Friday, August 5, 2011

आदिवासियों की उपेक्षा कब तक?


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अधिकतर आदिवासी साहूकारों की गिरफ़्त में हैं और धीरे-धीरे अपनी ज़मीनों से हाथ धोते जा रहे हैं. ग़रीबी के कारण वे कुपोषण के शिकार हैं और भुखमरी एक आम बात है. आज़ादी के बाद भारत में ग़रीबी कम हुई, लेकिन आदिवासियों में ग़रीबी आज भी सबसे अधिक है. उनके जीवन स्तर में कोई सुधार नहीं हुआ है और आज भी प्रति व्यक्ति आय-व्यय के मामले में वे देश के अन्य तबकों से काफी पीछे हैं.
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आज देश का आदिवासी समुदाय राजनीति के केंद्र में आ गया है, लेकिन अपनी सांस्कृतिक और सामाजिक धरोहर के लिए नहीं, बल्कि इसलिए कि उसने देश की सरकार के ख़िला़फ संघर्ष का बिगुल बजा दिया है. आदिवासी एक ऐसे सामजिक समूह के सदस्य हैं, जो आज अपनी पहचान के लिए लड़ रहा है. वे अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए लड़ रहे हैं. आदिवासियों के प्रति सरकार और समूचे भारतीय समाज का नकारात्मक रवैया देश के संविधान में उन्हें दिए गए अधिकारों के विरुद्ध जाता दिख रहा है. इन सारे कारणों की वजह से जब आज उन्हें क़ानून अपने हाथ में लेना पड़ता है तो देश की सुरक्षा एजेंसियां उन पर अत्याचार करती हैं, उन्हें लाठियों-बंदूक़ों का बेवजह सामना करना पड़ता है.
अगर हम वास्तव में आदिवासियों की समस्याओं को समझना चाहते हैं तो यह याद रखना और समझना होगा कि आदिवासी समुदाय और उसकी मान्यताएं किस तरह भारत के अन्य समुदायों से भिन्न हैं. आदिवासी समुदाय कुछ ऐसी मान्यताओं-आदर्शों पर आधारित है, जो बाक़ी देश से अलग हैं. यह समुदाय ऐसे सामाजिक संबंधों से परिभाषित होता है, जो प्रकृति के साथ समन्वय स्थापित करके चलता है. इसके सिद्धांत लेनदेन से अधिक समान योगदान, सच्चाई और आपसी पारदर्शिता पर आधारित हैं. यह समुदाय अपने लड़ाई-झगड़ों को निपटाने के लिए आधुनिक न्याय प्रणाली पर नहीं, बल्कि सदियों से चली आ रही सामुदायिक संस्थाओं का सहारा लेता है. एकता और बाहरी जीवन से कटाव इस समुदाय के प्रमुख लक्षण हैं. इसकी परंपरागत अर्थव्यवस्था ज़मीन और जंगल की धुरी पर केंद्रित है.
ऐसी व्यवस्था, जो पैसे और बाज़ार से अधिक आपसी सौहार्द्र पर आधारित है और आत्मनिर्भरता जिसका सबसे बड़ा लक्षण है. यह व्यवस्था पैसे के लेनदेन से अधिक वस्तु विनिमय पर आधारित है. इसीलिए इसे समाजवादी या साम्यवादी व्यवस्था कहा जा सकता है. आधुनिक पूंजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध यहां पूंजी और बाज़ार का कोई अस्तित्व नहीं है, लेकिन इस व्यवस्था के कुछ अवगुण भी हैं. यह एक बंद व्यवस्था है और समान वितरण पर आधारित है, इसलिए जब भी सूखा या बाढ़ जैसी त्रासदी होती है तो यह व्यवस्था दबाव में आ जाती है, क्योंकि और कोई साधन उपलब्ध नहीं होते. इस समुदाय का राजनीतिक संगठन भी पारंपरिक हैं, जहां निपटारा बड़े-बूढ़ों द्वारा ही किया जाता है और उनकी बात सर्वमान्य होती है. यह स्वराज का ही एक स्थानीय मॉडल कहा जा सकता है, लेकिन देश की मुख्यधारा से यह सब बहुत ही अलग है.
आज़ादी के बाद से इस आदिवासी समुदाय में भी कई दूरगामी बदलाव आए, कभी सरकारी विकास योजनाओं के थोपे जाने और कभी सरकार के प्रतिबंधों-निषिद्ध आज्ञाओं के चलते, लेकिन आज भी इस समुदाय का वही हाल है, जो बताया जा रहा हैं. आदिवासियों से भारतीय समाज की मुख्यधारा की दूरी ही सरकारी रवैये के लिए भी ज़िम्मेदार है. जैसा कि हम जानते हैं कि आदिवासी राज्य व्यवस्था के बाहर ही रहे हैं और इसी वजह से वे आज तक अपनी पुरानी परंपरागत जीवनशैली को संभाल पाए हैं, बिना किसी बड़ी उथल-पुथल के. यह स्वावलंबी व्यवस्था देश की स्वाधीनता के समय बिगड़नी शुरू हो गई. इसका मुख्य कारण था देश और इन क्षेत्रों में ऐसी नीतियों का प्रतिपादन, जो पहले न कभी सुनी और न देखी गईं. सबसे बड़ा असर पड़ा ब्रिटिश हुकूमत की उस नीति का, जिसके तहत प्राकृतिक संपदा को राज्य के नियंत्रण के अधीन लाया गया.
ब्रिटिश हुकूमत की स्थायी बंदोबस्त नीति ने खेतिहर किसानों को तो भिखारी बना ही दिया, आदिवासियों को भी बाहरी लोगों और सूदखोर महाजनों का शिकार बना दिया. ज़मीन अब ख़रीद-फरोख्त की वस्तु बन गई और ज़मीन का बाज़ारीकरण हो गया. इस कारण ज़मीन साझा नहीं रह गई और पारंपरिक अधिकार ख़त्म हो गए. इस सभी कारणों से आदिवासी अपनी ज़मीन खोते गए. ज़मीन अधिग्रहण कानून ने इस नीति को और भी कंटीले दांत दे दिए. जंगल और वन संपदा अब सरकारी तंत्र के हाथ में आ गए. खनन और वन संपदा के सरकारी प्रयोग के चलते आदिवासी अपनी ज़मीन और घर खो बैठे. इस नई व्यवस्था में आदिवासी कम वेतन पर काम करने वाले ग़रीब मज़दूर बन गए. सरकारी तंत्र का मतलब पुलिस और क़ानून व्यवस्था भी होती है. इस सरकारी व्यवस्था के दिन-प्रतिदिन बढ़ते जाने से आदिवासियों की अपनी परंपरागत संस्थाएं भी मर गईं. जब उन्होंने इसके ख़िला़फ आवाज़ उठाई तो क़ानून बना दिया गया कि ऐसे आदिवासी जन्मजात रूप से अपराधी प्रवृत्ति के हैं.
आज़ादी मिलने के बाद जिन आदिवासियों को सरकार को संजोकर रखना चाहिए था, उनकी कोई सुध नहीं ली गई. पुराने तरीक़ों पर आदिवासियों का शोषण और उनके हितों का हनन चलता रहा. यहां तक कि नए-नवेले तरीक़े भी खोज लिए गए शोषण की इस परंपरा को और सशक्त करने के लिए. आदिवासियों को पहले से भी ज्यादा बड़े पैमाने पर बाज़ार से जोड़ दिया गया. ऊपर से जंगल-प्राकृतिक संपदा का दोहन और भी बढ़ गया. आदिवासी क्षेत्रों में बाहरी लोगों की पैठ भी पहले से अधिक हो गई. जब भारतीय अर्थव्यवस्था को अंतरराष्ट्रीय बाज़ार के लिए खोल दिया गया और नव उदारवाद का शिकंजा कसने लगा तो आदिवासी क्षेत्रों का दोहन दूर देशों की पूंजी ने भी करना आरंभ कर दिया. इसके साथ ही ज़मीन का अधिग्रहण भी बड़े पैमाने पर हुआ. यह अधिग्रहण राज्य और निजी कंपनियों, दोनों ने ही किया. क़ानून भी ऐसे बना दिए गए, जिससे आदिवासियों का संरक्षित क्षेत्र बाहरी ख़रीद-फरोख्त के लिए बिल्कुल ही खुल गया. सरकारी तंत्र को सुडौल बनाने के लिए लाए गए सुधारों के नाम पर सरकारी पद कम किए गए. सरकार अपने कर्तव्यों की अनदेखी करती रही, नतीजतन आदिवासियों के जीवन स्तर में गिरावट आने लगी और नव उदारवादी अर्थव्यवस्था के कारण छोटे क़र्ज़ की संभावनाएं भी कम होती चली गईं. आदिवासियों की मौजूदा स्थिति को सामाजिक-आर्थिक पैमाने पर समझा जा सकता है. आर्थिक पैमाने को देखा जाए तो आदिवासी देश के मज़दूरों से अधिक संख्या में हैं, लेकिन इसके विपरीत वे उनसे बदतर हालत में हैं, क्योंकि वे अधिकतर कृषि पर निर्भर हैं और उनकी दिहाड़ी या वेतन का स्तर बहुत ही निम्न है. कृषि से बाहर उनकी भागीदारी सबसे कम है या कहें कि नगण्य है. आदिवासियों के पास खेती लायक़ ज़मीन न के बराबर है और वे बहुत छोटे टुकड़ों पर खेती करते हैं. बस एक चौथाई ऐसे हैं, जिनके पास कहने को ही सही, लेकिन सिंचाई का साधन है.
सीमित साधनों के चलते वे साल में केवल एक ही फसल उगा पाते हैं. उन्हें न तो कोई सरकारी अनुदान मिलता है और न क़र्ज़, जो कम ब्याज वाला हो. इसलिए अधिकतर आदिवासी साहूकारों की गिरफ़्त में हैं और धीरे-धीरे अपनी ज़मीनों से हाथ धोते जा रहे हैं. ग़रीबी के कारण वे कुपोषण के शिकार हैं और भुखमरी एक आम बात है. आज़ादी के बाद भारत में ग़रीबी कम हुई, लेकिन आदिवासियों में ग़रीबी आज भी सबसे अधिक है. उनके जीवन स्तर में कोई सुधार नहीं हुआ है और आज भी प्रति व्यक्ति आय-व्यय के मामले में वे देश के अन्य तबकों से काफी पीछे हैं. सामाजिक पैमाने पर भी उनकी हालत काफी ख़राब है. सबसे अधिक पिछड़ापन आदिवासियों में ही पाया जाता है, चाहे वह साक्षरता हो, स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता हो या फिर जच्चा-बच्चा की मृत्यु दर.

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