Thursday, September 29, 2011

जिस के संगीत से डरती थी एफबीआई ..........

                            एफबीआई यानी दुनिया की सबसे ताक़तवर जांच एजेंसी. दुनियाभर के अपराधी इससे ख़ौफ खाते हैं. यह राजनीतिक उलटफेरों और जीत-हार के खेल में माहिर है. हालांकि एक ऐसा व़क्त भी था, जब एफबीआई को एक शख्स के संगीत से डर लगने लगा था. इतना डर कि वह उसकी हर हरक़त पर नज़र रखने लगी, आख़िर कौन था वह शख्स और क्यों डरती थी उससे एफबीआई........

                                                                           तारीख- जनवरी 10, 1971जगह- मिशिगन, अमेरिकामौका था एक विशाल रैली का, एक सोशल एक्टिविस्ट जॉन सिनक्लेयर की गिरफ़्तारी के विरोध में आयोजित इस रैली में कई बड़े नाम शामिल होने वाले थे. ड्रग ले जाने के आरोप में पकड़े गए जॉन सिनक्लेयर दरअसल एक जाने-माने उदारवादी कार्यकर्ता थे और कहा जा रहा था कि उन्हें ग़लत आरोप लगा कर गिरफ़्तार किया गया था. संगीत, राजनीति और सामाजिक अधिकारों से जुड़ी कई बड़ी हस्तियां इस रैली में मौज़ूद थीं.
हालांकि यह रैली केवल जॉन सिनक्लेयर या इसमें भाग लेने वालों के लिए ही अहम नहीं थी. इस रैली की हर गतिविधि पर नज़रें गड़ाई हुए थी, अमेरिकी संघीय जांच एजेंसी यानी एफबीआई, रैली में आए हर शख्स पर नज़र रखी जा रही थी लेकिन इन सारे मेहमानों में भी एक ख़ास व्यक्ति था…इतना ख़ास कि इसपर नज़र रखने के लिए स्पेशल एजेंट लगाया गया था. रैली ख़त्म होने पर इस ख़ास टारगेट पर नज़र रख रहे स्पेशल एजेंट ने अपनी रिपोर्ट दायर की. रिपोर्ट में कहा गया था कि अपनी पत्नी के साथ रैली में आए इस शख्स ने कई गीत गाए, इसका आख़िरी गाना जॉन सिन्क्लेयर ख़ास इसी मौैके के लिए लिखा गया था. रिपोर्ट में इस शख्स को विषय(सब्जेक्ट) कहा गया था. इसी रिपोर्ट में इस विषय की पहचान दी गई थी- जॉन लेनन, जो पहले बीटल्स नाम के एक ग्रुप के साथ जुड़ा रहा.
                                                                                             
                       जॉन लेनन का यह परिचय किसी आम आदमी के सामने रखा जाता तो शायद उसकी हंसी छूट जाती. इतिहास के सबसे ख्यात संगीतकारों में एक जॉन लेनन की पहचान महज़ गाना गाने वाले एक ऐसे विषय के तौर पर की गई थी जो किसी बीटल्स नाम के ग्रुप से जुड़ा था. जॉन लेनन और बीटल्स विश्व इतिहास संगीत के ऐसे नाम थे जिनका परिचय देने की ज़रूरत ही नहीं थी. हां, इतना बताना ज़रूरी था कि उस रैली के तीन दिन बाद ही सिनक्लेयर रिहा हो गए.सवाल यह है कि आख़िर इतने प्रसिद्ध संगीतकार और गायक के ऊपर क्यों नज़र रखी जा रही थी. क्यों एफबीआई की नज़रों में सबसे ख़तरनाक थे -जॉन लेनन.दरअसल जॉन लेनन की लोकप्रियता ही उनपर नज़र रखे जाने की वजह थी.जॉन का संगीत पूरी दुनिया में सुना जाता था और इसी वजह से एफबीआई को उनसे डर लगता था.दरअसल वह व़क्त अमेरिकी राजनीति में बहुत अहम था. वियतनाम के साथ युद्ध ज़ोर पकड़ चुका था और उसी के साथ युद्ध का विरोध करने वालों की संख्या भी बढ़ गई थी. राष्ट्रपति जॉनसन द्वारा शुरू किए गए युद्ध को नए राष्ट्रपति निक्सन ने भी जारी रखा था. अमेरिकी सैनिकों की भारी संख्या में मौत की ख़बरों के बीच उदारवादियों और समाजवादियों द्वारा विरोध भी बढ़ता जा रहा था. एफबीआई की सबसे ऊंची कुर्सी पर एडगर जे हूवर 40 से भी अधिक सालों से क़ाबिज़ थे. अमेरिका में पूंजीवाद का दबदबा था. उसे सबसे अधिक ख़तरा था-कम्यूनिज़्म से. जहां वियतनाम में भी इसी कम्यूनिज़्म से उसका मुक़ाबला चल रहा था, वहीं देश के अंदर भी पूंजीवाद और हिंसा के ख़िला़फ माहौल तैयार हो रहा था. हूवर को लगता था कि यह कम्यूनिज़्म को जन्म देगा और उसने इस नव-कम्यूनिज़्म से निपटने की तैयारी शुरू कर दी थी. ऐसे हर शख्स पर नज़र रखी जा रही थी जिस पर ज़रा सा भी शक़ हो. युद्ध के ख़िला़फ और उदारवाद के समर्थन में बोलने वाला हर आदमी इस घेरे में आ जाता था. तब के अधिकतर कलाकार और संगीतकार युद्ध का विरोध कर रहे थे.जॉन लेनन ने भी दो साल पहले युद्ध के ख़िला़फ एक गीत रिकार्ड किया था. यह गीत दूसरे वियतनाम मेमोरियल के दौरान लाखों लोगों ने गाया था. उनके गीत युद्ध विरोधी संघर्ष के दौरान महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा थे. सरकार और एफबीआई को लगा कि जॉन लेनन उनके लिए ख़तरनाक साबित हो सकते हैं. दरअसल निक्सन को लगता था कि लेनन द्वारा उनका विरोध और उनके विरोधी मैकगवर्न का समर्थन उनके दोबारा जीतने में रोड़ा बन सकता है. तभी से उन पर नज़र रखी जाने लगी. ऐसी बातें ढूंढी जाने लगीं जिससे उनपर सवाल खड़े किए जा सके. उन्हें फंसाया जा सके.
                        सिनक्लेयर की रैली तो बस एक उदाहरण थी. उनकी ज़िंदगी की हर एक बात पर नज़र रखी जा रही थी. आख़िरकार एफबीआई को मौका मिला. 1968 में लेनन मादक पदार्थ कैनाबिस के साथ पकड़े गए. अब निक्सन को सुझाया गया कि लेनन को देश से निकाला जा सकता है. दरअसल लेनन ब्रिटिश थे और उन्हें क़ानून तोड़ने के नाम पर बाहर किया जा सकता था. लेनन को बाहर निकालने के लिए कोशिशें शुरू हो गईं.

23 मार्च 1973 को उन्हें 60 दिन के भीतर देश छोड़ने को कह दिया, हालांकि उनकी पत्नी को रियायत मिल गई. इसके जवाब में लेनन ने एक नए देश न्यूटोपिया की स्थापना का दावा किया, जिसकी न तो कोई सीमा थी, न तो कोई क़ानून. ख़ुद को न्यूटोपिया का नागरिक बता उसका झंडा (दो सफेद रुमाल) लहराते हुए, उन्होंने अमेरिका से राजनीतिक शरण की मांग कर दी. हालांकि इस बीच निक्सन ख़ुद वाटरगेट कांड में फंस चुके थे और हूवर का निधन हो चुका था. 1975 में लेनन का देश निकाला ख़ारिज़ कर दिया गया.
लेनन की मौत के बाद उनकी बायोग्राफी लिखने वाले इतिहासकार जो सायनर ने सूचना के अधिकार के तहत एफबीआई से जॉन लेनन से जुड़ीं फाइलें मांगी. एफबीआई ने यह तो मान लिया कि उसके पास लेनन से जुड़ी 281 पन्नों की एक फाइल है, लेकिन उसने इसे सामने लाने से इस बिना पर इंकार कर दिया कि उसमें सुरक्षा से जुड़ीं कुछ बातें हैं. हालांकि बाद में एक लंबी क़ानूनी लड़ाई और बिल क्लिंटन के समय क़ानून बदलने से फाइलें आख़िरकार सामने आईं. इन फाइलों के आधार पर जो सायनर ने एक किताब-गिम्मी सम ट्रूथःद जॉन लेनन एफबीआई फाइल्स-लिखी. फाइलों को पढ़ने से यह साफ हो गया कि दुनिया की सबसे शक्तिशाली सरकार और उसकी ताक़तवर जांच एजेंसी-एफबीआई  इंग्लैंड के लीवरपूल में जन्मे एक शख्स जो किसी बीटल्स नाम के ग्रुप से जुड़ा हुआ था, से किस तरह डरती थी और किस तरह जॉन लेनन पर हर व़क्त से नज़र रखी गई थी.

भारत की पुलिस:इतिहास के आईने में

पश्चिमी देशों के विद्वानों का मत है कि लेटिन भाषा के शब्द पोलिटिया से पुलिस शब्द की उत्पत्ति हुई है। पोलिटिया का अर्थ है नागरिक शासन। पुलिस नागरिक शासन का एक महत्वपूर्ण अंग है। इस तरह लेटिन भाषा के इस शब्द से पुलिस की उत्पत्ति मानने वालों का विचार भी तर्कपूर्ण है किन्तु भारत के प्राचीन सम्राट अशोक ने पुन्निस शब्द का प्रयोग किया है। पालि भाषा में नगर रक्षक को पुन्निस कहते थे। पुर का अर्थ होता है नगर, पुर के निवासियों को पोर कहते थे। पुरूष शब्द का उपयोग अधिकारी के रूप् में किया गया है। इस प्रकार ईसा पूर्व तीसरी सदी में पुन्निस और पुलिस उपयोग अधिकारी के रूप में किया गया है। इस प्रकार ईसा पूर्व तीसरी सदी में पुन्निस और पुलिस शब्दों का प्रयोग पालि भाषा में मिलता है। इस आधार पर श्री परिपूर्णानन्द वर्मा जी का मत है कि पुलिस शब्द का प्रादुर्भाव भार में ही हुआ। यह विचार उन्होंने अपने ग्रन्थ भारतीय पुलिस में व्यक्त किया है। इसबसे स्पष्ट है कि भारत में पुलिस व्यवस्था अति प्राचीन है।


पुलिस का प्राचीन इतिहास
सम्राट अशोक के कार्यकाल में पुन्निस का कार्य था कि वह जनता को पाप करने से रोके। आज भी पुलिस का कार्य विधि (कानून) के प्राविधानों को लागू कराना है।
इस प्रकार भारतीय पुलिस की परम्परा अति प्राचीन है। समाज में पुलिस की आवश्यकता अपराध रोकने के लिए होती है। अर्थवेदन में भी अपराध शब्द आया है जिसका अर्थ है अपने लक्ष्य से च्युत होना अथवा गलत कार्य करना। उस समय भी अपराध की रोकथाम की व्यवस्था थी और इस कार्य में प्रयुक्त दल को पौरूस कहते थे जो बाद में पुलिस बना। अशोक के काल तक पौरूस आजकल के सचिव का कार्य करने लगा था और पुलिस अपराधों की रोकथाम का कार्य करती थी।
                            विश्व के अन्य प्राचीन देशों में भी प्राचीन काल में पुलिस व्यवस्था थी। ईरानी साम्राज्य में अलग एक पुलिस बल भी था। प्राचीन यूनानी नगर राज्य में भी ईसा पूर्व दूसरी सदी में पुलिस व्यवस्था होने का प्रमाण मिलता है। रोमन साम्राज्य में ईसा पूर्व पहली सदी में सम्राट आंगस्टन ने पुलिस व्यवस्था की थी। यूरोप के महान सम्राट शार्लमा ने 800 ई. में पवित्र रोमन साम्राज्य की स्थापना की। उसी ने फ्रांस में जेडामों की स्थापना की। आज भी फ्रांस में यह संगठन मौजूद है और वहां की पुलिस का महत्वपूर्ण अंग है।
                            भारत मौर्य काल में पुलिस की सम्यक व्यवस्था थी। उस समय गुप्तचर पुलिस भी थी। प्राचीन भार में भी ग्रामीण तथा नगर पुलिस अलग-अलग थी।सम्राट अशोक ने विकेन्द्रीकरण की नीति अपनाई थी। इस प्रकार ग्राम तथा नगरों को बहुत से अधिकार प्राप्त हो गये थे लेकिन ई. सन् 300 से 650 के बीच गुप्त वंश के राज्य में केन्द्र को सुदृढ़ बनाया गया । प्रथम बार गुप्त काल में केन्द्रीय पुलिस की स्थापना भारत में हुई । भारत की पुलिस को वेतन मिलता था।
                         ग्यारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में भारत पर मुसलमानों के आक्रमण शुरू हो गए। इसके बाद ग्रामीण तथा नगरीय पुलिस व्यवस्था जो सदियों से उत्तर भारत में प्रचलित थी, समाप्त हो गई और सेना की राज्य प्रधान अंग बन गई। लम्बे अरसे तक पुलिस का काम सेना के जिम्मे रहा।अलाउद्दीन खिलजी (1286-1316 ई.) ने पहली बार नियमित पुलिस व्यवस्था की। बाद में हर नगर में पुलिस कोतवाल नियुक्त किए गए। कोतवाल को जो वेतन मिलता था उसी में से उसे अधीनस्थ पुलिस की व्यवस्था करनी पड़ती थी।
                  शेरशाह सूरी ने पुलिस की बडी अच्छी व्यवस्था की । उसने प्राचीन भारतीय प्रणाली की स्थानीय पुलिस नियुक्त कर दी। हर गॉव में उसे मुकदम नियुक्त कर दिया। अगर गांव में चोरी हो जाए और माल की बरामदगी न हो सके तो माल की कीमत उस गांव के मुकदम को देनी पडती थी। हत्या के मामलें में यदि हत्यारा लापता रहा तो मुकदम को फॉसी पर चढा दिया जाता था।अकबर के समय भी प्राचीन पुलिस प्रणाली थोड़े परिवर्तन के साथ चलती रही। गांव वाले अपने चौकीदार, पहरेदार स्वयं रखते थे। शहर कोतवाल का पद शेरशाह सूरी के समय से चलता रहा। यह पद बाद में मराठों के द्वारा खत्म किया गया।
                 अंग्रेजी शासन काल में पुलिस की औपचारिक स्थापना लार्ड कार्नवालिस ने की। प्रति 400 मील पर एक थाना खोलने का आदेश हुआ वहॉ पर वैतनिक थानेदार नियुक्त किए गए जो जिला जज के नियंत्रण में रखें गए। किन्तु यह व्यवस्था सफल नहीं हुई जिला हुई। जिला जज ने थाने के काम पर ध्यान नहीं दिया तथा पुलिस कलेक्टर के अधीन कर दी गई। कलेक्टर को भी समय नहीं था कि वह अपराध रोकने का काम देखें। अन्त में बंगाल में कलकत्ता, ढाका, मुर्शिदाबाद और चौबीस परगना में पुलिस सुपरिंटेन्डेन्ट की नियुक्ति 1809 ई. में की गई। इनके अधिकार आज के पुलिस महानिदेशक के अधिकारों जैसे थे। बम्बई प्रान्त के कई इलाके में 1810 ई. में ही पुलिस सुपरिंटेन्डेन्ट नियुक्त किए गए। 1810 ई में ही पटना और बनारस में भी इन्हें नियुक्त किया गया। ये सभी यूरोपियन थे। लेकिन 1829 ई. में पुलिस सुपरिंटेन्डेन्ट के पद खर्च में कटौती करने के उद्देश्य से तोड दिया गया और पुलिस मजिस्ट्रेट के अधीन कर दी गई । यह व्यवस्था भी नहीं चल सकी। अन्त में 1859 में मद्रास प्रान्त में और 1870 में बम्बई प्रान्त में नियमित पुलिस सुपरिंटेन्डेन्ट की नियुक्ति की जा सकी।
                          सन 1859 के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के बाद 1860 ई. में पुलिस कमीशन बैठा जिसकी संस्तुति पर 1861 ई को पुलिस अधिनियम तैयार किया गया, जिसका मुख्य उद्देश्य जनता को दबाकर रखना था। खर्च कम हो इस उद्देश्य से हर थाने का प्रभारी अधिकारी हेड-कॉन्सटेबल को बदा दिया गया। इस समय कॉन्सटेबल की तीन श्रेणियां थीं और उनका वेतन 6, 7, 8 रू० प्रति माह था।कलकत्ते में काम कर रहे 1860 के पुलिस आयोग की संस्तुतियां प्राप्त होने के पूर्व 1860 ई में ही उत्तर प्रदेश की पुलिस का गठन कर दिया गया था। उत्तर प्रदेश का नाम उत्तरी पश्चिमी प्रान्त था। सातों मडंलों में एक-एक पुलिस अधीक्षक व जिले में सहायक पुलिस अधीक्षक नियुक्त किए गए। नवम्बर 1860 ई. में प्रान्त में पुलिस महानिरीक्षक की नियुक्ति की गई तथा छः उप महानिरीक्षक के पद सृजित हुए। उस समय 39 जिले थे। प्रत्येक 6 मील पर थाना खुलने का आदेश हुआ और एक हेड कॉन्सटेबल तथा छः कॉन्सटेबलों की नियुक्ति प्रत्येक थाने पर हो। उसके बाद पुलिस आयोग फिर गठित हुए। स्वतंत्रता की लडाई प्रारम्भ हो गई। लडाई के दौरान जनता में पुलिस की छवि गिर गई क्योंकि पुलिस का प्रयोग स्वतंत्रता सेनानियों के विरूद्ध किया गया ।
                     थोड़े-बहुत परिवर्तनों के साथ भारतीय पुलिस का शासन चलता रहा। सन् 1949 में स्वराज्य के बाद वास्तविक परिवर्तन का सूत्रपात हुआ और आज तक पुलिस प्रशासन में सुधार का क्रम जारी है।

सैयां भये कोतवाल तो डर काहे का!!!!

रसूखदार से रिश्तेदारी प्रकट करने के अर्थ में हिन्दी की प्रसिद्ध लोकोक्ति है-सैयां भये कोतवाल तो डर काहे का!!!! कोतवाल यानी एक रौबदार पुलिस अधिकारी। प्राचीनकाल से ही कोतवाल प्रशासनिक व्यवस्था का एक प्रमुख पद रहा है। मुगलों के ज़माने में कोतवाल की व्यवस्था काफी मज़बूत थी। ब्रिटिशकाल में इसका रुतबा कुछ और बढ़ा क्योंकि नियम-कायदों पर अमल कराने में अंग्रेज हाकिम बहुत सख्त थे। आज कोतवाल जैसा कोई पद तो सरकारी तौर पर नहीं होता है मगर आमतौर पर पुलिस अधीक्षक के रूप में इसका अर्थ लगाया जाता है। हर शहर के प्रमुख पुलिस स्टेशन को कोतवाली कहने का चलन आज भी है। फिरंगी दौर में कोतवाल, कोतवाली शब्दों का प्रयोग होता अंग्रेजी में भी होता रहा था। कोतवाल शब्द आज तो विजय तेंडुलकर लिखित बहुचर्चित नाटक घासीराम कोतवाल की वजह से भी जाना जाता है।
                            कोतवाल शब्द का प्रचलन मुगल दौर और ब्रिटिश काल में उर्दू-फारसी-अंग्रेजी में काफी होता रहा। यह शब्द भारोपीय यानी इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार का है और इसकी व्युत्पत्ति कोष्ठपाल या कोटपाल से मानी जाती है। कोष्ठ शब्द का संस्कृत में अर्थ होता है कक्ष, कमरा या बड़ा हॉल। संस्कृत की पा धातु में भरण-पोषण, संरक्षण और देखरेख का भाव है। पा से बना है पाल शब्द जिसका अर्थ होता है प्रभावशाली व्यक्ति। जाहिर है जिस पर लोगों का पोषण करने अथवा देखरेख का जिम्मा होगा वह निश्चित ही प्रभावशाली व्यक्ति ही होगा जो राजा भी हो सकता है और प्रमुख अधिकारी भी। प्राचीनकाल में राजाओं के नाम के साथ पाल शब्द भी जुड़ा रहता था। अभिभावक, माता-पिता के लिए हिन्दी में पालक, पालनकर्ता शब्द प्रचलित है जो इसी मूल के हैं। पालित का अर्थ हुआ जिसका भरण-पोषण किया जाए। कोष्ठ शब्द यूं तो समुच्चयवाची है और कुष् धातु से बना है मगर इसके मूल में कमरा या कक्ष का ही भाव है। व्यापक अर्थ में देखें तो विशाल घिरे हुए स्थान के तौर पर भी इस शब्द का प्रयोग किया जा सकता है। इस अर्थ में ही कोष्ठ+पाल अर्थात कोतवाल शब्द की व्युत्पत्ति बतौर क्षेत्राधिकारी कोष्ठपाल के रूप में स्वीकार की जा सकती है।
                              मेरे विचार में कोष्ठपाल से कोतवाल शब्द की व्युत्पत्ति भाषाविज्ञान के नज़रिये से तो सही है मगर तर्कसंगत दृष्टि से ठीक नहीं है। कोतवाल शब्द बना है कोटपाल से। संस्कृत में कोट का अर्थ होता है दुर्ग, किला या फोर्ट। प्राचीनकाल में किसी भी राज्य का प्रमुख सामरिक-प्रशासनिक केंद्र पहाडी टीले पर ऊंची दीवारों से घिरे स्थान पर होता था। अमूमन यह स्थान राजधानी के भीतर या बाहर होता था। मुख्य आबादी की बसाहट इसके आसपास होती थी। इस किले के प्रभारी अधिकारी के लिए कोटपाल शब्द प्रचिलित हुआ फारसी में इसके समकक्ष किलेदार शब्द है। कोटपाल के जिम्मे किले की रक्षा के साथ-साथ वहां रहनेवाले सरकारी अमले और अन्य लोगों देखरेख का काम भी होता था। संस्कृत का कोट शब्द बना है कुट् धातु से जिसमें छप्पर, घिरा हुआ स्थान जैसे भाव हैं। कुट् धातु का विकास ही  कुटिया, कुटीर, कुटीरम्, कोट जैसे प्रचलित आश्रयस्थलों के रूप में सामने आया। कुट् में निहित घिरे हुए स्थान का भाव ही कोट में स्पष्ट हो रहा है। आमतौर पर किला शब्द में ऊंचाई का भाव निहित है पर पहाडियों की तुलना में समतल स्थानों पर किले ज्यादा हैं। इसलिए कोट विशेषता ऊंचाई नहीं बल्कि स्थान का घिरा होना प्रमुख है। चहारदीवारी के लिए परकोटा शब्द भी इसी मूल का है जो कोट में परि उपसर्ग लगाने से बना है। परि का अर्थ होता है चारों ओर से। इस तरह अर्थ भी घिरा हुआ या सुरक्षित स्थान हुआ।
                                                                             
                       सर राल्फ एल टर्नर के शब्दकोश में भी कोटपाल (कोतवाल) शब्द का अर्थ किलेदार यानी commander of a fort  ही बताया गया है। कोटपाल का प्राकृत रूप कोट्टवाल हुआ जिससे कोटवार और कोतवाल जैसे रूप बने। बदलते वक्त में जब किलों की आबादी घटती गई और प्रशासनिक केंद्र के तौर पर किले की बस्ती का विस्तार परकोटे से बाहर तक फैलने लगा तब कोतवाल शब्द से किलेदार की अर्थवत्ता का लोप हो गया और इस पद के प्रभामंडल में भी अभिवृद्धि हुई। किसी ज़माने में कोतवाल के पास पुलिस के साथ साथ मजिस्ट्रेट के अधिकार भी होते थे। दिलचस्प बात यह है कि एक ही मूल से बने कोतवाल और कोटवार जैसे शब्दों में कोटपाल से कोतवाल बनने के बावजूद इस नाम के साथ रसूख बना रहा जबकि कोटवार की इतनी अवनति हुई कि यह पुलिस-प्रशासनिक व्यवस्था के सबसे निचले पायदान का कर्मचारी बनकर रह गया। मध्यभारत में आज भी कोटवार व्यवस्था लागू है। मध्यप्रदेश पुलिस रेगुलेशन एक्ट के मुताबिक कोटवार दरअसल गांव के चौकीदार की भूमिका में है। बमुश्किल-तमाम दो हजार रुपए मासिक वेतन पानेवाला कर्मचारी अलबत्ता यह ग्रामीण क्षेत्र में पुलिस के सूचनातंत्र की अहमतरीन कड़ी है।
ग्रामीण क्षेत्र में वनवासी क्षत्रिय जातियों में पुश्तैनी रूप से ग्रामरक्षा की जिम्मेदारी संभालने के चलते कोटवार पद अब कोटवार जाति में तब्दील हो गया है। उधर कोतवाल की जगह कोतवाली का अस्तित्व तो अब भी कायम है मगर कोतवाल पद, पुलिस अधीक्षक के भारीभरकम ओहदे में बदल गया है। महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में भी ब्राह्मण वर्ग में कोतवाल उपनाम होता है। पहले यह शासकों द्वारा दी जानेवाली उपाधि थी जो बाद में उनकी पहचान बन गई। कोतवाल शब्द अपने संस्कृत मूल से उठ कर फारसी में भी दाखिल हुआ। हॉब्सन-जॉब्सन कोश के मुताबिक बुखारा के अमीर (शासक) की तमाम इमारतों का प्रभारी या अधीक्षक कोतवाल कहलाता था। तुर्की भाषा में भी यह शब्द गया जिसका अर्थ था सुरक्षा प्रभारी (chef de la garnison). अलायड चैम्बर्स के ट्रान्सलिट्रेटेड हिन्दी-इंग्लिश कोश के एंग्लों-इंडियन ग्लासरी में कोतवाल(cotwal) के दुर्गाधिपति, दुर्गपाल जैसे अर्थ ही दिए हैं। इसके साथ ही उसे पुलिस अधीक्षक, नगर दंडाधिकारी और किलेदार भी बताया गया है।

इस तरह कोतवाल बन गया पुलिस अधीक्षक------

मुगलकाल और ब्रिटिशकाल में जो शहर कोतवाल होता था उसे अब पुलिस अधीक्षक कहा जाता है। भारतीय पुलिस सेवा के महत्वपूर्ण पदों में से एक। कोतवाल के पास जितनी ताकत पहले थी, उतनी ही अब भी है। बदलते वक्त में शायद ज्यादा ही है। आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था के लिए अब दुनियाभर में पुलिस शब्द का ही प्रचलन है। हिन्दी में भी करीब दो सदियों से पुलिस शब्द प्रचलित हो गया है। अब इसका कोई विकल्प भी नहीं है और इसकी ज़रूरत भी महसूस नहीं होती। कोतवाल के लिए अंग्रेजी में पुलिस सुपरिन्टेन्डेन्ट शब्द ब्रिटिश काल में चलता था, वही  आजादी के बाद भी  चल रहा है। सुपरिन्टेन्डेन्ट का हिन्दी अनुवाद अधीक्षक किया गया। इस तरह कोतवाल बन गया पुलिस अधीक्षक।
                                    पुलिस शब्द बहुत व्यापक अर्थवत्ता वाला शब्द है। मगर इसका अर्थवैविध्य जितना यूरोपीय भाषाओं में दिखता है उतना भारतीय भाषाओं में नहीं। प्राचीन भारोपीय भाषा परिवार में इसके लिए pel धातु खोजी गई है जिसमें घिरे हुए स्थान का भाव है या परकोटे का भाव है। ग्रीक में पॉलिस polis शब्द है जिसका अर्थ होता है शहर या राज्य। प्राचीन ग्रीस में इसी नाम का एक शहर भी था। गौरतलब है कि संस्कृत के पुर, पुरम् जैसे शब्द भी इसी मूल से उपजे हैं जिनमें नगर, आवास, बस्ती, आगार जैसे भाव हैं। लैटिन का पॉलिशिया ग्रीक मूल के इसी उच्चारण वाले शब्द की देन है जिसमें राज्य, नागरिक, प्रशासन और नागरिकता जैसे अर्थ भी समाहित थे। प्राचीनकाल ग्रीको-रोमनकाल में जब प्रशासन तंत्र को सुदृढ़ता प्रदान करनेवाली ऐसी व्यवस्था बनाने की आवश्यकता हुई जो कानूनों पर अमल कराए, तो उसे भी पोलिस polic नाम दिया गया। स्थापित राजतंत्र की ओर से स्थापित पॉलिस नाम के समूह या समिति में कई गणमान्य लोग होते थे जो तयशुदा कानूनों के तहत लोगों के आचरण पर ध्यान देते थे, नियमों का पालन करवाते थे। गणमान्य लोगों की समिति पुलिस फोर्स बन गई जिसे भारत में पुलिस कहते हैं।
गौरतलब है कि सुपरिन्टेन्डेन्ट से झांक रहे सुपर शब्द की रिश्तेदारी प्रोटो इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार के अपर से है जिसमें ऊपर, आगे, वरिष्ठ जैसे भाव है। इसकी प्राचीन भारोपीय धातु है upper जिसकी संस्कृत शब्द उपरि से साम्यता गौरतलब है। अवेस्ता में इसका रूप उपारी मिलता है। हिन्दी-उर्दू में प्रचलित ऊपर शब्द यहीं से जन्मा है। इसी कड़ी से जुड़े हैं यूरोपीय भाषाओं के कुछ अन्य शब्द जैसे ग्रीक का हाईपर hyper, ओल्ड इंग्लिश का ओफेर, गोथिक का उफेरो और आईरिश का फोर आदि। इन सबमें उच्चता, वरिष्ठता, ऊपर का, आगे का जैसे भाव समाहित हैं। भारोपीय भाषाओं में स और ह ध्वनियां आपस में बदलती हैं जैसे अग्रेजी का सर्पेंट और ग्रीक का हर्पेंटम जिसमें रेंगने, सरकने का भाव है। संस्कृत का सर्प भी इसी मूल का है। इसी तरह ग्रीक हाईपर ही अंग्रेजी में सुपर में तब्दील होता है।
                                     हिन्दी से कोतवाल शब्द तो लुप्त हुआ ही इसकी एवज में बना पुलिस अधीक्षक शब्द सिर्फ उल्लेख भर के लिए प्रयुक्त होता है। बोलचाल में इसका इस्तेमाल नहीं के बराबर है। इसी तरह सुपरिन्टेन्डेन्ट ऑफ पुलिस शब्द का इस्तेमाल भी बहुत कम होता है। इसकी जगह अंग्रेजी के संक्षिप्त रूप एसपी का प्रचलन सर्वाधिक है। बोलचाल में इसके आगे ‘साहब’ लगा लिया जाता है। समाचार माध्यमों में यदाकदा पुलिस कप्तान शब्द का प्रयोग भी देखने में आता है। कभी-कभी लेखनी में वैविध्य लाने के लिए कुछ पत्रकार शहर-कोतवाल जैसा प्रयोग भी कर लेते हैं। अंग्रेजी का सुपरिन्टेन्डेन्ट दो शब्दों के मेल से बना है। मूल रूप से यह प्रोटो इंडो यूरोपीय भाषा परिवार का ही है और इसकी रिश्तेदारी हिन्दी-संस्कृत के कई शब्दों से है। किसी ज़माने में सुपरिन्टेन्डेन्ट ब्रिटेन में बिशप के बराबर का पद होता था और यह शासन का मंत्री होता था जिसके पास एक क्षेत्र विशेष के चर्चों के प्रबंध की जिम्मेदारी थी। यह बना है लैटिन के सुपरिन्टेन्डेन्डेन्टेम superintendentem से जो सुपर+(इन)टेन्डेयर (super+intendere) से हुई है। गौरतलब है कि सुपर और टेन्डेयर दोनों शब्द भारोपीय भाषा परिवार के हैं।
                                  सुपर का अर्थ होता है उच्च, वरिष्ट, के ऊपर, आगे, श्रेष्ट, ऊंचा आदि। (इन)टेन्डेयर शब्द में सीधी निगाहबीनी, नज़र रखना, निर्देशित करना जैसे भाव है। इस तरह सुपरिन्टेन्डेन्ट शब्द में निरीक्षणकर्ता, उच्चाधिकारी, "सुपरिन्टेन्डेन्ट के लिए हिन्दी में अधीक्षक शब्द बनाया गया है। यह शब्द संस्कृत शब्दकोशो में नहीं मिलता। सुपरिन्टेन्डेन्ट में निहित भावों को स्पष्ट करने के लिए अधि+ईक्षणम् की संधि से इसका निर्माण हुआ। सुपरिन्डेन्डेन्ट की तरह ही सुपर+(इन)टेन्डेयर की तरह संस्कृत के अधि उपसर्ग में ऊपर, ऊर्ध्व, अधिकता के साथ, प्रमुख, प्रधान जैसे भाव हैं। ."
                                                                                   
प्रभारी जैसे भाव हैं। टेन्डेयर शब्द "सुपरिन्टेन्डेन्ट के लिए हिन्दी में अधीक्षक शब्द बनाया गया है। यह शब्द संस्कृत शब्दकोशो में नहीं मिलता। सुपरिन्टेन्डेन्ट में निहित भावों को स्पष्ट करने के लिए अधि+ईक्षणम् की संधि से इसका निर्माण हुआ। सुपरिन्डेन्डेन्ट की तरह ही सुपर+(इन)टेन्डेयर की तरह संस्कृत के अधि उपसर्ग में ऊपर, ऊर्ध्व, अधिकता के साथ, प्रमुख, प्रधान जैसे भाव हैं। ."
प्रोटो इंडो-यूरोपीय धातु टेन ten से बना है जिसका अर्थ है खिंचाव। संस्कृत की तन् धातु इसके समकक्ष है। शरीद को तन इसलिए कहते हैं कि वह बढ़ता है, खिंचता है, विकसित होता है। तन्त्र भी इस मूल का एक अन्य प्रमुख शब्द है जिसका मतलब होता है तार, जाल, संजाल, तरीका, व्यवस्था आदि। इसी तरह टेन्डेयर का अर्थ हुआ बढ़ाना, तानना, खींचना, किसी चीज़ को विस्तार देना। यहां इसका मतलब है योजना बनाना। योजना के प्रस्ताव के अर्थ में अंग्रेजी का टेन्डर शब्द इसी कड़ी का हिस्सा है। हिन्दी का तनाव, तानना जैसे शब्द इसी मूल से बने हैं। तनाव के अर्थ में अंग्रेजी का टैन्शन इसी मूल का है। ध्यानाकर्षण के अर्थ में अटैन्शन शब्द भी इससे ही निकला है। गौर करें आकर्षण का अर्थ खिंचाव ही होता है। इस तरह टेन्डेयर में अटैन्शन, व्यवस्था, योजना बनाने का भाव निहित है। कुल मिलाकर सुरिन्टेन्डेन्ट शब्द में सर्वाधिकार सम्पन्न क्षेत्राधिकारी होता है जिसके जिम्मे अपने हलके पर पैनी नज़र रखने, व्यवस्था बनाए रखने और उचित फैसले लेने का काम होता है। पुलिस सुपरिन्टेन्डेन्ट यानी पुलिस अधीक्षक यही सब करता है। भारत के कई विभागों में विभागीय प्रमुख को सुपरिन्टेन्डेन्ट कहा जाता है।
सुपरिन्टेन्डेन्ट के लिए हिन्दी में अधीक्षक शब्द बनाया गया है। यह शब्द संस्कृत शब्दकोशो में नहीं मिलता। सुपरिन्टेन्डेन्ट में निहित भावों को स्पष्ट करने के लिए अधि+ईक्षणम् की संधि से इसका निर्माण हुआ। सुपरिन्डेन्डेन्ट (सुपर+(इन)टेन्डेयर) की तरह अधि+ईक्षणम् के अधि उपसर्ग में ऊपर, ऊर्ध्व, अधिकता के साथ, प्रमुख, प्रधान जैसे भाव हैं। इससे ही अधिकार, अधिसंख्य, अधिक, अधिकरण जैसे कई शब्द बने हैं जिनमें श्रेष्टता, अधिकता और उच्चता के भाव हैं। ईक्ष का अर्थ होता है देखना, ताकना, आलोचना करना, खयाल रखना, सावधान-सचेत रहना। इस तरह अधि+ईक्षणम् से बनी क्रिया अधीक्षण का अर्थ हुआ सत्ताधिकार, देखभाल करना, प्रभुत्व, विशेषकार्य की जिम्मेदारी आदि। इससे ही बनाया है अधीक्षक जिसमें ये सारे कर्तव्य निहित हैं। अधीक्षण/अधीक्षक के लिए हिन्दी में कार्यपालन/कार्यपालक जैसे शब्द भी प्रचलित हैं मगर पुलिस के संदर्भ में अधीक्षक शब्द ही प्रचलित है। उप पुलिस अधीक्षक को डिप्टी सुपरिन्टेन्डेन्ट ऑफ पुलिस अर्थात डीएसपी कहते हैं। दो दशक पहले तक मध्यप्रदेश में डीएसपी के स्थान पर डीवाय एसपी कहने का चलन था। इसकी वजह थी डिप्टी सुपरिन्टेन्डेन्ट ऑफ पुलिस का संक्षिप्त रूप Dy SP लिखना। [

भारतीय पुलिस का इतिहास-----

                  हिंदू काल में इतिहास में दंडधारी शब्द का उल्लेख आता है। भारतवर्ष में पुलिस शासन के विकासक्रम  में उस काल के दंडधारी को वर्तमान काल के पुलिस जन के समकक्ष माना जा सकता है। प्राचीन भारत का स्थानीय शासन मुख्यत: ग्रामीण पंचायतों पर आधारित था। गाँव के न्याय एवं शासन संबंधी कार्य ग्रामिक नामी एक अधिकारी द्वारा संचलित किए जाते थ। इसकी सहायता और निर्देशन ग्राम के वयोवृद्ध करते थे। यह ग्रामिक राज्य के वेतनभोगी अधिकारी नहीं होते थे वरन् इन्हें ग्राम के व्यक्ति अपने में से चुन लेते थे। ग्रामिकों के ऊपर 5-10 गाँवों की व्यवस्था के लिए "गोप" एवं लगभग एक चौथाई जनपद की व्यवस्था करने के लिए "गोप" एवं लगभग एक चौथाई जनपद की व्यवस्था करने के लिए "स्थानिक" नामक अधिकारी होते थे। प्राचीन यूनानी इतिहासवेतताओं ने लिखा है कि इन निर्वाचित ग्रामीण अधिकारियों द्वारा अपराधों की रोकथाम का कार्य सुचारु रूप से होता था और उनके संरक्षण में जनता अपने व्यापार उद्योग-निर्भय होकर करती थी।
                                                                                
सल्तनत और मुगल काल में भी ग्राम पंचायतों और ग्राम के स्थानीय अधिकारियों की परंपरा अक्षुण्ण रही। मुगल काल में ग्राम के मुखिया मालगुजारी एकत्र करने, झगड़ों का निपटारा आदि करने का महत्वपूर्ण कार्य करते थे और निर्माण चौकीदारों की सहायता से ग्राम में शांति की व्यवस्था स्थापित रखे थे। चौकीदार दो श्रेणी में विभक्त थे- (1) उच्च, (2) साधारण। उच्च श्रेणी के चौकीदार अपराध और अपराधियों के संबंध में सूचनाएँ प्राप्त करते थे और ग्राम में व्यवस्था रखने में सहायता देते थे। उनका यह भी कर्तव्य था कि एक ग्राम से दूसरे ग्राम तक यात्रियों को सुरक्षापूर्वक पहुँचा दें। साधारण कोटि के चौकीदारों द्वारा फसल की रक्षा और उनकी नापजोख का कार्य करता जाता था। गाँव का मुखिया न केवल अपने गाँव में अपराध शासन का कार्य करता था वरन् समीपस्थ ग्रामों के मुखियों को उनके क्षेत्र में भी अपराधों के विरोध में सहायता प्रदान करता था। शासन की ओर से ग्रामीण क्षेत्रों की देखभाल फौजदार और नागरिक क्षेत्रों की देखभाल कोतवाल के द्वारा की जाती थी।

मुगलों के पतन के उपरांत भी ग्रामीण शासन की परंपरा चलती रही। यह अवश्य हुआ कि शासन की ओर से नियुक्त अधिकारियों की शक्ति क्रमश: लुप्तप्राय होती गई। सन् 1765 में जब अंग्रेजों ने बंगाल की दीवानी हथिया ली तब जनता का दायित्व उनपर आया। वारेन हेस्टिंग्ज़ ने सन् 1781 तक फौजदारों और ग्रामीण पुलिस की सहायता से पुलिस शासन की रूपरेखा बनाने के प्रयोग किए और अंत में उन्हें सफल पाया। लार्ड कार्नवालिस का यह विश्वास था कि अपराधियों की रोकथाम के निमित्त एक वेतन भोगी एवं स्थायी पुलिस दल की स्थापना आवश्यक है। इसके निमित्त जनपदीय मजिस्ट्रेटों को आदेश दिया गया कि प्रत्येक जनपद को अनेक पुलिसक्षेत्रों में विभक्त किया जाए और प्रत्येक पुलिसक्षेत्र दारोगा नामक अधिकारी के निरीक्षण में सौंपा जाय। इस प्रकार दारोगा का उद्भव हुआ। बाद में ग्रामीण चौकीदारों को भी दारोगा के अधिकार में दे दिया गया।

इस प्रकार मूलत: वर्तमान पुलिस शासन की रूपरेखा का जन्मदाता लार्ड कार्नवालिस था। वर्तमान काल में हमारे देश में अपराधनिरोध संबंधी कार्य की इकाई, जिसका दायित्व पुलिस पर है, थाना अथवा पुलिस स्टेशन है। थाने में नियुक्त अधिकारी एवं कर्मचारियों द्वारा इन दायित्वों का पालन होता है। सन् 1861 के पुलिस ऐक्ट के आधार पर पुलिस शासन प्रत्येक प्रदेश में स्थापित है। इसके अंतर्गत प्रदेश में महानिरीक्षक की अध्यक्षता में और उपमहानिरीक्षकों के निरीक्षण में जनपदीय पुलिस शासन स्थापित है। प्रत्येक जनपद में सुपरिटेंडेंट पुलिस के संचालन में पुलिस कार्य करती है। सन् 1861 के ऐक्ट के अनुसार जिलाधीश को जनपद के अपराध संबंधी शासन का प्रमुख और उस रूप में जनपदीय पुलिस के कार्यों का निर्देशक माना गया है।