अन्ना और उनके समर्थकों की तैयारी पहले से अधिक है. इसलिए कहा जा सकता है कि आंदोलन अधिक संगठित एवं सुनियोजित होगा, लेकिन अभी तक अन्ना ने आंदोलन चलाने के लिए किसी भी संगठन की घोषणा नहीं की है. वह इसे अभियान के तौर पर चलाना चाहते हैं, जिसमें देश का हर नागरिक भागीदारी कर सके.
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अन्ना ने मज़बूत लोकपाल बिल पेश न किए जाने की स्थिति में आगामी 16 अगस्त से आमरण अनशन की घोषणा की है. सरकार ने अनशन न करने देने का मन बना रखा है. बाबा रामदेव और उनके साथी आंदोलनकारियों को लाठी के दम पर खदेड़ कर सरकार ने सा़फ कर दिया है कि उसे अन्ना और उनके समर्थकों को खदेड़ने में कोई वक़्त नहीं लगेगा. सरकार से निपटने के लिए अन्ना और उनके समर्थकों की क्या तैयारी है, यह पूरा देश जानना चाहता है. अब तक उन्होंने केवल समर्थकों से सड़कों पर निकलने की अपील मात्र की है, लेकिन भ्रष्टाचार मुक्त भारत का सपना लेकर सड़क पर निकलने भर से आंदोलन सफल होने वाला नहीं है. विश्लेषकों का मानना है कि अन्ना की सफलता राजधानी क्षेत्र, एनसीआर से मिलने वाले समर्थन पर निर्भर करेगी. यदि दिल्ली और आसपास के इलाक़ों से लाखों की संख्या में आम नागरिक 16 अगस्त को राजधानी के लिए निकल पड़ें तो जल्दी नतीजे निकलने की उम्मीद की जा सकती है, लेकिन यह मानने वालों की कमी नहीं है कि सरकार दिल्ली की सीमाओं को सील कर अन्ना समर्थकों को जंतर-मंतर पर आने से रोक सकती है.
यदि सरकार जंतर-मंतर पर धारा 144 लगा दे और राजघाट जैसा कोई विकल्प न दे, तब अन्ना क्या करेंगे? सरकार शांति भंग होने की आशंका की आड़ में अन्ना के दिल्ली प्रवेश पर पाबंदी भी लगा सकती है. ऐसी स्थिति में यदि अन्ना दिल्ली के बाहर अनशन शुरू करते हैं, तब उसका असर सरकार पर क्या पड़ेगा, यह आकलन अभी करना जल्दबाज़ी होगी. कम से कम रामदेव का हरिद्वार का अनशन तो यही बताता है कि दिल्ली से हटते ही आंदोलन की ताक़त कमज़ोर दिखलाई देने लगती है. यह तो तय है कि आंदोलन देश के कोने-कोने में चलेगा. अन्ना और उनके समर्थकों की तैयारी पहले से अधिक है. इसलिए कहा जा सकता है कि आंदोलन अधिक संगठित एवं सुनियोजित होगा, लेकिन अभी तक अन्ना ने आंदोलन चलाने के लिए किसी भी संगठन की घोषणा नहीं की है. वह इसे अभियान के तौर पर चलाना चाहते हैं, जिसमें देश का हर नागरिक भागीदारी कर सके. लेकिन यह याद रखना ज़रूरी है कि जे पी और वी पी ने जब आंदोलन चलाए थे, तब उनके पास पार्टियों का संगठन था, इसके बावजूद भ्रष्टाचार को रोक पाने के संदर्भ में देश का आम नागरिक दोनों को विफल मानता है. ऐसी स्थिति में अन्ना बिना संगठन के क्या कुछ कर पाएंगे, यह विचारणीय प्रश्न है. सरकार आंदोलनों के धैर्य की परीक्षा लेती है. वह आंदोलन को विफल करने के लिए दमन का सहारा लेती है और उसे विभाजित करने की कोशिश भी करती है. सरकार यदि अन्ना के साथ दोनों रणनीतियां अपना कर भी विफल हो जाती है तो उसका प्रयास आंदोलनकारियों के बीच अपने लोगों की घुसपैठ कराकर हिंसा फैलाने का होगा. यदि अन्ना का अनशन लंबा खिंचता है और देश के नागरिकों को यह लगने लगता है कि अन्ना की जान खतरे में है, तब पूरे आंदोलन का भावना प्रधान हो जाना तय है. इस स्थिति का लाभ उठाते हुए सरकार देश भर में या कुछ स्थानों पर हिंसा फैलाने का षड्यंत्र कर सकती है, जिसकी आड़ में उसे अधिक दमन करने का मौक़ा मिलेगा और कहा जा सकेगा कि चौरीचौरा के आंदोलन के दौरान हिंसा फैलने के बाद यदि गांधी जी अपना आंदोलन वापस ले सकते हैं तो अन्ना को भी देश हित में आंदोलन वापस ले लेना चाहिए.
संसद का सत्र शुरू होने और बिल पेश किए जाने के बाद सरकार सबसे पहले तो यह साबित करने की कोशिश करेगी कि मज़बूत लोकपाल बिल लाया गया है. सरकार के हर क़दम को उचित बताने वाले बुद्धिजीवी एनईसी के माध्यम से अपने तिकड़म शुरू कर चुके हैं. अ़खबारों में इन बुद्धिजीवियों के लेख भी लगातार प्रकाशित हो रहे हैं. सरकार की रणनीति यह बताने की होगी कि अन्ना के साथ नागरिक समाज नहीं है. सोनिया टीम के माध्यम से सरकार यह बताएगी कि नागरिक समाज बंटा हुआ है. सरकार की रणनीति मीडिया और घुसपैठियों के माध्यम से अन्ना और रामदेव को आमने-सामने खड़ा करने की रही है. बीच में एक-दूसरे के खिलाफ़ तल्ख बयान देकर दोनों यदाकदा सरकार के षड्यंत्र में फंसते दिखाई दिए हैं, लेकिन भ्रष्टाचार मिटाने की इच्छा रखने वाला आम नागरिक चाहता है कि दोनों एक-दूसरे का साथ दें. जब अन्ना ने अनशन किया, तब कई लोगों ने कहा कि रामदेव को खत्म करने के लिए यह सरकारी प्रयास है, लेकिन जब रामदेव को चार मंत्री लेने पहुंच गए, तब लोगों को लगा कि जन लोकपाल बिल के लिए कमेटी बनाकर सरकार घिर चुकी है, इस कारण उसकी कोशिश बाबा को साथ लेने की है. बाबा के मंच पर ऋतंभरा-आरएसएस के आने से बाबा की लोकप्रियता एकदम सिकुड़ गई, लेकिन पुलिसिया दमन ने बाबा को फिर दम दे दिया. अगर रामदेव और उनके समर्थकों ने असली सत्याग्रही के तौर पर मुक़ाबला किया होता तो बाज़ी पलट सकती थी. सरकार द्वारा हरिद्वार पहुंचाए जाने के बाद बाबा के अस्पताल पहुंचने पर जल्दबाजी में अनशन समाप्त कर देने से बाबा की छवि पर असर पड़ा है.
सरकार की रणनीति लोकपाल बिल ड्राफ्टिंग कमेटी के सदस्यों को बदनाम करने की थी, लेकिन टीम अन्ना बिना दाग़दार हुए इससे उबर गई. अब सरकार की कोशिश बाबा को बदनाम करने की है. उम्मीद करनी चाहिए कि वह जल्द ही इस षड्यंत्र से निपटने में कामयाब होंगे. अन्ना और बाबा दोनों यदि तय कर लें कि वे एक- दूसरे को पूरा साथ देंगे और किसी के उकसावे में नहीं आएंगे तो दोनों मिलकर सरकार से मुक़ाबला कर सकते हैं. दोनों आंदोलन आम लोगों के इर्द-गिर्द थे, लेकिन दोनों की टीमें मीडिया ने बना दीं. यदि ये दोनों टीमें एक साथ काम करना शुरू कर दें और देश भर के जनांदोलनों के नेतृत्व से मिलकर एक सामूहिक नेतृत्व पेश करें तो 16 अगस्त से होने वाले आंदोलन में नई ऊर्जा दिखाई पड़ेगी. सवाल यह है कि 16 अगस्त के आंदोलन को यदि सरकार कुचलने का मन बनाती है तो देश में क्या स्थिति बनेगी? किसी भी पुलिसिया कार्रवाई से अन्ना के आंदोलन को ताक़त मिलना तय है, क्योंकि अब तक अन्ना के साथ आंख मिचौली खेल रहीं तमाम पार्टियां पुलिस दमन के खिला़फ बोलने के लिए उसी तरह मजबूर होंगी, जैसे रामदेव पर कार्रवाई के बाद हुई थीं. किंतु-परंतु के साथ सत्तारूढ़ दल के नेताओं को भी उस दमन की निंदा करने के लिए मजबूर होना पड़ा था.
देश भर में आंदोलनकारियों की जमात में अधिकतर धर्मनिरपेक्ष विचारधारा के लोग शामिल हैं. आज धीरे-धीरे पूरा वातावरण कांग्रेस-यूपीए के खिला़फ होता चला जा रहा है. भ्रष्टाचार मुक्त भारत का सपना देखने वालों के लिए तात्कालिक मुद्दा कांग्रेस मुक्त केंद्र सरकार हो सकता है. यदि भ्रष्टाचार और काले धन को लेकर आंदोलन ज़ोर पकड़ता है तो अगले आम चुनाव समय से पूर्व कराने की स्थिति बन सकती है. आंदोलनकारी अब तक जो रु़ख सार्वजनिक करते रहे हैं, उससे सा़फ है कि फिलहाल वे चुनाव के चक्कर में नहीं हैं, उनकी रुचि सत्ता परिवर्तन में नहीं है. इस मायने में अब तक यह आंदोलन जे पी आंदोलन से अलग है. हालांकि शुरुआती दौर में जे पी आंदोलन सत्ता परिवर्तन का नहीं था, लेकिन इंदिरा गांधी द्वारा इमरजेंसी थोपे जाने के बाद आंदोलन की दिशा यूं बदली कि संपूर्ण क्रांति का सपना देख रहे जे पी को भी सत्ता परिवर्तन की बात खुलकर कहनी पड़ी और जनता पार्टी के गठन में ऐतिहासिक भूमिका का निर्वाह करना पड़ा. जब सत्ता परिवर्तन की बात होती है, तब आम आदमी को लगता है कि कौन से दल दूध के धुले हैं. भारतीय राजनीति दो ध्रुवों में सिमट चुकी हैं, पहला कांग्रेस-यूपीए और दूसरा भाजपा-एनडीए है, जिनके प्रति आंदोलनकारियों की झिझक किसी से छिपी नहीं है. कांग्रेस भ्रष्टाचार के आंदोलन को कमज़ोर करने के लिए सांप्रदायिकता का कार्ड चलाने की रणनीति बनाए हुए है, इसीलिए वह दोनों आंदोलनों के पीछे आरएसएस का हाथ बता रही है. यदि आंदोलनकारी इस षड्यंत्र में नहीं फंसेंगे तो वे मज़बूती के साथ सरकार का मुक़ाबला करने और सत्ता परिवर्तन में अवश्य कामयाब होंगे. जहां तक भ्रष्टाचार खत्म करने का सवाल है तो पूरा देश मानता है कि केवल जन लोकपाल बिल भ्रष्टाचार खत्म करने में कामयाब नहीं होगा, लेकिन इस बिल को लागू करने वाली सरकार यदि दृढ़ संकल्प और इच्छाशक्ति रखे तो वह भ्रष्टाचारियों पर एक सीमा तक अंकुश लगाने में कामयाब हो सकती है. जिस तरह दहेज प्रथा केवल क़ानून से नहीं रोकी जा सकी, अनुसूचित जाति-जनजातियों पर अत्याचार नहीं रोका जा सका, उसी तरह केवल क़ानून बनाकर भ्रष्टाचार खत्म नहीं किया जा सकता. अन्ना-रामदेव एवं उनके समर्थक आंदोलनकारियों को सामाजिक स्तर पर भ्रष्टाचारियों पर दबाव बनाने और उनका सामाजिक बहिष्कार करने के बारे में गंभीरता से सोचना पड़ेगा.
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