भारत विभाजन धर्म आधारित राजनीति की सबसे भयावह परिणति था। जिसमें लाखों निर्दोष लोग मारे गए। धर्मकेन्द्रित राजनीति के द्वारा स्वाधीनभाव का जिस तरह अपहरण किया गया और भारत विभाजन हुआ उसका सबसे गंभीर परिणाम यह निकला कि स्वतंत्रता को नकारात्मक और समस्यामूलक और अराजकता का प्रतीक मान लिया गया। यह सबसे बड़ा अविवेकपूर्ण राजनीतिक फैसला था। इसके कारण धार्मिक और पश्चिमी ताकतों के प्रति आम लोगों के जेहन में डर बैठ गया। यह मान लिया गया धार्मिक और पश्चिमी ताकतें सब कुछ करने में सक्षम हैं । अन्य कारकों के अलावा इसने भारतीय जनमानस में धार्मिक तत्ववादी और पश्चिमपरस्त चिन्तन का सामाजिक
10;धार तैयार किया। संप्रभु राष्ट्र,स्वतंत्रता और विज्ञानसम्मतचेतना का आधार कमजोर हुआ। यह मान भी लिया गया कि भारत विभाजन के बारे में तो लोग सब कुछ जानते हैं। अब बताने लायक क्या है, अच्छा यही होगा कि भारत विभाजन को हम भूल जाएं। आगे की ओर देखें,अन्य चीजों की ओर देखें।
आज साम्प्रदायिकता से लोग घृणा नहीं करते बल्कि साम्प्रदायिकता की जय-जयकार करते हैं। पहले साम्प्रदायिकता के साथ जुड़ने में हीनताबोध पैदा होता था,साम्प्रदायिक ताकतों को कोई वोट देना पसंद नहीं करता था, आज ऐसा नहीं है। आज साम्प्रदायिक ताकतों का समाज और राजनीति में सम्मानजनक दर्जा है। अनेक राज्यों में उनकी सरकारें हैं। केन्द्र में भी उनके नेतृत्व में छह साल तक सरकार चली है। साम्प्रदायिक ताकतें आज अछूत नहीं है। हाशिए की शक्ति नहीं है बल्कि केन्द्र की शक्ति हैं।
हिन्दी लेखकों ने भारत विभाजन के विचारधारात्मक-मनोवैज्ञानिक प्रभावों की गहराई में छानबीन करने की बजाय उसे इतिहास और कथासाहित्य का विषय बनाया। गल्प बनाया। उसके मनोजगत पर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में विस्तार के साथ कभी चर्चा नहीं की। उल्लेखनीय है कि 15 अगस्त सन् 1947 में देश के आजाद होने के एक महीने बाद ही इलाहाबाद में हिन्दी-उर्दू के प्रगतिशील लेखकों का सम्मेलन हुआ था इसमें एक भी प्रस्ताव भारत-विभाजन पर नहीं था। यही स्थिति जनवादी लेखक संघ के घोषणापत्र की है। लेखक संगठनों में साम्प्रदायिकता पर जब भी चर्चा होती है तो उनके राजनीतिक नारों पर ही चर्चा होती है। जबकि साम्प्रदायिकता का बहुतगहरा संबंध पुनर्जन्म और अंधविश्वास के साथ है। पुनर्जन्म और अंधविश्वास की परतों को खोले बिना साम्प्रदायिकता को सामाजिक और राजनीतिक जीवन में अलग-थलग करना संभव नहीं है। हिन्दी लेखकों के सम्मेलनों से लेकर उनके साथ जुड़े लेखकों के द्वारा संपादित पत्रिकाओं में आपको सब कुछ मिलेगा यदि कोई चीज नहीं मिलेगी तो वह है अंधविश्वास और पुनर्जन्म की अवधारणा के खिलाफ बहस। पुनर्जन्म और अंधविश्वास पर बहस का अभाव स्वतंत्रता के अभाव को जन्म देता है। रचनाकार में लोकतांत्रिक विजन के विकास को अवरूध्द करता है।
हिन्दी के अधिकांश आलोचकों के यहां भारत विभाजन के समय का कोई भी लिखा बयान,लेख आदि नहीं मिलता। कुछ कहानियां हैं। कुछ उपन्यास हैं जिनमें भारत-विभाजन को विषयवस्तु के रूप में उठाया गया है। किंतु कथा साहित्य में जो चित्रण उपलब्ध है वह भारत विभाजन के बाद किस तरह की मनोदशा बनी है उसकी ओर ध्यान नहीं देता। भारत विभाजन केन्द्रित कथा साहित्य विभाजन की विभीषिका तक सीमित है। जबकि समस्या उसके बाद की है। भारत विभाजन के परवर्ती विचारधारात्मक प्रभावों पर कम सोचा है। कम से कम हिन्दी के किसी आलोचक ने इस पहलू की ओर ध्यान हीं नहीं दिया। लेखक संगठनों के घोषणापत्र इस मामले में चुप्पी साधे हुए हैं।
बुनियादी तौर पर भारत विभाजन को रहस्यमय बनाया गया है। भारत विभाजन को रहस्यमय बनाने में साहित्य और जनमाध्यमों की प्रधान भूमिका है। भारत विभाजन तब ही याद आता है जब कभी कोई साम्प्रदायिक दंगा होता है। उसी समय हिन्दू और मुस्लिम साम्प्रदायिकता के बारे में उत्सवधर्मी चर्चाएं होती हैं,पत्रिकाओं में लेख छपते हैं। बाद में सब कुछ सामान्य हो जाता है। साम्प्रदायिकता अपने घर खुशी हम अपने घर खुशी। चंद दिनों के बाद ही भाईचारे के साथ साम्प्रदायिकता के साथ रहने लगते हैं। साम्प्रदायिकता और भारत विभाजन की जब भी चर्चा होती है तो साम्प्रदायिक ताकतों की नकली धार्मिक अंतर्वस्तु को कभी उद्धाटित नहीं किया जाता। बल्कि उलटे यही कहा जाता है कि धर्म तो ठीक है, धर्म अच्छा है। प्रत्येक धर्म इंसानियत का पाठ सिखाता है। धर्म के प्रति अनालोचनात्मक रवैय्या अंतत: धार्मिकता में इजाफा करता है। धर्म को धार्मिकता से मुक्त किए बिना धर्मरिपेक्षता के भावबोध का निर्माण करना संभव नहीं है। धर्म को धार्मिकता से मुक्त करने के लिए उसे धर्मविज्ञान की तरह विवेचित किया जाना चाहिए। हमारे यहां धर्म है,धर्मशास्त्र है किंतु धर्मविज्ञान नहीं है। इसका अर्थ है धर्म को आलोचनात्मक ढ़ंग से खोलना,विवेचित करना। धर्मविज्ञान के बिना धर्म को धार्मिकता से बचाना संभव नहीं है। धर्म का दुरूपयोग रोकना संभव नहीं है।
भारत विभाजन के पहले साथ रहते थे। भारत विभाजन के बाद हिन्दू-मुस्लिम पड़ोसी हो गए। एक साथ रहने वाले पड़ोसी में कैसे तब्दील हो गए ? और ये अगर पड़ोसी हैं तो फिर विभाजन क्यों ? लड़ते क्यों हैं ? आज पड़ोसी के नाते एक-दूसरे का थोड़ा सम्मान करते हैं। किंतु जब आप किसी को पड़ोसी कहते हैं तो उसे पराया बनाते हैं। उसके प्रति उपेक्षा व्यक्त करते हैं। धीरे-धीरे पड़ोसी के साथ विवाद उठने लगे, झगड़े होने लगे और कालान्तर में हिन्दू और मुसलमानों की बस्तियां अलग बसने लगीं। हिन्दू को मुसलमानों ने अपने इलाकों अथवा घर में किराए पर मकान तक देने से मना कर दिया। सतह पर धर्मनिरपेक्षता,भाईचारा और साम्प्रदायिक सद्भाव और वास्तव जीवन में व्यापक स्तर पर सामाजिक विभाजन सहज ही महसूस किया जा सकता है।
आजादी के दौर में पड़ोसी के साथ शिरकत,मित्रता और साझापन था,आजादी के बाद यह कल्पना की चीज हो गया। अब पड़ोसी मूलत: बेगाना हो गया। पहले पड़ोसी करीबी था आज बेगाना है। आज पड़ोसी से न्यूनतम परिचय तक नहीं है। सिर्फ एक-दूसरे को देखते हैं और चुपचाप निकल जाते हैं। मित्रता और शिरकत का भाव तो बहुत दूर की बात है। पड़ोसी के प्रति अनजानेपन ने हमारे हिन्दू-मुस्लिम संबंधों को भी प्रभावित किया है। लेखक के सामाजिक संबंधों को भी प्रभावित किया है। लेखन को भी प्रभावित किया है। हिन्दू और मुस्लिम लेखकों में एक-दूसरे के समाज के प्रति बेगानापन बढ़ा है। आम जीवन में हिन्दू और मुसलमानों में बेगानापन बढ़ा है। अपरिचय और अज्ञानता में इजाफा हुआ है। पहले साझा चूल्हे थे,साझा बस्तियां थीं। आज साझा चूल्हे तो दूर की बात है हिन्दू बस्तियों में किसी मुसलमान को भाड़े पर घर नहीं मिलता। मुस्लिम बस्तियों में हिन्दू रहना नहीं चाहते।
हिन्दू-मुस्लिम संबंध आरोपित संबंध है। हमें मनुष्य के संबंधों पर बातें करने पर कम और हिन्दू-मुसलमान के संबंधों पर बातें करने में ज्यादा रूचि है। मानवीय संबंध को हिन्दू-मुस्लिम संबंध ने कब और कैसे अपदस्थ कर दिया हम नहीं जानते। हिन्दू-मुस्लिम संबंधों के नाम पर जितनी बहसें हुई हैं। वे नकली बहसें हैं। ये मनुष्य की केटेगरी को केन्द्र में रखकर की गई बहस नहीं है बल्कि हिन्दू-मुसलमान केटेगरी को केन्द्र में रखकर की गई बहस है। हिन्दू-मुस्लिम केटेगरी को आधार बनाकर की गई बहस चाहे जिस परिप्रेक्ष्य से की जाए उसके गर्भ से अंतत: विभाजन ही पैदा होगा। सामाजिक और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण बढ़ेगा। बेगानापन बढ़ेगा। भारत विभाजन ने स्वतंत्रता की चेतना को कुंद किया है और भेदों के संसार को खोल दिया । आज भेद के एक नहीं अनेक रूपों में फंस गए हैं। आज हमारे बीच में व्यापक जनसंचार है उससे भी ज्यादा भाषायी अलगाव और बेगानापन है। व्यापक अत्याधुनिक जनसंचार के कारण भाषायी संबंध वर्चस्ववादी बने हैं। भाषायी वर्चस्व ने स्थानीय भाषाओं के अस्तित्व के लिए खतरा पैदा कर दिया है। यही हाल जातिभेद का है नई आधुनिक सभ्यता ने देश की आजादी के साथ जिस फूट की नींव भारत विभाजन के साथ रखी थी उसे आधुनिकता,मीडिया और सांस्कृतिक प्रक्रियाओं ने और भी ज्यादा व्यापक बनाया है।
अत्याधुनिक संचार के नेटवर्कों का विकास जितना हुआ है उतना ही अलगाव बढ़ा है। संपर्क है किंतु अलगाव के साथ ,खबर है किंतु अलगाव के साथ, देशप्रेम है किंतु अलगाव के साथ, समाजवादी संगठन हैं किंतु सामाजिक अलगाव के साथ,अपनी भाषा है किंतु सामाजिक अलगाव के साथ, अपनी नौकरी है अलगाव के साथ,व्यापार है अलगाव के साथ,राजनीति है अलगाव के साथ। कहने का तात्पर्य यह है कि विगत साठ सालों में अलगाव का इतना व्यापक कैनवास तैयार हुआ है कि हम समझ ही नहीं पाए कि आखिरकार हमारी मित्रता कहां गुम हो गयी ?समाज में एक बड़ा वर्ग है जो आए दिन मुसलमानों और इस्लामधर्म के बारे घृणा और असहिष्णुता का प्रचार करता रहता है। इस्लामिक दर्शन और धर्म की परंपराओं के बारे में घृणा के माहौल को खत्म करने का सबसे आसान तरीका है मुसलमानों और इस्लाम धर्म के प्रति अलगाव को दूर किया जाए। मुसलमानों को दोस्त बनाया जाए। उनके साथ रोटी-बेटी के संबंध स्थापित किए जाएं। उन्हें अछूत न समझा जाए। भारत जैसे बहुसांस्कृतिक देश में धर्मनिरपेक्ष संस्कृति को निर्मित करने लिए जमीनी स्तर पर विभिन्न धर्मों और उनके मानने वालों के बीच में सांस्कृतिक -सामाजिक आदान-प्रदान पर जोर दिया जाए। अन्तर्धार्मिक समारोहों के आयोजन किए जाएं। मुसलमानों और हिन्दुओं में व्याप्त सामाजिक अलगाव को दूर करने के लिए आपसी मेलजोल,प्रेम-मुहब्बत पर जोर दिया जाए। इससे समाज का सांस्कृतिक खोखलापन दूर होगा,रूढ़िवाद टूटेगा और सामाजिक परायापन घटेगा।
भारत में करोड़ों मुसलमान रहते हैं लेकिन गैर मुस्लिम समुदाय के अधिकांश लोगों को यह नहीं मालूम कि मुसलमान कैसे रहते हैं,कैसे खाते हैं, उनकी क्या मान्यताएं, रीति-रिवाज हैं। अधिकांश लोगों को मुसलमानों के बारे में सिर्फ इतना मालूम है कि दूसरे वे धर्म के मानने वाले हैं । उन्हें जानने से हमें क्या लाभ है। इस मानसिकता ने हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच के सामाजिक अंतराल को बढ़ाया है। इस अंतराल ने संशय,घृणा और बेगानेपन को पुख्ता किया है। आश्चर्य की बात है जिन्हें पराएपन के कारण मुसलमानों से परहेज है उन्हें पराए देश की बनी वस्तुओं, खाद्य पदार्थों , पश्चिमी रहन-सहन,वेशभूषा,जीवनशैली आदि से कोई परहेज नहीं है। यानी जो मुसलमानों के खिलाफ ज़हर फैलाते हैं वे पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति के अंधभक्त हैं। हिन्दी के महाकवि सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला ने हिन्दू-मुस्लिम भेद को नष्ट करने के लिए जो रास्ता सुझाया है वह काबिलेगौर है। उन्होंने लिखा-‘‘ भारतवर्ष में जो सबसे बड़ी दुर्बलता है ,वह शिक्षा की है। हिन्दुओं और मुसलमानों में विरोध के भाव दूर करने के लिए चाहिए कि दोनों को दोनों के उत्कर्ष का पूर्ण रीति से ज्ञान कराया जाय। परस्पर के सामाजिक व्यवहारों में दोनों शरीक हों,दोनों एक-दूसरे की सभ्यता को पढ़ें और सीखें। फिर जिस तरह भाषा में मुसलमानों के चिह्न रह गए हैं और उन्हें अपना कहते हुए अब किसी हिन्दू को संकोच नहीं होता, उसी तरह मुसलमानों को भी आगे चलकर एक ही ज्ञान से प्रसूत समझकर अपने ही शरीर का एक अंग कहते हुए हिन्दुओं को संकोच न होगा। इसके बिना,दृढ़ बंधुत्व के बिना ,दोनों की गुलामी के पाश नहीं कट सकते,खासकर ऐसे समय ,जबकि फूट डालना शासन का प्रधान सूत्र है।’’ भारत में मुसलमान विरोध का सामाजिक और वैचारिक आधार है जातिप्रथा, वर्णाश्रम व्यवस्था। इसी के गर्भ से खोखली भारतीयता का जन्म हुआ है जिसे अनेक हिन्दुत्ववादी संगठन प्रचारित करते रहते हैं। जातिप्रथा के बने रहने के कारण धार्मिक रूढ़ियां और धार्मिक विद्वेष भी बना हुआ है।
No comments:
Post a Comment