १०३८ - स्टीवन पहिला, हंगरी का राजा.
(२) सन् १०४० - डंकन पहिला, स्कॉटलंड का राजा.
(३) सन् १०५७ - मॅकबेथ, स्कॉटलंड का राजा
(४) सन् १११८ - ऍलेक्सियस पहिला कॉम्नेनस, बायझेन्टाई सम्राट.
(५) सन् १९३५ - विल रॉजर्स, अमेरिकी अभिनेता.
(६) सन् १९७५ - शेख मुजिबुर रहमान, बांगलादेश के राष्ट्राध्यक्ष
(७) सन् २००४ - अमरसिंह चौधरी, गुजरात के मुख्यमंत्री
इतिहास की संपूर्णता असाध्य सी है, फिर भी यदि हमारा अनुभव और ज्ञान प्रचुर हो, ऐतिहासिक सामग्री की जाँच-पड़ताल को हमारी कला तर्कप्रतिष्ठत हो तथा कल्पना संयत और विकसित हो तो अतीत का हमारा चित्र अधिक मानवीय और प्रामाणिक हो सकता है। सारांश यह है कि इतिहास की रचना में पर्याप्त सामग्री, वैज्ञानिक ढंग से उसकी जाँच, उससे प्राप्त ज्ञान का महत्व समझने के विवेक के साथ ही साथ ऐतिहासक कल्पना की शक्ति तथा सजीव चित्रण की क्षमता की आवश्यकता है । स्मरण रखना चाहिए कि इतिहास न तो साधारण परिभाषा के अनुसार विज्ञान है और न केवल काल्पनिक दर्शन अथवा साहित्यिक रचना है । इन सबके यथोचित संमिश्रण से इतिहास का स्वरूप रचा जाता है ।

'क्रांति के नायक नेताजी सुभाषचन्द्र बोस'--------


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नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के जीवन के कुछ महत्वपूर्ण क्षण-----
सन्‌ १८९७, २३ जनवरी - कटक उड़ीसा में सुभाष चन्द्र बोस का जन्म |सन्‌ १९०२ - पाँच वर्ष की आयु में बालक सुभाष का अक्षरारंभ संस्कार संपन्न हुआ ।
सन्‌ १९०८ - ग्यारह वर्ष की आयु में उन्होने आर. कालेजियट स्कूल में प्रवेश लिया और यहीं उनका अपने शिष्य बेनी प्रसाद जी से परिचय हुआ ।
सन्‌ १९१६ - अंग्रेज प्रोफेसर ओटन द्वारा भारतीयों के लिए अपशब्द प्रयोग करना सहन नहीं हुआ और उन्होंने उस प्रोफ़ेसर की पिटाई कर दी |
सन्‌ १९२० - आई. सी. एस. से त्यागपत्र । सन्‌ १९२४ - गिरफ्तारी मांडले जेल में प्रवास ।
सन्‌ १९२७ - काँग्रेस आन्दोलन के मंच से सीधी कार्यवाही का प्रयास ।सन्‌ १९३३ - यूरोप में भारतीय पक्ष का प्रचार ।सन्‌ १९३७ - सुभाषचन्द्र बोस ने उत्तर भारत की अपनी धर्मयात्रा को आधार बनाते हुए अपनी आत्मकथा 'An Indian Pilgrim' लिखी |
सन्‌ १९४१ - ग्रेट एस्केप ।
सन्‌ १९४३ -आजाद हिन्द फौज व अन्तिम सरकार का गठन ।
सन्‌ १९४५ - भारत को मुक्‍त कराने के लिए आक्रमण, चलो दिल्ली चलो का आह्‌वान |
सन्‌ १९४५, १९ दिसम्बर - मन्चूरिया रेडियों से अंतिम सन्देश |
श्री जानकी नाथ बोस व श्रीमती प्रभा देवी की जी के बड़े परिवार में २३ जनवरी सन्‌१८९७ को उड़ीसा के कटक में उन्होंने जन्म लिया | प्रारम्भ से ही राजनीतिक परिवेश में पलेबढे सुभाष के घर का वातावरण कुलीन था | मेधावी सुभाष के विचारों पर स्वामी विवेकानंद का गहन प्रभाव था तथा उनको आध्यात्मिक गुरु मानते थे | स्वामी विवेकानंद के साहित्य से सुभाष का लगाव प्रभावी रूप में है | सुभाष लगभग 5 वर्ष के थे तब विवेकानंद का देहावसान हुआ था | सुभाष के लिए विवेकानंद गुजरे ज़माने के दार्शनिक नहीं थे बल्कि कीर्तिमान भारतीय थे | स्वामी विवेकानंद को पढ़कर सुभाष की धार्मिक जिज्ञासा प्रबल हुई थी|
सन्‌ १९०२ में पाँच वर्ष की आयु में बालक सुभाष का अक्षरारंभ संस्कार संपन्न हुआ । वे कटक के मिशनरी स्कूल मे पढते थे । सन्‌ १९०८ में ग्यारह वर्ष की आयु में उन्होने आर. कालेजियट स्कूल में प्रवेश लिया । यहीं उनका अपने शिष्य बेनी प्रसाद जी से परिचय हुआ । इनके राष्ट्रीय विचारों और व देशभक्ति से ओत-प्रोत व्यक्तित्व का सुभाष पर गहरा प्रभाव पडा । सन्‌ १९१५ में सुभाष ने प्रेसीडेन्सी कॉलेज में प्रवेश लिया और दर्शन शास्त्र को अपना प्रिय विषय चुना ।अपनी भारत माँ को पराधीनता से मुक्त करने के उनके अभियान का प्रारम्भ उस घटना से हुआ, जब सन्‌ १९१६ में विद्यार्थी जीवन काल में अंग्रेज प्रोफेसर ओटन द्वारा भारतीयों के लिए अपशब्द प्रयोग करना उनसे सहन नहीं हुआ और उन्होंने उस प्रोफ़ेसर ओटन को थप्पड मार दिया और उसकी पिटाई कर दी | परिणाम स्वरूप विख्यात प्रेसिडेंसी कालेज से उनको निकाल दिया गया । सन्‌ १९१७ में श्री श्यामाप्रसाद मुखर्जी के पिता आशुतोष मुखर्जी प्रयास से उनका निष्कासन रद्द हुआ । अब उनकी गणना विद्रोहियों में होने लगी | इसके पश्चात प्रिंस ऑफ़ वेल्स के आगमन पर सन्‌ १९२१ में उनको बंदी बनाया गया क्योंकि वह उनके स्वागत में आयोजित कार्यक्रम का बहिष्कार कर रहे थे|
राय बहादुर की उपाधि से विभूषित उनके पिता पाश्चात्य सभ्यता के रंग में रंगे थे और उनको सिविल सेवाओं में देखना चाहते थे,परन्तु सिविल सेवाओं की परीक्षा-परिणाम की रेंकिंग में चतुर्थ स्थान प्राप्त करने वाले सुभाष को अंग्रेजों की जी हजूरी कर अपने भाइयों पर अत्याचार करना पसंद नहीं था, कुछ समय उन्होंने विचार किया और हमारे देश के महान सपूत मह्रिषी अरविन्द घोष जिन्होंने स्वयं सिविल सेवाओं का मोह छोड़ देश की आजादी के संघर्ष को अपना धर्म माना था के आदर्श को शिरोधार्य कर अपना ध्येय अपनी भारतमाता की मुक्ति को बनाया और भारत लौट आये |
भारत में वह देशबंधु चितरंजन दास के साथ देश की आजादी के लिए बिगुल बजाना चाहते थे, उनको वह अपना राजनीतिक गुरु मानते थे, परन्तु रविन्द्रनाथ टेगोर ने उनको पहले महात्मा गांधी से मिलने का परामर्श दिया | सुभाष गांधीजी से भेंट करने गए,विचार-विमर्श किया |
भारतीय स्वतंत्रता के लिए अपने सर्वस्व का त्याग करने वाले क्रांति के नायक नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के सन्दर्भ में स्वतंत्र भारत की लोकतान्त्रिक सरकार की निम्न निंदनीय गतिविधियाँ हम सभी जागरूक भारतीयों के लिए विचारणीय हैं------
(१) नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के चित्रों को सरकारी कार्यालय आदि स्थानों पर लगाये जाने पर पाबन्दी क्यों लगाई गयी? यह पाबन्दी भारत सरकार की सहमति पर बम्बई सरकार ने ११ फरवरी सन्‌ १९४९ को गुप्त आदेश संख्या नं० 155211 के अनुसार प्रधान कार्यालय बम्बई उप-क्षेत्र कुलाबा-६ द्वारा लगाई गई ।
(२) नेताजी को अन्तर्राष्ट्रीय युद्ध अपराधी भारतीय नेताओं ने क्यों स्वीकार किया? अन्तर्राष्ट्रीय अपराधी गुप्त फाईल नं० 10(INA) क्रमांक २७९ के अनुसार नेताजी को सन्‌ १९९९ तक युद्ध अपराधी घोषित किया गया था, जिस फाईल पर आज़ाद भारत के तत्कालीन प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के हस्ताक्षर हैं । परन्तु 3-12-1968 में यू.एन.ओ. परिषद के प्रस्ताव नं० 2391/ xx3 के अनुसार सन्‌ १९९९ की बजाय आजीवन युद्ध अपराधी घोषित किया जिस पर आज़ाद भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरागांधी के हस्ताक्षर हैं ।
अगस्त सन्‌ २००२ में भारत सरकार द्वारा गठित मुखर्जी आयोग के सदस्यों को तब करारा झटका लगा, जब ब्रिटिश सरकारसे नेताजी सुभाष चन्द्र बोस जी से सम्बंधित गोपनीयदस्तावेजों की माँग की तथा ब्रिटिश सरकार ने मुखर्जी आयोग के सदस्यों को सुरक्षा कारणों का हवाला देते हुए वापिस लौटा दिया तथा सन्‌२०२१ से पहले अपने अभिलेखागार से कोई भी महत्वपूर्ण दस्तावेज जो नेताजी से सम्बंधित है,उनको देने से इन्कार कर दिया एवं मुखर्जी आयोग के सदस्य १३ अगस्त सन्‌ २००१ को लाल कृष्ण आडवाणी,तत्कालीन गृहमंत्री, भारत सरकार से मिले थे तथा आयोग के सदस्यों ने गृहमंत्री भारत सरकार से आग्रह किया था कि भारत सरकार लंदन में उनके लिए दस्तावेजों की उपयोगी सामग्री दिलाने के लिए समुचित कदम उठाए एवं आयोग के सदस्यों ने गृहमंत्री भारत सरकार से यह भी कहा था कि रूस के लिए भी सरकारी रूप से पत्र लिखें जिससे रूस भी ब्रिटिश सरकार पर दबाव डाले और आयोग के सदस्यों को दस्तावेज मिल सकें।यदि उस समय श्री अटल बिहारी वाजपेयी, तत्कालीन प्रधानमंत्री, भारत सरकार, सरकारी तौर पर ब्रिटेन पर दबाब डालते तो गोपनीयता समझौतों के दस्तावेज प्राप्त किये जा सकते थे । इसलिए तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी तथा तत्कालीन गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी का मौन रहना भी कोई राज की बात है तथा नेताजी के विरूद्ध हुए समझौतों को स्वीकृति देना है ।
नेताजी के विषय में भ्रमित भारतीयों के प्रश्नों के उत्तर भी भ्रम को दूर कर सकने में असमर्थ ही रहे हैं ----
अनेक प्रमाणों से अब जबकि सिद्ध हो चुका है कि नेताजी की मृत्यु वायुयान दुर्घटना में नहीं हुई थी और न ही आज सरकार के पास नेताजी के मृत्यु की कोई निश्‍चित तारीख है । इसके साथ ही खण्डित भारत सरकार शाहनवाज जांच कमेटी तथा खोसला आयोग द्वारा भी नेताजी की वायुयान दुर्घटना में मृत्यु सिद्ध नहीं कर पाई।उपरोक्‍त दोनों जांच समितियों की रिपोर्ट से भारत के लोगों को नेताजी के विषय में गुमराह करने का षड्‍यंत्र रचा । इस षड्‍यन्त्र से भारतीय लोगों के दिमाग में तरह-तरह के सवाल उठना जरूरी है । कुछ ऐसे प्रश्नों के उत्तर सुभाषवादी जनता (बरेली) की सन्‌ १९८२ में प्रकाशित एक “नेताजी प्रशस्तिका” में दिए गए हैं ।अब यह ज्वलंत प्रश्न है कि आज जो देश की हालत है उसे देखकर क्या नेताजी चुप रह सकते थे?अब यह एक और ज्वलंत प्रश्न है कि क्या नेताजी जैसा देशभक्‍त इतने लम्बे समय तक छिपकर बैठ सकता था ?इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि कौन सा ऐसा महान क्रान्तिकारी है जो छुप कर न रहा हो ? यथा--
(१) जरा सोचो रामचंद्र जी को अवतार माना जाता है, फिर उन्होंने छिपकर बाली को बाण क्यों मारा ?
(२) क्या पाण्डव छिपकर जंगलों में नहीं रहे थे ?
(३) क्या अर्जुन ने स्वयं को बचाने के लिए स्त्री का रूप धारण नहीं किया था ?
(४) क्या हजरत मौहम्मद साहब जिहाद में अपनी जान बचाने के लिए छिपकर मक्‍का छोड़कर मदीना नहीं चले गये थे ?
(५) क्या छत्रपति शिवाजी कायर थे, जो औरंगजेब की कैद से मिठाई की टोकरी में छिपकर निकले थे ?
(६) क्या चन्द्रशेखर आजाद और भगतसिंह समय-समय पर भूमिगत नहीं हुये थे ?
(७) क्या चे गोवेरा तथा मार्शल टीटो जैसे विश्‍व के महान क्रान्तिकारी अपनी जिन्दगी में अनेक बार भूमिगत नही हुये थे?क्या उपरोक्‍त सभी महान क्रान्तिकारी कायर थे ?
यह सभी क्रान्तिकारी बहुत साहसी थे और वे केवल अपने उद्देश्यों के लिये भूमिगत हुए थे । जबकि नेताजी इन क्रान्तिकारियों के गुरू भी हैं तथा नेताजी की लड़ाई तो पूरे विश्‍व में साम्राज्य के खिलाफ है । इसलिये नेताजी किसी भय से नहीं अपितु अपने महान उद्देश्य को पूरा करने के लिये भूमिगत हुए ।
जब नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने गृहत्याग किया, तब उनके परिवार वाले रोये और बिलखे | उस समय परिवार में बच्चों की संख्या अधिक होती थी, लेकिन इससे उनकी महत्ता कम नहीं होती थी | सुभाषचन्द्र बोस ने उत्तर भारत की अपनी धर्मयात्रा को आधार बनाते हुए अपनी आत्मकथा सन्‌ १९३७ में 'An Indian Pilgrim' के नाम से लिखी, इस तरह की यात्रायें और गोपनीयता,सर्वस्व का त्याग और अबूझ की तलाश सुभाष के जीवन यात्रा की अनिवार्यता बन गयी थी | देश की स्वतन्त्रता के लिए सुभाषचन्द्र बोस कुछ भी कर सकते थे. यह कुछ भी कर सकना कामयाब हुआ क्योंकि अंग्रेजी सरकार की फ़ौज में क्रांति की भावना स्थायी तौर पर घर कर गयी | आज़ाद हिंद फ़ौज के बाद रायल इन्डियन नेवल म्युटिनी ने अंग्रेजी सरकार को कंपा दिया था | ब्रिटिश फ़ौज का अब आखिरी सहारा भी भरोसे का नहीं रहा था | माउन्टबेटन को जल्दबाजी में वायसराय बना कर लाया गया ताकि भारत को आज़ादी दे कर ब्रिटिश यहाँ से प्रतिष्ठापूर्वक निकल सकें | साम्राज्य को सांघातिक चोट पहुचाने का कार्य सुभाष चन्द्र बोस ने किया था |
यह बहुत कम व्यक्ति जानते हैं कि नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने एक कविता सन्‌ १९३० में लिखी थी---
"जीवन धाराजितना अधिक त्याग करेंगे,
हम जीवन काउतने ही वेग से प्रवाहित होगी,
जीवनधाराजीवन चलेगा तब अंतहीन,
बहुत कुछ है कहने के लिएऔर....
जीवन-शक्ति है भरपूर मुझ में,
बहुत सी खुशियाँ हैं यहाँ,
बहुत सी हैं अभिलाषाएं,
इन सब से परिपूर्ण मात्र हैजीवनधारा...."
यह याद रहे कि व्यक्‍ति जितना महान होता है, उसका उद्देश्य भी उतना ही महान होता है ।प्रश्न यह है कि नेताजी का क्या उद्देश्य है ? प्रश्न यह है कि यदि नेताजी जीवित हैं तो क्यों नहीं आते ?इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने सन्‌ १९३१ में कहा था “इस समय हमारा एक ही लक्ष्य है- “भारत की स्वाधीनता” | नेताजी भारत के विभाजन के विरूद्ध थे । उन्होंने यह भी कहा था कि “हमारा युद्ध केवल ब्रिटिश साम्राज्य से नहीं बल्कि संसार के साम्राज्यवाद के विरूद्ध है । अतः हम केवल भारत के लिये ही नहीं बल्कि मनुष्य मात्र के हितों के लिये भी लड़ रहे हैं । भारत की पूर्ण स्वतंत्रता का अर्थ है- समस्त मानव जाति का भय मुक्‍त हो जाना । "भारतीय स्वाधीनता संग्राम के महत्वपूर्ण स्वर्णिम अध्याय को लिखते हुए ” आज़ाद हिंद फौज” का ७००० सैनिकों के साथ गठन किया | इसके बाद ही उनको” नेता जी ” का नाम मिला. “तुम मुझे खून दो मै तुम्हे आज़ादी दूंगा ” ‘ का नारा देने वाले सुभाष ने दिया “दिल्ली चलो ” का जोशीला नारा और आज़ाद हिंद फौज ने जापानी सेना की सहायता से अंडमान निकोबार पहुँच कर देश को अंग्रेजी दासता से मुक्त कराने का प्रथम चरण पूरा किया और इन द्वीपों को “शहीद” तथा “स्वराज” नाम प्रदान किये..कोहिमा और इम्फाल को आज़ाद कराने के प्रयास में सफल न होने पर भी हार नहीं मानी सुभाष ने,तथा आज़ाद हिंद फौज कीमहिला टुकड़ी “झांसी की रानी” रेजिमेंट के साथ आगे बढ़ते रहे | आज़ाद हिंद फौज का कार्यालय रंगून स्थानांतरित किया गया | उनके अनुयायी दिनप्रतिदिन बढ़ते ही जा रहे थे और ये खतरे की घंटी न जाने किस किस के लिए थी |नेताजी ने सिंगापूर में स्वाधीन भारत की अंतरिम सरकार का गठन किया और उसको नौ देशों ने मान्यता प्रदान की | जापान की सेना का भरपुर सहयोग उनको मिल ही रहा था,परन्तु वह चाहते थे अधिकाधिक भारतीयों की भागीदारी इसमें हो, धुरी राष्ट्रों की हार के कारण नेताजी को अपने सपने बिखरते लगे और उन्होंने रूस की ओर अपनी गति बढ़ायी थी | नेताजी मंचूरिया जाते समय लापता हो गए और शेष सब रहस्य बन गया और अनंत में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस खो गए | आज तक यह रहस्य रहस्य ही बना हुआ है |
"किस भाँति जीना चाहिए, किस भाँति मरना चाहिए ।
लो सब हमें निज पूर्वजों से सीख लेना चाहिए ।।"
(साभार-राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त)
जहाँ तक हम भारतवासियों के विश्‍वास का प्रश्न है, तो हम यही मानते हैं कि नेताजी सुभाषचन्द्र बोस अभी भी जीवित हैं और अब भारत के लोगों के विवेक व सोच पर निर्भर करता है । लेकिन वे कब प्रकट होंगे इस प्रश्न का समुचित उत्तर नेताजी के अनुसार तृतीय विश्‍व युद्ध की चरम सीमा पर प्रकट होना है । जैसा कि उन्होंने १९ दिसम्बर सन्‌ १९४५ को मन्चूरिया रेडियों से अपने अन्तिम सन्देश में कहा था । नेताजी जानते थे कि द्वितीय विश्‍वयुद्ध के बाद भी एक और महायुद्ध अवश्य होगा, जिसकी सम्भावना उन्होंने २६ जून सन्‌ १९४५ को आजाद हिन्द रेडियो (सिंगापुर) से प्रसारित अपने एक भाषण में व्यक्‍त कर दी थी । धीरे-धीरे संसार तृतीय महायुद्ध के निकट पहुँच रहा है । इसी महायुद्ध में भारत पुनः अखण्ड होगा तथा नेताजी का प्रकटीकरण होगा ।
भारत के धूर्त राजनीतिज्ञों से नेताजी का कोई समझौता नहीं होगा । नेताजी किसी भी व्यक्‍ति या देश के बल पर नहीं, अपनी ही शक्‍ति के बल पर प्रकट होंगे । उनके प्रकट होने से पहले उनके नेताजी होने के बारे में सन्देह के बादल छँट चुके होंगे । जैसे अर्जुन का अज्ञातवास पूरा होने पर गाण्डीव धनुष की टंकार ने पाण्डवों के होने के सन्देह के बादल छांट दिये थे ।हमें सुभाष चन्द्र बोस की ये गीत 'खूनी हस्‍ताक्षर' याद दिलाता है---
वह खून कहो किस मतलब का, जिसमें उबाल का नाम नहीं ।
वह खून कहो किस मतलब का, आ सके देश के काम नहीं ।
वह खून कहो किस मतलब का, जिसमें जीवन, न रवानी है !
जो परवश होकर बहता है, वह खून नहीं, पानी है !
उस दिन लोगों ने सही-सही, खून की कीमत पहचानी थी ।
जिस दिन सुभाष ने बर्मा में, मॉंगी उनसे कुरबानी थी ।
बोले, स्‍वतंत्रता की खातिर, बलिदान तुम्‍हें करना होगा ।
तुम बहुत जी चुके जग में, लेकिन आगे मरना होगा ।
आज़ादी के चरणें में जो, जयमाल चढ़ाई जाएगी ।
वह सुनो, तुम्‍हारे शीशों के, फूलों से गूँथी जाएगी ।
आजादी का संग्राम कहीं, पैसे पर खेला जाता है ?
यह शीश कटाने का सौदा, नंगे सर झेला जाता है”
यूँ कहते-कहते वक्‍ता की, ऑंखें में खून उतर आया !
मुख रक्‍त-वर्ण हो दमक उठा, दमकी उनकी रक्तिम काया !
आजानु-बाहु ऊँची करके, वे बोले,”रक्‍त मुझे देना ।
इसके बदले भारत की, आज़ादी तुम मुझसे लेना ।”
हो गई उथल-पुथल, सीने में दिल न समाते थे ।
स्‍वर इनकलाब के नारों के, कोसों तक छाए जाते थे ।
“हम देंगे-देंगे खून”, शब्‍द बस यही सुनाई देते थे ।
रण में जाने को युवक खड़े, तैयार दिखाई देते थे ।
बोले सुभाष,” इस तरह नहीं, बातों से मतलब सरता है ।
लो, यह कागज़, है कौन यहॉं, आकर हस्‍ताक्षर करता है ?
इसको भरनेवाले जन को, सर्वस्‍व-समर्पण काना है।
अपना तन-मन-धन-जन-जीवन, माता को अर्पण करना है ।
पर यह साधारण पत्र नहीं, आज़ादी का परवाना है ।
इस पर तुमको अपने तन का, कुछ उज्‍जवल रक्‍त गिराना है !
वह आगे आए जिसके तन में, भारतीय ख़ूँ बहता हो।
वह आगे आए जो अपने को, हिंदुस्‍तानी कहता हो !
वह आगे आए, जो इस पर, खूनी हस्‍ताक्षर करता हो !
मैं कफ़न बढ़ाता हूँ, आए, जो इसको हँसकर लेता हो !
सारी जनता हुंकार उठी- हम आते हैं, हम आते हैं !
माता के चरणों में यह लो, हम अपना रक्‍त चढ़ाते हैं !
साहस से बढ़े युबक उस दिन, देखा, बढ़ते ही आते थे !
चाकू-छुरी कटारियों से, वे अपना रक्‍त गिराते थे !
फिर उस रक्‍त की स्‍याही में, वे अपनी कलम डुबाते थे !
आज़ादी के परवाने पर, हस्‍ताक्षर करते जाते थे |
उस दिन तारों ना देखा था, हिंदुस्‍तानी विश्‍वास नया।
जब लिखा था महा रणवीरों ने, ख़ूँ से अपना इतिहास नया ||

'अन्ना हजारे का परिचय व जीवन-दर्शन'


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अपने पूर्व-प्रकाशित निम्नलिखित आलेखों में आम व्यक्ति का प्रतिनिधित्व करने वाले समाजवादी और गांधीवादी अन्ना(अण्णा) हजारे का उल्लेख विस्तार से कर चुका हूँ,
(१) 'वर्तमान भ्रष्टाचार, कालेधन और व्यवस्था परिवर्तन पर संघर्ष'
(२) एक आदर्श 'लोकपाल विधेयक'
(३) 'स्थापित और मान्य भ्रष्टाचार की समस्या'
अनेक मित्रों को इनके जीवन का परिचय और जीवन-आदर्श जानने की उत्सुकता है, अतएव यह आलेख प्रस्तुत कटे हुए अपार हर्ष है......
आम व्यक्ति का प्रतिनिधित्व करने वाले समाजवादी और गांधीवादी अन्ना(अण्णा) हजारे का जन्म १५जनवरी, सन १९४० को महाराष्ट्र के अहमदनगर के भिंगर क़स्बे में हुआ था | अन्ना हज़ारे का बचपन बहुत ग़रीबी और अभावों में गुज़रा | श्री अन्ना हजारे का वास्‍तविक नाम किशन बाबूराव हजारे है | पिता मजदूर थे, दादा फौज में थे और दादा की पोस्टिंग भिंगनगर में थी | अन्ना का पुश्‍तैनी गाँव अहमदनगर ज़िले में स्थित रालेगन सिद्धि में था | अपने दादा की मौत के सात साल बाद अन्ना का परिवार रालेगन आ गया परन्तु उनके परिवार की ग़रीबी और तंगी देखकर अन्ना हज़ारे की बुआ उन्हें अपने साथ मुंबई ले गईं | कुछ समय बाद उनका परिवार भी भिंगर से उनके पुरखों के गाँव रालेगन सिद्धि चला आया था |
श्री अन्ना हजारे के अलावा उनके परिवार में उनके छः और भाई थे | श्री अन्ना हजारे ने मुंबई में अपनी बुआ के साथ रहते हुए सातवीं तक पढ़ाई की | परिवार की आर्थिक स्थिति देखकर वह दादर स्टेशन के बाहर एक फूल बेचनेवाले की दुकान में मात्र ४० रुपये की पगार पर काम करना प्रारम्भ किया | इसके बाद उन्होंने फूलों की अपनी दुकान खोल ली और अपने दो भाइयों को भी रालेगन से बुला लिया |
श्री अन्ना हजारे वर्ष 1962 में चीन के खिलाफ जंग के बाद सेना में शामिल हुए थे। सेना में एक ट्रक चालक के तौर पर उन्हें नौकरी मिली और उनकी तैनाती पंजाब में की गई और उनकी पहली पोस्टिंग बतौर ड्राइवर हुई | सन १९६५ ईस्वी के भारत – पाक युद्ध भी उन्होंने खेमकरण सेक्टर पर लड़ा था | यहीं से उनका जीवन परिवर्तन का समय शुरू हुआ, इस पाकिस्तानी हमले में वह मौत को धता बता कर बाल-बाल बचे थे | इसी दौरान नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से उन्होंने विवेकानंद की एक पुस्‍तक ‘कॉल टु दि यूथ फॉर नेशन’ खरीदी और उसको पढ़ने के बाद उन्होंने अपनी जिंदगी समाज को समर्पित कर दी | उन्होंने महात्मा गांधी और विनोबा भावे को भी पढ़ा और उनके विचारों को अपने जीवन में ढ़ाल लिया और समाज की सेवा को ही अपने जीवन का ध्येय बना लिया |
सन १९७० में उन्होंने आजीवन अविवाहित रहने का संकल्प किया | अपनी मुम्बई पोस्टिंग के दौरान वह अपने गांव रालेगन आते-जाते रहे | जम्मू पोस्टिंग के दौरान १५ साल फौज में पूरे होने पर १९७५ में उन्होंने वीआरएस ले लिया और गांव में आकर बस गए | उन्होंने गांव की तस्वीर ही बदल दी और साथ ही अन्ना भ्रष्ट्राचार के ख़िलाफ़ आंदोलन में कूद पड़े. उन्होंने अपनी जमीन बच्चों के हॉस्टल के लिए दान कर दी |
अन्ना हज़ारे का विचार है कि भारत की असली ताकत गाँवों में है और इसीलिए उन्होंने गाँवों में विकास की लहर लाने के लिए मोर्चा खोला. अन्ना हज़ारे ने सेना से रिटायरमेंट के तुरंत बाद सन १९७५ से सूखा प्रभावित रालेगाँव सिद्धि में काम शुरू किया. जहाँ औसतन सालाना वर्षा ४०० से ५०० मिलीमीटर ही होती थी, गाँव में जल संचय के लिए कोई तालाब नहीं थे. उनका गाँव पानी के टैंकरों और पड़ोसी गाँवों से मिले खाद्यान्न पर निर्भर रहता था, उन्होंने अपने बलबूते वर्षा जल संग्रह, सौर ऊर्जा, बायोगैस का प्रयोग और पवन ऊर्जा के उपयोग से गाँव को स्वावलंबी और समृद्ध बना दिया. यह गाँव विश्व के अन्य समुदायों के लिए आदर्श बन गया है.श्री अन्ना हजारे ने अपनी पुस्तैनी ज़मीन बच्चों के हॉस्टल के लिए दान कर दी, आज भी उनकी पेंशन का सारा पैसा गाँव के विकास में ख़र्च होता है | संपत्ति के नाम पर उनके पास कपड़ों की कुछ जोड़ियाँ हैं | अन्ना हज़ारे का कोई बैंक बैलेंस नही हैं | वह गाँव के मंदिर में रहते हैं और हॉस्टल में रहने वाले बच्चों के लिए बनने वाला खाना ही खाते हैं | आज गाँव का हर शख़्स आत्मनिर्भर है, आस-पड़ोस के गाँवों के लिए भी यहाँ से चारा, दूध आदि जाता है |
अन्ना हज़ारे सन १९९८ में उस समय चर्चा में आ गए थे, जब उन्होंने तत्कालीन सरकार के दो नेताओं पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाकर उन्हें गिरफ्तार करने के लिए आवाज़ उठाई थी | सरकार में मंत्री शशिकांत सुतार को अपनी कुर्सी छोडनी पड़ी | उसी समय के रोज़गार मंत्री महादेव शिवणकर को भी सरकार से बाहर होना पड़ा | मंत्री रही शोभाताई फडणविस को भी भ्रष्ट्राचार के आरोप के चलते अपने पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा. | सन १९९८ में सामजिक न्यायमंत्री बबनराव घोलप को ज़मीन घोटाले के चलते इस्तीफ़ा देना पड़ा | वहीं एनसीपी के नबाब मलिक, सुरेश दादा जैन को भी आघाडी सरकार में भ्रष्ट्राचार के आरोपों के चलते ही अपना पद छोडना पड़ा | शराब बंदी अभियान, कॉऑपरेटिव घोटाला जैसे कई अहम भ्रष्टाचार के मुद्दे सामने लाने का श्रेय अन्ना हज़ारे को जाता है और इसी तरह सन २००५ में अन्ना हज़ारे ने तत्कालीन सरकार को उसके चार भ्रष्ट नेताओं के ख़िलाफ़ कार्यवाही करने के लिए दबाव डाला था |
अन्ना हज़ारे की समाजसेवा और समाज कल्याण के कार्य को देखते हुए सरकार ने उन्हें समय-समय पर अनेक पुरस्कारों, जिनमे सन १९९० में पद्मश्री और सन १९९२ में पदम् विभूषण शामिल है, दिये गये | अन्ना हज़ारे ने अपने राज्य महाराष्ट्र में विषम परिस्थितियों में भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ अनेक लडाईयाँ लड़ीं और सफल भी हुए और अब इस ७१ वर्ष की उम्र में भी उनका एक ही सपना है – 'भ्रष्टाचार रहित भारत का निर्माण' करना, हम सभी को उनके इस पुनीत प्रयास में भागीदार अवश्य बनना है |
अन्ना हज़ारे एक बार पद्मश्री महाराष्ट्र के रालेगाँव में ग्राम स्वराज के अपने अनुभव बांटने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में आमंत्रित थे वहाँ उन्होंने गांधीजी की इस सोच को पूरी मजबूती से उठाया कि ‘बलशाली भारत के लिए गाँवों को अपने पैरों पर खड़ा करना होगा’ | उनके अनुसार विकास का लाभ समान रूप से वितरित न हो पाने का कारण रहा, गाँवों को केन्द्र में न रखना | व्यक्ति निर्माण से ग्राम निर्माण और तब स्वाभाविक ही देश निर्माण के गांधीजी के मन्त्र को उन्होंने हकीकत में उतार कर दिखाया, और एक गाँव से आरम्भ उनका यह अभियान आज ८५ गावों तक सफलतापूर्वक जारी है.व्यक्ति निर्माण के लिए मूल मन्त्र देते हुए उन्होंने युवाओं में उत्तम चरित्र, शुद्ध आचार-विचार, निष्कलंक जीवन व त्याग की भावना विकसित करने व निर्भयता को आत्मसात कर आम आदमी की सेवा को आदर्श के रूप में स्वीकार करने का आह्वान किया |
वर्तमान सरकार के समक्ष अप्रैल,२०११ में केवल पांच दिनों में ही उन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ एक क्रांति का सूत्रपात कर दिया । अन्ना हजारे ने अपने पूर्व घोषित निर्णय के अनुसार जन लोकपाल विधेयक लाने हेतु सरकार पर दबाव बनाने और जन समर्थन को जुटाने के लिए ५ अप्रैल,२०११ से दिल्ली के जंतर मंतर पर आमरण अनशन शुरू कर दिया था और उनके बैनरों पर लिखा हुआ था- 'भ्रष्टाचार के विरुद्ध जनयुद्ध' | अन्ना हजारे द्वारा उठाया गया कदम जनता के मन में तेजी से असर कर गया और वह उनके पीछे खड़ी होती नजर आ रही है और जन-समर्थन बढ़ता जा रहा है।
इस तरह स्पष्ट है कि अन्ना हजारे ने सरकार के उपर इतना नैतिक बल स्वयं का और जनता के बल का पैदा कर दिया कि अंतत: सरकार को उनके सामने झुकना पड़ा और उनकी पांच में तीन महत्वपूर्ण मांगे स्वीकार करने से ‘जन लोकपाल विधेयक’ को कानून बनाने का रास्ता खुलने का मार्ग प्रशस्त होता जा रहा है । यद्यपि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर समस्त राजनैतिक पार्टिया, संस्थायें और आम नागरिक एकमत है कि हमारा राजनैतिक, सामाजिक व व्यक्तिगत जीवनभ्रष्टाचार विहीन होना चाहिए । अन्ना हजारे को इस बात का बहुत बड़ा श्रेय अवश्य दिया जाना चाहिए कि स्वाधीन भारत में यह प्रथम बार हुआ है जब चुनी हुई सरकार ने अपने ही कानून बनाने का अधिकार, जो संविधान ने दिया है में उन लोगो की भागीदारी जिन्हे संविधान कोई अधिकार प्रदत्त नहीं करता है, देना स्वीकार किया है ।
अन्ना हजारे ने इससे पहले भी महाराष्ट्र राज्य में भ्रष्टाचार के विरोध में इस गान्धीवादी तरीके का सफल प्रयोग किया है और उस राज्य के कई मंत्रियों को उनके पद से हटने के लिए मजबूर किया है | इस बार भी अन्ना हज़ारे को सफलता मिली. सरकार ने उनकी मांगें मानी और जनता के सामने मजबूरन झुकी | अन्ना हज़ारे सत्ता की राजनीति नहीं करते और उनका साफ सुथरा जीवन इतिहास उनको गांधीवाद का सच्चा प्रतिनिधि दर्शाता है | अन्ना हज़ारे की छोटी कद-काठी के पीछे एक दृढ़ इच्छाशक्ति वाला इंसान छिपा हुआ है। वह महात्मा गांधी की तरह ही अहिंसा को अपने हथियार के तौर पर इस्तेमाल करते हैं । महात्मा गांधी की तरह अन्ना हजारे भी एक दम सादा जीवन जीते हैं। वह अब भी महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले में यादव बाबा मंदिर से सटे एक दो कमरे वाले मकान में ही रहते हैं ।

'प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के अग्रदूत मंगल पांडे'


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सन् १८५७ के प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के अग्रदूत वीरवर मंगल पांडे का जन्म १९ जुलाई सन् १८२७ को वर्तमान उत्तर प्रदेश, जो उन दिनों संयुक्त प्रान्त आगरा व अवध के नाम से जाना जाता था, के बलिया जिले में स्थित नागवा गाँव में हुआ था । इनके पिता का नाम श्री.दिवाकर पांडे तथा माता का नाम श्रीमती अभय रानी था। वीरवर मंगल पांडे कोलकाता के पास बैरकपुर की सैनिक छावनी में ३४वीं बंगाल नेटिव इन्फैंट्री के एक सिपाही थे । भारत की आजादी की पहली लड़ाई अर्थात सन् १८५७ के विद्रोह की शुरुआत उन्हीं से हुई जब गाय व सुअर कि चर्बी लगे कारतूस लेने से मना करने पर उन्होंने विरोध जताया । इसके परिणाम स्वरूप उनके हथियार छीन लिये जाने व वर्दी उतार लेने का फौजी हुक्म हुआ। मंगल पांडे ने उस आदेश को मानने से इनकार कर दिया और २९ मार्च, सन् १८५७ का दिन अंग्रेजों के लिए दुर्भाग्य के दिन के रूप में उदित हुआ। पाँचवी कंपनी की चौंतीसवीं रेजीमेंट का 1446 नं. का सिपाही वीरवरमंगल पांडे अंग्रेज़ों के लिए प्रलय-सूर्य के समान निकला। बैरकपुर की संचलन भूमि में प्रलयवीर मंगल पांडे का रणघोष गूँज उठा- "बंधुओ! उठो! उठो! तुम अब भी किस चिंता में निमग्न हो? उठो, तुम्हें अपने पावन धर्म की सौगंध! चलो, स्वातंत्र्य लक्ष्मी की पावन अर्चना हेतु इन अत्याचारी शत्रुओं पर तत्काल प्रहार करो।"प्रलयवीर मंगल पांडे के बदले हुए तेवर देखकर अंग्रेज़ सारजेंट मेजर हडसन उसने पथ को अवरुद्ध करने के लिए आगे बढ़ा। उसने उस विद्रोही को उसकी उद्दंडता का पुरस्कार देना चाहा। अपनी कड़कती आवाज़ में उसने मंगल पांडे को खड़ा रहने का आदेश दिया। क्रांतिवीर प्रलयवीर मंगल पांडे के अरमान मचल उठे। वह शिवशंकर की भाँति सन्नद्ध होकर रक्तगंगा का आह्वान करने लगा। उसकी सबल बाहुओं ने बंदूक तान ली। क्रांतिवीर प्रलयवीर की सधी हुई उँगलियों ने बंदूक का घोड़ा अपनी ओर खींचा और घुड़ड़ घूँsss का तीव्र स्वर घहरा उठा। मेजर हडसन घायल कबूतर की भाँति भूमि पर तड़प रहा था । अंग्रेज़ सारजेंट मेजर हडसन का रक्त भारत की धूल चाट रहा था। सन् १८५७ के क्रांतिकारी ने एक फिरंगी की बलि ले ली थी। विप्लव महायज्ञ के परोधा क्रांतिवीर मंगल पांडे की बंदूक पहला 'स्वारा' बोल चुकी थी। स्वातंत्र्य यज्ञ की वेदी को मेजर हडसन की दस्यु-देह की समिधा अर्पित हो चुकी थी । मेजर हडसन को धराशायी हुआ देख लेफ्टिनेंट बॉब वहाँ जा पहुँचा। उस अश्वारूढ़ गोरे ने मंगल पांडे को घेरना चाहा। पहला ग्राम खाकर मंगल पांडे की बंदूक की भूख भड़क उठी थी। उसने दूसरी बार मुँह खोला और लेफ्टिनेंट बॉब घोड़े सहित भू-लुंठित होता दिखाई दिया। गिरकर भी बॉब ने अपनी पिस्तौल मंगल पांडे की ओर सीधी करके गोली चला दी। विद्युत गति से वीर मंगल पांडे गोली का वार बचा गया और बॉब खिसियाकर रह गया। अपनी पिस्तौल को मुँह की खाती हुई देख बॉब ने अपनी तलवार खींच ली और वह मंगल पांडे पर टूट पड़ा। क्रांतिवीर मंगल पांडे भी कच्चा खिलाड़ी नहीं था। बॉब ने मंगल पांडे पर प्रहार करने के लिए तलवार तानी ही थी कि क्रांतिवीर मंगल पांडे की तलवार का भरपूर हाथ उसपर ऐसा पड़ा कि बॉब का कंधा और तलवारवाला हाथ जड़ से कटकर अलग जा गिरा। एक बलि मंगल पांडे की बंदूक ले चुकी थी और दूसरी उसकी तलवार ने ले ली । इससे पूर्व क्रांतिवीर मंगल पांडे ने अपने अन्य साथियों से उनका साथ देने का आह्वान भी किया था किन्तु कोर्ट मार्शल के डर से जब किसी ने भी उनका साथ नहीं दिया तो उन्होंने अपनी ही रायफल से उस अंग्रेज अधिकारी को मौत के घाट उतार दिया जो उनकी वर्दी उतारने और रायफल छीनने को आगे आया था । लेफ्टिनेंट बॉब को गिरा हुआ देख एक दूसरा अंग्रेज़ मंगल पांडे की ओर बढ़ा ही था कि मंगल पांडे के साथी एक भारतीय सैनिक ने अपनी बंदूक डंडे की भाँति उस अंग्रेज़ की खोपड़ी पर दे मारी। अंग्रेज़ की खोपड़ी खुल गई। अपने आदमियों को गिरते हुए देख कर्नल व्हीलर मंगल पांडे की ओर बढ़ा; पर सभी क्रुद्ध भारतीय सिंह गर्जना कर उठे- "खबरदार, जो कोई आगे बढ़ा! आज हम तुम्हारे अपवित्र हाथों को ब्राह्मण की पवित्र देह का स्पर्श नहीं करने देंगे।"
कर्नल व्हीलर जैसा आया था वैसा ही लौट गया। इस सारे कांड की सूचना अपने जनरल को देकर, अंग्रेज़ी सेना को बटोरकर ले आना उसने अपना धर्म समझा। जंग-ए-आज़ादी के पहले सेनानी मंगल पांडे ने सन् १८५७ में ऐसी चिनगारी भड़काई, जिससे दिल्ली से लेकर लंदन तक की ब्रिटेनिया हुकूमत हिल गई । इसके बाद विद्रोही क्रांतिवीर मंगल पांडे को अंग्रेज सिपाहियों ने पकड लिया। अंगेज़ों ने भरसक प्रयत्न किया कि वे मंगल पांडे से क्रांति योजना के विषय में उसके साथियों के नाम-पते पूछ सकें; पर वह मंगल पांडे था, जिसका मुँह अपने साथियों को फँसाने के लिए खुला ही नहीं । मंगल होकर वह अपने साथियों का अमंगल कैसे कर सकता था | उन पर कोर्ट मार्शल द्वारा मुकदमा चलाकर ६ अप्रैल सन् १८५७ को मौत की सजा सुना दी गयी। फौजी अदालत ने न्याय का नाटक रचा और फैसला सुना दिया गया। कोर्ट मार्शल के अनुसार उन्हें १८ अप्रैल सन् १८५७ को फाँसी दी जानी थी । परन्तु इस निर्णय की प्रतिक्रिया कहीं विकराल रूप न ले ले, इसी कूट रणनीति के तहत क्रूर ब्रिटिश सरकार ने मंगल पांडे को निर्धारित तिथि से दस दिन पूर्व ही ८ अप्रैल सन् १८५७ को फाँसी पर लटका कर मार डाला । बैरकपुर के जल्लादों ने मंगल पांडे के पवित्र ख़ून से अपने हाथ रँगने से इनकार कर दिया। तब कलकत्ता से चार जल्लाद बुलाए गए । ८ अप्रैल,सन् १८५७ के सूर्य ने उदित होकर मंगल पांडे के बलिदान का समाचार संसार में प्रसारित कर दिया । भारत के एक वीर पुत्र ने आजादी के यज्ञ में अपने प्राणों की आहुति दे दी। वीर मंगल पांडे के पवित्र प्राण-हव्य को पाकर स्वातंत्र्य यज्ञ की लपटें भड़क उठीं । क्रांति की ये लपलपाती हुई लपटें फिरंगियों को लील जाने के लिए चारों ओर फैलने लगीं ।
क्रांतिवीर प्रलयवीर मंगल पांडे द्वारा लगायी गयी विद्रोह की यह चिनगारी बुझी नहीं। एक महीने बाद ही १० मई सन् १८५७ को मेरठ की छावनी में बगावत हो गयी। यह विपलव देखते ही देखते पूरे उत्तरी भारत में फैल गया जिससे अंग्रेजों को स्पष्ट संदेश मिल गया कि अब भारत पर राज्य करना उतना आसान नहीं है जितना वे समझ रहे थे ।क्रांति के नायक मंगल पांडे को कुछ इतिहासकार विद्रोही मानते हैं, लेकिन वे स्वतंत्रता सेनानी थे। ब्रिटेन के रिकार्ड में पूरा इतिहास अलग नजरिए और पूर्वाग्रह से दर्ज किया गया है। उनके रिकार्ड में मंगलपांडे के बारे में केवल दो पेज मिलते हैं, जबकि जबानी तौर पर ढेर सारी बातें पता चलती हैं । लोकगीतों और कथाओं के माध्यम से भी हमें मंगल पांडे के बारे में ढेर सारी जानकारियां मिलती हैं।
इसी तरह प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बारे में भी विरोधाभासी विचार मिलते हैं। ब्रिटिश इतिहासकारों ने अपना दृष्टिकोण लिखा है। भारतीय इतिहासकारों ने इस स्वतंत्रता संग्राम को बाद में सही संदर्भ में पेश किया। क्रांतिवीर मंगल पांडे वास्तव में आजादी के प्रतीक थे। हर व्यक्ति इज्जत से सिर उठा कर जी सके, यही तो वे चाहते थे। भारत के इतिहास में मंगल पांडे का खास महत्व है । हमें याद रखना चाहिए कि हर शासन करने वाली पार्टी का अपना एक तंत्र और प्रशासन का तरीका होता है। चूंकि शासन करने वाली पार्टी ही इतिहास रिकार्ड करती है, इसलिए यह पूरी तरह से उसके इरादों पर निर्भर करता है कि वह क्या लिखे और क्या छोड़ दे। इसमें इतिहासकारों का स्वार्थ और नजरिया काम कर रहा होता है।
अंग्रेजों ने तो सन् १८५७ की आजादी की लड़ाई को सिपाहियों का विद्रोह कहा था तो क्या हम भी वही मान लें ? बिल्कुल नहीं मानेगें । हमें अपने शहीदों पर गर्व करना चाहिए कि उन्होंने आजादी की भावना के जो बीज सन् १८५७ में डाले थे, वह सन् 1९४७ में भारत की आजादी के साथ जाकर अंकुरित हुआ ।सन् १८५७ के प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के अग्रदूत क्रांति के नायक मंगल पांडे को नमन ...

वे आजादी के बावजूद आजाद नहीं थे--------?


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पांचवीं पंचवर्षीय योजना के तहत देश भर में जनजातियों के विकास के लिए जनजातीय उपयोजना कार्यनीति (टीएसपी) भी अपनाई गई. इसके अंतर्गत अमूमन जनजातियों से बसे संपूर्ण क्षेत्र को उनकी आबादी के हिसाब से कई वर्गों में शामिल किया गया है. इन वर्गों में समेकित क्षेत्र विकास परियोजना (टीडीपी), संशोधित क्षेत्र विकास दृष्टिकोण (माडा), क्लस्टर और आदिम जनजातीय समूह शामिल हैं. जनजातीय कार्य मंत्रालय ने अनुसूचित जनजातियों के
कल्याण और विकास पर लक्षित विभिन्न योजनाओं को कार्यान्वित करना जारी रखा है, लेकिन अफ़सोस की बात यह है कि अज्ञानता, भ्रष्टाचार और लाल़फीताशाही के चलते उक्त जातियां सरकारी योजनाओं के लाभ से महरूम हैं.
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हिंदुस्तान की एक बड़ी आबादी के बीच एक तबक़ा ऐसा भी है, जिसे आज़ादी के अरसे बाद भी मुजरिमों की तरह पुलिस थानों में हाज़िरी लगानी पड़ती थी. आ़खिरकार 31 अगस्त, 1952 को उसे इससे निजात तो मिल गई, लेकिन उसे कोई खास तवज्जो नहीं दी गई. नतीजतन, उसकी हालत बद से बदतर होती चली गई. इस समाज के लोगों को मलाल है कि जहां देश की अन्य जातियों ने तऱक्क़ी की, वहीं वे लगातार पिछड़ते चले गए, उनके पुश्तैनी धंधे खत्म होते चले गए और उन्हें सरकारी सुविधाओं का भी समुचित लाभ नहीं मिल पाया. क़ाबिले ग़ौर है कि देश भर में 15 अगस्त को जश्ने-आज़ादी के तौर पर मनाया जाता है, लेकिन उन्हीं खुशनुमा लम्हों के बीच आदिम समाज एक ऐसा तबक़ा है, जो इस दिन को कोई विशेष महत्व नहीं देता. घुमंतू जातियों के ये लोग 31 अगस्त को आज़ादी का जश्न मनाते हैं.
ऑल इंडिया विमुक्त जाति मोर्चा के सदस्य भोला का कहना है कि ऐसा नहीं कि हम स्वतंत्रता दिवस नहीं मनाते, लेकिन सच तो यही है कि हमारे लिए 15 अगस्त के बजाय 31 अगस्त का ज़्यादा महत्व है. वह बताते हैं कि 15 अगस्त, 1947 को जब देश आज़ाद हुआ था और लोग खुली फिज़ा में सांस ले रहे थे, तब भी घुमंतू जातियों के लोगों को दिन में तीन बार पुलिस थाने में हाज़िरी लगानी पड़ती थी. अगर कोई व्यक्ति बीमार होने या किसी दूसरी वजह से थाने में उपस्थित नहीं हो पाता तो पुलिस द्वारा उसे प्रताड़ित किया जाता था. इतना ही नहीं, चोरी या कोई अन्य आपराधिक घटना होने पर भी पुलिस का क़हर उन पर टूटता था. यह सिलसिला लंबे अरसे तक चलता रहा. आ़िखरकार तंग आकर प्रताड़ित लोगों ने इस प्रशासनिक दमन के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद की और फिर शुरू हुआ सिलसिला लोगों में जागरूकता लाने का. लोगों का संघर्ष रंग लाया और फिर वर्ष 1952 में अंग्रेजों द्वारा 1871 में बनाए गए एक्ट में संशोधन किया गया. इसी साल 31 अगस्त को घुमंतू जातियों के लोगों को थाने में हाज़िरी लगाने से निजात मिली.
इस व़क्त देश भर में विमुक्त जातियों के 192 क़बीलों के क़रीब 20 करोड़ लोग हैं. हरियाणा की क़रीब साढ़े सात फ़ीसदी आबादी इन्हीं जातियों की है. इन विमुक्त जातियों में सांसी, बावरिया, भाट, नट, भेड़कट और किकर आदि शामिल हैं. भाट जाति से संबंध रखने वाले प्रभु बताते हैं कि 31 अगस्त के दिन क़बीले के रस्मो-रिवाज के मुताबिक़ सामूहिक नृत्य का आयोजन किया जाता है. महिलाएं इकट्ठी होकर पकवान बनाती हैं और उसके बाद सामूहिक भोज होता है. बच्चे भी अपने-अपने तरीक़ों से खुशी ज़ाहिर करते हैं. कई क़बीलों में पतंगबाज़ी का आयोजन किया जाता है. जीतने वाले व्यक्ति को समारोह की शोभा माना जाता है. लोग उसे बधाइयों के साथ उपहार देते हैं. इन जातियों के लोगों के संस्थानों में भी 31 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस मनाया जाता है. इन कार्यक्रमों में केंद्रीय मंत्रियों से लेकर विभिन्न राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि और प्रशासनिक अधिकारी भी शिरकत करते हैं. इनकी तैयारियों के लिए संगठन के पदाधिकारी गांव-गांव का दौरा करके लोगों को समारोह के लिए आमंत्रित करते हैं.
हरियाणा के अलावा देश के अन्य राज्यों में भी आदिवासी समाज की अनेक जातियां रहती हैं, जिनमें आंध्र प्रदेश में भील, चेंचु, गोंड, कांडा, लम्बाडी, सुंगली एवं नायक, असम में बोषे, कचारी मिकिर यानी कार्बी, लंलुग, राथा, दिमासा, हमर एवं हजोंग, बिहार और झारखंड में झमुर, बंजारा, बिरहोर, कोर्वा, मुंडा, ओरांव, संथाल, गोंड एवं खंडिया, गुजरात में भील, ढोडिया, गोंड, सिद्दी, बोर्डिया एवं भीलाला, हिमाचल प्रदेश में गद्दी, लाहुआला एवं स्वांगला, कर्नाटक में भील, चेंचु, गाउड, कुरूबा, कम्मारा, कोली, कोथा, मयाका एवं टोडा, केरल में आदियम, कोंडकप्पू, मलैस एवं पल्लियार, मध्य प्रदेश में भील, बिरहोर, उमर, गोंड, खरिआ, माझी, मुंडा और ओरांव, छत्तीसगढ़ में परही, भीलाला, भीलाइत, प्रधान, राजगोंड, सहरिया, कंवर, भींजवार, बैगा, कोल एवं कोरकू, महाराष्ट्र में भील, भुंजिआ, ढोडिया, गोंड, खरिया, नायक, ओरांव, पर्धी एवं पथना, मेघालय में गारो, खासी एवं जयंतिया, उड़ीसा में जुआंग, खांड, करूआ, मुंडारी, ओरांव, संथाल, धारूआ एवं नायक, राजस्थान में भील, दमोर, गरस्ता, मीना एवं सलरिया, तमिलनाडु में इरूलर, कम्मरार, कोंडकप्पू, कोटा, महमलासर, पल्लेयन एवं टोडा, त्रिपुरा में चकमा, गारो, खासी, कुकी, लुसाई, लियांग एवं संथाल, पश्चिम बंगाल में असुर, बिरहोर, कोर्वा, लेपचा, मुंडा, संथाल एवं गोंड, मिजोरम में लुसई, कुकी, गारो, खासी, जयंतिया एवं मिकिट, गोवा में टोडी एवं नायक, दमन एवं द्वीप में ढोडी, मिक्कड़ एवं वर्ती, अंडमान में जारवा, निकोबारी, ओंजे, सेंटीनेलीज, शौम्पेंस एवं ग्रेट अंडमानी, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में भाटी, बुक्सा, जौनसारी एवं थारू, नागालैंड में नागा, कुकी, मिकिट एवं गारो, सिक्किम में भुटिया एवं लेपचा, जम्मू- कश्मीर में चिद्दंपा, गर्रा, गुर एवं गड्डी आदि शामिल हैं. इनमें से अनेक जातियां अपने अधिकारों को लेकर संघर्षरत हैं.
इंडियन नेशनल लोकदल के टपरीवास विमुक्त जाति मोर्चा के जिलाध्यक्ष बहादुर सिंह का कहना है कि आज़ादी के छह दशकों बाद भी आदिवासी समाज की घुमंतू जातियां विकास से कोसों दूर हैं. वह कहते हैं कि इन जातियों के सामाजिक और आर्थिक उत्थान के लिए सरकार को चाहिए कि वह इन्हें स्थायी रूप से आबाद करे, इनके लिए बस्तियां बनाई जाएं और आवास मुहैया कराए जाएं, बच्चों को नि:शुल्क शिक्षा दी जाए और एसटी का दर्जा दिया जाए, ताकि इन्हें भी आरक्षण का लाभ मिल सके. आदिवासी समाज की अधिकतर जातियां आज भी बदहाली की ज़िंदगी गुज़ारने को मजबूर हैं. ग्रामीण विकास मंत्रालय के एक सर्वेक्षण के मुताबिक़, इन जातियों का आधे से ज़्यादा हिस्सा ग़रीबी की रेखा से नीचे पाया गया है. इनकी प्रति व्यक्तिआय देश में सबसे नीचे रहती है. एक रिपोर्ट के मुताबिक़, जनजातियों की 9,17,590 एकड़ जनजातीय भूमि हस्तांतरित की गई और महज़ 5,37,610 एकड़ भूमि ही इन्हें वापस दिलाई गई.
घुमंतू जातियों की बदहाली के अनेक कारण हैं, जिनमें वनों का विनाश मुख्य रूप से शामिल है. वन इनके जीवनयापन का एकमात्र साधन है, लेकिन खत्म हो रहे वन संसाधन इनके एक बड़े हिस्से के अस्तित्व को जोखिम में डाल रहे हैं. जागरूकता की कमी भी इन जातियों के विकास में रुकावट बनी है. केंद्र और प्रदेश सरकारों द्वारा शुरू किए गए विभिन्न विकास संबंधी कार्यक्रमों-योजनाओं के बारे में घुमंतू जातियों के लोगों को जानकारी नहीं है, जिससे उन्हें इनका समुचित लाभ नहीं मिल पाता. पांचवीं पंचवर्षीय योजना के तहत देश भर में जनजातियों के विकास के लिए जनजातीय उपयोजना कार्यनीति (टीएसपी) भी अपनाई गई. इसके अंतर्गत अमूमन जनजातियों से बसे संपूर्ण क्षेत्र को उनकी आबादी के हिसाब से कई वर्गों में शामिल किया गया है. इन वर्गों में समेकित क्षेत्र विकास परियोजना (टीडीपी), संशोधित क्षेत्र विकास दृष्टिकोण (माडा), क्लस्टर और आदिम जनजातीय समूह शामिल हैं. जनजातीय कार्य मंत्रालय ने अनुसूचित जनजातियों के कल्याण और विकास पर लक्षित विभिन्न योजनाओं को कार्यान्वित करना जारी रखा है, लेकिन अफ़सोस की बात यह है कि अज्ञानता, भ्रष्टाचार और लाल़फीताशाही के चलते उक्त जातियां सरकारी योजनाओं के लाभ से महरूम हैं. इसके लिए ज़रूरी है कि जागरूकता अभियान चलाकर इन जातियों के विकास के लिए कारगर क़दम उठाए जाएं, वरना सरकार की कल्याणकारी योजनाएं काग़ज़ों तक ही सिमट कर रह जाएंगी.

आदिवासियों की उपेक्षा कब तक?


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अधिकतर आदिवासी साहूकारों की गिरफ़्त में हैं और धीरे-धीरे अपनी ज़मीनों से हाथ धोते जा रहे हैं. ग़रीबी के कारण वे कुपोषण के शिकार हैं और भुखमरी एक आम बात है. आज़ादी के बाद भारत में ग़रीबी कम हुई, लेकिन आदिवासियों में ग़रीबी आज भी सबसे अधिक है. उनके जीवन स्तर में कोई सुधार नहीं हुआ है और आज भी प्रति व्यक्ति आय-व्यय के मामले में वे देश के अन्य तबकों से काफी पीछे हैं.
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आज देश का आदिवासी समुदाय राजनीति के केंद्र में आ गया है, लेकिन अपनी सांस्कृतिक और सामाजिक धरोहर के लिए नहीं, बल्कि इसलिए कि उसने देश की सरकार के ख़िला़फ संघर्ष का बिगुल बजा दिया है. आदिवासी एक ऐसे सामजिक समूह के सदस्य हैं, जो आज अपनी पहचान के लिए लड़ रहा है. वे अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए लड़ रहे हैं. आदिवासियों के प्रति सरकार और समूचे भारतीय समाज का नकारात्मक रवैया देश के संविधान में उन्हें दिए गए अधिकारों के विरुद्ध जाता दिख रहा है. इन सारे कारणों की वजह से जब आज उन्हें क़ानून अपने हाथ में लेना पड़ता है तो देश की सुरक्षा एजेंसियां उन पर अत्याचार करती हैं, उन्हें लाठियों-बंदूक़ों का बेवजह सामना करना पड़ता है.
अगर हम वास्तव में आदिवासियों की समस्याओं को समझना चाहते हैं तो यह याद रखना और समझना होगा कि आदिवासी समुदाय और उसकी मान्यताएं किस तरह भारत के अन्य समुदायों से भिन्न हैं. आदिवासी समुदाय कुछ ऐसी मान्यताओं-आदर्शों पर आधारित है, जो बाक़ी देश से अलग हैं. यह समुदाय ऐसे सामाजिक संबंधों से परिभाषित होता है, जो प्रकृति के साथ समन्वय स्थापित करके चलता है. इसके सिद्धांत लेनदेन से अधिक समान योगदान, सच्चाई और आपसी पारदर्शिता पर आधारित हैं. यह समुदाय अपने लड़ाई-झगड़ों को निपटाने के लिए आधुनिक न्याय प्रणाली पर नहीं, बल्कि सदियों से चली आ रही सामुदायिक संस्थाओं का सहारा लेता है. एकता और बाहरी जीवन से कटाव इस समुदाय के प्रमुख लक्षण हैं. इसकी परंपरागत अर्थव्यवस्था ज़मीन और जंगल की धुरी पर केंद्रित है.
ऐसी व्यवस्था, जो पैसे और बाज़ार से अधिक आपसी सौहार्द्र पर आधारित है और आत्मनिर्भरता जिसका सबसे बड़ा लक्षण है. यह व्यवस्था पैसे के लेनदेन से अधिक वस्तु विनिमय पर आधारित है. इसीलिए इसे समाजवादी या साम्यवादी व्यवस्था कहा जा सकता है. आधुनिक पूंजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध यहां पूंजी और बाज़ार का कोई अस्तित्व नहीं है, लेकिन इस व्यवस्था के कुछ अवगुण भी हैं. यह एक बंद व्यवस्था है और समान वितरण पर आधारित है, इसलिए जब भी सूखा या बाढ़ जैसी त्रासदी होती है तो यह व्यवस्था दबाव में आ जाती है, क्योंकि और कोई साधन उपलब्ध नहीं होते. इस समुदाय का राजनीतिक संगठन भी पारंपरिक हैं, जहां निपटारा बड़े-बूढ़ों द्वारा ही किया जाता है और उनकी बात सर्वमान्य होती है. यह स्वराज का ही एक स्थानीय मॉडल कहा जा सकता है, लेकिन देश की मुख्यधारा से यह सब बहुत ही अलग है.
आज़ादी के बाद से इस आदिवासी समुदाय में भी कई दूरगामी बदलाव आए, कभी सरकारी विकास योजनाओं के थोपे जाने और कभी सरकार के प्रतिबंधों-निषिद्ध आज्ञाओं के चलते, लेकिन आज भी इस समुदाय का वही हाल है, जो बताया जा रहा हैं. आदिवासियों से भारतीय समाज की मुख्यधारा की दूरी ही सरकारी रवैये के लिए भी ज़िम्मेदार है. जैसा कि हम जानते हैं कि आदिवासी राज्य व्यवस्था के बाहर ही रहे हैं और इसी वजह से वे आज तक अपनी पुरानी परंपरागत जीवनशैली को संभाल पाए हैं, बिना किसी बड़ी उथल-पुथल के. यह स्वावलंबी व्यवस्था देश की स्वाधीनता के समय बिगड़नी शुरू हो गई. इसका मुख्य कारण था देश और इन क्षेत्रों में ऐसी नीतियों का प्रतिपादन, जो पहले न कभी सुनी और न देखी गईं. सबसे बड़ा असर पड़ा ब्रिटिश हुकूमत की उस नीति का, जिसके तहत प्राकृतिक संपदा को राज्य के नियंत्रण के अधीन लाया गया.
ब्रिटिश हुकूमत की स्थायी बंदोबस्त नीति ने खेतिहर किसानों को तो भिखारी बना ही दिया, आदिवासियों को भी बाहरी लोगों और सूदखोर महाजनों का शिकार बना दिया. ज़मीन अब ख़रीद-फरोख्त की वस्तु बन गई और ज़मीन का बाज़ारीकरण हो गया. इस कारण ज़मीन साझा नहीं रह गई और पारंपरिक अधिकार ख़त्म हो गए. इस सभी कारणों से आदिवासी अपनी ज़मीन खोते गए. ज़मीन अधिग्रहण कानून ने इस नीति को और भी कंटीले दांत दे दिए. जंगल और वन संपदा अब सरकारी तंत्र के हाथ में आ गए. खनन और वन संपदा के सरकारी प्रयोग के चलते आदिवासी अपनी ज़मीन और घर खो बैठे. इस नई व्यवस्था में आदिवासी कम वेतन पर काम करने वाले ग़रीब मज़दूर बन गए. सरकारी तंत्र का मतलब पुलिस और क़ानून व्यवस्था भी होती है. इस सरकारी व्यवस्था के दिन-प्रतिदिन बढ़ते जाने से आदिवासियों की अपनी परंपरागत संस्थाएं भी मर गईं. जब उन्होंने इसके ख़िला़फ आवाज़ उठाई तो क़ानून बना दिया गया कि ऐसे आदिवासी जन्मजात रूप से अपराधी प्रवृत्ति के हैं.
आज़ादी मिलने के बाद जिन आदिवासियों को सरकार को संजोकर रखना चाहिए था, उनकी कोई सुध नहीं ली गई. पुराने तरीक़ों पर आदिवासियों का शोषण और उनके हितों का हनन चलता रहा. यहां तक कि नए-नवेले तरीक़े भी खोज लिए गए शोषण की इस परंपरा को और सशक्त करने के लिए. आदिवासियों को पहले से भी ज्यादा बड़े पैमाने पर बाज़ार से जोड़ दिया गया. ऊपर से जंगल-प्राकृतिक संपदा का दोहन और भी बढ़ गया. आदिवासी क्षेत्रों में बाहरी लोगों की पैठ भी पहले से अधिक हो गई. जब भारतीय अर्थव्यवस्था को अंतरराष्ट्रीय बाज़ार के लिए खोल दिया गया और नव उदारवाद का शिकंजा कसने लगा तो आदिवासी क्षेत्रों का दोहन दूर देशों की पूंजी ने भी करना आरंभ कर दिया. इसके साथ ही ज़मीन का अधिग्रहण भी बड़े पैमाने पर हुआ. यह अधिग्रहण राज्य और निजी कंपनियों, दोनों ने ही किया. क़ानून भी ऐसे बना दिए गए, जिससे आदिवासियों का संरक्षित क्षेत्र बाहरी ख़रीद-फरोख्त के लिए बिल्कुल ही खुल गया. सरकारी तंत्र को सुडौल बनाने के लिए लाए गए सुधारों के नाम पर सरकारी पद कम किए गए. सरकार अपने कर्तव्यों की अनदेखी करती रही, नतीजतन आदिवासियों के जीवन स्तर में गिरावट आने लगी और नव उदारवादी अर्थव्यवस्था के कारण छोटे क़र्ज़ की संभावनाएं भी कम होती चली गईं. आदिवासियों की मौजूदा स्थिति को सामाजिक-आर्थिक पैमाने पर समझा जा सकता है. आर्थिक पैमाने को देखा जाए तो आदिवासी देश के मज़दूरों से अधिक संख्या में हैं, लेकिन इसके विपरीत वे उनसे बदतर हालत में हैं, क्योंकि वे अधिकतर कृषि पर निर्भर हैं और उनकी दिहाड़ी या वेतन का स्तर बहुत ही निम्न है. कृषि से बाहर उनकी भागीदारी सबसे कम है या कहें कि नगण्य है. आदिवासियों के पास खेती लायक़ ज़मीन न के बराबर है और वे बहुत छोटे टुकड़ों पर खेती करते हैं. बस एक चौथाई ऐसे हैं, जिनके पास कहने को ही सही, लेकिन सिंचाई का साधन है.
सीमित साधनों के चलते वे साल में केवल एक ही फसल उगा पाते हैं. उन्हें न तो कोई सरकारी अनुदान मिलता है और न क़र्ज़, जो कम ब्याज वाला हो. इसलिए अधिकतर आदिवासी साहूकारों की गिरफ़्त में हैं और धीरे-धीरे अपनी ज़मीनों से हाथ धोते जा रहे हैं. ग़रीबी के कारण वे कुपोषण के शिकार हैं और भुखमरी एक आम बात है. आज़ादी के बाद भारत में ग़रीबी कम हुई, लेकिन आदिवासियों में ग़रीबी आज भी सबसे अधिक है. उनके जीवन स्तर में कोई सुधार नहीं हुआ है और आज भी प्रति व्यक्ति आय-व्यय के मामले में वे देश के अन्य तबकों से काफी पीछे हैं. सामाजिक पैमाने पर भी उनकी हालत काफी ख़राब है. सबसे अधिक पिछड़ापन आदिवासियों में ही पाया जाता है, चाहे वह साक्षरता हो, स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता हो या फिर जच्चा-बच्चा की मृत्यु दर.

केंद्र ही भूल गया पातालकोट--


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पातालकोट 89 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है. यहां कुल 12 गांव और 27 छोटी-छोटी बस्तियां हैं, लेकिन आज़ादी के 40 वर्ष बाद 1985 में इस क्षेत्र के सबसे बड़े गांव गैलडुब्बा को पक्की सड़क से जोड़ा गया. अभी 12 गांव और 27 बस्तियां सड़क सुविधा से अछूती हैं.
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छिंदवाड़ा ज़िले में स्थित पातालकोट क्षेत्र प्राकृतिक संरचना का एक अजूबा है. सतपुड़ा पर्वत श्रेणियों की गोद में बसा यह क्षेत्र भूमि से एक हज़ार से 1700 फुट तक गहराई में बसा हुआ है. इस क्षेत्र में 40 से ज़्यादा मार्ग लोगों की पहुंच से दुर्लभ हैं और वर्षा के मौसम में यह क्षेत्र दुनिया से कट जाता है.
पातालकोट में भारिया जनजाति सदियों से बसी हुई है, लेकिन आज़ादी के छह दशक बाद भी यह क्षेत्र विकास की मुख्यधारा से बुरी तरह कटा हुआ है. कहने को तो विकास और जनकल्याण की तमाम योजनाएं इस क्षेत्र में काग़ज़ों पर लागू है, लेकिन सरकारी तंत्र की लापरवाही और लालची प्रवृत्ति के कारण इस क्षेत्र के ज़्यादातर लोगों को सरकारी योजनाओं और कार्यक्रमों का लाभ नहीं मिल रहा है. सरकारी काग़ज़ी हिसाब बताता है कि इस इलाक़े के विकास के लिए सरकार ने 400 करोड़ रुपयों से ज़्यादा खर्च किया है. यह जानकारी तीन साल पुरानी है. तब कांतिलाल भूरिया कांग्रेस के लोकसभा सांसद थे और एक समिति के ज़रिए इस क्षेत्र के विकास और जनकल्याण कार्यक्रमों की जांच भी की गई थी. भूरिया ने इस जांच में गहरी रुचि दिखाई थी, लेकिन जांच के नतीजों और उसके बाद सरकार द्वारा की गई सुधारात्मक कार्यवाहियों के बारे में कोई जानकारी नहीं है. यह सुखद संयोग है कि कांतिलाल भूरिया ही आज देश के आदिम जाति कल्याण मंत्री हैं. उनके मंत्रालय में देश की जनजातियों और वनवासियों के विकास और कल्याण के लिए हर साल अरबों रुपये खर्च होता है. बेहतर होगा कि कांतिलाल भूरिया पातालकोट के प्रति संवेदनशील मानवीय दृष्टिकोण अपनाएं और विकास की दृष्टि से उपेक्षित गरीबों और अभावग्रस्त लोगों को जनकल्याण और विकास के कार्यक्रमों का लाभ दिलाने की पहल करें.
1985 में बनी पहली सड़क
पातालकोट 89 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है. यहां कुल 12 गांव और 27 छोटी-छोटी बस्तियां हैं, लेकिन आज़ादी के 40 वर्ष बाद 1985 में इस क्षेत्र के सबसे बड़े गांव गैलडुब्बा को पक्की सड़क से जोड़ा गया. अभी 12 गांव और 27 बस्तियां सड़क सुविधा से अछूती हैं.
50 साल बाद झंडा फहराया
भारत 15 अगस्त 1947 को आजाद हुआ था, लेकिन पातालकोट में 50 साल बाद 1997 में पहली बार स्वतंत्रता दिवस के दिन स्कूल में तिरंगा झंडा फहराया गया.
सरकारी योजनाओं का हाल यह है कि 1998 में यहां 369 बच्चों में से एक ही बच्चे को विभिन्न प्रकार के टीके लगे थे. यहां शिशुमृत्यु दर और मातृमृत्यु दर सबसे ज़्यादा है.
आंगनवाड़ी केन्द्र बना अफसरों का विश्रामगृह
कहने को 2007 में यहां सरकार ने आंगनवाड़ी केंद्र खोला और बच्चों को स्वास्थ्य सेवाएं तथा पोषण आहार उपलब्ध कराने की व्यवस्था की, लेकिन समय पर चिकित्सा सामग्री और पोषण आहार सामग्री नहीं मिलने से यह केंद्र नियमित काम नहीं करता है.
मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने 3 फरवरी 2007 को पक्के आंगनवाड़ी केंद्र का लोकार्पण किया था, तब उनके साथ शासन के मंत्री, विधायक और ज़िले के कलेक्टर सहित आला अफसर भी पातालकोट में उतरे थे. मुख्यमंत्री ने आंगनवाड़ी केंद्र में रात बिताई और उसके बाद कलेक्टर ने उसमें ताला लगा दिया, अब यह केंद्र ज़िले के छोटे अफसरों के दौरे के समय उनके विश्रामगृह के रूप में काम में लाया जाता है. आंगनवाड़ी कार्यकर्ता अपने घर से ही काम करती हैं, लेकिन सामग्री के अभाव में वह भी काम करना बंद कर देती हैं.
प्रसव और चिकित्सा के लिए 25 किलोमीटर का लंबा रास्ता
पातालकोट के ग्रामीणों को सरकारी चिकित्सा एवं प्रसव सुविधा का लाभ लेने के लिए अपने गांव से 25 किलोमीटर दूर तामिया जाना होता है. सरकार ने मातृ मृत्यु दर और शिशुमृत्यु दर कम करने के लिए घरों में परंपरागत दवाइयों द्वारा प्रसव कराने पर रोक लगा दी है और संस्थागत प्रसव अर्थात अस्पतालों में प्रसव कराने पर उचित प्रोत्साहन राशि देने का नियम बनाया है, इसके साथ ही कन्या जन्म पर लाडली लक्ष्मी योजना के तहत सरकार कन्या के फिक्स डिपॉजिट भी देती हैं जो कि कन्या के वयस्क हो जाने पर एक लाख रुपए की राशि के रूप में उसे मिलता है. इसलिए सरकारी अस्पताल में प्रसव कराने का लालच इस इलाक़े के अभावग्रस्त और ग़रीब लोगों में बढ़ता जा रहा है, लेकिन पूरे इलाक़े में आसपास कोई अस्पताल है ही नहीं. मजबूरी में यहां के निवासियों को अपनी गर्भवती महिला को पांच किलोमीटर पैदल डोंगरा गांव तक ले जाना होता है और फिर वहां घंटों इंतजार के बाद बस या ट्रक के जरिए 25 किलोमीटर दूर तामिया सरकारी अस्पताल पहुंचना पड़ता है. अस्पताल में गर्भवती महिला को यदि सरकारी डॉक्टर ने भर्ती कर लिया तो ठीक, वरना और भी कई दिक्कतों का सामना करना पड़ता है. यही हाल गंभीर बीमारियों से पीड़ित लोगों का हैं, इन्हें भी तामिया ही इलाज के लिए जाना होता है.

कछारी गांव जहां हर शख्‍स बहरा है--------


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गांव के 60 वर्षीय बुजुर्ग राजाराम जो इस बीमारी के शिकार नहीं हैं, के अनुसार यह बीमारी इस गांव में सालों से चली आ रही है. यह बीमारी पैदा होने के साथ नहीं, बल्कि 10-15 वर्ष की उम्र में बच्चों पर प्रभाव डालती है. इस बारे में जांच करने कई बार डॉक्टरों की टीम इस क्षेत्र में आई, परंतु कोई नतीजा नहीं निकला.
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कहते हैं कि भारत चमत्कारों का देश है. यहां ऐसे-ऐसे आश्चर्यजनक, अजब-ग़जब और अद्‌भुत समाचार मिल जाते हैं, जो और कहीं नही मिलते. पर कभी-कभी कुछ समाचार ऐसे होते हैं कि विश्वास ही नहीं होता कि हम 21वीं सदी में जी रहे हैं. कछारी गांव इसका जीगता-जागता उदाहरण है. आधुनिक स्वास्थ्य सुविधाओं का सामाजिक परिवेश में प्रभाव विषय पर राष्ट्रीय स्तर पर कई गोष्ठियां आपने सुनी होंगी, परंतु आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि इस देश में एक गांव ऐसा भी है, जहां केवल बधिर व्यक्ति ही निवास करते हैं. इस गांव का कोई भी व्यक्ति सामान्य स्तर तक सुन पाने के क़ाबिल नहीं है. यह कहानी मध्य प्रदेश के मंडला ज़िले की है, जिसे अधिसूचित आदिवासी ज़िला कहा जाता है.
आदिवासी विकास के नाम पर राज्य एवं केंद्र की सरकारें भले ही लाख दावे पेश करें, मंडला ज़िले के कछारी गांव को उससे कोई फर्क़ नहीं पड़ता. कछारी के निवासियों का दोष केवल इतना है कि उन्होंने एक आदिवासी ज़िले में जन्म लिया, जिसके विकास के लिए अरबों रुपये खर्च किए जाते हैं, लेकिन सिर्फ काग़ज़ों पर! वास्तविकता कुछ और होती है. आदिवासी कल्याण की योजनाएं आज भी राज्य में आम व्यक्ति के हित को पूरा कर पाने में कुछ प्रतिशत ही मददगार हो पाती हैं. सरकार सदा की तरह उदासीन रहती है और कछारी के लोग पीढ़ी दर पीढ़ी बहरेपन के संताप को झेलते रहते हैं. मंडला जिले से 40 किलोमीटर की दूरी पर स्थित कछारी ग्राम पंचायत की आबादी लगभग 500 है. इस गांव में रहने वाले 400 लोग एक रहस्यमय बीमारी के शिकार हैं. एक उम्र तक पहुंचने के बाद उनमें सुनने की क्षमता क्रमश: घटने लगती है. गांव के लोग किसी की बात को पूरी तरह सुन नहीं पाते. नतीजतन वे अधिकतर मूक रहना ही पसंद करते हैं. गांव की लड़कियों की शादी इसी कारण से नहीं हो पाती है, क्योंकि समाज उन्हें बहरा मानता है. मजबूरन गांव में ही परिवारों के मध्य शादी-विवाह के रिश्ते बनते हैं.
गांव के 60 वर्षीय बुजुर्ग राजाराम जो इस बीमारी के शिकार नहीं हैं, के अनुसार यह बीमारी इस गांव में सालों से चली आ रही है. यह बीमारी पैदा होने के साथ नहीं, बल्कि 10-15 वर्ष की उम्र में बच्चों पर प्रभाव डालती है. इस बारे में जांच करने कई बार डॉक्टरों की टीम इस क्षेत्र में आई, परंतु कोई नतीजा नहीं निकला. गांव के पटवारी के अनुसार, न सुन पाने के कारण गांव का भूमि संबंधी रिकॉर्ड भी पूरी तरह तैयार नहीं हो पाता. यह गांव आसपास के क्षेत्रों में बहरा गांव के नाम से चर्चित है. ज़िला चिकित्सालय के मुख्य स्वास्थ्य अधिकारी ने बताया कि इस गांव के बारे में हमें जानकारी मीडिया के माध्यम से मिली हैं. हम नाक, कान, गले के डॉक्टरों को भेजकर उचित इलाज की व्यवस्था करेंगे. उप संचालक सामाजिक न्याय विभाग के के श्रीवास्तव ने भी इन तथ्यों की जानकारी मिलने पर गांव में श्रवणयंत्र बांटने का आश्वासन दिया है. आदिवासी क्षेत्र में इस रहस्यमय बीमारी पर शोध आवश्यक है, लेकिन राज्य सरकार की ओर से अभी तक कोई पहल नहीं की गई.

अब काला धन वापस नहीं आएगा-----


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अब देश की जनता हाथ मलती रह जाएगी, क्योंकि काला धन वापस नहीं आने वाला है. अब यह भी पता नहीं चल पाएगा कि वे कौन-कौन कर्णधार हैं, जिन्होंने देश का पैसा लूट कर स्विस बैंकों में जमा किया है. भारत सरकार ने स्विट्जरलैंड की सरकार के साथ मिलकर एक शर्मनाक कारनामा किया है, लेकिन देश में इसकी चर्चा तक नहीं है. सरकार के कारनामे से विपक्ष भी वाकिफ है. इस पर आंदोलन करना चाहिए था, लेकिन यह भी एक राज़ है कि काले धन के मुद्दे को सबसे पहले उठाने वाले लालकृष्ण आडवाणी और भारतीय जनता पार्टी अब इस मुद्दे पर खामोश हैं. लगता है, काले धन के मामले पर सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों में म्यूचुअल अंडरस्टैंडिग बन गई है कि तुम चुप रहो और मैं भी आंखें बंद कर लेता हूं. जनता कुछ दिनों बाद खामोश हो जाएगी.
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सेंट्रल बोर्ड ऑफ डायरेक्ट टैक्सेज के चेयरमैन प्रकाश चंद्र ने एक चौंकाने वाला बयान दिया. यह बयान स्विट्जरलैंड और भारत के बीच काले धन के मामले में हुए क़रार के बारे में है. इस समझौते को स्विट्जरलैंड की संसद की मंजूरी मिल गई है. इस क़रार में भारतीय नागरिकों के स्विस बैंकों के खातों के बारे में जानकारी प्राप्त करने का प्रावधान है. प्रकाश चंद्र ने कहा कि इस क़ानून के लागू होने के बाद खोले गए खातों के बारे में ही जानकारी मिल सकती है. इस बयान का मतलब आप समझते हैं? इसका मतलब यह है कि जो खाते इस क़ानून के लागू होने से पहले खुले हैं, उनके बारे में अब कोई जानकारी नहीं मिलेगी. यानी भारतीय अधिकारियों को अब तक जमा किए गए काले धन के बारे में कोई जानकारी नहीं मिल सकेगी. इसका मतलब यह है कि भारत सरकार ने स्विट्जरलैंड की सरकार से यह क़रार किया है कि जो खाते पहले से चल रहे हैं, उनकी जानकारी उसे नहीं चाहिए. मतलब यह कि सरकार उन लोगों को बचाने में जुटी है, जिन्होंने अब तक काले धन को स्विस बैंकों में जमा किया है. अब कोई मूर्ख ही होगा, जो इस क़ानून के लागू होने के बाद स्विस बैंकों में अपना खाता खोलेगा. अब यह पता नहीं कि सरकार किसे पकड़ना चाहती है.
अब तक भारत सरकार यह कहती आ रही थी कि स्विट्जरलैंड के क़ानून की वजह से हमें इन खातों के बारे में जानकारी नहीं मिल रही है. तो भारत सरकार को यह क़रार करना चाहिए था कि अब तक जितने भी खाते चल रहे हैं, उनकी जानकारी मिल सके, लेकिन सरकार ने ऐसा नहीं किया. इससे यही सा़फ होता है कि सरकार काले धन के मामले पर देश के लोगों को गुमराह कर रही है. दरअसल, काले धन के मामले पर सरकार सोचती कुछ है, बोलती कुछ है और करती कुछ और है. प्रेस कांफ्रेंस और मीडिया के सामने आते ही सरकार चलाने वाले संत बन जाते हैं. मंत्री और नेता भ्रष्टाचार से लड़ने की कसमें खाते हैं. झूठा विश्वास दिलाने की कोशिश करते हैं कि वे काले धन को वापस लाने के सभी तरह के प्रयास कर रहे हैं. असलियत यह है कि सरकार देश की जनता और कोर्ट के सामने एक के बाद एक झूठ बोल रही है. पर्दे के पीछे से वह जनता के साथ धोखा कर रही है.
अब ज़रा भारत और स्विट्‌जरलैंड के बीच हुए समझौते के बारे में समझते हैं. यह समझौता पिछले साल अगस्त के महीने में भारत के वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी और स्विस फेडेरल कॉउंसलर मिशेलिन कैमे रे ने किया, जिसमें डबल टैक्सेशन समझौते में बदलाव करने पर दोनों राजी हुए. अब इस समझौते को क़ानूनी शक्ल देने के लिए बीते 17 जून को स्विट्जरलैंड की संसद ने इसे पारित कर दिया. स्विट्जरलैंड की संसद में पारित होने के बाद इसे क़ानून बनने में 90 से 100 दिन लगेंगे. प्रकाश चंद्र के मुताबिक़, जब यह समझौता बतौर क़ानून लागू हो जाएगा, उसके बाद भारत सरकार जिस भी बैंक खाते के बारे में जानकारी लेना चाहे, वह मिल सकती है. मतलब यह क़ानून उन्हीं खातों पर लागू होगा, जो इस क़ानून के लागू होने के बाद खोले जाएंगे. अब सवाल यही है कि जब इस क़ानून के दायरे में पहले से चल रहे बैंक खाते नहीं आएंगे, तब इस क़ानून का भारत के लिए क्या मतलब है. इस क़रार से भारत को कोई फायदा नहीं होगा, बल्कि ऩुकसान होगा, क्योंकि अब हमने पुराने खातों के बारे में जानकारी लेने का अधिकार ही खो दिया है. अब जब जांच एजेंसियां पुराने खातों के बारे में कोई जानकारी लेना चाहेंगी तो स्विट्‌जरलैंड की सरकार यह क़रार दिखा देगी और कहेगी कि यह खाता क़ानून लागू होने से पहले का है, हम कोई जानकारी नहीं देंगे. अब सवाल यह है कि भारत सरकार और वित्त मंत्री ने ऐसा करार क्यों किया. देश के लोग स्विस बैंकों में काला धन जमा करने वाले अपराधियों को सज़ा दिलाना चाहते हैं और एक तरफ सरकार है, जिसके कामकाज से तो यही लगता है कि वह साम-दाम-दंड-भेद लगाकर उन्हें बचाने की कोशिश में लगी है.
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जब भारत-स्विट्‌जरलैंड समझौता बतौर क़ानून लागू हो जाएगा, उसके बाद भारत सरकार जिस भी बैंक खाते के बारे में जानकारी लेना चाहे, वह मिल सकती है. मतलब यह क़ानून उन्हीं खातों पर लागू होगा, जो इस क़ानून के लागू होने के बाद खोले जाएंगे. अब सवाल यही है कि जब इस क़ानून के दायरे में पहले से चल रहे बैंक खाते नहीं आएंगे, तब इस क़ानून का भारत के लिए क्या मतलब है. इस क़रार से भारत को कोई फायदा नहीं होगा, बल्कि नुक़सान होगा, क्योंकि अब हमने पुराने खातों के बारे में जानकारी लेने का अधिकार ही खो दिया है. अब जब जांच एजेंसियां पुराने खातों के बारे में कोई जानकारी लेना चाहेंगी तो स्विट्‌जरलैंड की सरकार यह क़रार दिखा देगी और कहेगी कि यह खाता क़ानून लागू होने से पहले का है, हम कोई जानकारी नहीं देंगे.
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ऐसी ही राय देश के सुप्रीम कोर्ट की है. सुप्रीम कोर्ट ने काले धन के मामले पर एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया है, जिसमें जांच की सारी ज़िम्मेदारी सरकार से छीनकर स्पेशल इन्वेस्टिगेशन टीम को दे दी गई है. इस टीम के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज जस्टिस जीवन रेड्डी और जस्टिस एम बी शाह ने अपने आदेश में कई बातें लिखी हैं. सबसे गंभीर बात यह है कि सरकार जो भी कोशिश कर रही है, वह पर्याप्त नहीं है. मतलब यह कि सरकार काले धन के गुनाहगारों को पकड़ने और काला धन वापस लाने को ज़्यादा महत्व नहीं दे रही है. यही वजह है कि सुप्रीम कोर्ट ने इस जांच का ज़िम्मा एक स्पेशल इन्वेस्टिगेशन टीम के हाथों में दे दिया. सुप्रीम कोर्ट ने सा़फ-सा़फ कहा कि सरकार की यह विफलता एक गंभीर चूक है, जिसका असर देश की आंतरिक और बाहरी सुरक्षा पर पड़ता है, लेकिन सरकार ने सुरक्षा के नज़रिए से इसकी कभी जांच की ही नहीं है. कोर्ट ने कहा कि यह समस्या बहुत पेंचीदा है और कई सरकारी एजेंसियों और विभागों से जैसी उम्मीद थी, उन्होंने वैसा नहीं किया. उन्होंने न तो तत्परता दिखाई और न इस मामले को गंभीरता से लिया. जांच के संदर्भ में पूछे गए सवालों का जवाब केंद्र सरकार से नहीं मिला है कि जांच इतनी धीमी क्यों है. कोर्ट की इस बात का भी सरकार ने जवाब नहीं दिया कि नियम बदल कर स्विट्‌जरलैंड के यूबीएस बैंक को भारत में रिटेल बैंकिंग करने की अनुमति क्यों दी गई. जबकि इस बैंक को पहले यह दलील देकर लाइसेंस नहीं मिला था कि इसकी भूमिका संदेहास्पद रही है. सरकार ने जवाब में कहा था कि इससे विदेशी निवेश में फायदा होगा. तो सरकार को यह जवाब देना चाहिए कि क्या हम विदेशी पैसे के लिए देश के क़ानून को ताख पर रख देंगे. सरकार वैसे सुप्रीम कोर्ट को बार-बार यही बताती रही कि वह विदेश में जमा काले धन को वापस लाने के लिए हर संभव प्रयास कर रही है. सरकार कोर्ट में झूठ बोलती रही है, क्योंकि हर बार वह साथ ही यह भी कहती रही कि उसे दूसरे देशों के क़ानून के मुताबिक काम करना पड़ता है, इसलिए यह थोड़ा मुश्किल है. सरकार को यह बताना चाहिए कि जिस नियम-क़ानून का वह हवाला दे रही है, वही नियम-क़ानून तो दूसरे देशों पर भी लागू होता है तो फिर यह कैसे हुआ कि जब अमेरिका ने अपने नागरिकों की लिस्ट मांगी तो उसे मिल गई. अमेरिका ने स्विस बैंकों में काला धन जमा करने वालों के खिला़फ एक सफल अभियान चलाया. अमेरिका और स्विट्जरलैंड के बीच कोई संधि भी नहीं हुई, फिर भी सारे खातों की जानकारी स्विट्जरलैंड ने उसे दे दी. अब तो अमेरिका इस बात के लिए दबाव डाल रहा है कि जिन बैंक अधिकारियों ने इन खातों को खुलवाया या देखरेख की, उन्हें सज़ा मिले. अमेरिका में अब तक 600 से ज़्यादा लोगों पर कार्रवाई हो चुकी है. एक भारत की सरकार है, जिसने ऐसे लोगों को पकड़ने के बजाय ऐसा समझौता कर लिया, जिसके बाद काला धन वापस लाना तो दूर, यह भी पता नहीं चल पाएगा कि स्विस बैंकों में किसके-किसके खाते थे और इन महापुरुषों ने भारत का कितना पैसा लूटा. सुप्रीम कोर्ट को अपने आदेश में यह कहना पड़ा कि काले धन के मुद्दे को गंभीरता से लिए जाने की ज़रूरत है और यह सरकार की प्राथमिक ज़िम्मेदारी बनती है कि वह ऐसी संपदा देश में वापस लाने के लिए हरसंभव प्रयास करे और विदेशी बैंकों में काला धन जमा करने वालों को दंडित करे. क़ानून की अपनी ज़ुबान होती है, जज जब लिखते हैं तो उनका अपना सलीका होता है. जब सुप्रीम कोर्ट को यह कहना पड़े तो समझा जा सकता है कि कोर्ट ने अब यह मान लिया है कि सरकार काले धन के गुनाहगारों को पकड़ने की इच्छुक नहीं है. जिस तरह देश की जनता को उन लोगों के नामों का इंतजार है, ठीक वही निर्देश सुप्रीम कोर्ट ने दिया, क्योंकि अब तक सरकार यह भी बताना नहीं चाहती है कि काले धन के मामले में किन-किन लोगों से पूछताछ हुई है. लिचटेंस्टीन बैंक की लिस्ट में शामिल लोगों पर जांच चल रही है भी या नहीं. सरकार की गोपनीयता अब देश को खटक रही है.
सुप्रीम कोर्ट में एक दूसरी घटना घटी. सॉलिसिटर जनरल गोपाल सुब्रमण्यम ने इस्ती़फा दे दिया. सरकार ने जानबूझ कर उन्हें अपमानित करने की कोशिश की. अब सवाल यह है कि सरकार गोपाल सुब्रमण्यम को क्यों अपमानित करना चाह रही है, क्या नाराज़ होकर उन्होंने इस्ती़फा दे दिया? असल कहानी कुछ और ही है. सुप्रीम कोर्ट ने काले धन की जांच के लिए एक स्पेशल इन्वेस्टिगेशन टीम बना दी. बताया यह गया कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला गोपाल सुब्रमण्यम की दलीलों पर आधारित था. सरकार को लगा कि सॉलिसिटर जनरल ने अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर यह काम किया. इस आदेश के अगले ही दिन इंफोर्समेंट डायरेक्टरेट ने वित्त मंत्रालय को यह सूचित किया कि वह गोपाल सुब्रमण्यम के कथनों से सहमत नहीं है. दरअसल, सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश का प्रवर्तन निदेशालय और सरकार दोनों ही विरोध कर रहे हैं. ये नहीं चाहते थे कि सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज इस जांच का नेतृत्व करें, लेकिन अदालत में गोपाल सुब्रमण्यम ने इस पर सहमति दे दी. इससे पहले भी गोपाल सुब्रमण्यम सरकार के निशाने पर रह चुके हैं, जब 2-जी स्पेक्ट्रम मामले में सुप्रीम कोर्ट ने प्रधानमंत्री की निष्क्रियता पर हल़फनामा मांगा था. सरकार की तऱफ गोपाल सुब्रमण्यम कोर्ट में दलील दे रहे थे, लेकिन इसके बाद उन्हें हटाकर एटॉर्नी जनरल जी ई वाहनवती को इस मामले में लगाया गया. सरकारी महकमे गोपाल सुब्रमण्यम से इसलिए नाराज़ हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि सुप्रीम कोर्ट में वह सरकार को बचा नहीं पाए. यही वजह है कि टेलीकाम मिनिस्टर कपिल सिब्बल ने उनके रहते हुए किसी प्राइवेट वकील को हायर कर लिया. इस घटना से सरकार को यह सबक लेने की ज़रूरत है कि काले धन और घोटालों के मामलों में वह किस जगह पर खड़ी है. कोर्ट और देश की जनता का नज़रिया इन मामलों पर क्या है. सुप्रीम कोर्ट अगर काले धन की जांच तेज़ करना चाहता है, जांच में पारदर्शिता लाना चाहता है तो इसमें क्या ग़लत है?
मीडिया में कई लोग यह बहस कर रहे हैं कि जांच कराने का काम सरकार का है और अदालत को इससे दूर रहना चाहिए. अब यह समझ में नहीं आता है कि मीडिया के ये दिग्गज ऐसा क्यों कह रहे हैं. उन्हें यह भी जवाब देना चाहिए कि अगर सरकार अपना काम ठीक से नहीं करती है तो उसकी सज़ा क्या हो, किसे ज़िम्मेदार ठहराया जाए. सुप्रीम कोर्ट के फैसले से सरकारी तंत्र पर जनता का विश्वास बना हुआ है, वरना जिस तरह सरकार भ्रष्टाचार और काले धन के मामले पर टालमटोल कर रही है, उससे तो जनता का विश्वास ही टूट जाएगा. काला धन और भ्रष्टाचार को लेकर देश की जनता चिंतित है. आज जो माहौल है, उसमें तो यही कहा जा सकता है कि जो भी काले धन और भ्रष्टाचार से नहीं लड़ेगा, उसे इसका समर्थक मान लिया जाएगा. जब 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाला सामने आया तो सरकार ने कहा कि सब कुछ नियम-क़ानून के दायरे में हुआ है. कपिल सिब्बल ने अपनी सारी बुद्धि सरकार को बचाने में लगा दी. परिणाम क्या हुआ? ए राजा, कनीमोई और कंपनियों के मालिक जेल में हैं और सरकार कठघरे में है. सरकार के पास विदेशों में काला धन जमा कराने वालों की लिस्ट है, लेकिन वह उसे सार्वजनिक नहीं कर रही है. ऐसे में तो लोग यही समझेंगे कि सरकार काले धन के गुनाहगारों को बचा रही है. साथ ही सरकार ने स्विट्जरलैंड के साथ यह शर्मनाक समझौता करके एक और गलती की है. सुप्रीम कोर्ट पर जनता का भरोसा है. देखना यह है कि सरकार की इस भूल को सुप्रीम कोर्ट कैसे सुधारती है और काले धन को वापस लेकर आती है.

अन्ना का प्रस्ताविक आमरण अनशन: सरकारी दमन से निपटने की तैयारी क्या है--?


अन्ना और उनके समर्थकों की तैयारी पहले से अधिक है. इसलिए कहा जा सकता है कि आंदोलन अधिक संगठित एवं सुनियोजित होगा, लेकिन अभी तक अन्ना ने आंदोलन चलाने के लिए किसी भी संगठन की घोषणा नहीं की है. वह इसे अभियान के तौर पर चलाना चाहते हैं, जिसमें देश का हर नागरिक भागीदारी कर सके.
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अन्ना ने मज़बूत लोकपाल बिल पेश न किए जाने की स्थिति में आगामी 16 अगस्त से आमरण अनशन की घोषणा की है. सरकार ने अनशन न करने देने का मन बना रखा है. बाबा रामदेव और उनके साथी आंदोलनकारियों को लाठी के दम पर खदेड़ कर सरकार ने सा़फ कर दिया है कि उसे अन्ना और उनके समर्थकों को खदेड़ने में कोई वक़्त नहीं लगेगा. सरकार से निपटने के लिए अन्ना और उनके समर्थकों की क्या तैयारी है, यह पूरा देश जानना चाहता है. अब तक उन्होंने केवल समर्थकों से सड़कों पर निकलने की अपील मात्र की है, लेकिन भ्रष्टाचार मुक्त भारत का सपना लेकर सड़क पर निकलने भर से आंदोलन सफल होने वाला नहीं है. विश्लेषकों का मानना है कि अन्ना की सफलता राजधानी क्षेत्र, एनसीआर से मिलने वाले समर्थन पर निर्भर करेगी. यदि दिल्ली और आसपास के इलाक़ों से लाखों की संख्या में आम नागरिक 16 अगस्त को राजधानी के लिए निकल पड़ें तो जल्दी नतीजे निकलने की उम्मीद की जा सकती है, लेकिन यह मानने वालों की कमी नहीं है कि सरकार दिल्ली की सीमाओं को सील कर अन्ना समर्थकों को जंतर-मंतर पर आने से रोक सकती है.
यदि सरकार जंतर-मंतर पर धारा 144 लगा दे और राजघाट जैसा कोई विकल्प न दे, तब अन्ना क्या करेंगे? सरकार शांति भंग होने की आशंका की आड़ में अन्ना के दिल्ली प्रवेश पर पाबंदी भी लगा सकती है. ऐसी स्थिति में यदि अन्ना दिल्ली के बाहर अनशन शुरू करते हैं, तब उसका असर सरकार पर क्या पड़ेगा, यह आकलन अभी करना जल्दबाज़ी होगी. कम से कम रामदेव का हरिद्वार का अनशन तो यही बताता है कि दिल्ली से हटते ही आंदोलन की ताक़त कमज़ोर दिखलाई देने लगती है. यह तो तय है कि आंदोलन देश के कोने-कोने में चलेगा. अन्ना और उनके समर्थकों की तैयारी पहले से अधिक है. इसलिए कहा जा सकता है कि आंदोलन अधिक संगठित एवं सुनियोजित होगा, लेकिन अभी तक अन्ना ने आंदोलन चलाने के लिए किसी भी संगठन की घोषणा नहीं की है. वह इसे अभियान के तौर पर चलाना चाहते हैं, जिसमें देश का हर नागरिक भागीदारी कर सके. लेकिन यह याद रखना ज़रूरी है कि जे पी और वी पी ने जब आंदोलन चलाए थे, तब उनके पास पार्टियों का संगठन था, इसके बावजूद भ्रष्टाचार को रोक पाने के संदर्भ में देश का आम नागरिक दोनों को विफल मानता है. ऐसी स्थिति में अन्ना बिना संगठन के क्या कुछ कर पाएंगे, यह विचारणीय प्रश्न है. सरकार आंदोलनों के धैर्य की परीक्षा लेती है. वह आंदोलन को विफल करने के लिए दमन का सहारा लेती है और उसे विभाजित करने की कोशिश भी करती है. सरकार यदि अन्ना के साथ दोनों रणनीतियां अपना कर भी विफल हो जाती है तो उसका प्रयास आंदोलनकारियों के बीच अपने लोगों की घुसपैठ कराकर हिंसा फैलाने का होगा. यदि अन्ना का अनशन लंबा खिंचता है और देश के नागरिकों को यह लगने लगता है कि अन्ना की जान खतरे में है, तब पूरे आंदोलन का भावना प्रधान हो जाना तय है. इस स्थिति का लाभ उठाते हुए सरकार देश भर में या कुछ स्थानों पर हिंसा फैलाने का षड्‌यंत्र कर सकती है, जिसकी आड़ में उसे अधिक दमन करने का मौक़ा मिलेगा और कहा जा सकेगा कि चौरीचौरा के आंदोलन के दौरान हिंसा फैलने के बाद यदि गांधी जी अपना आंदोलन वापस ले सकते हैं तो अन्ना को भी देश हित में आंदोलन वापस ले लेना चाहिए.
संसद का सत्र शुरू होने और बिल पेश किए जाने के बाद सरकार सबसे पहले तो यह साबित करने की कोशिश करेगी कि मज़बूत लोकपाल बिल लाया गया है. सरकार के हर क़दम को उचित बताने वाले बुद्धिजीवी एनईसी के माध्यम से अपने तिकड़म शुरू कर चुके हैं. अ़खबारों में इन बुद्धिजीवियों के लेख भी लगातार प्रकाशित हो रहे हैं. सरकार की रणनीति यह बताने की होगी कि अन्ना के साथ नागरिक समाज नहीं है. सोनिया टीम के माध्यम से सरकार यह बताएगी कि नागरिक समाज बंटा हुआ है. सरकार की रणनीति मीडिया और घुसपैठियों के माध्यम से अन्ना और रामदेव को आमने-सामने खड़ा करने की रही है. बीच में एक-दूसरे के खिलाफ़ तल्ख बयान देकर दोनों यदाकदा सरकार के षड्‌यंत्र में फंसते दिखाई दिए हैं, लेकिन भ्रष्टाचार मिटाने की इच्छा रखने वाला आम नागरिक चाहता है कि दोनों एक-दूसरे का साथ दें. जब अन्ना ने अनशन किया, तब कई लोगों ने कहा कि रामदेव को खत्म करने के लिए यह सरकारी प्रयास है, लेकिन जब रामदेव को चार मंत्री लेने पहुंच गए, तब लोगों को लगा कि जन लोकपाल बिल के लिए कमेटी बनाकर सरकार घिर चुकी है, इस कारण उसकी कोशिश बाबा को साथ लेने की है. बाबा के मंच पर ऋतंभरा-आरएसएस के आने से बाबा की लोकप्रियता एकदम सिकुड़ गई, लेकिन पुलिसिया दमन ने बाबा को फिर दम दे दिया. अगर रामदेव और उनके समर्थकों ने असली सत्याग्रही के तौर पर मुक़ाबला किया होता तो बाज़ी पलट सकती थी. सरकार द्वारा हरिद्वार पहुंचाए जाने के बाद बाबा के अस्पताल पहुंचने पर जल्दबाजी में अनशन समाप्त कर देने से बाबा की छवि पर असर पड़ा है.
सरकार की रणनीति लोकपाल बिल ड्राफ्टिंग कमेटी के सदस्यों को बदनाम करने की थी, लेकिन टीम अन्ना बिना दाग़दार हुए इससे उबर गई. अब सरकार की कोशिश बाबा को बदनाम करने की है. उम्मीद करनी चाहिए कि वह जल्द ही इस षड्‌यंत्र से निपटने में कामयाब होंगे. अन्ना और बाबा दोनों यदि तय कर लें कि वे एक- दूसरे को पूरा साथ देंगे और किसी के उकसावे में नहीं आएंगे तो दोनों मिलकर सरकार से मुक़ाबला कर सकते हैं. दोनों आंदोलन आम लोगों के इर्द-गिर्द थे, लेकिन दोनों की टीमें मीडिया ने बना दीं. यदि ये दोनों टीमें एक साथ काम करना शुरू कर दें और देश भर के जनांदोलनों के नेतृत्व से मिलकर एक सामूहिक नेतृत्व पेश करें तो 16 अगस्त से होने वाले आंदोलन में नई ऊर्जा दिखाई पड़ेगी. सवाल यह है कि 16 अगस्त के आंदोलन को यदि सरकार कुचलने का मन बनाती है तो देश में क्या स्थिति बनेगी? किसी भी पुलिसिया कार्रवाई से अन्ना के आंदोलन को ताक़त मिलना तय है, क्योंकि अब तक अन्ना के साथ आंख मिचौली खेल रहीं तमाम पार्टियां पुलिस दमन के खिला़फ बोलने के लिए उसी तरह मजबूर होंगी, जैसे रामदेव पर कार्रवाई के बाद हुई थीं. किंतु-परंतु के साथ सत्तारूढ़ दल के नेताओं को भी उस दमन की निंदा करने के लिए मजबूर होना पड़ा था.
देश भर में आंदोलनकारियों की जमात में अधिकतर धर्मनिरपेक्ष विचारधारा के लोग शामिल हैं. आज धीरे-धीरे पूरा वातावरण कांग्रेस-यूपीए के खिला़फ होता चला जा रहा है. भ्रष्टाचार मुक्त भारत का सपना देखने वालों के लिए तात्कालिक मुद्दा कांग्रेस मुक्त केंद्र सरकार हो सकता है. यदि भ्रष्टाचार और काले धन को लेकर आंदोलन ज़ोर पकड़ता है तो अगले आम चुनाव समय से पूर्व कराने की स्थिति बन सकती है. आंदोलनकारी अब तक जो रु़ख सार्वजनिक करते रहे हैं, उससे सा़फ है कि फिलहाल वे चुनाव के चक्कर में नहीं हैं, उनकी रुचि सत्ता परिवर्तन में नहीं है. इस मायने में अब तक यह आंदोलन जे पी आंदोलन से अलग है. हालांकि शुरुआती दौर में जे पी आंदोलन सत्ता परिवर्तन का नहीं था, लेकिन इंदिरा गांधी द्वारा इमरजेंसी थोपे जाने के बाद आंदोलन की दिशा यूं बदली कि संपूर्ण क्रांति का सपना देख रहे जे पी को भी सत्ता परिवर्तन की बात खुलकर कहनी पड़ी और जनता पार्टी के गठन में ऐतिहासिक भूमिका का निर्वाह करना पड़ा. जब सत्ता परिवर्तन की बात होती है, तब आम आदमी को लगता है कि कौन से दल दूध के धुले हैं. भारतीय राजनीति दो ध्रुवों में सिमट चुकी हैं, पहला कांग्रेस-यूपीए और दूसरा भाजपा-एनडीए है, जिनके प्रति आंदोलनकारियों की झिझक किसी से छिपी नहीं है. कांग्रेस भ्रष्टाचार के आंदोलन को कमज़ोर करने के लिए सांप्रदायिकता का कार्ड चलाने की रणनीति बनाए हुए है, इसीलिए वह दोनों आंदोलनों के पीछे आरएसएस का हाथ बता रही है. यदि आंदोलनकारी इस षड्‌यंत्र में नहीं फंसेंगे तो वे मज़बूती के साथ सरकार का मुक़ाबला करने और सत्ता परिवर्तन में अवश्य कामयाब होंगे. जहां तक भ्रष्टाचार खत्म करने का सवाल है तो पूरा देश मानता है कि केवल जन लोकपाल बिल भ्रष्टाचार खत्म करने में कामयाब नहीं होगा, लेकिन इस बिल को लागू करने वाली सरकार यदि दृढ़ संकल्प और इच्छाशक्ति रखे तो वह भ्रष्टाचारियों पर एक सीमा तक अंकुश लगाने में कामयाब हो सकती है. जिस तरह दहेज प्रथा केवल क़ानून से नहीं रोकी जा सकी, अनुसूचित जाति-जनजातियों पर अत्याचार नहीं रोका जा सका, उसी तरह केवल क़ानून बनाकर भ्रष्टाचार खत्म नहीं किया जा सकता. अन्ना-रामदेव एवं उनके समर्थक आंदोलनकारियों को सामाजिक स्तर पर भ्रष्टाचारियों पर दबाव बनाने और उनका सामाजिक बहिष्कार करने के बारे में गंभीरता से सोचना पड़ेगा.

भारतीय सशस्‍त्र सेनाएं----------


भारत सरकार भारत की तथा इसके प्रत्‍येक भाग की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए उत्तरदायी है। भारतीय शस्‍त्र सेनाओं की सर्वोच्‍च कमान भारत के राष्‍ट्रपति के पास है। राष्‍ट्र की रक्षा का दायित्‍व मंत्री मंडल के पास होता है। इसके निर्वहन रक्षा मंत्रालय से किया जाता है, जो सशस्‍त्र बलों को देश की रक्षा के संदर्भ में उनके दायित्‍व के निर्वहन के लिए नीतिगत रूपरेखा और जानकारियां प्रदान करता है। भारतीय शस्‍त्र सेना में तीन प्रभाग हैं: भारतीय थल सेना, भारतीय नौ सेना और भारतीय वायु सेना।
भारतीय थल सेना------------------
भारतीय उप महाद्वीप में सेना की ताकत और राज्‍यों के शासन के नियंत्रण की तलाश में अनेक साम्राज्‍यों का आसंजक जमाव देखा गया। जैसे जैसे समय आगे बढ़ा सामाजिक मानकों को एक झण्‍डे तले कार्य स्‍थल के लोकाचार, अधिकारों और लाभों की प्रणाली तथा सेवाएं प्राप्‍त हुई।
जैसा कि हम जानते हैं भारतीय सेना ब्रिटिश उपनिवेशवाद से स्‍वतंत्रता पाने के बाद देश में प्रचालनरत हुई। भारतीय थल सेना का मुख्‍यालय नई दिल्‍ली में स्थित है और यह चीफ ऑफ आर्मी स्‍टाफ (सीओएएस), जो समग्र रूप से सेना की कमान, नियंत्रण और प्रशासन के लिए उत्तरदायी है। सेना को 6 प्रचालन रत कमांडों (क्षेत्र की सेनाएं) और एक प्रशिक्षण कमांड में बांटा गया है, जो एक लेफ्टिनेंट जनरल के नियंत्रण में होती है, जो वाइस चीफ ऑफ आर्मी स्‍टाफ (वीसीओएएस) के समकक्ष होते हैं और नई दिल्‍ली में सेना मुख्‍यालय के नियंत्रण में कार्य करते हैं।

भारतीय नौ सेना-------------------
आधुनिक भारतीय नौ सेना की नीव 17वीं शताब्‍दी में रखी गई थी, जब ईस्‍ट इंडिया कंपनी ने एक समुद्री सेना के रूप में ईस्‍ट इंडिया कंपनी की स्‍थापना की और इस प्रकार 1934 में रॉयल इंडियन नेवी की स्‍थापना हुई। भारतीय नौ सेना का मुख्‍यालय नई दिल्‍ली में स्थित है और यह मुख्‍य नौ सेना अधिकारी – एक एड‍मिरल के नियंत्रण में होता है। भारतीय नौ सेना 3 क्षेत्रों की कमांडों के तहत तैनात की गई है, जिसमें से प्रत्‍येक का नियंत्रण एक फ्लैग अधिकारी द्वारा किया जाता है। पश्चिमी नौ सेना कमांड का मुख्‍यालय अरब सागर में मुम्‍बई में स्थित है; दक्षिणी नौ सेना कमांड केरल के कोच्चि (कोचीन) में है तथा यह भी अरब सागर में स्थित है; पूर्वी नौ सेना कमांड बंगाल की खाड़ी में आंध्र प्रदेश के विशाखापट्नम में है।

भारतीय वायु सेना----------------
भारतीय वायु सेना की स्‍थापना 8 अक्‍तूबर 1932 को की गई और 1 अप्रैल 1954 को एयर मार्शल सुब्रोतो मुखर्जी, भारतीय नौ सेना के एक संस्‍थापक सदस्‍य ने प्रथम भारतीय वायु सेना प्रमुख का कार्यभार संभाला। समय बितने के साथ भारतीय वायु सेना ने अपने हवाई जहाजों और उपकरणों में अत्‍यधिक उन्‍नयन किए हैं और इस प्रक्रिया के भाग के रूप में इसमें 20 नए प्रकार के हवाई जहाज शामिल किए हैं। 20वीं शताब्‍दी के अंतिम दशक में भारतीय वायु सेना में महिलाओं को शामिल करने की पहल के लिए संरचना में असाधारण बदलाव किए गए, जिन्‍हें अल्‍प सेवा कालीन कमीशन हेतु लिया गया यह ऐसा समय था जब वायु सेना ने अब तक के कुछ अधिक जोखिम पूर्ण कार्य हाथ में लिए हुए थे।

14 अगस्त 1947 कि रात को आजादी नहीं आई बल्कि ट्रान्सफर ऑफ़ पॉवर का एग्रीमेंट हुआ था-


आदरणीय दोस्तों
आपने देखा होगा कि राजीव भाई बराबर सत्ता के हस्तांतरण के संधि के बारे में बाट करते थे और आप बार बार सोचते होंगे कि आखिर ये क्या है ? मैंने उनके अलग अलग व्याख्यानों में से इन सब को जोड़ के आप लोगों के लिए लाया हूँ उम्मीद है कि आपको पसंद आएगी | पढ़िए सत्ता के हस्तांतरण की संधि ( Transfer of Power Agreement ) यानि भारत के आज़ादी की संधि | ये इतनी खतरनाक संधि है की अगर आप अंग्रेजों द्वारा सन 1615 से लेकर 1857 तक किये गए सभी 565 संधियों या कहें साजिस को जोड़ देंगे तो उस से भी ज्यादा खतरनाक संधि है ये | 14 अगस्त 1947 की रात को जो कुछ हुआ है वो आजादी नहीं आई बल्कि ट्रान्सफर ऑफ़ पॉवर का एग्रीमेंट हुआ था पंडित नेहरु और लोर्ड माउन्ट बेटन के बीच में | Transfer of Power और Independence ये दो अलग चीजे है | स्वतंत्रता और सत्ता का हस्तांतरण ये दो अलग चीजे है | और सत्ता का हस्तांतरण कैसे होता है ? आप देखते होंगे क़ि एक पार्टी की सरकार है, वो चुनाव में हार जाये, दूसरी पार्टी की सरकार आती है तो दूसरी पार्टी का प्रधानमन्त्री जब शपथ ग्रहण करता है, तो वो शपथ ग्रहण करने के तुरंत बाद एक रजिस्टर पर हस्ताक्षर करता है, आप लोगों में से बहुतों ने देखा होगा, तो जिस रजिस्टर पर आने वाला प्रधानमन्त्री हस्ताक्षर करता है, उसी रजिस्टर को ट्रान्सफर ऑफ़ पॉवर की बुक कहते है और उस पर हस्ताक्षर के बाद पुराना प्रधानमन्त्री नए प्रधानमन्त्री को सत्ता सौंप देता है | और पुराना प्रधानमंत्री निकल कर बाहर चला जाता है | यही नाटक हुआ था 14 अगस्त 1947 की रात को 12 बजे | लार्ड माउन्ट बेटन ने अपनी सत्ता पंडित नेहरु के हाथ में सौंपी थी, और हमने कह दिया कि स्वराज्य आ गया | कैसा स्वराज्य और काहे का स्वराज्य ? अंग्रेजो के लिए स्वराज्य का मतलब क्या था ? और हमारे लिए स्वराज्य का मतलब क्या था ? ये भी समझ लीजिये | अंग्रेज कहते थे क़ि हमने स्वराज्य दिया, माने अंग्रेजों ने अपना राज तुमको सौंपा है ताकि तुम लोग कुछ दिन इसे चला लो जब जरुरत पड़ेगी तो हम दुबारा आ जायेंगे | ये अंग्रेजो का interpretation (व्याख्या) था | और हिन्दुस्तानी लोगों की व्याख्या क्या थी कि हमने स्वराज्य ले लिया | और इस संधि के अनुसार ही भारत के दो टुकड़े किये गए और भारत और पाकिस्तान नामक दो Dominion States बनाये गए हैं | ये Dominion State का अर्थ हिंदी में होता है एक बड़े राज्य के अधीन एक छोटा राज्य, ये शाब्दिक अर्थ है और भारत के सन्दर्भ में इसका असल अर्थ भी यही है | अंग्रेजी में इसका एक अर्थ है "One of the self-governing nations in the British Commonwealth" और दूसरा "Dominance or power through legal authority "| Dominion State और Independent Nation में जमीन आसमान का अंतर होता है | मतलब सीधा है क़ि हम (भारत और पाकिस्तान) आज भी अंग्रेजों के अधीन/मातहत ही हैं | दुःख तो ये होता है की उस समय के सत्ता के लालची लोगों ने बिना सोचे समझे या आप कह सकते हैं क़ि पुरे होशो हवास में इस संधि को मान लिया या कहें जानबूझ कर ये सब स्वीकार कर लिया | और ये जो तथाकथित आज़ादी आयी, इसका कानून अंग्रेजों के संसद में बनाया गया और इसका नाम रखा गया Indian Independence Act यानि भारत के स्वतंत्रता का कानून | और ऐसे धोखाधड़ी से अगर इस देश की आजादी आई हो तो वो आजादी, आजादी है कहाँ ? और इसीलिए गाँधी जी (महात्मा गाँधी) 14 अगस्त 1947 की रात को दिल्ली में नहीं आये थे | वो नोआखाली में थे | और कोंग्रेस के बड़े नेता गाँधी जी को बुलाने के लिए गए थे कि बापू चलिए आप | गाँधी जी ने मना कर दिया था | क्यों ? गाँधी जी कहते थे कि मै मानता नहीं कि कोई आजादी आ रही है | और गाँधी जी ने स्पस्ट कह दिया था कि ये आजादी नहीं आ रही है सत्ता के हस्तांतरण का समझौता हो रहा है | और गाँधी जी ने नोआखाली से प्रेस विज्ञप्ति जारी की थी | उस प्रेस स्टेटमेंट के पहले ही वाक्य में गाँधी जी ने ये कहा कि मै हिन्दुस्तान के उन करोडो लोगों को ये सन्देश देना चाहता हु कि ये जोतथाकथित आजादी (So Called Freedom) आ रही है ये मै नहीं लाया | ये सत्ता के लालची लोग सत्ता के हस्तांतरण के चक्कर में फंस कर लाये है | मै मानता नहीं कि इस देश में कोई आजादी आई है | और 14 अगस्त 1947 की रात को गाँधी जी दिल्ली में नहीं थे नोआखाली में थे | माने भारत की राजनीति का सबसे बड़ा पुरोधा जिसने हिन्दुस्तान की आज़ादी की लड़ाई की नीव रखी हो वो आदमी 14 अगस्त 1947 की रात को दिल्ली में मौजूद नहीं था | क्यों ? इसका अर्थ है कि गाँधी जी इससे सहमत नहीं थे | (नोआखाली के दंगे तो एक बहाना था असल बात तो ये सत्ता का हस्तांतरण ही था) और 14 अगस्त 1947 की रात को जो कुछ हुआ है वो आजादी नहीं आई .... ट्रान्सफर ऑफ़ पॉवर का एग्रीमेंट लागू हुआ था पंडित नेहरु और अंग्रेजी सरकार के बीच में | अब शर्तों की बात करता हूँ , सब का जिक्र करना तो संभव नहीं है लेकिन कुछ महत्वपूर्ण शर्तों की जिक्र जरूर करूंगा जिसे एक आम भारतीय जानता है और उनसे परिचित है ...............
इस संधि की शर्तों के मुताबिक हम आज भी अंग्रेजों के अधीन/मातहत ही हैं | वो एक शब्द आप सब सुनते हैं न Commonwealth Nations | अभी कुछ दिन पहले दिल्ली में Commonwealth Game हुए थे आप सब को याद होगा ही और उसी में बहुत बड़ा घोटाला भी हुआ है | ये Commonwealth का मतलब होता है समान सम्पति | किसकी समान सम्पति ? ब्रिटेन की रानी की समान सम्पति | आप जानते हैं ब्रिटेन की महारानी हमारे भारत की भी महारानी है और वो आज भी भारत की नागरिक है और हमारे जैसे 71 देशों की महारानी है वो | Commonwealth में 71 देश है और इन सभी 71 देशों में जाने के लिए ब्रिटेन की महारानी को वीजा की जरूरत नहीं होती है क्योंकि वो अपने ही देश में जा रही है लेकिन भारत के प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को ब्रिटेन में जाने के लिए वीजा की जरूरत होती है क्योंकि वो दुसरे देश में जा रहे हैं | मतलब इसका निकाले तो ये हुआ कि या तो ब्रिटेन की महारानी भारत की नागरिक है या फिर भारत आज भी ब्रिटेन का उपनिवेश है इसलिए ब्रिटेन की रानी को पासपोर्ट और वीजा की जरूरत नहीं होती है अगर दोनों बाते सही है तो 15 अगस्त 1947 को हमारी आज़ादी की बात कही जाती है वो झूठ है | और Commonwealth Nations में हमारी एंट्री जो है वो एक Dominion State के रूप में है न क़ि Independent Nation के रूप में| इस देश में प्रोटोकोल है क़ि जब भी नए राष्ट्रपति बनेंगे तो 21 तोपों की सलामी दी जाएगी उसके अलावा किसी को भी नहीं | लेकिन ब्रिटेन की महारानी आती है तो उनको भी 21 तोपों की सलामी दी जाती है, इसका क्या मतलब है? और पिछली बार ब्रिटेन की महारानी यहाँ आयी थी तो एक निमंत्रण पत्र छपा था और उस निमंत्रण पत्र में ऊपर जो नाम था वो ब्रिटेन की महारानी का था और उसके नीचे भारत के राष्ट्रपति का नाम था मतलब हमारे देश का राष्ट्रपति देश का प्रथम नागरिक नहीं है | ये है राजनितिक गुलामी, हम कैसे माने क़ि हम एक स्वतंत्र देश में रह रहे हैं | एक शब्द आप सुनते होंगे High Commission ये अंग्रेजों का एक गुलाम देश दुसरे गुलाम देश के यहाँ खोलता है लेकिन इसे Embassy नहीं कहा जाता | एक मानसिक गुलामी का उदहारण भी देखिये ....... हमारे यहाँ के अख़बारों में आप देखते होंगे क़ि कैसे शब्द प्रयोग होते हैं - (ब्रिटेन की महारानी नहीं) महारानी एलिज़ाबेथ, (ब्रिटेन के प्रिन्स चार्ल्स नहीं) प्रिन्स चार्ल्स , (ब्रिटेन की प्रिंसेस नहीं) प्रिंसेस डैना (अब तो वो हैं नहीं), अब तो एक और प्रिन्स विलियम भी आ गए है |
भारत का नाम INDIA रहेगा और सारी दुनिया में भारत का नाम इंडिया प्रचारित किया जायेगा और सारे सरकारी दस्तावेजों में इसे इंडिया के ही नाम से संबोधित किया जायेगा | हमारे और आपके लिए ये भारत है लेकिन दस्तावेजों में ये इंडिया है | संविधान के प्रस्तावना में ये लिखा गया है "India that is Bharat " जब क़ि होना ये चाहिए था "Bharat that was India " लेकिन दुर्भाग्य इस देश का क़ि ये भारत के जगह इंडिया हो गया | ये इसी संधि के शर्तों में से एक है | अब हम भारत के लोग जो इंडिया कहते हैं वो कहीं से भी भारत नहीं है | कुछ दिन पहले मैं एक लेख पढ़ रहा था अब किसका था याद नहीं आ रहा है उसमे उस व्यक्ति ने बताया था कि इंडिया का नाम बदल के भारत कर दिया जाये तो इस देश में आश्चर्यजनक बदलाव आ जायेगा और ये विश्व की बड़ी शक्ति बन जायेगा अब उस शख्स के बात में कितनी सच्चाई है मैं नहीं जानता, लेकिन भारत जब तक भारत था तब तक तो दुनिया में सबसे आगे था और ये जब से इंडिया हुआ है तब से पीछे, पीछे और पीछे ही होता जा रहा है |
भारत के संसद में वन्दे मातरम नहीं गया जायेगा अगले 50 वर्षों तक यानि 1997 तक | 1997 में पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने इस मुद्दे को संसद में उठाया तब जाकर पहली बार इस तथाकथित आजाद देश की संसद में वन्देमातरम गाया गया | 50 वर्षों तक नहीं गाया गया क्योंकि ये भी इसी संधि की शर्तों में से एक है | और वन्देमातरम को ले के मुसलमानों में जो भ्रम फैलाया गया वो अंग्रेजों के दिशानिर्देश पर ही हुआ था | इस गीत में कुछ भी ऐसा आपत्तिजनक नहीं है जो मुसलमानों के दिल को ठेस पहुचाये | आपत्तिजनक तो जन,गन,मन में है जिसमे एक शख्स को भारत भाग्यविधाता यानि भारत के हर व्यक्ति का भगवान बताया गया है या कहें भगवान से भी बढ़कर |
इस संधि की शर्तों के अनुसार सुभाष चन्द्र बोस को जिन्दा या मुर्दा अंग्रेजों के हवाले करना था | यही वजह रही क़ि सुभाष चन्द्र बोस अपने देश के लिए लापता रहे और कहाँ मर खप गए ये आज तक किसी को मालूम नहीं है | समय समय पर कई अफवाहें फैली लेकिन सुभाष चन्द्र बोस का पता नहीं लगा और न ही किसी ने उनको ढूँढने में रूचि दिखाई | मतलब भारत का एक महान स्वतंत्रता सेनानी अपने ही देश के लिए बेगाना हो गया | सुभाष चन्द्र बोस ने आजाद हिंद फौज बनाई थी ये तो आप सब लोगों को मालूम होगा ही लेकिन महत्वपूर्ण बात ये है क़ि ये 1942 में बनाया गया था और उसी समय द्वितीय विश्वयुद्ध चल रहा था और सुभाष चन्द्र बोस ने इस काम में जर्मन और जापानी लोगों से मदद ली थी जो कि अंग्रेजो के दुश्मन थे और इस आजाद हिंद फौज ने अंग्रेजों को सबसे ज्यादा नुकसान पहुँचाया था | और जर्मनी के हिटलर और इंग्लैंड के एटली और चर्चिल के व्यक्तिगत विवादों की वजह से ये द्वितीय विश्वयुद्ध हुआ था और दोनों देश एक दुसरे के कट्टर दुश्मन थे | एक दुश्मन देश की मदद से सुभाष चन्द्र बोस ने अंग्रेजों के नाकों चने चबवा दिए थे | एक तो अंग्रेज उधर विश्वयुद्ध में लगे थे दूसरी तरफ उन्हें भारत में भी सुभाष चन्द्र बोस की वजह से परेशानियों का सामना करना पड़ रहा था | इसलिए वे सुभाष चन्द्र बोस के दुश्मन थे |
इस संधि की शर्तों के अनुसार भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, अशफाकुल्लाह, रामप्रसाद विस्मिल जैसे लोग आतंकवादी थे और यही हमारे syllabus में पढाया जाता था बहुत दिनों तक | और अभी एक महीने पहले तक ICSE बोर्ड के किताबों में भगत सिंह को आतंकवादी ही बताया जा रहा था, वो तो भला हो कुछ लोगों का जिन्होंने अदालत में एक केस किया और अदालत ने इसे हटाने का आदेश दिया है (ये समाचार मैंने इन्टरनेट पर ही अभी कुछ दिन पहले देखा था) |
आप भारत के सभी बड़े रेलवे स्टेशन पर एक किताब की दुकान देखते होंगे "व्हीलर बुक स्टोर" वो इसी संधि की शर्तों के अनुसार है | ये व्हीलर कौन था ? ये व्हीलर सबसे बड़ा अत्याचारी था | इसने इस देश क़ि हजारों माँ, बहन और बेटियों के साथ बलात्कार किया था | इसने किसानों पर सबसे ज्यादा गोलियां चलवाई थी | 1857 की क्रांति के बाद कानपुर के नजदीक बिठुर में व्हीलर और नील नामक दो अंग्रजों ने यहाँ के सभी 24 हजार लोगों को जान से मरवा दिया था चाहे वो गोदी का बच्चा हो या मरणासन्न हालत में पड़ा कोई बुड्ढा | इस व्हीलर के नाम से इंग्लैंड में एक एजेंसी शुरू हुई थी और वही भारत में आ गयी | भारत आजाद हुआ तो ये ख़त्म होना चाहिए था, नहीं तो कम से कम नाम भी बदल देते | लेकिन वो नहीं बदला गया क्योंकि ये इस संधि में है |
इस संधि की शर्तों के अनुसार अंग्रेज देश छोड़ के चले जायेगे लेकिन इस देश में कोई भी कानून चाहे वो किसी क्षेत्र में हो नहीं बदला जायेगा | इसलिए आज भी इस देश में 34735 कानून वैसे के वैसे चल रहे हैं जैसे अंग्रेजों के समय चलता था | Indian Police Act, Indian Civil Services Act (अब इसका नाम है Indian Civil Administrative Act), Indian Penal Code (Ireland में भी IPC चलता है और Ireland में जहाँ "I" का मतलब Irish है वही भारत के IPC में "I" का मतलब Indian है बाकि सब के सब कंटेंट एक ही है, कौमा और फुल स्टॉप का भी अंतर नहीं है) Indian Citizenship Act, Indian Advocates Act, Indian Education Act, Land Acquisition Act, Criminal Procedure Act, Indian Evidence Act, Indian Income Tax Act, Indian Forest Act, Indian Agricultural Price Commission Act सब के सब आज भी वैसे ही चल रहे हैं बिना फुल स्टॉप और कौमा बदले हुए |
इस संधि के अनुसार अंग्रेजों द्वारा बनाये गए भवन जैसे के तैसे रखे जायेंगे | शहर का नाम, सड़क का नाम सब के सब वैसे ही रखे जायेंगे | आज देश का संसद भवन, सुप्रीम कोर्ट, हाई कोर्ट, राष्ट्रपति भवन कितने नाम गिनाऊँ सब के सब वैसे ही खड़े हैं और हमें मुंह चिढ़ा रहे हैं | लार्ड डलहौजी के नाम पर डलहौजी शहर है , वास्को डी गामा नामक शहर है (हाला क़ि वो पुर्तगाली था ) रिपन रोड, कर्जन रोड, मेयो रोड, बेंटिक रोड, (पटना में) फ्रेजर रोड, बेली रोड, ऐसे हजारों भवन और रोड हैं, सब के सब वैसे के वैसे ही हैं | आप भी अपने शहर में देखिएगा वहां भी कोई न कोई भवन, सड़क उन लोगों के नाम से होंगे | हमारे गुजरात में एक शहर है सूरत, इस सूरत शहर में एक बिल्डिंग है उसका नाम है कूपर विला | अंग्रेजों को जब जहाँगीर ने व्यापार का लाइसेंस दिया था तो सबसे पहले वो सूरत में आये थे और सूरत में उन्होंने इस बिल्डिंग का निर्माण किया था | ये गुलामी का पहला अध्याय आज तक सूरत शहर में खड़ा है |
हमारे यहाँ शिक्षा व्यवस्था अंग्रेजों की है क्योंकि ये इस संधि में लिखा है और मजे क़ि बात ये है क़ि अंग्रेजों ने हमारे यहाँ एक शिक्षा व्यवस्था दी और अपने यहाँ अलग किस्म क़ि शिक्षा व्यवस्था रखी है | हमारे यहाँ शिक्षा में डिग्री का महत्व है और उनके यहाँ ठीक उल्टा है | मेरे पास ज्ञान है और मैं कोई अविष्कार करता हूँ तो भारत में पूछा जायेगा क़ि तुम्हारे पास कौन सी डिग्री है ? अगर नहीं है तो मेरे अविष्कार और ज्ञान का कोई मतलब नहीं है | जबकि उनके यहाँ ऐसा बिलकुल नहीं है आप अगर कोई अविष्कार करते हैं और आपके पास ज्ञान है लेकिन कोई डिग्री नहीं हैं तो कोई बात नहीं आपको प्रोत्साहित किया जायेगा | नोबेल पुरस्कार पाने के लिए आपको डिग्री की जरूरत नहीं होती है | हमारे शिक्षा तंत्र को अंग्रेजों ने डिग्री में बांध दिया था जो आज भी वैसे के वैसा ही चल रहा है | ये जो 30 नंबर का पास मार्क्स आप देखते हैं वो उसी शिक्षा व्यवस्था क़ि देन है, मतलब ये है क़ि आप भले ही 70 नंबर में फेल है लेकिन 30 नंबर लाये है तो पास हैं, ऐसा शिक्षा तंत्र से सिर्फ गदहे ही पैदा हो सकते हैं और यही अंग्रेज चाहते थे | आप देखते होंगे क़ि हमारे देश में एक विषय चलता है जिसका नाम है Anthropology | जानते है इसमें क्या पढाया जाता है ? इसमें गुलाम लोगों क़ि मानसिक अवस्था के बारे में पढाया जाता है | और ये अंग्रेजों ने ही इस देश में शुरू किया था और आज आज़ादी के 64 साल बाद भी ये इस देश के विश्वविद्यालयों में पढाया जाता है और यहाँ तक क़ि सिविल सर्विस की परीक्षा में भी ये चलता है |
इस संधि की शर्तों के हिसाब से हमारे देश में आयुर्वेद को कोई सहयोग नहीं दिया जायेगा मतलब हमारे देश की विद्या हमारे ही देश में ख़त्म हो जाये ये साजिस की गयी | आयुर्वेद को अंग्रेजों ने नष्ट करने का भरसक प्रयास किया था लेकिन ऐसा कर नहीं पाए | दुनिया में जितने भी पैथी हैं उनमे ये होता है क़ि पहले आप बीमार हों तो आपका इलाज होगा लेकिन आयुर्वेद एक ऐसी विद्या है जिसमे कहा जाता है क़ि आप बीमार ही मत पड़िए | आपको मैं एक सच्ची घटना बताता हूँ -जोर्ज वाशिंगटन जो क़ि अमेरिका का पहला राष्ट्रपति था वो दिसम्बर 1799 में बीमार पड़ा और जब उसका बुखार ठीक नहीं हो रहा था तो उसके डाक्टरों ने कहा क़ि इनके शरीर का खून गन्दा हो गया है जब इसको निकाला जायेगा तो ये बुखार ठीक होगा और उसके दोनों हाथों क़ि नसें डाक्टरों ने काट दी और खून निकल जाने की वजह से जोर्ज वाशिंगटन मर गया | ये घटना 1799 की है और 1780 में एक अंग्रेज भारत आया था और यहाँ से प्लास्टिक सर्जरी सीख के गया था | मतलब कहने का ये है क़ि हमारे देश का चिकित्सा विज्ञान कितना विकसित था उस समय | और ये सब आयुर्वेद की वजह से था और उसी आयुर्वेद को आज हमारे सरकार ने हाशिये पर पंहुचा दिया है |
इस संधि के हिसाब से हमारे देश में गुरुकुल संस्कृति को कोई प्रोत्साहन नहीं दिया जायेगा | हमारे देश के समृद्धि और यहाँ मौजूद उच्च तकनीक की वजह ये गुरुकुल ही थे | और अंग्रेजों ने सबसे पहले इस देश की गुरुकुल परंपरा को ही तोडा था, मैं यहाँ लार्ड मेकॉले की एक उक्ति को यहाँ बताना चाहूँगा जो उसने 2 फ़रवरी 1835 को ब्रिटिश संसद में दिया था, उसने कहा था "“I have traveled across the length and breadth of India and have not seen one person who is a beggar, who is a thief, such wealth I have seen in this country, such high moral values, people of such caliber, that I do not think we would ever conquer this country, unless we break the very backbone of this nation, which is her spiritual and cultural heritage, and, therefore, I propose that we replace her old and ancient education system, her culture, for if the Indians think that all that is foreign and English is good and greater than their own, they will lose their self esteem, their native culture and they will become what we want them, a truly dominated nation” | गुरुकुल का मतलब हम लोग केवल वेद, पुराण,उपनिषद ही समझते हैं जो की हमारी मुर्खता है अगर आज की भाषा में कहूं तो ये गुरुकुल जो होते थे वो सब के सब Higher Learning Institute हुआ करते थे |
इस संधि में एक और खास बात है | इसमें कहा गया है क़ि अगर हमारे देश के (भारत के) अदालत में कोई ऐसा मुक़दमा आ जाये जिसके फैसले के लिए कोई कानून न हो इस देश में या उसके फैसले को लेकर संबिधान में भी कोई जानकारी न हो तो साफ़ साफ़ संधि में लिखा गया है क़ि वो सारे मुकदमों का फैसला अंग्रेजों के न्याय पद्धति के आदर्शों के आधार पर ही होगा, भारतीय न्याय पद्धति का आदर्श उसमे लागू नहीं होगा | कितनी शर्मनाक स्थिति है ये क़ि हमें अभी भी अंग्रेजों का ही अनुसरण करना होगा |
भारत में आज़ादी की लड़ाई हुई तो वो ईस्ट इंडिया कम्पनी के खिलाफ था और संधि के हिसाब से ईस्ट इंडिया कम्पनी को भारत छोड़ के जाना था और वो चली भी गयी लेकिन इस संधि में ये भी है क़ि ईस्ट इंडिया कम्पनी तो जाएगी भारत से लेकिन बाकि 126 विदेशी कंपनियां भारत में रहेंगी और भारत सरकार उनको पूरा संरक्षण देगी | और उसी का नतीजा है क़ि ब्रुक बोंड, लिप्टन, बाटा, हिंदुस्तान लीवर (अब हिंदुस्तान यूनिलीवर) जैसी 126 कंपनियां आज़ादी के बाद इस देश में बची रह गयी और लुटती रही और आज भी वो सिलसिला जारी है |
अंग्रेजी का स्थान अंग्रेजों के जाने के बाद वैसे ही रहेगा भारत में जैसा क़ि अभी (1946 में) है और ये भी इसी संधि का हिस्सा है | आप देखिये क़ि हमारे देश में, संसद में, न्यायपालिका में, कार्यालयों में हर कहीं अंग्रेजी, अंग्रेजी और अंग्रेजी है जब क़ि इस देश में 99% लोगों को अंग्रेजी नहीं आती है | और उन 1% लोगों क़ि हालत देखिये क़ि उन्हें मालूम ही नहीं रहता है क़ि उनको पढना क्या है और UNO में जा के भारत के जगह पुर्तगाल का भाषण पढ़ जाते हैं |
आप में से बहुत लोगों को याद होगा क़ि हमारे देश में आजादी के 50 साल बाद तक संसद में वार्षिक बजट शाम को 5:00 बजे पेश किया जाता था | जानते है क्यों ? क्योंकि जब हमारे देश में शाम के 5:00 बजते हैं तो लन्दन में सुबह के 11:30 बजते हैं और अंग्रेज अपनी सुविधा से उनको सुन सके और उस बजट की समीक्षा कर सके | इतनी गुलामी में रहा है ये देश | ये भी इसी संधि का हिस्सा है |
1939 में द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हुआ तो अंग्रेजों ने भारत में राशन कार्ड का सिस्टम शुरू किया क्योंकि द्वितीय विश्वयुद्ध में अंग्रेजों को अनाज क़ि जरूरत थी और वे ये अनाज भारत से चाहते थे | इसीलिए उन्होंने यहाँ जनवितरण प्रणाली और राशन कार्ड क़ि शुरुआत क़ि | वो प्रणाली आज भी लागू है इस देश में क्योंकि वो इस संधि में है | और इस राशन कार्ड को पहचान पत्र के रूप में इस्तेमाल उसी समय शुरू किया गया और वो आज भी जारी है | जिनके पास राशन कार्ड होता था उन्हें ही वोट देने का अधिकार होता था | आज भी देखिये राशन कार्ड ही मुख्य पहचान पत्र है इस देश में |
अंग्रेजों के आने के पहले इस देश में गायों को काटने का कोई कत्लखाना नहीं था | मुगलों के समय तो ये कानून था क़ि कोई अगर गाय को काट दे तो उसका हाथ काट दिया जाता था | अंग्रेज यहाँ आये तो उन्होंने पहली बार कलकत्ता में गाय काटने का कत्लखाना शुरू किया, पहला शराबखाना शुरू किया, पहला वेश्यालय शुरू किया और इस देश में जहाँ जहाँ अंग्रेजों की छावनी हुआ करती थी वहां वहां वेश्याघर बनाये गए, वहां वहां शराबखाना खुला, वहां वहां गाय के काटने के लिए कत्लखाना खुला | ऐसे पुरे देश में 355 छावनियां थी उन अंग्रेजों के | अब ये सब क्यों बनाये गए थे ये आप सब आसानी से समझ सकते हैं | अंग्रेजों के जाने के बाद ये सब ख़त्म हो जाना चाहिए था लेकिन नहीं हुआ क्योंक़ि ये भी इसी संधि में है |
हमारे देश में जो संसदीय लोकतंत्र है वो दरअसल अंग्रेजों का वेस्टमिन्स्टर सिस्टम है | ये अंग्रेजो के इंग्लैंड क़ि संसदीय प्रणाली है | ये कहीं से भी न संसदीय है और न ही लोकतान्त्रिक है| लेकिन इस देश में वही सिस्टम है क्योंकि वो इस संधि में कहा गया है | और इसी वेस्टमिन्स्टर सिस्टम को महात्मा गाँधी बाँझ और वेश्या कहते थे (मतलब आप समझ गए होंगे) |
ऐसी हजारों शर्तें हैं | मैंने अभी जितना जरूरी समझा उतना लिखा है | मतलब यही है क़ि इस देश में जो कुछ भी अभी चल रहा है वो सब अंग्रेजों का है हमारा कुछ नहीं है | अब आप के मन में ये सवाल हो रहा होगा क़ि पहले के राजाओं को तो अंग्रेजी नहीं आती थी तो वो खतरनाक संधियों (साजिस) के जाल में फँस कर अपना राज्य गवां बैठे लेकिन आज़ादी के समय वाले नेताओं को तो अच्छी अंग्रेजी आती थी फिर वो कैसे इन संधियों के जाल में फँस गए | इसका कारण थोडा भिन्न है क्योंकि आज़ादी के समय वाले नेता अंग्रेजों को अपना आदर्श मानते थे इसलिए उन्होंने जानबूझ कर ये संधि क़ि थी | वो मानते थे क़ि अंग्रेजों से बढियां कोई नहीं है इस दुनिया में | भारत की आज़ादी के समय के नेताओं के भाषण आप पढेंगे तो आप पाएंगे क़ि वो केवल देखने में ही भारतीय थे लेकिन मन,कर्म और वचन से अंग्रेज ही थे | वे कहते थे क़ि सारा आदर्श है तो अंग्रेजों में, आदर्श शिक्षा व्यवस्था है तो अंग्रेजों की, आदर्श अर्थव्यवस्था है तो अंग्रेजों की, आदर्श चिकित्सा व्यवस्था है तो अंग्रेजों की, आदर्श कृषि व्यवस्था है तो अंग्रेजों की, आदर्श न्याय व्यवस्था है तो अंग्रेजों की, आदर्श कानून व्यवस्था है तो अंग्रेजों की | हमारे आज़ादी के समय के नेताओं को अंग्रेजों से बड़ा आदर्श कोई दिखता नहीं था और वे ताल ठोक ठोक कर कहते थे क़ि हमें भारत अंग्रेजों जैसा बनाना है | अंग्रेज हमें जिस रस्ते पर चलाएंगे उसी रास्ते पर हम चलेंगे | इसीलिए वे ऐसी मूर्खतापूर्ण संधियों में फंसे | अगर आप अभी तक उन्हें देशभक्त मान रहे थे तो ये भ्रम दिल से निकाल दीजिये | और आप अगर समझ रहे हैं क़ि वो ABC पार्टी के नेता ख़राब थे या हैं तो XYZ पार्टी के नेता भी दूध के धुले नहीं हैं | आप किसी को भी अच्छा मत समझिएगा क्योंक़ि आज़ादी के बाद के इन 64 सालों में सब ने चाहे वो राष्ट्रीय पार्टी हो या प्रादेशिक पार्टी, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से राष्ट्रीय स्तर पर सत्ता का स्वाद तो सबो ने चखा ही है | खैर ...............
तो भारत क़ि गुलामी जो अंग्रेजों के ज़माने में थी, अंग्रेजों के जाने के 64 साल बाद आज 2011 में जस क़ि तस है क्योंकि हमने संधि कर रखी है और देश को इन खतरनाक संधियों के मकडजाल में फंसा रखा है | बहुत दुःख होता है अपने देश के बारे जानकार और सोच कर | मैं ये सब कोई ख़ुशी से नहीं लिखता हूँ ये मेरे दिल का दर्द होता है जो मैं आप लोगों से शेयर करता हूँ |
ये सब बदलना जरूरी है लेकिन हमें सरकार नहीं व्यवस्था बदलनी होगी और आप अगर सोच रहे हैं क़ि कोई मसीहा आएगा और सब बदल देगा तो आप ग़लतफ़हमी में जी रहे हैं | कोई हनुमान जी, कोई राम जी, या कोई कृष्ण जी नहीं आने वाले | आपको और हमको ही ये सारे अवतार में आना होगा, हमें ही सड़कों पर उतरना होगा और और इस व्यवस्था को जड मूल से समाप्त करना होगा | भगवान भी उसी की मदद करते हैं जो अपनी मदद स्वयं करता है |