Friday, August 5, 2011

'प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के अग्रदूत मंगल पांडे'


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सन् १८५७ के प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के अग्रदूत वीरवर मंगल पांडे का जन्म १९ जुलाई सन् १८२७ को वर्तमान उत्तर प्रदेश, जो उन दिनों संयुक्त प्रान्त आगरा व अवध के नाम से जाना जाता था, के बलिया जिले में स्थित नागवा गाँव में हुआ था । इनके पिता का नाम श्री.दिवाकर पांडे तथा माता का नाम श्रीमती अभय रानी था। वीरवर मंगल पांडे कोलकाता के पास बैरकपुर की सैनिक छावनी में ३४वीं बंगाल नेटिव इन्फैंट्री के एक सिपाही थे । भारत की आजादी की पहली लड़ाई अर्थात सन् १८५७ के विद्रोह की शुरुआत उन्हीं से हुई जब गाय व सुअर कि चर्बी लगे कारतूस लेने से मना करने पर उन्होंने विरोध जताया । इसके परिणाम स्वरूप उनके हथियार छीन लिये जाने व वर्दी उतार लेने का फौजी हुक्म हुआ। मंगल पांडे ने उस आदेश को मानने से इनकार कर दिया और २९ मार्च, सन् १८५७ का दिन अंग्रेजों के लिए दुर्भाग्य के दिन के रूप में उदित हुआ। पाँचवी कंपनी की चौंतीसवीं रेजीमेंट का 1446 नं. का सिपाही वीरवरमंगल पांडे अंग्रेज़ों के लिए प्रलय-सूर्य के समान निकला। बैरकपुर की संचलन भूमि में प्रलयवीर मंगल पांडे का रणघोष गूँज उठा- "बंधुओ! उठो! उठो! तुम अब भी किस चिंता में निमग्न हो? उठो, तुम्हें अपने पावन धर्म की सौगंध! चलो, स्वातंत्र्य लक्ष्मी की पावन अर्चना हेतु इन अत्याचारी शत्रुओं पर तत्काल प्रहार करो।"प्रलयवीर मंगल पांडे के बदले हुए तेवर देखकर अंग्रेज़ सारजेंट मेजर हडसन उसने पथ को अवरुद्ध करने के लिए आगे बढ़ा। उसने उस विद्रोही को उसकी उद्दंडता का पुरस्कार देना चाहा। अपनी कड़कती आवाज़ में उसने मंगल पांडे को खड़ा रहने का आदेश दिया। क्रांतिवीर प्रलयवीर मंगल पांडे के अरमान मचल उठे। वह शिवशंकर की भाँति सन्नद्ध होकर रक्तगंगा का आह्वान करने लगा। उसकी सबल बाहुओं ने बंदूक तान ली। क्रांतिवीर प्रलयवीर की सधी हुई उँगलियों ने बंदूक का घोड़ा अपनी ओर खींचा और घुड़ड़ घूँsss का तीव्र स्वर घहरा उठा। मेजर हडसन घायल कबूतर की भाँति भूमि पर तड़प रहा था । अंग्रेज़ सारजेंट मेजर हडसन का रक्त भारत की धूल चाट रहा था। सन् १८५७ के क्रांतिकारी ने एक फिरंगी की बलि ले ली थी। विप्लव महायज्ञ के परोधा क्रांतिवीर मंगल पांडे की बंदूक पहला 'स्वारा' बोल चुकी थी। स्वातंत्र्य यज्ञ की वेदी को मेजर हडसन की दस्यु-देह की समिधा अर्पित हो चुकी थी । मेजर हडसन को धराशायी हुआ देख लेफ्टिनेंट बॉब वहाँ जा पहुँचा। उस अश्वारूढ़ गोरे ने मंगल पांडे को घेरना चाहा। पहला ग्राम खाकर मंगल पांडे की बंदूक की भूख भड़क उठी थी। उसने दूसरी बार मुँह खोला और लेफ्टिनेंट बॉब घोड़े सहित भू-लुंठित होता दिखाई दिया। गिरकर भी बॉब ने अपनी पिस्तौल मंगल पांडे की ओर सीधी करके गोली चला दी। विद्युत गति से वीर मंगल पांडे गोली का वार बचा गया और बॉब खिसियाकर रह गया। अपनी पिस्तौल को मुँह की खाती हुई देख बॉब ने अपनी तलवार खींच ली और वह मंगल पांडे पर टूट पड़ा। क्रांतिवीर मंगल पांडे भी कच्चा खिलाड़ी नहीं था। बॉब ने मंगल पांडे पर प्रहार करने के लिए तलवार तानी ही थी कि क्रांतिवीर मंगल पांडे की तलवार का भरपूर हाथ उसपर ऐसा पड़ा कि बॉब का कंधा और तलवारवाला हाथ जड़ से कटकर अलग जा गिरा। एक बलि मंगल पांडे की बंदूक ले चुकी थी और दूसरी उसकी तलवार ने ले ली । इससे पूर्व क्रांतिवीर मंगल पांडे ने अपने अन्य साथियों से उनका साथ देने का आह्वान भी किया था किन्तु कोर्ट मार्शल के डर से जब किसी ने भी उनका साथ नहीं दिया तो उन्होंने अपनी ही रायफल से उस अंग्रेज अधिकारी को मौत के घाट उतार दिया जो उनकी वर्दी उतारने और रायफल छीनने को आगे आया था । लेफ्टिनेंट बॉब को गिरा हुआ देख एक दूसरा अंग्रेज़ मंगल पांडे की ओर बढ़ा ही था कि मंगल पांडे के साथी एक भारतीय सैनिक ने अपनी बंदूक डंडे की भाँति उस अंग्रेज़ की खोपड़ी पर दे मारी। अंग्रेज़ की खोपड़ी खुल गई। अपने आदमियों को गिरते हुए देख कर्नल व्हीलर मंगल पांडे की ओर बढ़ा; पर सभी क्रुद्ध भारतीय सिंह गर्जना कर उठे- "खबरदार, जो कोई आगे बढ़ा! आज हम तुम्हारे अपवित्र हाथों को ब्राह्मण की पवित्र देह का स्पर्श नहीं करने देंगे।"
कर्नल व्हीलर जैसा आया था वैसा ही लौट गया। इस सारे कांड की सूचना अपने जनरल को देकर, अंग्रेज़ी सेना को बटोरकर ले आना उसने अपना धर्म समझा। जंग-ए-आज़ादी के पहले सेनानी मंगल पांडे ने सन् १८५७ में ऐसी चिनगारी भड़काई, जिससे दिल्ली से लेकर लंदन तक की ब्रिटेनिया हुकूमत हिल गई । इसके बाद विद्रोही क्रांतिवीर मंगल पांडे को अंग्रेज सिपाहियों ने पकड लिया। अंगेज़ों ने भरसक प्रयत्न किया कि वे मंगल पांडे से क्रांति योजना के विषय में उसके साथियों के नाम-पते पूछ सकें; पर वह मंगल पांडे था, जिसका मुँह अपने साथियों को फँसाने के लिए खुला ही नहीं । मंगल होकर वह अपने साथियों का अमंगल कैसे कर सकता था | उन पर कोर्ट मार्शल द्वारा मुकदमा चलाकर ६ अप्रैल सन् १८५७ को मौत की सजा सुना दी गयी। फौजी अदालत ने न्याय का नाटक रचा और फैसला सुना दिया गया। कोर्ट मार्शल के अनुसार उन्हें १८ अप्रैल सन् १८५७ को फाँसी दी जानी थी । परन्तु इस निर्णय की प्रतिक्रिया कहीं विकराल रूप न ले ले, इसी कूट रणनीति के तहत क्रूर ब्रिटिश सरकार ने मंगल पांडे को निर्धारित तिथि से दस दिन पूर्व ही ८ अप्रैल सन् १८५७ को फाँसी पर लटका कर मार डाला । बैरकपुर के जल्लादों ने मंगल पांडे के पवित्र ख़ून से अपने हाथ रँगने से इनकार कर दिया। तब कलकत्ता से चार जल्लाद बुलाए गए । ८ अप्रैल,सन् १८५७ के सूर्य ने उदित होकर मंगल पांडे के बलिदान का समाचार संसार में प्रसारित कर दिया । भारत के एक वीर पुत्र ने आजादी के यज्ञ में अपने प्राणों की आहुति दे दी। वीर मंगल पांडे के पवित्र प्राण-हव्य को पाकर स्वातंत्र्य यज्ञ की लपटें भड़क उठीं । क्रांति की ये लपलपाती हुई लपटें फिरंगियों को लील जाने के लिए चारों ओर फैलने लगीं ।
क्रांतिवीर प्रलयवीर मंगल पांडे द्वारा लगायी गयी विद्रोह की यह चिनगारी बुझी नहीं। एक महीने बाद ही १० मई सन् १८५७ को मेरठ की छावनी में बगावत हो गयी। यह विपलव देखते ही देखते पूरे उत्तरी भारत में फैल गया जिससे अंग्रेजों को स्पष्ट संदेश मिल गया कि अब भारत पर राज्य करना उतना आसान नहीं है जितना वे समझ रहे थे ।क्रांति के नायक मंगल पांडे को कुछ इतिहासकार विद्रोही मानते हैं, लेकिन वे स्वतंत्रता सेनानी थे। ब्रिटेन के रिकार्ड में पूरा इतिहास अलग नजरिए और पूर्वाग्रह से दर्ज किया गया है। उनके रिकार्ड में मंगलपांडे के बारे में केवल दो पेज मिलते हैं, जबकि जबानी तौर पर ढेर सारी बातें पता चलती हैं । लोकगीतों और कथाओं के माध्यम से भी हमें मंगल पांडे के बारे में ढेर सारी जानकारियां मिलती हैं।
इसी तरह प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बारे में भी विरोधाभासी विचार मिलते हैं। ब्रिटिश इतिहासकारों ने अपना दृष्टिकोण लिखा है। भारतीय इतिहासकारों ने इस स्वतंत्रता संग्राम को बाद में सही संदर्भ में पेश किया। क्रांतिवीर मंगल पांडे वास्तव में आजादी के प्रतीक थे। हर व्यक्ति इज्जत से सिर उठा कर जी सके, यही तो वे चाहते थे। भारत के इतिहास में मंगल पांडे का खास महत्व है । हमें याद रखना चाहिए कि हर शासन करने वाली पार्टी का अपना एक तंत्र और प्रशासन का तरीका होता है। चूंकि शासन करने वाली पार्टी ही इतिहास रिकार्ड करती है, इसलिए यह पूरी तरह से उसके इरादों पर निर्भर करता है कि वह क्या लिखे और क्या छोड़ दे। इसमें इतिहासकारों का स्वार्थ और नजरिया काम कर रहा होता है।
अंग्रेजों ने तो सन् १८५७ की आजादी की लड़ाई को सिपाहियों का विद्रोह कहा था तो क्या हम भी वही मान लें ? बिल्कुल नहीं मानेगें । हमें अपने शहीदों पर गर्व करना चाहिए कि उन्होंने आजादी की भावना के जो बीज सन् १८५७ में डाले थे, वह सन् 1९४७ में भारत की आजादी के साथ जाकर अंकुरित हुआ ।सन् १८५७ के प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के अग्रदूत क्रांति के नायक मंगल पांडे को नमन ...

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