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पांचवीं पंचवर्षीय योजना के तहत देश भर में जनजातियों के विकास के लिए जनजातीय उपयोजना कार्यनीति (टीएसपी) भी अपनाई गई. इसके अंतर्गत अमूमन जनजातियों से बसे संपूर्ण क्षेत्र को उनकी आबादी के हिसाब से कई वर्गों में शामिल किया गया है. इन वर्गों में समेकित क्षेत्र विकास परियोजना (टीडीपी), संशोधित क्षेत्र विकास दृष्टिकोण (माडा), क्लस्टर और आदिम जनजातीय समूह शामिल हैं. जनजातीय कार्य मंत्रालय ने अनुसूचित जनजातियों के
कल्याण और विकास पर लक्षित विभिन्न योजनाओं को कार्यान्वित करना जारी रखा है, लेकिन अफ़सोस की बात यह है कि अज्ञानता, भ्रष्टाचार और लाल़फीताशाही के चलते उक्त जातियां सरकारी योजनाओं के लाभ से महरूम हैं.
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हिंदुस्तान की एक बड़ी आबादी के बीच एक तबक़ा ऐसा भी है, जिसे आज़ादी के अरसे बाद भी मुजरिमों की तरह पुलिस थानों में हाज़िरी लगानी पड़ती थी. आ़खिरकार 31 अगस्त, 1952 को उसे इससे निजात तो मिल गई, लेकिन उसे कोई खास तवज्जो नहीं दी गई. नतीजतन, उसकी हालत बद से बदतर होती चली गई. इस समाज के लोगों को मलाल है कि जहां देश की अन्य जातियों ने तऱक्क़ी की, वहीं वे लगातार पिछड़ते चले गए, उनके पुश्तैनी धंधे खत्म होते चले गए और उन्हें सरकारी सुविधाओं का भी समुचित लाभ नहीं मिल पाया. क़ाबिले ग़ौर है कि देश भर में 15 अगस्त को जश्ने-आज़ादी के तौर पर मनाया जाता है, लेकिन उन्हीं खुशनुमा लम्हों के बीच आदिम समाज एक ऐसा तबक़ा है, जो इस दिन को कोई विशेष महत्व नहीं देता. घुमंतू जातियों के ये लोग 31 अगस्त को आज़ादी का जश्न मनाते हैं.
ऑल इंडिया विमुक्त जाति मोर्चा के सदस्य भोला का कहना है कि ऐसा नहीं कि हम स्वतंत्रता दिवस नहीं मनाते, लेकिन सच तो यही है कि हमारे लिए 15 अगस्त के बजाय 31 अगस्त का ज़्यादा महत्व है. वह बताते हैं कि 15 अगस्त, 1947 को जब देश आज़ाद हुआ था और लोग खुली फिज़ा में सांस ले रहे थे, तब भी घुमंतू जातियों के लोगों को दिन में तीन बार पुलिस थाने में हाज़िरी लगानी पड़ती थी. अगर कोई व्यक्ति बीमार होने या किसी दूसरी वजह से थाने में उपस्थित नहीं हो पाता तो पुलिस द्वारा उसे प्रताड़ित किया जाता था. इतना ही नहीं, चोरी या कोई अन्य आपराधिक घटना होने पर भी पुलिस का क़हर उन पर टूटता था. यह सिलसिला लंबे अरसे तक चलता रहा. आ़िखरकार तंग आकर प्रताड़ित लोगों ने इस प्रशासनिक दमन के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद की और फिर शुरू हुआ सिलसिला लोगों में जागरूकता लाने का. लोगों का संघर्ष रंग लाया और फिर वर्ष 1952 में अंग्रेजों द्वारा 1871 में बनाए गए एक्ट में संशोधन किया गया. इसी साल 31 अगस्त को घुमंतू जातियों के लोगों को थाने में हाज़िरी लगाने से निजात मिली.
इस व़क्त देश भर में विमुक्त जातियों के 192 क़बीलों के क़रीब 20 करोड़ लोग हैं. हरियाणा की क़रीब साढ़े सात फ़ीसदी आबादी इन्हीं जातियों की है. इन विमुक्त जातियों में सांसी, बावरिया, भाट, नट, भेड़कट और किकर आदि शामिल हैं. भाट जाति से संबंध रखने वाले प्रभु बताते हैं कि 31 अगस्त के दिन क़बीले के रस्मो-रिवाज के मुताबिक़ सामूहिक नृत्य का आयोजन किया जाता है. महिलाएं इकट्ठी होकर पकवान बनाती हैं और उसके बाद सामूहिक भोज होता है. बच्चे भी अपने-अपने तरीक़ों से खुशी ज़ाहिर करते हैं. कई क़बीलों में पतंगबाज़ी का आयोजन किया जाता है. जीतने वाले व्यक्ति को समारोह की शोभा माना जाता है. लोग उसे बधाइयों के साथ उपहार देते हैं. इन जातियों के लोगों के संस्थानों में भी 31 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस मनाया जाता है. इन कार्यक्रमों में केंद्रीय मंत्रियों से लेकर विभिन्न राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि और प्रशासनिक अधिकारी भी शिरकत करते हैं. इनकी तैयारियों के लिए संगठन के पदाधिकारी गांव-गांव का दौरा करके लोगों को समारोह के लिए आमंत्रित करते हैं.
हरियाणा के अलावा देश के अन्य राज्यों में भी आदिवासी समाज की अनेक जातियां रहती हैं, जिनमें आंध्र प्रदेश में भील, चेंचु, गोंड, कांडा, लम्बाडी, सुंगली एवं नायक, असम में बोषे, कचारी मिकिर यानी कार्बी, लंलुग, राथा, दिमासा, हमर एवं हजोंग, बिहार और झारखंड में झमुर, बंजारा, बिरहोर, कोर्वा, मुंडा, ओरांव, संथाल, गोंड एवं खंडिया, गुजरात में भील, ढोडिया, गोंड, सिद्दी, बोर्डिया एवं भीलाला, हिमाचल प्रदेश में गद्दी, लाहुआला एवं स्वांगला, कर्नाटक में भील, चेंचु, गाउड, कुरूबा, कम्मारा, कोली, कोथा, मयाका एवं टोडा, केरल में आदियम, कोंडकप्पू, मलैस एवं पल्लियार, मध्य प्रदेश में भील, बिरहोर, उमर, गोंड, खरिआ, माझी, मुंडा और ओरांव, छत्तीसगढ़ में परही, भीलाला, भीलाइत, प्रधान, राजगोंड, सहरिया, कंवर, भींजवार, बैगा, कोल एवं कोरकू, महाराष्ट्र में भील, भुंजिआ, ढोडिया, गोंड, खरिया, नायक, ओरांव, पर्धी एवं पथना, मेघालय में गारो, खासी एवं जयंतिया, उड़ीसा में जुआंग, खांड, करूआ, मुंडारी, ओरांव, संथाल, धारूआ एवं नायक, राजस्थान में भील, दमोर, गरस्ता, मीना एवं सलरिया, तमिलनाडु में इरूलर, कम्मरार, कोंडकप्पू, कोटा, महमलासर, पल्लेयन एवं टोडा, त्रिपुरा में चकमा, गारो, खासी, कुकी, लुसाई, लियांग एवं संथाल, पश्चिम बंगाल में असुर, बिरहोर, कोर्वा, लेपचा, मुंडा, संथाल एवं गोंड, मिजोरम में लुसई, कुकी, गारो, खासी, जयंतिया एवं मिकिट, गोवा में टोडी एवं नायक, दमन एवं द्वीप में ढोडी, मिक्कड़ एवं वर्ती, अंडमान में जारवा, निकोबारी, ओंजे, सेंटीनेलीज, शौम्पेंस एवं ग्रेट अंडमानी, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में भाटी, बुक्सा, जौनसारी एवं थारू, नागालैंड में नागा, कुकी, मिकिट एवं गारो, सिक्किम में भुटिया एवं लेपचा, जम्मू- कश्मीर में चिद्दंपा, गर्रा, गुर एवं गड्डी आदि शामिल हैं. इनमें से अनेक जातियां अपने अधिकारों को लेकर संघर्षरत हैं.
इंडियन नेशनल लोकदल के टपरीवास विमुक्त जाति मोर्चा के जिलाध्यक्ष बहादुर सिंह का कहना है कि आज़ादी के छह दशकों बाद भी आदिवासी समाज की घुमंतू जातियां विकास से कोसों दूर हैं. वह कहते हैं कि इन जातियों के सामाजिक और आर्थिक उत्थान के लिए सरकार को चाहिए कि वह इन्हें स्थायी रूप से आबाद करे, इनके लिए बस्तियां बनाई जाएं और आवास मुहैया कराए जाएं, बच्चों को नि:शुल्क शिक्षा दी जाए और एसटी का दर्जा दिया जाए, ताकि इन्हें भी आरक्षण का लाभ मिल सके. आदिवासी समाज की अधिकतर जातियां आज भी बदहाली की ज़िंदगी गुज़ारने को मजबूर हैं. ग्रामीण विकास मंत्रालय के एक सर्वेक्षण के मुताबिक़, इन जातियों का आधे से ज़्यादा हिस्सा ग़रीबी की रेखा से नीचे पाया गया है. इनकी प्रति व्यक्तिआय देश में सबसे नीचे रहती है. एक रिपोर्ट के मुताबिक़, जनजातियों की 9,17,590 एकड़ जनजातीय भूमि हस्तांतरित की गई और महज़ 5,37,610 एकड़ भूमि ही इन्हें वापस दिलाई गई.
घुमंतू जातियों की बदहाली के अनेक कारण हैं, जिनमें वनों का विनाश मुख्य रूप से शामिल है. वन इनके जीवनयापन का एकमात्र साधन है, लेकिन खत्म हो रहे वन संसाधन इनके एक बड़े हिस्से के अस्तित्व को जोखिम में डाल रहे हैं. जागरूकता की कमी भी इन जातियों के विकास में रुकावट बनी है. केंद्र और प्रदेश सरकारों द्वारा शुरू किए गए विभिन्न विकास संबंधी कार्यक्रमों-योजनाओं के बारे में घुमंतू जातियों के लोगों को जानकारी नहीं है, जिससे उन्हें इनका समुचित लाभ नहीं मिल पाता. पांचवीं पंचवर्षीय योजना के तहत देश भर में जनजातियों के विकास के लिए जनजातीय उपयोजना कार्यनीति (टीएसपी) भी अपनाई गई. इसके अंतर्गत अमूमन जनजातियों से बसे संपूर्ण क्षेत्र को उनकी आबादी के हिसाब से कई वर्गों में शामिल किया गया है. इन वर्गों में समेकित क्षेत्र विकास परियोजना (टीडीपी), संशोधित क्षेत्र विकास दृष्टिकोण (माडा), क्लस्टर और आदिम जनजातीय समूह शामिल हैं. जनजातीय कार्य मंत्रालय ने अनुसूचित जनजातियों के कल्याण और विकास पर लक्षित विभिन्न योजनाओं को कार्यान्वित करना जारी रखा है, लेकिन अफ़सोस की बात यह है कि अज्ञानता, भ्रष्टाचार और लाल़फीताशाही के चलते उक्त जातियां सरकारी योजनाओं के लाभ से महरूम हैं. इसके लिए ज़रूरी है कि जागरूकता अभियान चलाकर इन जातियों के विकास के लिए कारगर क़दम उठाए जाएं, वरना सरकार की कल्याणकारी योजनाएं काग़ज़ों तक ही सिमट कर रह जाएंगी.
ये हमारा लेख है
ReplyDeletehttp://firdaus-firdaus.blogspot.com/2010/08/31.html
ReplyDeleteबहुत बहुत अच्छा लगा धन्यवाद
ReplyDeleteबहुत बहुत अच्छा लगा धन्यवाद
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