ये है भारतीय संस्कृति का एक ऐसा उदाहरण ..जो विश्व में या भारत की राजनीती के इतिहास में न कही हुआ न कभी होगा ...! ये है लाल बहादुर शास्त्री ओर उनकी पत्नी ...! एक प्रधानमंत्री ..अपने कर्तव्य का निर्वाह कर रहा है और उनकी पत्नी उनके उत्साह को बढ़ाये रखने के लिए धार्मिक पुस्तक पढ़ कर अपना कर्तव्य निभाह रहीं हैं ....! सरलता सादगी का ये स्वरुप हर भारतीय के लिए गर्व की बात है न ...! हमे तो गर्व है ही ...!
Saturday, October 1, 2011
भगतसिंहः-जेल के दिन--------
जेल में भगत सिंह ने करीब २ साल गुजारे। इस दौरान वे कई क्रान्तिकारी गतिविधियों से जुड़े रहे। उनका अध्ययन भी जारी रहा। उनके उस दौरान लिखे गये ख़त आज भी उनके विचारों के दर्पण हैं। इस दौरान उन्होंने कई तरह से पूँजीपतियों को अपना शत्रु बताया है। उन्होंने लिखा कि मजदूरों का शोषण करने वाला एक भारतीय ही क्यों न हो, वह उनका शत्रु है। उन्होंने जेल में अंग्रेज़ी में एक लेख भी लिखा जिसका शीर्षक था मैं नास्तिक क्यों हूँ?" जेल में भगत सिंह व उनके साथियों ने ६४ दिनों तक भूख हडताल की। उनके एक साथी यतीन्द्रनाथ दास ने तो भूख हड़ताल में अपने प्राण ही दे दिये ।
फ़ाँसी------------- भगतसिंह की माता विद्यावती का देश के नवयुवकों के नाम सन्देश जिसमें उन्होंने अपने हस्ताक्षर राष्ट्रभाषाहिन्दी में किये थे i २३ मार्च १९३१ को शाम में करीब ७ बजकर ३३ मिनट पर भगत सिंह तथा इनके दो साथियों सुखदेव व राजगुरु को फाँसी दे दी गई । फाँसी पर जाने से पहले वे लेनिन की नहीं बल्कि राम प्रसाद 'बिस्मिल' की जीवनी पढ़ रहे थे जो सिन्ध (वर्तमान पाकिस्तान का एक सूबा) के एक प्रकाशक भजन लाल बुकसेलर ने आर्ट प्रेस, सिन्ध से छापी थी। कहा जाता है कि जेल के अधिकारियों ने जब उन्हें यह सूचना दी कि उनके फाँसी का वक्त आ गया है तो उन्होंने कहा था- "ठहरिये! पहले एक क्रान्तिकारी दूसरे से मिल तो ले।" फिर एक मिनट बाद किताब छत की ओर उछाल कर बोले - "ठीक है अब चलो ।"
फाँसी पर जाते समय वे तीनों मस्ती से गा रहे थे -
मेरा रँग दे बसन्ती चोला, मेरा रँग दे;
मेरा रँग दे बसन्ती चोला। माय रँग दे बसन्ती चोला।।
फाँसी के बाद कहीं कोई आन्दोलन न भड़क जाए इसके डर से अंग्रेजों ने पहले इनके मृत शरीर के टुकड़े किए तथा फिर इसे बोरियों में भर कर फ़िरोजपुर की ओर ले गए जहाँ घी के बदले मिट्टी का तेल डालकर ही इनको जलाया जाने लगा । गाँव के लोगों ने आग जलती देखी तो करीब आए । इससे डरकर अंग्रेजों ने इनकी लाश के अधजले टुकड़ों को सतलुज नदी में फेंका और भाग गये। जब गाँव वाले पास आये तब उन्होंने इनके मृत शरीर के टुकड़ो कों एकत्रित कर विधिवत दाह संस्कार किया । और भगत सिंह हमेशा के लिये अमर हो गये। इसके बाद लोग अंग्रेजों के साथ-साथ गान्धी को भी इनकी मौत का जिम्मेवार समझने लगे । इस कारण जब गान्धी कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में हिस्सा लेने जा रहे थे तो लोगों ने काले झण्डों के साथ गान्धीजी का स्वागत किया । एकाध जग़ह पर गान्धी पर हमला भी हुआ किन्तु सादी वर्दी में उनके साथ चल रही पुलिस ने बचा लिया। बाद में गान्धी को अपनी यात्रा छुपकर करनी पड़ी ।
व्यक्तित्व-------------जेल के दिनों में उनके लिखे खतों व लेखों से उनके विचारों का अन्दाजा लगता है । उन्होंने भारतीय समाज में लिपि (पंजाबी की गुरुमुखी व शाहमुखी तथा हिन्दी और अरबी उर्दू के सन्दर्भ में विशेष रूप से), जाति और धर्म के कारण आयी दूरी पर दुःख व्यक्त किया था । उन्होंने समाज के कमजोर वर्ग पर किसी भारतीय के प्रहार को भी उसी सख्ती से सोचा जितना कि किसी अंग्रेज के द्वारा किए गये अत्याचार को ।
भगत सिंह को हिन्दी, उर्दू, पंजाबी तथा अंग्रेजी के अलावा बांग्ला भी आती थी जो उन्होंने बटुकेश्वर दत्त से सीखी थी । उनका विश्वास था कि उनकी शहादत से भारतीय जनता और उद्विग्न हो जायेगी और ऐसा उनके जिन्दा रहने से शायद ही हो पाये । इसी कारण उन्होंने मौत की सजा सुनाने के बाद भी माफ़ीनामा लिखने से साफ मना कर दिया । पं० रामप्रसाद 'बिस्मिल' ने अपनी आत्मकथा में जो-जो दिशा-निर्देश दिये थे उनका भगत सिंह ने अक्षरश: पालन किया।[1] उन्होंने अंग्रेज सरकार को एक पत्र भी लिखा, जिसमें कहा गया था कि उन्हें अंग्रेज़ी सरकार के ख़िलाफ़ भारतीयों के युद्ध का प्रतीक एक युद्धबन्दी समझा जाए तथा फ़ाँसी देने के बदले गोली से उड़ा दिया जाये ।
फ़ाँसी के पहले ३ मार्च को अपने भाई कुलतार को भेजे एक पत्र में भगत सिंह ने लिखा था -
उन्हें यह फ़िक्र है हरदम नयी तर्ज़-ए-ज़फ़ा क्या है
हमें यह शौक है देखें, सितम की इन्तहा क्या है
दहर से क्यों ख़फ़ा रहें,चर्ख से क्यों ग़िला करें
सारा जहाँ अदू सही,आओ! मुक़ाबला करें ।
इन जोशीली पंक्तियों से उनके शौर्य का अनुमान लगाया जा सकता है। शहीद भगत सिंह सदा ही शेर की तरह जिए। चन्द्रशेखर आजा़द से पहली मुलाकात के समय जलती हुई मोमबती पर हाथ रखकर उन्होंने कसम खायी थी कि उनकी जिन्दगी देश पर ही कुर्बान होगी और उन्होंने अपनी वह कसम पूरी कर दिखायी।
फ़ाँसी------------- भगतसिंह की माता विद्यावती का देश के नवयुवकों के नाम सन्देश जिसमें उन्होंने अपने हस्ताक्षर राष्ट्रभाषाहिन्दी में किये थे i २३ मार्च १९३१ को शाम में करीब ७ बजकर ३३ मिनट पर भगत सिंह तथा इनके दो साथियों सुखदेव व राजगुरु को फाँसी दे दी गई । फाँसी पर जाने से पहले वे लेनिन की नहीं बल्कि राम प्रसाद 'बिस्मिल' की जीवनी पढ़ रहे थे जो सिन्ध (वर्तमान पाकिस्तान का एक सूबा) के एक प्रकाशक भजन लाल बुकसेलर ने आर्ट प्रेस, सिन्ध से छापी थी। कहा जाता है कि जेल के अधिकारियों ने जब उन्हें यह सूचना दी कि उनके फाँसी का वक्त आ गया है तो उन्होंने कहा था- "ठहरिये! पहले एक क्रान्तिकारी दूसरे से मिल तो ले।" फिर एक मिनट बाद किताब छत की ओर उछाल कर बोले - "ठीक है अब चलो ।"
फाँसी पर जाते समय वे तीनों मस्ती से गा रहे थे -
मेरा रँग दे बसन्ती चोला, मेरा रँग दे;
मेरा रँग दे बसन्ती चोला। माय रँग दे बसन्ती चोला।।
फाँसी के बाद कहीं कोई आन्दोलन न भड़क जाए इसके डर से अंग्रेजों ने पहले इनके मृत शरीर के टुकड़े किए तथा फिर इसे बोरियों में भर कर फ़िरोजपुर की ओर ले गए जहाँ घी के बदले मिट्टी का तेल डालकर ही इनको जलाया जाने लगा । गाँव के लोगों ने आग जलती देखी तो करीब आए । इससे डरकर अंग्रेजों ने इनकी लाश के अधजले टुकड़ों को सतलुज नदी में फेंका और भाग गये। जब गाँव वाले पास आये तब उन्होंने इनके मृत शरीर के टुकड़ो कों एकत्रित कर विधिवत दाह संस्कार किया । और भगत सिंह हमेशा के लिये अमर हो गये। इसके बाद लोग अंग्रेजों के साथ-साथ गान्धी को भी इनकी मौत का जिम्मेवार समझने लगे । इस कारण जब गान्धी कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में हिस्सा लेने जा रहे थे तो लोगों ने काले झण्डों के साथ गान्धीजी का स्वागत किया । एकाध जग़ह पर गान्धी पर हमला भी हुआ किन्तु सादी वर्दी में उनके साथ चल रही पुलिस ने बचा लिया। बाद में गान्धी को अपनी यात्रा छुपकर करनी पड़ी ।
व्यक्तित्व-------------जेल के दिनों में उनके लिखे खतों व लेखों से उनके विचारों का अन्दाजा लगता है । उन्होंने भारतीय समाज में लिपि (पंजाबी की गुरुमुखी व शाहमुखी तथा हिन्दी और अरबी उर्दू के सन्दर्भ में विशेष रूप से), जाति और धर्म के कारण आयी दूरी पर दुःख व्यक्त किया था । उन्होंने समाज के कमजोर वर्ग पर किसी भारतीय के प्रहार को भी उसी सख्ती से सोचा जितना कि किसी अंग्रेज के द्वारा किए गये अत्याचार को ।
भगत सिंह को हिन्दी, उर्दू, पंजाबी तथा अंग्रेजी के अलावा बांग्ला भी आती थी जो उन्होंने बटुकेश्वर दत्त से सीखी थी । उनका विश्वास था कि उनकी शहादत से भारतीय जनता और उद्विग्न हो जायेगी और ऐसा उनके जिन्दा रहने से शायद ही हो पाये । इसी कारण उन्होंने मौत की सजा सुनाने के बाद भी माफ़ीनामा लिखने से साफ मना कर दिया । पं० रामप्रसाद 'बिस्मिल' ने अपनी आत्मकथा में जो-जो दिशा-निर्देश दिये थे उनका भगत सिंह ने अक्षरश: पालन किया।[1] उन्होंने अंग्रेज सरकार को एक पत्र भी लिखा, जिसमें कहा गया था कि उन्हें अंग्रेज़ी सरकार के ख़िलाफ़ भारतीयों के युद्ध का प्रतीक एक युद्धबन्दी समझा जाए तथा फ़ाँसी देने के बदले गोली से उड़ा दिया जाये ।
फ़ाँसी के पहले ३ मार्च को अपने भाई कुलतार को भेजे एक पत्र में भगत सिंह ने लिखा था -
उन्हें यह फ़िक्र है हरदम नयी तर्ज़-ए-ज़फ़ा क्या है
हमें यह शौक है देखें, सितम की इन्तहा क्या है
दहर से क्यों ख़फ़ा रहें,चर्ख से क्यों ग़िला करें
सारा जहाँ अदू सही,आओ! मुक़ाबला करें ।
इन जोशीली पंक्तियों से उनके शौर्य का अनुमान लगाया जा सकता है। शहीद भगत सिंह सदा ही शेर की तरह जिए। चन्द्रशेखर आजा़द से पहली मुलाकात के समय जलती हुई मोमबती पर हाथ रखकर उन्होंने कसम खायी थी कि उनकी जिन्दगी देश पर ही कुर्बान होगी और उन्होंने अपनी वह कसम पूरी कर दिखायी।
भगतसिंहः--------लाला जी की मृत्यु का प्रतिशोध------
१९२८ में साइमन कमीशन के बहिष्कार के लिये भयानक प्रदर्शन हुए। इन प्रदर्शनों मे भाग लेने वालों पर अंग्रेजी शासन ने लाठी चार्ज भी किया। इसी लाठी चार्ज से आहत होकर लाला लाजपत राय की मृत्यु हो गई। अब इनसे रहा न गया। एक गुप्त योजना के तहत इन्होंने पुलिस सुपरिंटेंडेंट सॉण्डर्स को मारने की सोची। सोची गई योजना के अनुसार भगत सिंह और राजगुरु सॉण्डर्स कोतवाली के सामने व्यस्त मुद्रा में टहलने लगे। उधर बटुकेश्वर दत्त अपनी साइकिल को लेकर ऐसे बैठ गये जैसे कि वो ख़राब हो गई हो । दत्त के इशारे पर दोनों सचेत हो गए। उधर चन्द्रशेखर आज़ाद पास के डी०ए०वी० स्कूल की चहारदीवारी के पास छिपे इनके घटना के अंजाम देने में रक्षक का काम कर रहे थे। सॉण्डर्स के आते ही राजगुरु ने एक गोली सीधी उसके सर में मारी जिसके तुरन्त बाद वह होश खो बैठा। इसके बाद भगत सिंह ने ३-४ गोली दाग कर उसके मरने का पूरा इन्तज़ाम कर दिया। ये दोनों जैसे ही भाग रहे थे कि एक सिपाही चानन सिंह ने इनका पीछा करना शुरू कर दिया। चन्द्रशेखर आज़ाद ने उसे सावधान किया -"आगे बढ़े तो गोली मार दूँगा।" नहीं मानने पर आज़ाद ने उसे गोली मार दी। इस तरह इन लोगों ने लाला लाजपत राय की मौत का बदला ले लिया ।
एसेम्बली में बम फेंकना-----------------भगत सिंह मूलतः खूनखराबे के पक्षधर नहीं थे। पर वे कार्ल मार्क्स के सिद्धान्तों से प्रभावित अवश्य थे। यही नहीं, वे समाजवाद के पक्के पक्षधर भी थे। इसी कारण से उन्हें पूंजीपतियों की मजदूरों के प्रति शोषण की नीति पसन्द नहीं आती थी। उस समय चूँकि अंग्रेज ही सर्वेसर्वा थे तथा बहुत कम भारतीय उद्योगपति तरक्की कर पाये थे, अतः अंग्रेजों के मजदूरों के प्रति रुख़ से उनका ख़फ़ा होना लाज़िमी था। ऐसी नीतियों के पारित होने को निशाना बनाना उनके दल का निर्णय था। सभी चाहते थे कि अंग्रेजों को पता चले कि हिन्दुस्तानी जाग चुके हैं और उनके हृदय में ऐसी नीतियों के खिलाफ़ क्षोभ है। ऐसा करने के लिये उन लोगों ने दिल्ली की केन्द्रीय एसेम्बली में बम फेंकने की सोची।भगत सिंह चाहते थे कि इसमें कोई खून खराबा न हो तथा अंग्रेजो तक उनकी 'आवाज़' भी पहुँचे। हालांकि उनके दल के सब लोग ऐसा नहीं सोचते थे पर अन्त में सर्वसम्मति से भगत सिंह तथा बटुकेश्वर दत्त का नाम चुना गया। निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार ८ अप्रैल, १९२९ को केन्द्रीय असेम्बली में इन दोनों ने एक ऐसे स्थान पर बम फेंका जहाँ कोई मौजूद न था,अन्यथा उसे चोट लग सकती थी। पूरा हॉल धुएँ से भर गया। वे चाहते तो भाग भी सकते थे पर उन्होंने पहले ही सोच रखा था कि उन्हें फ़ाँसी कबूल है अतः उन्होंने भागने से मना कर दिया। उस समय वे दोनों खाकी कमीज़ तथा निकर पहने थे। बम फटने के बाद उन्होंने इंकलाब-जिन्दाबाद का नारा लगाया और अपने साथ लाये हुए पर्चे हवा में उछाल दिये। इसके कुछ ही देर बाद पुलिस आ गयी और दोनों को ग़िरफ़्तार कर लिया गया।
एसेम्बली में बम फेंकना-----------------भगत सिंह मूलतः खूनखराबे के पक्षधर नहीं थे। पर वे कार्ल मार्क्स के सिद्धान्तों से प्रभावित अवश्य थे। यही नहीं, वे समाजवाद के पक्के पक्षधर भी थे। इसी कारण से उन्हें पूंजीपतियों की मजदूरों के प्रति शोषण की नीति पसन्द नहीं आती थी। उस समय चूँकि अंग्रेज ही सर्वेसर्वा थे तथा बहुत कम भारतीय उद्योगपति तरक्की कर पाये थे, अतः अंग्रेजों के मजदूरों के प्रति रुख़ से उनका ख़फ़ा होना लाज़िमी था। ऐसी नीतियों के पारित होने को निशाना बनाना उनके दल का निर्णय था। सभी चाहते थे कि अंग्रेजों को पता चले कि हिन्दुस्तानी जाग चुके हैं और उनके हृदय में ऐसी नीतियों के खिलाफ़ क्षोभ है। ऐसा करने के लिये उन लोगों ने दिल्ली की केन्द्रीय एसेम्बली में बम फेंकने की सोची।भगत सिंह चाहते थे कि इसमें कोई खून खराबा न हो तथा अंग्रेजो तक उनकी 'आवाज़' भी पहुँचे। हालांकि उनके दल के सब लोग ऐसा नहीं सोचते थे पर अन्त में सर्वसम्मति से भगत सिंह तथा बटुकेश्वर दत्त का नाम चुना गया। निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार ८ अप्रैल, १९२९ को केन्द्रीय असेम्बली में इन दोनों ने एक ऐसे स्थान पर बम फेंका जहाँ कोई मौजूद न था,अन्यथा उसे चोट लग सकती थी। पूरा हॉल धुएँ से भर गया। वे चाहते तो भाग भी सकते थे पर उन्होंने पहले ही सोच रखा था कि उन्हें फ़ाँसी कबूल है अतः उन्होंने भागने से मना कर दिया। उस समय वे दोनों खाकी कमीज़ तथा निकर पहने थे। बम फटने के बाद उन्होंने इंकलाब-जिन्दाबाद का नारा लगाया और अपने साथ लाये हुए पर्चे हवा में उछाल दिये। इसके कुछ ही देर बाद पुलिस आ गयी और दोनों को ग़िरफ़्तार कर लिया गया।
भगत सिंह जन्म और परिवेश--------
भगत सिंह का जन्म २८ सितंबर, १९०७,शनिवार सुबह ९ बजे लायलपुर ज़िले के बंगा गाँव (चक नम्बर १०५ जो अब पाकिस्तान में है) में हुआ था। हालांकि उनका पैतृक निवास आज भी भारतीय पंजाब के नवाँशहर ज़िले के खटकड़कलाँ गाँव में स्थित है। उनके पिता का नाम सरदार किशन सिंह और माता का नाम विद्यावती कौर था। यह एक सिख परिवार था जिसने आर्य समाज के विचार को अपना लिया था। अमृतसर में १३ अप्रैल, १९१९ को हुए जलियाँवाला बाग हत्याकांड ने भगत सिंह की सोच पर गहरा प्रभाव डाला था। लाहौर के नेशनल कॉलेज़ की पढ़ाई छोड़कर भगत सिंह हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन ऐसोसिएशन नाम के एक क्रान्तिकारी संगठन से जुड़ गए थे। भगत सिंह ने भारत की आज़ादी के लिए नौजवान भारत सभा की स्थापना की थी। इस संगठन का उद्देश्य ‘सेवा,त्याग और पीड़ा झेल सकने वाले’ नवयुवक तैयार करना था। भगत सिंह ने राजगुरु के साथ मिलकर १७ दिसम्बर १९२८ को लाहौर में सहायक पुलिस अधीक्षक रहे अंग्रेज़ अधिकारी जे०पी० सांडर्स को मारा था। इस कार्रवाई में क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर आज़ाद ने भी उनकी सहायता की थी। क्रान्तिकारी साथी बटुकेश्वर दत्त के साथ मिलकर भगत सिंह ने अलीपुर रोड पर स्थित दिल्ली की तत्कालीन सेण्ट्रल एसेम्बली के सभागार में ८ अप्रैल १९२९ को 'अंग्रेज़ सरकार को जगाने के लिये' बम और पर्चे फेंके थे। बम फेंकने के बाद वहीं पर दोनों ने अपनी गिरफ्तारी भी दी।
इन्क़लाब से ताल्लुक------------- भगतसिंह का यह प्रसिद्ध हुलिया उनके २१वें वर्ष की वास्तविक तस्वीर से कहीं अलग था। फेल्ट हैट व क्लीन शेव वाला रूप उन्होंने गिरफ्तारी से बचने के लिए अपनाया था ।उस समय भगत सिंह करीब १२ वर्ष के थे जब जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड हुआ था। इसकी सूचना मिलते ही भगत सिंह अपने स्कूल से १२ मील पैदल चलकर जलियाँवाला बाग पहुँच गए। इस उम्र में भगत सिंह अपने चाचाओं की क्रान्तिकारी किताबें पढ़ कर सोचते थे कि इनका रास्ता सही है कि नहीं ? गान्धीजी के असहयोग आन्दोलन छिड़ने के बाद वे गान्धीजी के तरीकों और हिंसक आन्दोलन में से अपने लिए रास्ता चुनने लगे। गान्धीजी के असहयोग आन्दोलन को रद्द कर देने कि वजह से उनमें एक रोष (क्रोध) ने जन्म लिया और अन्ततः उन्होंने 'इंकलाब और देश की स्वतन्त्रता के लिए हिंसा' अपनाना अनुचित नहीं समझा। उन्होंने जुलूसों में भाग लेना शुरू किया तथा कई क्रान्तिकारी दलों के सदस्य बने। बाद मे वे अपने दल के प्रमुख क्रान्तिकारियों के प्रतिनिधि बने। उनके दल के प्रमुख क्रान्तिकारियों में चन्द्रशेखर आजाद, भगवतीचरण व्होरा, सुखदेव, राजगुरु इत्यादि थे।
इन्क़लाब से ताल्लुक------------- भगतसिंह का यह प्रसिद्ध हुलिया उनके २१वें वर्ष की वास्तविक तस्वीर से कहीं अलग था। फेल्ट हैट व क्लीन शेव वाला रूप उन्होंने गिरफ्तारी से बचने के लिए अपनाया था ।उस समय भगत सिंह करीब १२ वर्ष के थे जब जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड हुआ था। इसकी सूचना मिलते ही भगत सिंह अपने स्कूल से १२ मील पैदल चलकर जलियाँवाला बाग पहुँच गए। इस उम्र में भगत सिंह अपने चाचाओं की क्रान्तिकारी किताबें पढ़ कर सोचते थे कि इनका रास्ता सही है कि नहीं ? गान्धीजी के असहयोग आन्दोलन छिड़ने के बाद वे गान्धीजी के तरीकों और हिंसक आन्दोलन में से अपने लिए रास्ता चुनने लगे। गान्धीजी के असहयोग आन्दोलन को रद्द कर देने कि वजह से उनमें एक रोष (क्रोध) ने जन्म लिया और अन्ततः उन्होंने 'इंकलाब और देश की स्वतन्त्रता के लिए हिंसा' अपनाना अनुचित नहीं समझा। उन्होंने जुलूसों में भाग लेना शुरू किया तथा कई क्रान्तिकारी दलों के सदस्य बने। बाद मे वे अपने दल के प्रमुख क्रान्तिकारियों के प्रतिनिधि बने। उनके दल के प्रमुख क्रान्तिकारियों में चन्द्रशेखर आजाद, भगवतीचरण व्होरा, सुखदेव, राजगुरु इत्यादि थे।
वाकई भगत सिंह को गांधी ने मारा------------?
गांधी जी चाहते तो भगत सिंह को बचा सकते थे...नहीं , बल्कि यूं कहा जाए कि गांधी चाहता तो भगत सिंह को बचा सकता था। भगत को चाहने और ' मानने ' वाले लोगों के बीच यह जुमला काफी इस्तेमाल होता है। हालांकि ऐसा कहने वालों में से अधिकतर नहीं जानते कि ऐसा क्यों कहा जाता है और भगत सिंह को गांधी जी कैसे बचा सकते थे। फिर भी लोग ऐसा कहते हैं। मानते भी हैं।
लेकिन क्या वाकई भगत सिंह को गांधी ने मारा ? भगत ने जेल से कई चिट्ठियां लिखी थीं। उन्हीं में एक में उन्होंने लिखा था कि भगत सिंह मर नहीं सकता। अंग्रेज एक भगत सिंह को फांसी पर लटकाएंगे तो हजारों-लाखों भगत सिंह पैदा होंगे। इसलिए आप लोग इस बात का मलाल मत कीजिए कि अंग्रेज सरकार भगत सिंह को फांसी पर लटकाने जा रही है।
भगत को जब फांसी दी गई , तो वह एक इंसान , एक क्रांतिकारी या एक देशभक्त नहीं थे। वह एक सोच थे , जिसने लोगों के दिल-ओ-दिमाग में घर कर लिया था। वह एक जज्बा थे , जो हर खून में उबाल ले रहा था। वह एक अहसास थे , जिसे उस वक्त हर इंसान जी लेना चाहता था। इसीलिए अंग्रेज भगत सिंह को मार नहीं सके। तो फिर भगत सिंह को किसने मारा ?
भगत सिंह की मौत के लिए गांधी को कोसने वालों ( और नहीं कोसने वालों) के भीतर क्या भगत सिंह नाम की वह सोच , वह जज्बा , वह अहसास जिंदा है ? सरेआम एक प्रफेसर का कत्ल कर दिया जाता है। गवाही देने वालों के लाले पड़ जाते हैं। सैकड़ों लोगों की मौजूदगी में हुई घटना का एक भी गवाह नहीं। क्या वे सब लोग ' अन्याय के खिलाफ लड़ने का आह्वान करने वाले ' भगत सिंह के कातिल नहीं हैं ?
भरी पार्टी में जेसिका लाल का कत्ल होता है। लेकिन कातिल को किसी ने नहीं देखा। क्या वे लोग भगत सिंह के कातिल नहीं हैं ? रेप तो अपराध हो गया , लेकिन चलते लड़कियों को छेड़ने , तानाकशी करने वाले और भीड़ में चोरी से छूने की कोशिश करने वाले लोगों को क्या कहा जाएगा ? क्या वे भगत सिंह के कातिल नहीं हैं ?
करीब-करीब हर रोज हजारों लोगों को इसलिए नीचा देखना पड़ता है क्योंकि वे ' छोटी ' जाति के लोग हैं। ' पांच दलितों को जिंदा जलाया ' खबर का सिर्फ हेडिंग देखकर छोड़ देने वाले हम नौजवान क्या ' समान समाज का सपना ' देखने वाले भगत सिंह के कातिल नहीं हैं ?
मराठी, बिहारी, साउथ इंडियन, नॉर्थ इंडियन, पंजाबी, गुजराती के नाम पर बहस करने वाले क्या उस भगत सिंह के कत्ल में शामिल नहीं हैं, जिसने सारी दुनिया के एक हो जाने का ख्वाब देखा था ?
ये तो बहुत बड़ी-बड़ी बातें हैं। बिना टिकट सफर , ट्रैफिक नियम तोड़ने पर पुलिसवाले को 50-100 रुपये देकर छूटना , लाइन में न लगना पड़े इसलिए किसी की सिफारिश ढूंढना , कोई बड़ा काम आन पड़े तो जुगाड़ ढूंढना , वोट देने से पहले सोचना कि यह हमारी जाति का है या हमारे काम करवाएगा या नहीं वगैरह तो अब अपराध है ही नहीं। क्या इस तरह भगत सिंह कत्ल नहीं होता ?
भगत सिंह तो सब चाहते हैं, लेकिन पड़ोसियों के घर। इस कहावत को सुनकर हंस देने वाला हर आदमी क्या भगत सिंह का कातिल नहीं है ? और उससे भी अहम बात यह है कि जहां-कहीं थोड़ा-बहुत भगत सिंह जिंदा है, उसे बचाने के लिए क्या किया जाए ? आज इस वक्त भगत सिंह को आप क्या संदेश देना चाहेंगे ?
लेकिन क्या वाकई भगत सिंह को गांधी ने मारा ? भगत ने जेल से कई चिट्ठियां लिखी थीं। उन्हीं में एक में उन्होंने लिखा था कि भगत सिंह मर नहीं सकता। अंग्रेज एक भगत सिंह को फांसी पर लटकाएंगे तो हजारों-लाखों भगत सिंह पैदा होंगे। इसलिए आप लोग इस बात का मलाल मत कीजिए कि अंग्रेज सरकार भगत सिंह को फांसी पर लटकाने जा रही है।
भगत को जब फांसी दी गई , तो वह एक इंसान , एक क्रांतिकारी या एक देशभक्त नहीं थे। वह एक सोच थे , जिसने लोगों के दिल-ओ-दिमाग में घर कर लिया था। वह एक जज्बा थे , जो हर खून में उबाल ले रहा था। वह एक अहसास थे , जिसे उस वक्त हर इंसान जी लेना चाहता था। इसीलिए अंग्रेज भगत सिंह को मार नहीं सके। तो फिर भगत सिंह को किसने मारा ?
भगत सिंह की मौत के लिए गांधी को कोसने वालों ( और नहीं कोसने वालों) के भीतर क्या भगत सिंह नाम की वह सोच , वह जज्बा , वह अहसास जिंदा है ? सरेआम एक प्रफेसर का कत्ल कर दिया जाता है। गवाही देने वालों के लाले पड़ जाते हैं। सैकड़ों लोगों की मौजूदगी में हुई घटना का एक भी गवाह नहीं। क्या वे सब लोग ' अन्याय के खिलाफ लड़ने का आह्वान करने वाले ' भगत सिंह के कातिल नहीं हैं ?
भरी पार्टी में जेसिका लाल का कत्ल होता है। लेकिन कातिल को किसी ने नहीं देखा। क्या वे लोग भगत सिंह के कातिल नहीं हैं ? रेप तो अपराध हो गया , लेकिन चलते लड़कियों को छेड़ने , तानाकशी करने वाले और भीड़ में चोरी से छूने की कोशिश करने वाले लोगों को क्या कहा जाएगा ? क्या वे भगत सिंह के कातिल नहीं हैं ?
करीब-करीब हर रोज हजारों लोगों को इसलिए नीचा देखना पड़ता है क्योंकि वे ' छोटी ' जाति के लोग हैं। ' पांच दलितों को जिंदा जलाया ' खबर का सिर्फ हेडिंग देखकर छोड़ देने वाले हम नौजवान क्या ' समान समाज का सपना ' देखने वाले भगत सिंह के कातिल नहीं हैं ?
मराठी, बिहारी, साउथ इंडियन, नॉर्थ इंडियन, पंजाबी, गुजराती के नाम पर बहस करने वाले क्या उस भगत सिंह के कत्ल में शामिल नहीं हैं, जिसने सारी दुनिया के एक हो जाने का ख्वाब देखा था ?
ये तो बहुत बड़ी-बड़ी बातें हैं। बिना टिकट सफर , ट्रैफिक नियम तोड़ने पर पुलिसवाले को 50-100 रुपये देकर छूटना , लाइन में न लगना पड़े इसलिए किसी की सिफारिश ढूंढना , कोई बड़ा काम आन पड़े तो जुगाड़ ढूंढना , वोट देने से पहले सोचना कि यह हमारी जाति का है या हमारे काम करवाएगा या नहीं वगैरह तो अब अपराध है ही नहीं। क्या इस तरह भगत सिंह कत्ल नहीं होता ?
भगत सिंह तो सब चाहते हैं, लेकिन पड़ोसियों के घर। इस कहावत को सुनकर हंस देने वाला हर आदमी क्या भगत सिंह का कातिल नहीं है ? और उससे भी अहम बात यह है कि जहां-कहीं थोड़ा-बहुत भगत सिंह जिंदा है, उसे बचाने के लिए क्या किया जाए ? आज इस वक्त भगत सिंह को आप क्या संदेश देना चाहेंगे ?
क्या भगत सिंह को फांसी से बचाया जा सकता था..........?
23 मार्च 1931 को 23 वर्षीय क्रांतिकारी भगत सिंह को उनके दो मित्रों सुखदेव व राजगुरु के साथ फांसी पर लटका दिया गया था. उनपर जनरल वांडर्स की हत्या का आरोप था. इतिहासकार आज भी इस सवाल का जवाब खोज रहे हैं कि क्या भगत सिंह को बचाया जा सकता था? क्या गांधीजी ने भगत सिंह को बचाने की सिफारिश नहीं की थी? यदि नहीं तो क्यों?
क्या वे भगत सिंह के तेवरों से दुखी थे, अथवा डर गए थे? ये ऐसे कठीन सवाल हैं जिनका जवाब मिलना मुश्किल है. यह ऐसा विवाद है जिसे कभी सुलझाया नही जा सकता.
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने अपनी किताब "इंडियन स्ट्रगल" मे लिखा कि भगत सिंह को बचाने के लिए गांधीजी पर बहुत दबाव था. और उन्होने इसके लिए प्रयत्न भी किया.
गांधीजी ने 17 फरवरी 1931 से लेकर 4 मार्च 1931 तक वाइसरॉय से कई मुलाकातें की थी और भगत सिंह का मुद्दा भी उठाया था.
पूर्व राष्ट्रपति आर. वेंकटरमन के प्रेस सचीव आर.के. भटनागर लिखते हैं कि कांग्रेस के कराची अधिवेशन के दौरान भी गांधीजी को कई बार यह सवाल पूछा गया था कि वे भगत सिंह को बचाने के लिए क्या कर रहे हैं?
वे कहते - मैं अपनी पूरी कोशिश कर रहा हुँ. मैने 23 मार्च को एक पत्र भी लिखा है. मैने अपनी पूरी जान इसमें लगा दी लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला.
लाहौर षड्यंत्र केस में जब भगत सिंह और राजगुरू तथा सुखदेव को फांसी दी गई तो समूचा भारत सकते में आ गया था. देश विदेश के अखबारों ने इसे सुर्खी बनाया था.
भगत सिंह और उनके साथियों को 24 मार्च को फांसी दी जानी थी पर उससे एक दिन पहले ही उन्हें फांसी दे दी गई. ......सरदार पटेल ने बाद में इस कृत्य की भ्रत्सना करते हुए कहा था कि, "अंग्रेजी कानून के अनुसार भगत सिंह को सांडर्स हत्याकांड में दोषी नहीं ठहराया जा सकता था. फिर भी उसे फांसी दे दी गई.
भगत सिंह एक किवंदती बन चुके थे, और आज भी हैं. उन्होनें कभी कहा था कि शहीदों की मजार पर हर साल मेले लगेंगे....................
दुख की बात है कि अब ऐसा नहीं है.
क्या वे भगत सिंह के तेवरों से दुखी थे, अथवा डर गए थे? ये ऐसे कठीन सवाल हैं जिनका जवाब मिलना मुश्किल है. यह ऐसा विवाद है जिसे कभी सुलझाया नही जा सकता.
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने अपनी किताब "इंडियन स्ट्रगल" मे लिखा कि भगत सिंह को बचाने के लिए गांधीजी पर बहुत दबाव था. और उन्होने इसके लिए प्रयत्न भी किया.
गांधीजी ने 17 फरवरी 1931 से लेकर 4 मार्च 1931 तक वाइसरॉय से कई मुलाकातें की थी और भगत सिंह का मुद्दा भी उठाया था.
पूर्व राष्ट्रपति आर. वेंकटरमन के प्रेस सचीव आर.के. भटनागर लिखते हैं कि कांग्रेस के कराची अधिवेशन के दौरान भी गांधीजी को कई बार यह सवाल पूछा गया था कि वे भगत सिंह को बचाने के लिए क्या कर रहे हैं?
वे कहते - मैं अपनी पूरी कोशिश कर रहा हुँ. मैने 23 मार्च को एक पत्र भी लिखा है. मैने अपनी पूरी जान इसमें लगा दी लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला.
लाहौर षड्यंत्र केस में जब भगत सिंह और राजगुरू तथा सुखदेव को फांसी दी गई तो समूचा भारत सकते में आ गया था. देश विदेश के अखबारों ने इसे सुर्खी बनाया था.
भगत सिंह और उनके साथियों को 24 मार्च को फांसी दी जानी थी पर उससे एक दिन पहले ही उन्हें फांसी दे दी गई. ......सरदार पटेल ने बाद में इस कृत्य की भ्रत्सना करते हुए कहा था कि, "अंग्रेजी कानून के अनुसार भगत सिंह को सांडर्स हत्याकांड में दोषी नहीं ठहराया जा सकता था. फिर भी उसे फांसी दे दी गई.
भगत सिंह एक किवंदती बन चुके थे, और आज भी हैं. उन्होनें कभी कहा था कि शहीदों की मजार पर हर साल मेले लगेंगे....................
दुख की बात है कि अब ऐसा नहीं है.
क्रांतिवीर — शहीद भगतसिंह------
भारत की आजादी के इतिहास को जिन अमर शहीदों के रक्त से लिखा गया है, जिन शूरवीरों के बलिदान ने भारतीय जन-मानस को सर्वाधिक उद्वेलित किया है, जिन्होंने अपनी रणनीति से साम्राज्यवादियों को लोहे के चने चबवाए हैं, जिन्होंने परतन्त्रता की बेड़ियों को छिन्न-भिन्न कर स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त किया है तथा जिन पर जन्मभूमि को गर्व है, उनमें से एक हैं — भगतसिंह।
भगतसिंह का जन्म 28 सितम्बर, 1907 को पंजाब के जिला लायलपुर में बंगा गांव (पाकिस्तान) में हुआ था । भगतसिंह के पिता सरदार किशन सिंह एवं उनके दो चाचा अजीतसिंह तथा स्वर्णसिंह अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ होने के कारण जेल में बन्द थे । यह एक विचित्र संयोग ही था कि जिस दिन भगतसिंह पैदा हुए उनके पिता एवं चाचा को जेल से रिहा किया गया । इस शुभ घड़ी के अवसर पर भगतसिंह के घर में खुशी और भी बढ गई थी । यही सब देखते हुए भगतसिंह की दादी ने बच्चे का नाम भागां वाला (अच्छे भाग्य वाला) रखा । बाद में उन्हें भगतसिंह कहा जाने लगा । एक देशभक्त के परिवार में जन्म लेने के कारण भगतसिंह को देशभक्ति और स्वतंत्रता का पाठ विरासत में पढने क़ो मिल गया था । भगतसिंह जब चार-पांच वर्ष के हुए तो उन्हें गांव के प्राइमरी स्कूल में दाखिला दिलाया गया। वे अपने साथियों में इतने अधिक लोकप्रिय थे कि उनके मित्र उन्हें अनेक बार कन्धों पर बैठाकर घर तक छोड़ने आते थे । भगतसिंह को स्कूल के तंग कमरों मे बैठना अच्छा नहीं लगता था। वे कक्षा छोड़कर खुले मैदानों में घूमने निकल जाते थे । वे खुले मैदानों की तरह ही आजाद होना चाहते थे । प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के पश्चात भगतसिंह को 1916-17 में लाहौर के डीएवी स्कूल में दाखिला दिलाया गया । वहां उनका संपर्क लाला लाजपतराय और अम्बा प्रसाद जैसे देशभक्तों से हुआ । 1919 में रोलेट एक्ट के विरोध में संपूर्ण भारत में प्रदर्शन हो रहे थे और इसी वर्ष 13 अप्रैल को जलियांवाला बाग काण्ड हुआ । इस काण्ड का समाचार सुनकर भगतसिंह लाहौर से अमृतसर पहुंचे । देश पर मर-मिटने वाले शहीदों के प्रति श्रध्दांजलि दी तथा रक्त से भीगी मिट्टी को उन्होंने एक बोतल में रख लिया, जिससे हमेशा यह याद रहे कि उन्हें अपने देश और देशवासियों के अपमान का बदला लेना है । 1920 के महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन से प्रभावित होकर 1921 में भगतसिंह ने स्कूल छोड़ दिया । असहयोग आंदोलन से प्रभावित छात्रों के लिए लाला लाजपतराय ने लाहौर में नेशनल कॉलेज की स्थापना की थी । इसी कॉलेज में भगतसिंह ने भी प्रवेश लिया । पंजाब नेशनल कॉलेज में उनकी देशभक्ति की भावना फलने-फूलने लगी । इसी कॉलेज में ही यशपाल, भगवती चरण, सुखदेव, तीर्थराम, झण्डासिंह आदि क्रांतिकारियों से संपर्क हुआ । कॉलेज में एक नेशनल नाटक क्लब भी था । इसी क्लब के माध्यम से भगतसिंह ने देशभक्तिपूर्ण नाटकों में अभिनय भी किया । ये नाटक थे — राण प्रताप, भारत-दुर्दशा और सम्राट चन्द्रगुप्त। वर्ष 1923 में जब उन्होंने एफ.ए. परीक्षार् उत्तीण की, तब बड़े भाई जगतसिंह की अकाल मृत्यु हो जाने के कारण उनके विवाह की चर्चाएं चलने लगीं । घर के लोग वंश को चलाने के लिए उनका विवाह शीघ्र कर देना चाहते थे । परन्तु भगतसिंह तो भारत मां की बेड़ियों को काट देने के लिए उद्यत थे । विवाह उन्हें अपने मार्ग में बाधा लगी । वे इस चक्कर से बचने के लिए कॉलेज से भाग गए और दिल्ली पहुंचकर दैनिक समाचारपत्र अर्जुन में संवाददाता के रूप में कार्य करने लगे । वर्ष 1924 में उन्होंने कानपुर में दैनिक पत्र प्रताप के संचालक गणेश शंकर विद्यार्थी से भेंट की । इस भेंट के माध्यम से वे बटुकेश्वर दत्त और चन्द्रशेखर आजाद के संपर्क में आए । बटुकेश्वर दत्त से उन्होंने बांग्ला सीखी । हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के सदस्य बने । अब भगतसिंह पूर्ण रूप से क्रांतिकारी कार्यों तथा देश के सेवा कार्यों में संलग्न हो गए थे । जिस समय भगतसिंह का चन्द्रशेखर आजाद से संपर्क हुआ, तब ऐसा प्रतीत होने लगा मानों दो उल्का पिंड, ज्वालामुखी, देशभक्त, आत्मबलिदानी एक हो गए हों । इन दोनों ने मिलकर न केवल अपने क्रांतिकारी दल को मजबूत किया, बल्कि उन्होंने अंग्रेजों के दांत भी खट्टे करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । भगतसिंह ने लाहौर में 1926 में नौजवान भारत सभा का गठन किया । यह सभा धर्मनिरपेक्ष संस्था थी तथा इसके प्रत्येक सदस्य को सौगन्ध लेनी पड़ती थी कि वह देश के हितों को अपनी जाति तथा अपने धर्म के हितों से बढक़र मानेगा । यह सभा हिन्दुओं, मुसलमानों तथा अछूतों के छुआछूत, जात-पात, खान-पान आदि संकीर्ण विचारों को मिटाने के लिए संयुक्त भोजों का आयोजन भी करती थी । परन्तु मई 1930 में इसे गैर-कानूनी घोषित कर दिया गया । 1927 के दिसम्बर महीने में काकोरी केस के संबंध में रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला, राजेन्द्र लाहिड़ी और रोशनसिंह को फांसी दी गई । चन्द्रशेखर आजाद अंग्रेजों के जाल में नहीं फंसे । वे अब भी आजाद ही थे । क्रांतिकारी दल में अस्त-व्यस्तता उत्पन्न हो गई थी । क्रांतिकारी दल की अस्त-व्यस्तता चन्द्रशेखर को खटक रही थी । अत: वे भगतसिंह से मिले । भगतसिंह और आजाद ने दल को पुन: संगठित किया । दल के लिए नए सिरे से अस्त्र-शस्त्र संग्रह किए गए । ब्रिटिश सरकार अब भगतसिंह को किसी भी कीमत पर गिरपऊतार करने के लिए कटिबध्द थी । 1927 में दशहरे वाले दिन एक चाल द्वारा भगतसिंह को गिरपऊतार कर लिया गया । उन पर झूठा मुकदमा चलाया गया । परन्तु वे भगतसिंह पर आरोप साबित नहीं कर पाए । उन्हें भगतसिंह को छोड़ना पड़ा । 8 और 9 सितम्बर, 1928 को क्रांतिकारियों की एक बैठक दिल्ली के फिरोजशाह के खण्डरों में हुई । भगतसिंह के परामर्श पर हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन का नाम बदलकर हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन रखा गया । वर्ष 1919 से लागू शासन सुधार अधिनियमों की जांच के लिए फरवरी 1928 में साइमन कमीशन मुम्बई पहुंचा । जगह-जगह साइमन कमीशन के विरुध्द विरोध प्रकट किया गया । 30 अक्तूबर, 1928 को कमीशन लाहौर पहुंचा । लाला लाजपतराय के नेतृत्व में एक जुलूस कमीशन के विरोध में शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहा था, जिसमें भीड़ बढती जा रही थी । इतने व्यापक विरोध को देखकर सहायक अधीक्षक साण्डर्स जैसे पागल हो गया था, उसने इस शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर लाठी चार्ज किया । लाला लाजपतराय पर लाठी के अनेक वार किए गए । वे खून से लहूलुहान हो गए । भगतसिंह यह सब कुछ अपनी आंखों से देख रहे थे। 17 नवम्बर, 1928 को लालाजी का देहान्त हो गया । भगतसिंह का खून खौल उठा, वे बदला लेने के लिए तत्पर हो गए । लाला लाजपतराय की हत्या का बदला लेने के लिए हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन ने भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव, आजाद और जयगोपाल को यह कार्य सौंपा । इन क्रांतिकारियों ने साण्डर्स को मारकर लालाजी की मौत का बदला लिया। साण्डर्स की हत्या ने भगतसिंह को पूरे देश का लाड़ला नेता बना दिया । इस अवसर पर जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में यह वर्णन किया है – भगतसिंह एक प्रतीक बन गया । साण्डर्स के कत्ल का कार्य तो भुला दिया गया लेकिन चिह्न शेष बना रहा और कुछ ही माह में पंजाब का प्रत्येक गांव और नगर तथा बहुत कुछ उत्तरी भारत उसके नाम से गूंज उठा । उसके बारे में बहुत से गीतों की रचना हुई और इस प्रकार उसे जो लोकप्रियता प्राप्त हुई । वह आश्चर्यचकित कर देने वाली थी । अंग्रेज सरकार से बचने के लिए भगतसिंह ने अपने केश और दाढी क़टवाकर, पैंट पहन कर और सिर पर हैट लगाकर वेश बदलकर, अंग्रेजों की आंखें में धूल झोंकते हुए कलकत्ता पहुंचे । कलकत्ता में कुछ दिन रहने के उपरान्त वे आगरा गए । हिन्दुस्तान समाजवादी गणतंत्र संघ की केन्द्रीय कार्यकारिणी की एक सभा हुई, जिसमें पब्लिक सेपऊटी बिल तथा डिस्प्यूट्स बिल पर चर्चा हुई । इनका विरोध करने के लिए भगतसिंह ने केन्द्रीय असेम्बली में बम फेंकने का प्रस्ताव रखा । साथ ही यह भी कहा कि बम फेंकते समय इस बात का ध्यान रखा जाए कि किसी व्यक्ति के जीवन को कोई हानि न हो । इसके बाद क्रांतिकारी स्वयं को गिरपऊतार करा दे । इस कार्य को करने के लिए भगतसिंह अड़ गए कि वह स्वयं यह कार्य करेंगे । आजाद इसके विरुध्द थे परन्तु विवश होकर आजाद को भगतसिंह का निर्णय स्वीकार करना पड़ा । भगतसिंह के सहयाक बने — बटुकेश्वर दत्त । 8 अप्रैल, 1929 को दोनों निश्चित समय पर असेम्बली में पहुंचे । जैसे ही बिल के पक्ष में निर्णय देने के लिए असेम्बली का अध्यक्ष उठा, भगतसिंह ने एक बम फेंका, फिर दूसरा । दोनों ने नारा लगाया इन्कलाब जिन्दाबाद… साम्राज्यवाद का नाश हो, इसी के साथ अनेक पर्चे भी फेंके, जिनमें अंग्रेजी साम्राजयवाद के प्रति आम जनता का रोष प्रकट किया गया था । बम फेंकने के उपरान्त इन्होंने अपने आपको गिरपऊतार कराया । इनकी गिरपऊतारी के उपरान्त अनेक क्रांतिकारियों को पकड़ लिया गया, जिसमें सुखदेव, जयगोपाल तथा किशोरीलाल शामिल थे । भगतसिंह को यह अच्छी तरह मालूम था कि अब अंग्रेज उनके साथ कैसा सलूक करेंगे ? उन्होंने अपने लिए वकील भी नहीं रखा, बल्कि अपनी आवाज जनता तक पहुंचाने के लिए अपने मुकदमे की पैरवी उन्होंने खुद करने की ठानी । 7 मई, 1929 को भगतसिंह तथा बटुकेश्वर दत्त के विरुध्द न्याय का नाटक शुरू हुआ । भगतसिंह ने 6 जून, 1929 के दिन अपने पक्ष में वक्तव्य दिया, जिसमें भगतसिंह ने स्वतंत्रता, साम्राज्यवाद, क्रांति आदि पर विचार प्रकट किए तथा सर्वप्रथम क्रांतिकारियों के विचार सारी दुनिया के सामने रखे । 12 जून, 1929 को सेशन जज ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 307 तथा विस्फोटक पदार्थ अधिनियम की धारा 3 के अंतर्गत आजीवन कारावास की सजा दी । ये दोनों देशभक्त अपनी बात को और अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाना चाहते थे इसलिए इन्होंने सेशन जज के निर्णय के विरुध्द लाहौर हाइकोर्ट में अपील की । यहां भगतसिंह ने पुन: अपना भाषण दिया । 13 जनवरी, 1930 को हाईकोर्ट ने सेशन जज के निर्णय को मान्य ठहराया । अब अंग्रेज शासकों ने नए तरीके द्वारा भगतसिंह तथा बटुकेश्वर दत्त को फंसाने का निश्चय किया । इनके मुकदमे को ट्रिब्यूनल के हवाले कर दिया । 5 मई, 1930 को पुंछ हाउस, लाहौर में मुकदमे की सुनवाई शुरू की गई । इसी बीच आजाद ने भगतसिंह को जेल से छुड़ाने की योजना भी बनाई, परन्तु 28 मई को भगवतीचरण बोहरा, जो बम का परीक्षण कर रहे थे, घायल हो गए तथा उनकी मृत्यु हो जाने के बाद योजना सफल नहीं हो सकी । अदालत की कार्यवाही लगभग तीन महीने तक चलती रही । 26 अगस्त, 1930 को अदालत का कार्य लगभग पूरा हो गया । अदालत ने भगतसिंह को भारतीय दंड संहिता की धारा 129, 302 तथा विस्फोटक पदार्थ अधिनियम की धारा 4 तथा 6 एफ तथा भारतीय दण्ड संहिता की धारा 120 के अंतर्गत अपराधी सिध्द किया तथा 7 अक्तूबर, 1930 को 68 पृष्ठीय निर्णय दिया, जिसमें भगतसिंह, सुखदेव तथा राजगुरु को फांसी की सजा दी गई । लाहौर में धारा 144 लगा दी गई । इस निर्णय के विरुध्द नवम्बर 1930 में प्रिवी परिषद में अपील दायर की गई परन्तु यह अपील 10 जनवरी, 1931 को रद्द कर दी गई । प्रिवी परिषद में अपील रद्द किए जाने पर न केवल भारत में ही बल्कि विदेशों से भी लोगों ने इसके विरुध्द आवाज उठाई । विभिन्न समाचारपत्रों में भगतसिंह और राजगुरु एवं सुखदेव की फांसी की सजा के विरुध्द अपनी पुरजोर आवाज बुलन्द की । हस्ताक्षर अभियान चलाए गए । यहां तक कि इंग्लैंड की संसद के निचले सदन के कुछ सदस्यों ने भी इस सजा का विरोध किया । पिस्तौल और पुस्तक भगतसिंह के दो परम विश्वसनीय मित्र थे, जेल के बंदी जीवन में जब पिस्तौल छीन ली जाती थी, तब पुस्तकें पढक़र ही वे अपने समय का सदुपयोग करते थे, जेल की काल कोठरी में रहते हुए उन्होंने कुछ पुस्तकें भी लिखी थी — आत्मकथा, दि डोर टू डेथ (मौत के दरवाजे पर), आइडियल ऑफ सोशलिज्म (समाजवाद का आदर्श), स्वाधीनता की लड़ाई में पंजाब का पहला उभार, जेल में पुस्तकें पढते-पढते वे मस्ती में झूम उठते ओर शहीद राम प्रसाद बिस्मिल की यह पंक्तियां गाने लगते – मेरा रंग दे बसंती चोला । इसी रंग में रंग के शिवा ने मां का बंधन खोला ॥ मेरा रंग दे बसंती चोला यही रंग हल्दीघाटी में खुलकर था खेला । नव बसंत में भारत के हित वीरों का यह मेला मेरा रंग दे बसन्ती चोला । फांसी का समय प्रात:काल 24 मार्च, 1931 निर्धारित हुआ था, पर सरकार ने भय के मारे 23 मार्च को सायंकाल 7.33 बजे, उन्हें कानून के विरुध्द एक दिन पहले, प्रात:काल की जगह संध्या समय तीनों देशभक्त क्रांतिकारियों को एक साथ फांसी देने का निश्चय किया । जेल अधीक्षक जब फांसी लगाने के लिए भगतसिंह को लेने उनकी कोठरी में पहुंचा तो उसने कहा , न्न सरदारजी । फांसी का वक्त हो गया है, आप तैयार हो जाइए न्न उस समय भगतसिंह लेनिन के जीवन चरित्र को पढने में तल्लीन थे, उन्होंने कहा, न्न ठहरो । एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल रहा है न्न और फिर वे जेल अधीक्षक के साथ चल दिए । सुखदेव और राजगुरू को भी फांसी स्थल पर लाया गया । भगतसिंह ने अपनी दाईं भुजा राजगुरू की बाईं भुजा में डाल ली और बाईं भुजा सुखदेव की दाईं भुजा में । क्षण भर तीनों रुके और तब वे यह गुनगुनाते हुए फांसी पर झूल गए – दिल से निकलेगी न मर कर भी वतन की उल्पएत मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वतन आएगी परन्तु ब्रिटिश सरकार द्वारा इन देशभक्तों पर किए जाने वाले अत्याचारों का अभी खात्मा नहीं हुआ था । उन्होंने इन शहीदों के मृत शरीर का एक बार फिर अपमान करना चाहा । उन्होंने उनके शरीर को टुकड़ों में विभाजित किया । उनमें अभी भी जेल के मुख्य द्वार से बाहर लाने की हिम्मत नहीं थी । वे शरीर के उन हिस्सों को बोरियों में भरकर रातों-रात चुपचाप फिरोजपुर के पास सतलुज के किनारे जा पहुंचे । मिट्टी का तेल छिड़कर आग ला दी गई । परन्तु यह बात आंधी की तरह फिरोजपुर से लाहौर तक शीघ्र पहुंच गई । अंग्रेजी फौजियों ने जब देखा की हजारों लोग मशालें लिए उनकी ओर आ रहे हैं तो वे वहां से भाग गए, तब देशभक्तों ने उनके शरीर का विधिवत दाह संस्कार किया । भगतसिंह तथा उनके साथियों की शहादत की खबर से सारा देश शोक के सागर में डूब चुका था । मुम्बई, मद्रास तथा कलकत्ता जैसे महानगरों का माहौल चिन्तनीय हो उठा । भारत के ही नहीं विदेशी अखबारों ने भी अंग्रेज सरकार के इस कृत्य की बहुत आलोचनाएं कीं । अंग्रेज शासकों के दिमागों पर भगतसिंह का खौफ इतना छाया हुआ था कि वे उनके चित्रों को भी जब्त करने लगे थे । भगतसिंह की शौहरत से प्रभावित होकर डॉ. पट्टाभिसीतारमैया ने लिखा है — यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि भगतसिंह का नाम भारत में उतना ही लोकप्रिय था, जितना की गांधीजी का । भगतसिंह तथा उनके साथियों को फांसी दिए जाने पर लाहौर के उर्दू दैनिक समाचारपत्र पयाम ने लिखा था — हिन्दुस्तान इन तीनों शहीदों को पूरे ब्रितानिया से ऊंचा समझता है । अगर हम हजारों-लाखों अंग्रेजों को मार भी गिराएं, तो भी हम पूरा बदला नहीं चुका सकते । यह बदला तभी पूरा होगा, अगर तुम हिन्दुस्तान को आजाद करा लो, तभी ब्रितानिया की शान मिट्टी में मिलेगी। ओ....भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव, अंग्रेज खुश हैं कि उन्होंने तुम्हारा खून कर दिया । लेकिन वो गलती पर हैं । उन्होंने तुम्हारा खून नहीं किया, उन्होंने अपने ही भविष्य में छुरा घोंपा है । तुम जिन्दा हो और हमेशा जिन्दा रहोगे ।
नवरात्र और नव दुर्गा की आराधना----
जिस प्रकार सृष्टि या संसार का सृजन ब्रह्मांड के गहन अंधकार के गर्भ से नवग्रहों के रूप में हुआ , उसी प्रकार मनुष्य जीवन का सृजन भी माता के गर्भ में ही नौ महीने के अन्तराल में होता है। मानव योनि के लिए गर्भ के यह नौ महीने नव रात्रों के समान होते हैं , जिसमें आत्मा मानव शरीर धारण करती है।
नवरात्र का अर्थ शिव और शक्ति के उस नौ दुर्गाओं के स्वरूप से भी है , जिन्होंने आदिकाल से ही इस संसार को जीवन प्रदायिनी ऊर्जा प्रदान की है और प्रकृति तथा सृष्टि के निर्माण में मातृशक्ति और स्त्री शक्ति की प्रधानता को सिद्ध किया है। दुर्गा माता स्वयं सिंह वाहिनी होकर अपने शरीर में नव दुर्गाओं के अलग-अलग स्वरूप को समाहित किए हुए है।
शारदीय नवरात्र में इन सभी नव दुर्गाओं को प्रतिपदा से लेकर नवमी तक पूजा जाता है। इन नव दुर्गाओं के स्वरूप की चर्चा महर्षि मार्कण्डेय को ब्रह्मा जी द्वारा इस क्रम के अनुसार संबोधित किया है।
प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी।
तृतीयं चन्द्रघंटेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम् ।।
पंचमं स्क्न्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च ।
सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम् ।।
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गाः प्रकीर्तिताः ।।
प्रथम दुर्गा शैलपुत्री : पर्वतराज हिमालय की पुत्री पार्वती के स्वरूप में साक्षात शैलपुत्री की पूजा देवी के मंडपों में प्रथम नवरात्र के दिन होती है। इसके एक हाथ में त्रिशूल , दूसरे हाथ में कमल का पुष्प है। यह नंदी नामक वृषभ पर सवार संपूर्ण हिमालय पर विराजमान है। शैलराज हिमालय की कन्या होने के कारण नवदुर्गा का सर्वप्रथम स्वरूप शैलपुत्री कहलाया है। यह वृषभ वाहन शिवा का ही स्वरूप है। घोर तपस्चर्या करने वाली शैलपुत्री समस्त वन्य जीव जंतुओं की रक्षक भी हैं। शैलपुत्री के अधीन वे समस्त भक्तगण आते हैं , जो योग साधना तप और अनुष्ठान के लिए पर्वतराज हिमालय की शरण लेते हैं। जम्मू - कश्मीर से लेकर हिमांचल पूर्वांचल नेपाल और पूर्वोत्तर पर्वतों में शैलपुत्री का वर्चस्व रहता है। आज भी भारत के उत्तरी प्रांतों में जहां-जहां भी हल्की और दुर्गम स्थली की आबादी है , वहां पर शैलपुत्री के मंदिरों की पहले स्थापना की जाती है , उसके बाद वह स्थान हमेशा के लिए सुरक्षित मान लिया जाता है ! कुछ अंतराल के बाद बीहड़ से बीहड़ स्थान भी शैलपुत्री की स्थापना के बाद एक सम्पन्न स्थल बल जाता है।
द्वितीय ब्रह्मचारिणी : नवदुर्गाओं में दूसरी दुर्गा का नाम ब्रह्मचारिणी है। इसकी पूजा-अर्चना द्वितीया तिथि के दौरान की जाती है। सच्चिदानंदमय ब्रह्मस्वरूप की प्राप्ति कराना आदि विद्याओं की ज्ञाता ब्रह्मचारिणी इस लोक के समस्त चर और अचर जगत की विद्याओं की ज्ञाता है। इसका स्वरूप सफेद वस्त्र में लिपटी हुई कन्या के रूप में है , जिसके एक हाथ में अष्टदल की माला और दूसरे हाथ में कमंडल विराजमान है। यह अक्षयमाला और कमंडल धारिणी ब्रह्मचारिणी नामक दुर्गा शास्त्रों के ज्ञान और निगमागम तंत्र-मंत्र आदि से संयुक्त है। अपने भक्तों को यह अपनी सर्वज्ञ संपन्नन विद्या देकर विजयी बनाती है ।
तृतीय चन्द्रघंटा : शक्ति के रूप में विराजमान चन्द्रघंटा मस्तक पर चंद्रमा को धारण किए हुए है। नवरात्र के तीसरे दिन इनकी पूजा-अर्चना भक्तों को जन्म जन्मांतर के कष्टों से मुक्त कर इहलोक और परलोक में कल्याण प्रदान करती है। देवी स्वरूप चंद्रघंटा बाघ की सवारी करती है। इसके दस हाथों में कमल , धनुष-बाण , कमंडल , तलवार , त्रिशूल और गदा जैसे अस्त्र हैं। इसके कंठ में सफेद पुष्प की माला और रत्नजड़ित मुकुट शीर्ष पर विराजमान है। अपने दोनों हाथों से यह साधकों को चिरायु आरोग्य और सुख सम्पदा का वरदान देती है।
चतुर्थ कूष्मांडा : त्रिविध तापयुत संसार में कुत्सित ऊष्मा को हरने वाली देवी के उदर में पिंड और ब्रह्मांड के समस्त जठर और अग्नि का स्वरूप समाहित है। कूष्माण्डा देवी ही ब्रह्मांड से पिण्ड को उत्पन्न करने वाली दुर्गा कहलाती है। दुर्गा माता का यह चौथा स्वरूप है। इसलिए नवरात्रि में चतुर्थी तिथि को इनकी पूजा होती है। लौकिक स्वरूप में यह बाघ की सवारी करती हुई अष्टभुजाधारी मस्तक पर रत्नजड़ित स्वर्ण मुकुट वाली एक हाथ में कमंडल और दूसरे हाथ में कलश लिए हुए उज्जवल स्वरूप की दुर्गा है। इसके अन्य हाथों में कमल , सुदर्शन , चक्र , गदा , धनुष-बाण और अक्षमाला विराजमान है। इन सब उपकरणों को धारण करने वाली कूष्मांडा अपने भक्तों को रोग शोक और विनाश से मुक्त करके आयु यश बल और बुद्धि प्रदान करती है।
पंचम स्कन्दमाता : श्रुति और समृद्धि से युक्त छान्दोग्य उपनिषद के प्रवर्तक सनत्कुमार की माता भगवती का नाम स्कन्द है। अतः उनकी माता होने से कल्याणकारी शक्ति की अधिष्ठात्री देवी को पांचवीं दुर्गा स्कन्दमाता के रूप में पूजा जाता है। नवरात्रि में इसकी पूजा-अर्चना का विशेष विधान है। अपने सांसारिक स्वरूप में यह देवी सिंह की सवारी पर विराजमान है तथा चतुर्भज इस दुर्गा का स्वरूप दोनों हाथों में कमलदल लिए हुए और एक हाथ से अपनी गोद में ब्रह्मस्वरूप सनत्कुमार को थामे हुए है। यह दुर्गा समस्त ज्ञान-विज्ञान , धर्म-कर्म और कृषि उद्योग सहित पंच आवरणों से समाहित विद्यावाहिनी दुर्गा भी कहलाती है।
षष्टम कात्यायनी : यह दुर्गा देवताओं के और ऋषियों के कार्यों को सिद्ध करने लिए महर्षि कात्यायन के आश्रम में प्रकट हुई महर्षि ने उन्हें अपनी कन्या के स्वरूप पालन पोषण किया साक्षात दुर्गा स्वरूप इस छठी देवी का नाम कात्यायनी पड़ गया। यह दानवों और असुरों तथा पापी जीवधारियों का नाश करने वाली देवी भी कहलाती है। वैदिक युग में यह ऋषिमुनियों को कष्ट देने वाले प्राणघातक दानवों को अपने तेज से ही नष्ट कर देती थी। सांसारिक स्वरूप में यह शेर यानी सिंह पर सवार चार भुजाओं वाली सुसज्जित आभा मंडल युक्त देवी कहलाती है। इसके बाएं हाथ में कमल और तलवार दाहिने हाथ में स्वस्तिक और आशीर्वाद की मुद्रा अंकित है।
सप्तम कालरात्रि : अपने महाविनाशक गुणों से शत्रु एवं दुष्ट लोगों का संहार करने वाली सातवीं दुर्गा का नाम कालरात्रि है। विनाशिका होने के कारण इसका नाम कालरात्रि पड़ गया। आकृति और सांसारिक स्वरूप में यह कालिका का अवतार यानी काले रंग रूप की अपनी विशाल केश राशि को फैलाकर चार भुजाओं वाली दुर्गा है , जो वर्ण और वेश में अर्द्धनारीश्वर शिव की तांडव मुद्रा में नजर आती है। इसकी आंखों से अग्नि की वर्षा होती है। एक हाथ से शत्रुओं की गर्दन पकड़कर दूसरे हाथ में खड़क तलवार से युद्ध स्थल में उनका नाश करने वाली कालरात्रि सचमुच ही अपने विकट रूप में नजर आती है। इसकी सवारी गंधर्व यानी गधा है , जो समस्त जीवजंतुओं में सबसे अधिक परिश्रमी और निर्भय होकर अपनी अधिष्ठात्री देवी कालरात्रि को लेकर इस संसार में विचरण कर रहा है। कालरात्रि की पूजा नवरात्र के सातवें दिन की जाती है। इसे कराली भयंकरी कृष्णा और काली माता का स्वरूप भी प्रदान है , लेकिन भक्तों पर उनकी असीम कृपा रहती है और उन्हें वह हर तरफ से रक्षा ही प्रदान करती है।
अष्टम महागौरी : नवरात्र के आठवें दिन आठवीं दुर्गा महागौरी की पूजा-अर्चना और स्थापना की जाती है। अपनी तपस्या के द्वारा इन्होंने गौर वर्ण प्राप्त किया था। अतः इन्हें उज्जवल स्वरूप की महागौरी धन , ऐश्वर्य , पदायिनी , चैतन्यमयी , त्रैलोक्य पूज्य मंगला शारिरिक , मानसिक और सांसारिक ताप का हरण करने वाली माता महागौरी का नाम दिया गया है। उत्पत्ति के समय यह आठ वर्ष की आयु की होने के कारण नवरात्र के आठवें दिन पूजने से सदा सुख और शान्ति देती है। अपने भक्तों के लिए यह अन्नपूर्णा स्वरूप है। इसीलिए इसके भक्त अष्टमी के दिन कन्याओं का पूजन और सम्मान करते हुए महागौरी की कृपा प्राप्त करते हैं। यह धन-वैभव और सुख-शान्ति की अधिष्ठात्री देवी है। सांसारिक रूप में इसका स्वरूप बहुत ही उज्जवल , कोमल , सफेदवर्ण तथा सफेद वस्त्रधारी चतुर्भुज युक्त एक हाथ में त्रिशूल , दूसरे हाथ में डमरू लिए हुए गायन संगीत की प्रिय देवी है , जो सफेद वृषभ यानि बैल पर सवार है।
नवम सिद्धिदात्री : नवदुर्गाओं में सबसे श्रेष्ठ और सिद्धि और मोक्ष देने वाली दुर्गा को सिद्धिदात्री कहा जाता है। यह देवी भगवान विष्णु की प्रियतमा लक्ष्मी के समान कमल के आसन पर विराजमान है और हाथों में कमल शंख गदा सुदर्शन चक्र धारण किए हुए है। देव यक्ष किन्नर दानव ऋषि-मुनि साधक विप्र और संसारी जन सिद्धिदात्री की पूजा नवरात्र के नवें दिन करके अपनी जीवन में यश बल और धन की प्राप्ति करते हैं। सिद्धिदात्री देवी उन सभी महाविद्याओं की अष्ट सिद्धियां भी प्रदान करती हैं , जो सच्चे हृदय से उनके लिए आराधना करता है। नवें दिन सिद्धिदात्री की पूजा उपासना करने के लिए नवाहन का प्रसाद और नवरस युक्त भोजन तथा नौ प्रकार के फल-फूल आदि का अर्पण करके जो भक्त नवरात्र का समापन करते हैं , उनको इस संसार में धर्म , अर्थ , काम और मोक्ष की प्राप्ति होती है। सिद्धिदात्री देवी सरस्वती का भी स्वरूप है , जो सफेद वस्त्रालंकार से युक्त महा ज्ञान और मधुर स्वर से अपने भक्तों को सम्मोहित करती है। नवें दिन सभी नवदुर्गाओं के सांसारिक स्वरूप को विसर्जन की परम्परा भी गंगा , नर्मदा , कावेरी या समुद्र जल में विसर्जित करने की परम्परा भी है। नवदुर्गा के स्वरूप में साक्षात पार्वती और भगवती विघ्नविनाशक गणपति को भी सम्मानित किया जाता है।
नवरात्र का अर्थ शिव और शक्ति के उस नौ दुर्गाओं के स्वरूप से भी है , जिन्होंने आदिकाल से ही इस संसार को जीवन प्रदायिनी ऊर्जा प्रदान की है और प्रकृति तथा सृष्टि के निर्माण में मातृशक्ति और स्त्री शक्ति की प्रधानता को सिद्ध किया है। दुर्गा माता स्वयं सिंह वाहिनी होकर अपने शरीर में नव दुर्गाओं के अलग-अलग स्वरूप को समाहित किए हुए है।
शारदीय नवरात्र में इन सभी नव दुर्गाओं को प्रतिपदा से लेकर नवमी तक पूजा जाता है। इन नव दुर्गाओं के स्वरूप की चर्चा महर्षि मार्कण्डेय को ब्रह्मा जी द्वारा इस क्रम के अनुसार संबोधित किया है।
प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी।
तृतीयं चन्द्रघंटेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम् ।।
पंचमं स्क्न्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च ।
सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम् ।।
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गाः प्रकीर्तिताः ।।
प्रथम दुर्गा शैलपुत्री : पर्वतराज हिमालय की पुत्री पार्वती के स्वरूप में साक्षात शैलपुत्री की पूजा देवी के मंडपों में प्रथम नवरात्र के दिन होती है। इसके एक हाथ में त्रिशूल , दूसरे हाथ में कमल का पुष्प है। यह नंदी नामक वृषभ पर सवार संपूर्ण हिमालय पर विराजमान है। शैलराज हिमालय की कन्या होने के कारण नवदुर्गा का सर्वप्रथम स्वरूप शैलपुत्री कहलाया है। यह वृषभ वाहन शिवा का ही स्वरूप है। घोर तपस्चर्या करने वाली शैलपुत्री समस्त वन्य जीव जंतुओं की रक्षक भी हैं। शैलपुत्री के अधीन वे समस्त भक्तगण आते हैं , जो योग साधना तप और अनुष्ठान के लिए पर्वतराज हिमालय की शरण लेते हैं। जम्मू - कश्मीर से लेकर हिमांचल पूर्वांचल नेपाल और पूर्वोत्तर पर्वतों में शैलपुत्री का वर्चस्व रहता है। आज भी भारत के उत्तरी प्रांतों में जहां-जहां भी हल्की और दुर्गम स्थली की आबादी है , वहां पर शैलपुत्री के मंदिरों की पहले स्थापना की जाती है , उसके बाद वह स्थान हमेशा के लिए सुरक्षित मान लिया जाता है ! कुछ अंतराल के बाद बीहड़ से बीहड़ स्थान भी शैलपुत्री की स्थापना के बाद एक सम्पन्न स्थल बल जाता है।
द्वितीय ब्रह्मचारिणी : नवदुर्गाओं में दूसरी दुर्गा का नाम ब्रह्मचारिणी है। इसकी पूजा-अर्चना द्वितीया तिथि के दौरान की जाती है। सच्चिदानंदमय ब्रह्मस्वरूप की प्राप्ति कराना आदि विद्याओं की ज्ञाता ब्रह्मचारिणी इस लोक के समस्त चर और अचर जगत की विद्याओं की ज्ञाता है। इसका स्वरूप सफेद वस्त्र में लिपटी हुई कन्या के रूप में है , जिसके एक हाथ में अष्टदल की माला और दूसरे हाथ में कमंडल विराजमान है। यह अक्षयमाला और कमंडल धारिणी ब्रह्मचारिणी नामक दुर्गा शास्त्रों के ज्ञान और निगमागम तंत्र-मंत्र आदि से संयुक्त है। अपने भक्तों को यह अपनी सर्वज्ञ संपन्नन विद्या देकर विजयी बनाती है ।
तृतीय चन्द्रघंटा : शक्ति के रूप में विराजमान चन्द्रघंटा मस्तक पर चंद्रमा को धारण किए हुए है। नवरात्र के तीसरे दिन इनकी पूजा-अर्चना भक्तों को जन्म जन्मांतर के कष्टों से मुक्त कर इहलोक और परलोक में कल्याण प्रदान करती है। देवी स्वरूप चंद्रघंटा बाघ की सवारी करती है। इसके दस हाथों में कमल , धनुष-बाण , कमंडल , तलवार , त्रिशूल और गदा जैसे अस्त्र हैं। इसके कंठ में सफेद पुष्प की माला और रत्नजड़ित मुकुट शीर्ष पर विराजमान है। अपने दोनों हाथों से यह साधकों को चिरायु आरोग्य और सुख सम्पदा का वरदान देती है।
चतुर्थ कूष्मांडा : त्रिविध तापयुत संसार में कुत्सित ऊष्मा को हरने वाली देवी के उदर में पिंड और ब्रह्मांड के समस्त जठर और अग्नि का स्वरूप समाहित है। कूष्माण्डा देवी ही ब्रह्मांड से पिण्ड को उत्पन्न करने वाली दुर्गा कहलाती है। दुर्गा माता का यह चौथा स्वरूप है। इसलिए नवरात्रि में चतुर्थी तिथि को इनकी पूजा होती है। लौकिक स्वरूप में यह बाघ की सवारी करती हुई अष्टभुजाधारी मस्तक पर रत्नजड़ित स्वर्ण मुकुट वाली एक हाथ में कमंडल और दूसरे हाथ में कलश लिए हुए उज्जवल स्वरूप की दुर्गा है। इसके अन्य हाथों में कमल , सुदर्शन , चक्र , गदा , धनुष-बाण और अक्षमाला विराजमान है। इन सब उपकरणों को धारण करने वाली कूष्मांडा अपने भक्तों को रोग शोक और विनाश से मुक्त करके आयु यश बल और बुद्धि प्रदान करती है।
पंचम स्कन्दमाता : श्रुति और समृद्धि से युक्त छान्दोग्य उपनिषद के प्रवर्तक सनत्कुमार की माता भगवती का नाम स्कन्द है। अतः उनकी माता होने से कल्याणकारी शक्ति की अधिष्ठात्री देवी को पांचवीं दुर्गा स्कन्दमाता के रूप में पूजा जाता है। नवरात्रि में इसकी पूजा-अर्चना का विशेष विधान है। अपने सांसारिक स्वरूप में यह देवी सिंह की सवारी पर विराजमान है तथा चतुर्भज इस दुर्गा का स्वरूप दोनों हाथों में कमलदल लिए हुए और एक हाथ से अपनी गोद में ब्रह्मस्वरूप सनत्कुमार को थामे हुए है। यह दुर्गा समस्त ज्ञान-विज्ञान , धर्म-कर्म और कृषि उद्योग सहित पंच आवरणों से समाहित विद्यावाहिनी दुर्गा भी कहलाती है।
षष्टम कात्यायनी : यह दुर्गा देवताओं के और ऋषियों के कार्यों को सिद्ध करने लिए महर्षि कात्यायन के आश्रम में प्रकट हुई महर्षि ने उन्हें अपनी कन्या के स्वरूप पालन पोषण किया साक्षात दुर्गा स्वरूप इस छठी देवी का नाम कात्यायनी पड़ गया। यह दानवों और असुरों तथा पापी जीवधारियों का नाश करने वाली देवी भी कहलाती है। वैदिक युग में यह ऋषिमुनियों को कष्ट देने वाले प्राणघातक दानवों को अपने तेज से ही नष्ट कर देती थी। सांसारिक स्वरूप में यह शेर यानी सिंह पर सवार चार भुजाओं वाली सुसज्जित आभा मंडल युक्त देवी कहलाती है। इसके बाएं हाथ में कमल और तलवार दाहिने हाथ में स्वस्तिक और आशीर्वाद की मुद्रा अंकित है।
सप्तम कालरात्रि : अपने महाविनाशक गुणों से शत्रु एवं दुष्ट लोगों का संहार करने वाली सातवीं दुर्गा का नाम कालरात्रि है। विनाशिका होने के कारण इसका नाम कालरात्रि पड़ गया। आकृति और सांसारिक स्वरूप में यह कालिका का अवतार यानी काले रंग रूप की अपनी विशाल केश राशि को फैलाकर चार भुजाओं वाली दुर्गा है , जो वर्ण और वेश में अर्द्धनारीश्वर शिव की तांडव मुद्रा में नजर आती है। इसकी आंखों से अग्नि की वर्षा होती है। एक हाथ से शत्रुओं की गर्दन पकड़कर दूसरे हाथ में खड़क तलवार से युद्ध स्थल में उनका नाश करने वाली कालरात्रि सचमुच ही अपने विकट रूप में नजर आती है। इसकी सवारी गंधर्व यानी गधा है , जो समस्त जीवजंतुओं में सबसे अधिक परिश्रमी और निर्भय होकर अपनी अधिष्ठात्री देवी कालरात्रि को लेकर इस संसार में विचरण कर रहा है। कालरात्रि की पूजा नवरात्र के सातवें दिन की जाती है। इसे कराली भयंकरी कृष्णा और काली माता का स्वरूप भी प्रदान है , लेकिन भक्तों पर उनकी असीम कृपा रहती है और उन्हें वह हर तरफ से रक्षा ही प्रदान करती है।
अष्टम महागौरी : नवरात्र के आठवें दिन आठवीं दुर्गा महागौरी की पूजा-अर्चना और स्थापना की जाती है। अपनी तपस्या के द्वारा इन्होंने गौर वर्ण प्राप्त किया था। अतः इन्हें उज्जवल स्वरूप की महागौरी धन , ऐश्वर्य , पदायिनी , चैतन्यमयी , त्रैलोक्य पूज्य मंगला शारिरिक , मानसिक और सांसारिक ताप का हरण करने वाली माता महागौरी का नाम दिया गया है। उत्पत्ति के समय यह आठ वर्ष की आयु की होने के कारण नवरात्र के आठवें दिन पूजने से सदा सुख और शान्ति देती है। अपने भक्तों के लिए यह अन्नपूर्णा स्वरूप है। इसीलिए इसके भक्त अष्टमी के दिन कन्याओं का पूजन और सम्मान करते हुए महागौरी की कृपा प्राप्त करते हैं। यह धन-वैभव और सुख-शान्ति की अधिष्ठात्री देवी है। सांसारिक रूप में इसका स्वरूप बहुत ही उज्जवल , कोमल , सफेदवर्ण तथा सफेद वस्त्रधारी चतुर्भुज युक्त एक हाथ में त्रिशूल , दूसरे हाथ में डमरू लिए हुए गायन संगीत की प्रिय देवी है , जो सफेद वृषभ यानि बैल पर सवार है।
नवम सिद्धिदात्री : नवदुर्गाओं में सबसे श्रेष्ठ और सिद्धि और मोक्ष देने वाली दुर्गा को सिद्धिदात्री कहा जाता है। यह देवी भगवान विष्णु की प्रियतमा लक्ष्मी के समान कमल के आसन पर विराजमान है और हाथों में कमल शंख गदा सुदर्शन चक्र धारण किए हुए है। देव यक्ष किन्नर दानव ऋषि-मुनि साधक विप्र और संसारी जन सिद्धिदात्री की पूजा नवरात्र के नवें दिन करके अपनी जीवन में यश बल और धन की प्राप्ति करते हैं। सिद्धिदात्री देवी उन सभी महाविद्याओं की अष्ट सिद्धियां भी प्रदान करती हैं , जो सच्चे हृदय से उनके लिए आराधना करता है। नवें दिन सिद्धिदात्री की पूजा उपासना करने के लिए नवाहन का प्रसाद और नवरस युक्त भोजन तथा नौ प्रकार के फल-फूल आदि का अर्पण करके जो भक्त नवरात्र का समापन करते हैं , उनको इस संसार में धर्म , अर्थ , काम और मोक्ष की प्राप्ति होती है। सिद्धिदात्री देवी सरस्वती का भी स्वरूप है , जो सफेद वस्त्रालंकार से युक्त महा ज्ञान और मधुर स्वर से अपने भक्तों को सम्मोहित करती है। नवें दिन सभी नवदुर्गाओं के सांसारिक स्वरूप को विसर्जन की परम्परा भी गंगा , नर्मदा , कावेरी या समुद्र जल में विसर्जित करने की परम्परा भी है। नवदुर्गा के स्वरूप में साक्षात पार्वती और भगवती विघ्नविनाशक गणपति को भी सम्मानित किया जाता है।
श्री दुर्गा माता जी के प्रसिद्ध मंदिर---
देवी भागवत पुराण में 108, कालिकापुराण में छब्बीस, शिवचरित्र में इक्यावन, दुर्गा सप्तशती और तंत्रचूड़ामणि में शक्ति पीठों की संख्या 52 बताई गई है। साधारत: 51 शक्ति पीठ माने जाते हैं। लेकिन हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं वर्तमान में माँ दुर्गा के प्रसिद्ध मंदिरों की जानकारी।
1.दाक्षायनी (मानस)---
तिब्बत स्थित कैलाश मानसरोवर के मानसा के निकट एक पाषाण शिला पर माता का दायाँ हाथ गिरा था। यहीं पर माता साक्षात विराजमान हैं। यह माता का मुख्य स्थान है।
2.माँ वैष्णोदेवी----
भारतीय राज्य जम्मू और कश्मीर के जम्मू के पास कटरा से माता वैष्णोदेवी के दर्शनार्थ यात्रा शुरू होती है। कटरा जम्मू से 50 किलोमीटर दूर है। कटरा से पहाड़ी लगभग 14 किमी की पर्वतीय श्रृंखला की सबसे ऊँची चोटी पर विराजमान है माँ वैष्णोदेवी। यहाँ देशभर से लाखों भक्त दर्शन के लिए आते हैं।
3.मनसादेवी----
भारतीय राज्य उत्तरप्रदेश के हरिद्वार शहर में शक्ति त्रिकोण है। इसके एक कोने पर नीलपर्वत पर स्थित भगवती देवी चंडी का प्रसिद्ध स्थान है। दूसरे पर दक्षेश्वर स्थान वाली पार्वती। कहते हैं कि यहीं पर सती योग अग्नि में भस्म हुई थीं और तीसरे पर बिल्वपर्वतवासिनी मनसादेवी विराजमान हैं।
मनसादेवी को दुर्गा माता का ही रूप माना जाता है। शिवालिक पहाड़ पर स्थित इस मंदिर पर देश-विदेश से हजारों भक्त आकर पूजा-अर्चना करते हैं। यह मंदिर बहुत जाग्रत है।
4.पावागढ़-काली माता-------
गुजरात की प्राचीन राजधानी चंपारण के पास वडोदरा शहर से लगभग 50 किलोमीटर दूर पावागढ़ की पहाड़ी की चोटी पर स्थित है माँ काली का मंदिर। काली माता का यह प्रसिद्ध मंदिर माँ के शक्तिपीठों में से एक है। माना जाता है कि पावागढ़ में माँ के वक्षस्थल गिरे थे।
5.नयना देवी-----
कुमाऊँ क्षेत्र के नैनीताल की सुरम्य घाटियों में पर्वत पर एक बड़ी-सी झील त्रिऋषिसरोवर अर्थात अत्रि, पुलस्त्य तथा पुलह की साधना स्थली के समीप मल्लीताल वाले किनारे पर नयना देवी का भव्य मंदिर है। प्राचीन मंदिर तो पहाड़ के फूटने से दब गया, लेकिन उसी के पास स्थित है यह मंदिर।
6.शारदा मैया-----
भारतीय राज्य मैहर (मैयर) नगर की पहाड़ी पर माता शारदा का प्राचीन मंदिर है जिसे आला और उदल की इष्टदेवी कहा जाता है। यह मंदिर बहुत जागृत एवं चमत्कारिक माना जाता है। कहते हैं कि रात को आला-उदल आकर माता की आरती करते हैं जिसकी आवाज नीचे तक सुनाई देती है।
7.कालका माता-----
भारतीय राज्य बंगाल के कोलकाता शहर के हावड़ा स्टेशन से पाँच मील दूर भागीरथी के आदि स्रोत पर कालीघाट नामक स्थान पर कालीकाजी का मंदिर है। रामकृष्ण परमहंस यहीं पर साधना करते थे। यह बहुत ही जाग्रत शक्तिपीठ है।
8.ज्वालामुखी-----
भारत के हिमाचल प्रदेश के काँगड़ा में जहाँ माता की जीभ गिरी थी उसे ज्वालाजी स्थान कहते हैं। इस स्थान से आदिकाल से ही पृथ्वी के भीतर से कई अग्निशिखाएँ निकल रही हैं। यह बहुत ही जाग्रत स्थान है।
9.भवानी माता------
महाराष्ट्र के पूना में भगवती के दो मंदिर हैं पहला पार्वती का प्रसिद्ध मंदिर दूसरा प्रतापगढ़ नामक स्थान पर भगवती भवानी का मंदिर। भवानी माता छत्रपति शिवाजी महाराज की इष्टदेवी हैं।
10.तुलजा भवानी-----
महाराष्ट्र के उस्मानाबाद जिले में स्थित है तुलजापुर। एक ऐसा स्थान जहाँ छत्रपति शिवाजी की कुलदेवी माँ तुलजा भवानी स्थापित हैं, जो आज भी महाराष्ट्र व अन्य राज्यों के कई निवासियों की कुलदेवी के रूप में प्रचलित हैं। तुलजा माता का यह प्रमुख मंदिर है। इंदौर के पास देवास की टेकरी पर भी तुलजा भवानी का प्रसिद्ध मंदिर है।
11.माँ चामुंडा देवी------
चामुंडा माता के मंदिर कई हैं किंतु हिमाचल के धर्मशाला से 15 किमी पर स्थित बंकर नदी के किनारे बहुत ही प्राचीन मंदिर स्थित है। इसके अलावा राजस्थान में जोधपुर के मेहरानगढ़ किले पर स्थित चामुंडा माता का मंदिर भी प्रख्यात है। इंदौर के पास देवास की पहाड़ी पर भी माँ चामुंडा का प्रसिद्ध मंदिर है।
12.अम्बाजी मंदिर ---------
गुजरात का अम्बाजी मंदिर बहुत ही प्रसिद्ध है। अम्बाजी मंदिर गुजरात और राजस्थान की सीमा से लगा हुआ है। माउंट आबू से 45 किलोमीटर दूरी पर स्थित है अम्बा माता का मंदिर जहाँ लाखों भक्त आते हैं।
13.अर्बुदा देवी-------
भारतीय राज्य राजस्थान के सिरोही जिले में स्थित नीलगिरि की पहाड़ियों की सबसे ऊँची चोटी पर बसे माउंट आबू पर्वत पर स्थित अर्बुदा देवी के मंदिर को 51 प्रधान शक्ति पीठों में गिना जाता है।
14 देवास माता टेकरी----------
मध्यप्रदेश के इंदौर शहर के पास स्थित जिला देवास की टेकरी पर स्थित माँ भवानी का यह मंदिर काफी प्रसिद्ध है। लोक मान्यता है कि यहाँ देवी माँ के दो स्वरूप अपनी जाग्रत अवस्था में हैं। इन दोनों स्वरूपों को छोटी माँ और बड़ी माँ के नाम से जाना जाता है। बड़ी माँ को तुलजा भवानी और छोटी माँ को चामुण्डा देवी का स्वरूप माना गया है।
15. बिजासन टेकरी-------
मध्यप्रदेश की व्यावसायिक नगरी इंदौर में बिजासन माता की प्रसिद्धि भी दूर दूर तक है। वैष्णोदेवी की मूर्तियों के समान यहाँ भी माँ की पाषाण पिंडियाँ हैं। यह मंदिर इंदौर एयरपोर्ट से कुछ ही दूरी पर स्थित है।
16.गढ़ कालिका-हरसिद्धि
भारत के मध्यप्रदेश राज्य के नगर उज्जैन में महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर के समीप शिप्रा नदी के तट पर हरसिद्धि माता का मंदिर है जो राजा विक्रमादित्य की कुलदेवी हैं। उज्जैन के कालीघाट स्थित कालिका माता का यहाँ बहुत ही प्राचीन मंदिर है, जिसे गढ़ कालिका के नाम से जाना जाता है। इसे कालिदास की इष्टदेवी माना जाता है।
17.मुम्बादेवी------------
महाराष्ट्र के प्रमुख महानगर मुंबई की मुम्बादेवी, कालबादेवी और महालक्ष्मी का मंदिर प्रसिद्ध है। महालक्ष्मी का मंदिर समुद्र तट पर, मुम्बादेवी के समीप तालाब है और कालादेवी का मंदिर अति प्राचीन माना जाता है।
18.सप्तश्रृंगी देवी----------
सप्तश्रृंगी देवी नासिक से करीब 65 किलोमीटर की दूरी पर 4800 फुट ऊँचे सप्तश्रृंग पर्वत पर विराजित हैं। सह्याद्री की पर्वत श्रृंखला के सात शिखर का प्रदेश यानी सप्तश्रृंग पर्वत, जहाँ एक तरफ गहरी खाई और दूसरी ओर ऊँचे पहाड़ पर हरियाली है। इसे अर्धशक्तिपीठ माना जाता है।
19.माँ मनुदेवी----------
महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश राज्यों को अलग करने वाला सतपुड़ा पर्वत श्रृंखलाओं की वादियों में बसा हुआ है। यहाँ खानदेशवासियों की श्रीक्षेत्र कुलदेवी मनुदेवी का मंदिर। भुसावल से यावल 20 किमी की दूरी पर है। यावल से कुछ ही दूर आड़गाव में मनुदेवी का स्थान है।
20.त्रिशक्ति पीठम---------
श्रीकाली माता अमरावती देवस्थानम। इस पवित्र स्थान को त्रिशक्ति पीठम के नाम से भी जाना जाता है। आंध्रप्रदेश के विजयवाड़ा के गिने-चुने मंदिरों में से एक कृष्णावेणी नदी के तट पर बसा यह पवित्र मंदिर बेहद अलौकिक है।
21.आट्टुकाल भगवती----------
केरल के तिरुवनंतपुरम शहर में स्थित आट्टुकाल भगवती मंदिर की प्रसिद्धि पूरे दक्षिण भारत में है। पराशक्ति जगदम्बा केरल की राजधानी तिरुवनंतपुरम शहर की दक्षिण-पूर्व दिशा में आट्टुकाल नामक गाँव में भक्तजनों को मंगल आशीष देते हुए विराजती हैं।
22.श्रीलयराई देवी--------
गोवा प्रांत के गाँव में श्रीलयराई देवी का स्थान बहुत ही प्राचीन और प्रसिद्ध है। नवरात्र में यहाँ पूरे गाँव के लोग अंगारे पर बहुत ही सहजता से चलते हैं और उन्हें कुछ नहीं होता।
23. कामाख्या-------
भारतीय राज्य असम में गुवाहाटी से दो मिल दूर पश्चिम में नीलगिरि पर्वत पर स्थित सिद्धि पीठ को कामाख्या या कामाक्षा पीठ कहते हैं। कालिका पुराण में इसका उल्लेख मिलता है।
24.गुह्म कालिका----
नेपाल के काठमांडू स्थित पशुपतिनाथ मंदिर से कुछ ही दूर स्थित वागमती नदी के गुह्मेश्वरीघाट पर माता गुह्मेश्वरी का मंदिर है। नेपाल के राजा की कुल देवी माता के दर्शन के लिए दूर-दूर से लोग आते हैं।
25.महाकाली--------
काशी में शक्ति का त्रिकोण है उसके कोनों पर क्रमश: दुर्गाजी (महाकाली), महालक्ष्मी तथा वागीश्वरी (महासरस्वती) विराजमान हैं। काशीक्षेत्र स्थित इसी स्थान को शक्तिपीठ कहा जाता है।
26.कौशिकी देवी--------
भारत के उत्तरांचल राज्य में काषाय पर्वतपर स्थित अल्मोड़ा नगर से आठ मील दूर कौशिकी देवी का स्थान है। दुर्गा सप्तशती के पाँचवें अध्याय में इसका उल्लेख मिलता है।
27.सातमात्रा-----
ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर से तीन मील पूर्व में नर्मादा के तट पर महत्वपूर्ण 'सातमात्रा' शक्तिपीठ स्थित है जिसे सप्तमात्रा भी कहा जाता है। दुर्गा सप्तशती में इसकी उत्पत्ति के बारे में उल्लेख मिलता है।
28.कालका-----
देहली-शिमला रोड पर कालका नामक जंक्शन है। यहीं पर भगवती कालिका का प्राचीन मंदिर है। दुर्गा सप्तशती में इसका उल्लेख मिलता है।
29. नगरकोट की देवी----------
काँगड़ा पठानकोट-योगीन्द्रनगर लाइन पर एक स्टेशन है। यहाँ भगवती विद्येश्वरी का बहुत ही प्राचीन मंदिर है। इसको नगरकोट की देवी भी कहते हैं।
30. चित्तौड़-------
चित्तौड़ के दुर्ग के अंदर भगवती कालिका का प्राचीन मंदिर है। दुर्ग में तुलजा भवानी तथा अन्नपूर्णा के मंदिर भी हैं।
31.भगवती पटेश्वरी--------
भगवती पटेश्वरी मंदिर की स्थापना महाभारत काल में राजा कर्ण द्वारा हुई थी। सम्राट विक्रमादित्य ने इसका जीर्णोद्धार किया था। यह नाथ सम्प्रदाय के साधुओं का स्थान है।
32.योगमाया-कालिका
यहाँ दो शक्तिपीठ माने गए हैं। पहला कुतुबमीनार के पास योगमाया का मंदिर और दूसरा यहाँ से लगभग सात मील पर ओखला नामक ग्राम में कालिका का मंदिर है।
33. पठानकोट---------
पठानकोट का प्राचीन नाम पथकोट था, क्योंकि यहाँ प्राचीनकाल से ही बड़ी-बड़ी सड़कें थीं। यहीं पर जो कोट अर्थात किला है वहीं पथकोट की देवी (पठानकोट की देवी) का स्थान है। त्रिगर्त पर्वतीय क्षेत्र में इस देवी की आराधना प्राचीनकाल से ही होती आ रही है।
34.ललिता देवी---------
इलाहबाद के कड़ा नामक स्थान पर कड़े की देवी विशेष रूप से प्रसिद्ध है। इसके अलावा संगम तट पर ललिता देवी का प्रसिद्ध शक्तिपीठ है।
35.पूर्णागिरि-----
पुण्यागिरि या पूर्णागिरि स्थान अल्मोड़ा जिले के पीलीभीत मार्ग पर टनकपुर से आठ सौ मील पर नेपाल की सरहद पर शारदानदी के किनारे है। आसपास जंगल और बीच में पर्वत पर विराजमान हैं भगवती दुर्गा। इसे शक्तिपीठों में गिना जाता है।
36.माता कुडि़या-------
मद्रास (चेन्नई) नगर के साहूकारपेठ में सुप्रसिद्ध माता कुडि़या का मंदिर है। यहाँ कण्डे की आँच से मीठा चावल पकाकर देवी को भोग लगाया जाता है।
37.देवी चामुंडा--------
मैसूर की अधिष्ठात्री देवी चामुंडा हैं। मैसूर से लगी विशाल पहाड़ियों पर माता का स्थान है। चामुंडा को यहाँ भेरुण्डा भी कहते हैं।
38.विन्ध्याचल-------
कंस के हाथ से छूटकर जिन्होंने भविष्यवाणी की थी वही श्रीविन्ध्यवासिनी हैं। यहीं पर भगवती ने शुंभ और निशुंभ को मारा था। इस क्षेत्र में शक्ति त्रिकोण है। क्रमश: विन्ध्यवासिनी (महालक्ष्मी), कालीखोह की काली (महाकाली) तथा पर्वत पर की अष्टभुजा (महासरस्वती) विराजमान हैं।
39.तारादेवी-------
यह प्रदेश भी एक प्रसिद्ध शक्ति स्थल है। तारादेवी नामक स्टेशन के पास तारा का प्राचीन स्थान है और कण्डाघाट स्टेशन के पास ही देवी का प्राचीन मंदिर है।
अमेरिका, पाक के रिश्ते बिगाड़ता ‘हक्कानी’ आखिर है क्या?
अमेरिका और पाकिस्तान के रिश्ते अबतक के सबसे तल्ख दौर में पहुंच गए है और दोनों राष्ट्रों के बीच आई इस तल्खी का सबसे बड़ा कारण बना है 12000 प्रशिक्षित लड़ाके वाला आतंकवादी संगठन 'हक्कानी नेटवर्क'।अमेरिका ने हाल ही में आरोप लगाया है कि हक्कानी नेटवर्क को पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी इंटर सर्विसेज इंटेलिजेंस (आईएसआई) का संरक्षण प्राप्त है। इतना ही नहीं अमेरिका ने यहां तक कह दिया कि अगर पाकिस्तान इस आतंकवादी संगठन के खिलाफ कार्रवाई नहीं करता है तो वह एकतरफा कार्रवाई को बाध्य हो जाएगा।
पाकिस्तान ने भी अमेरिका को जवाब देने में देरी नहीं की और अमेरिकी रुख का उसने कड़ा विरोध किया। पाकिस्तान ने उसके आरोपों को यह कहते हुए खारिज किया है कि हक्कानी नेटवर्क अमेरिका की केंद्रीय खुफिया एजेंसी (सीआईए) का कई सालों तक चहेता रहा था।पिछले दिनों काबुल में अमेरिकी दूतावास पर हमले के लिए जिम्मेदार माने जा रहे हक्कानी नेटवर्क को लेकर अमेरिका और पाकिस्तान के बीच जारी आरोप-प्रत्यारोप के दौर ने दोनों देशों के रिश्तों में अब तक की सबसे बड़ी कड़वाहट ला दी है। आइए जानते हैं इस कड़वाहट की सबसे बड़ी वजह बने हक्कानी नेटवर्क के बारे में कि आखिर क्या है यह, कैसे इसकी उत्पत्ति हुई, कौन इसका मुखिया है और वह कहां और कैसे काम करता है।
हक्कानी नेटवर्क की मजूबती ----पाकिस्तान और अफगानिस्तान की सीमा के दोनों ओर के कबायली इलाकों को हक्कानी नेटवर्क का गढ़ माना जाता है। उत्तरी वजीरिस्तान कभी इसका मुख्य केंद्र हुआ करता था लेकिन अमेरिका और उत्तर अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) के लगातार हो रहे ड्रोन हमलों के कारण इस आतंकवादी संगठन ने अन्य कबायली इलाकों को अपना पनाहगाह बना लिया है।इस आतंकवादी संगठन का जनक मौलवी जलालुद्दीन हक्कानी है और उसी के नाम पर संगठन का नाम हक्कानी नेटवर्क रखा गया है। जलालुद्दीन हक्कानी कबायली जनजाति 'जदरान' से आता है। उसका जन्म अफगानिस्तान के पाकतिया प्रांत के गर्दा त्सेरे जिले के श्रानी में हुआ था। कहा जाता है उसकी दो पत्नियां हैं। पहली पत्नी खोस्त की जदरान कबायली है जबकि दूसरी अरब की है। इस वजह से उसका अरब और पश्तून के आंतकवादियों में अच्छी पैठ है। पश्तून में उसे लोगों का समर्थन मिलता है तो अरब से धन।सोवियत रूस द्वारा अफगानिस्तान पर कब्जा जमाने के दौर में हक्कानी जिहाद से जुड़ा और 90 के दशक में वह अलकायदा के बेहद करीब आ गया। 1990 में मुल्ला उमर के नेतृत्व वाला तालिबान जब उभरा तो हक्कानी ने पहले तो उससे दूरी बनाई लेकिन बाद में उसने उसका दामन थाम लिया।वर्ष 2001 में अमेरिकी हमले के बाद जब मुल्ला उमर की सरकार का पतन हो गया तब हक्कानी फिर से उत्तरी वजीरिस्तान पहुंचा और उसने फिर से अपने लोगों को साथ जोड़ा और नाटो के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया।नाटो के खिलाफ जंग में हक्कानी ने अपने परिवार के कई सदस्यों के जान गंवाए। उसने अपने दो बेटों, एक पत्नी, कम से कम आठ पोतों, एक बहन और बहनोई को ड्रोन हमलों में खोया है।
हक्कानी पर 50 लाख डॉलर का इनाम ------हक्कानी अब अपने नेटवर्क का आध्यात्मिक नेता की भूमिका में आ गया है। वह लोगों को जिहाद के लिए संगठन से जुड़ने के लिए प्रेरित करता है जबकि हक्कानी नेटवर्क की कमान उसके बेटे सिराजुद्दीन हक्कानी ने सम्भाल ली है। वह अपने लोगों के बीच खलीफा के नाम से मशहूर है। सिराजुद्दीन अब अमेरिका के मोस्ट वांटेड सूची में शीर्ष पर है। अमेरिका ने उसके ऊपर 50 लाख डॉलर का इनाम रखा है।संगठन की आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम देने की कमान सिराजुद्दीन के भाई बदरूद्दीन ने सम्भाली हुई है। अमेरिकी विदेश विभाग ने उसे वैश्विक आतंकवादियों की सूची में डाल रखा है। जलालुद्दीन हक्कानी का छोटा भई खलील हक्कानी इस आतंकवादी संगठन के वित्तीय विभाग का मुखिया है।पाकिस्तान के कबायली इलाकों के सभी आतंकवादी संगठन हक्कानी नेटवर्क के प्रति वफादारी निभाते हैं। पाकिस्तान तालिबान के विभिन्न धड़े जब जिहाद के नाम पर अफगानिस्तान पहुंचते हैं तो वे हक्कानी नेटवर्क के अधीन होकर अपने मंसूबों का सफल बनाने का प्रयास करते हैं।
हक्कानी नेटवर्क में 12 हजार प्रशिक्षित लड़ाके ----कहा जाता है कि हक्कानी नेटवर्क में कम से कम 12000 ऐसे लड़ाके हैं जो पूरी तरह प्रशिक्षित हैं। इनमें कुछ गुरिल्ला युद्ध में माहिर हैं तो कुछ विस्फोटक बनाने वाले हैं। कुछ आत्मघाती हमलावर भी हैं और कुछ शिक्षक जो लोगों को जिहाद के नाम पर खुद से जोड़ते हैं।अमेरिका के एक प्रभावशाली वैचारिक एवं नीतिगत संस्थान का कहना है कि पिछले दिनों काबुल में अमेरिकी दूतावास पर हुए हमले के लिए जिम्मेदारी आतंकी गुट हक्कानी नेटवर्क को पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई का संरक्षण मिलता है।जार्ज वाशिंगटन विश्वविद्यालय में होमलैंड सिक्योरिटी पालिसी इंस्टीट्यूट के निदेशक जे किलुफो ने अमेरिकी काग्रेस के सदस्यों के समक्ष हाल ही में कहा कि हक्कानी नेटवर्क के आतंकवादियों को पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई के लोगों की मदद मिलती है।उन्होंने कहा कि हक्कानी नेटवर्क को पाकिस्तानी सरकार के हिस्से के रूप में देखा जाता है, इसीलिए वहां की सरकार ने वजीरिस्तान के कबायली इलाकों में कार्रवाई करने से इंकार किया था।वजीरिस्तान सिर्फ हक्कानी नेटवर्क का ही नहीं, बल्कि अलकायदा से जुड़े समूहों के लिए एक सुरक्षित पनाहगार साबित हुआ है।इस थिक टैंक का मानना है कि हक्कानी नेटवर्क का एक ताकतवर धड़ा अफगानिस्तान में सक्रिय है। इन लोगों का निशाना गठबंधन सेना होती है।
पाकिस्तान ने भी अमेरिका को जवाब देने में देरी नहीं की और अमेरिकी रुख का उसने कड़ा विरोध किया। पाकिस्तान ने उसके आरोपों को यह कहते हुए खारिज किया है कि हक्कानी नेटवर्क अमेरिका की केंद्रीय खुफिया एजेंसी (सीआईए) का कई सालों तक चहेता रहा था।पिछले दिनों काबुल में अमेरिकी दूतावास पर हमले के लिए जिम्मेदार माने जा रहे हक्कानी नेटवर्क को लेकर अमेरिका और पाकिस्तान के बीच जारी आरोप-प्रत्यारोप के दौर ने दोनों देशों के रिश्तों में अब तक की सबसे बड़ी कड़वाहट ला दी है। आइए जानते हैं इस कड़वाहट की सबसे बड़ी वजह बने हक्कानी नेटवर्क के बारे में कि आखिर क्या है यह, कैसे इसकी उत्पत्ति हुई, कौन इसका मुखिया है और वह कहां और कैसे काम करता है।
हक्कानी नेटवर्क की मजूबती ----पाकिस्तान और अफगानिस्तान की सीमा के दोनों ओर के कबायली इलाकों को हक्कानी नेटवर्क का गढ़ माना जाता है। उत्तरी वजीरिस्तान कभी इसका मुख्य केंद्र हुआ करता था लेकिन अमेरिका और उत्तर अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) के लगातार हो रहे ड्रोन हमलों के कारण इस आतंकवादी संगठन ने अन्य कबायली इलाकों को अपना पनाहगाह बना लिया है।इस आतंकवादी संगठन का जनक मौलवी जलालुद्दीन हक्कानी है और उसी के नाम पर संगठन का नाम हक्कानी नेटवर्क रखा गया है। जलालुद्दीन हक्कानी कबायली जनजाति 'जदरान' से आता है। उसका जन्म अफगानिस्तान के पाकतिया प्रांत के गर्दा त्सेरे जिले के श्रानी में हुआ था। कहा जाता है उसकी दो पत्नियां हैं। पहली पत्नी खोस्त की जदरान कबायली है जबकि दूसरी अरब की है। इस वजह से उसका अरब और पश्तून के आंतकवादियों में अच्छी पैठ है। पश्तून में उसे लोगों का समर्थन मिलता है तो अरब से धन।सोवियत रूस द्वारा अफगानिस्तान पर कब्जा जमाने के दौर में हक्कानी जिहाद से जुड़ा और 90 के दशक में वह अलकायदा के बेहद करीब आ गया। 1990 में मुल्ला उमर के नेतृत्व वाला तालिबान जब उभरा तो हक्कानी ने पहले तो उससे दूरी बनाई लेकिन बाद में उसने उसका दामन थाम लिया।वर्ष 2001 में अमेरिकी हमले के बाद जब मुल्ला उमर की सरकार का पतन हो गया तब हक्कानी फिर से उत्तरी वजीरिस्तान पहुंचा और उसने फिर से अपने लोगों को साथ जोड़ा और नाटो के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया।नाटो के खिलाफ जंग में हक्कानी ने अपने परिवार के कई सदस्यों के जान गंवाए। उसने अपने दो बेटों, एक पत्नी, कम से कम आठ पोतों, एक बहन और बहनोई को ड्रोन हमलों में खोया है।
हक्कानी पर 50 लाख डॉलर का इनाम ------हक्कानी अब अपने नेटवर्क का आध्यात्मिक नेता की भूमिका में आ गया है। वह लोगों को जिहाद के लिए संगठन से जुड़ने के लिए प्रेरित करता है जबकि हक्कानी नेटवर्क की कमान उसके बेटे सिराजुद्दीन हक्कानी ने सम्भाल ली है। वह अपने लोगों के बीच खलीफा के नाम से मशहूर है। सिराजुद्दीन अब अमेरिका के मोस्ट वांटेड सूची में शीर्ष पर है। अमेरिका ने उसके ऊपर 50 लाख डॉलर का इनाम रखा है।संगठन की आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम देने की कमान सिराजुद्दीन के भाई बदरूद्दीन ने सम्भाली हुई है। अमेरिकी विदेश विभाग ने उसे वैश्विक आतंकवादियों की सूची में डाल रखा है। जलालुद्दीन हक्कानी का छोटा भई खलील हक्कानी इस आतंकवादी संगठन के वित्तीय विभाग का मुखिया है।पाकिस्तान के कबायली इलाकों के सभी आतंकवादी संगठन हक्कानी नेटवर्क के प्रति वफादारी निभाते हैं। पाकिस्तान तालिबान के विभिन्न धड़े जब जिहाद के नाम पर अफगानिस्तान पहुंचते हैं तो वे हक्कानी नेटवर्क के अधीन होकर अपने मंसूबों का सफल बनाने का प्रयास करते हैं।
हक्कानी नेटवर्क में 12 हजार प्रशिक्षित लड़ाके ----कहा जाता है कि हक्कानी नेटवर्क में कम से कम 12000 ऐसे लड़ाके हैं जो पूरी तरह प्रशिक्षित हैं। इनमें कुछ गुरिल्ला युद्ध में माहिर हैं तो कुछ विस्फोटक बनाने वाले हैं। कुछ आत्मघाती हमलावर भी हैं और कुछ शिक्षक जो लोगों को जिहाद के नाम पर खुद से जोड़ते हैं।अमेरिका के एक प्रभावशाली वैचारिक एवं नीतिगत संस्थान का कहना है कि पिछले दिनों काबुल में अमेरिकी दूतावास पर हुए हमले के लिए जिम्मेदारी आतंकी गुट हक्कानी नेटवर्क को पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई का संरक्षण मिलता है।जार्ज वाशिंगटन विश्वविद्यालय में होमलैंड सिक्योरिटी पालिसी इंस्टीट्यूट के निदेशक जे किलुफो ने अमेरिकी काग्रेस के सदस्यों के समक्ष हाल ही में कहा कि हक्कानी नेटवर्क के आतंकवादियों को पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई के लोगों की मदद मिलती है।उन्होंने कहा कि हक्कानी नेटवर्क को पाकिस्तानी सरकार के हिस्से के रूप में देखा जाता है, इसीलिए वहां की सरकार ने वजीरिस्तान के कबायली इलाकों में कार्रवाई करने से इंकार किया था।वजीरिस्तान सिर्फ हक्कानी नेटवर्क का ही नहीं, बल्कि अलकायदा से जुड़े समूहों के लिए एक सुरक्षित पनाहगार साबित हुआ है।इस थिक टैंक का मानना है कि हक्कानी नेटवर्क का एक ताकतवर धड़ा अफगानिस्तान में सक्रिय है। इन लोगों का निशाना गठबंधन सेना होती है।
ओसामा की तरह हक्कानी पर होगी कार्रवाई: अमेरिका--
अमेरिका ने पाकिस्तान को चेतावनी दी है कि यदि उसने हक्कानी नेटवर्क के खिलाफ कार्रवाई नहीं की, तो वह खुद इस आतंकवादी संगठन के खिलाफ ठीक उसी तरह कार्रवाई करेगा, जैसी अलकायदा सरगना ओसामा बिन लादेन के खिलाफ की गई थी। इसके साथ ही अमेरिका ने नेटवर्क से जुड़े पांच संदिग्धों के नाम अपनी आतंकवादियों की सूची में शामिल कर दिए हैं।
व्हाइट हाउस के प्रेस सचिव जे कार्ने ने गुरुवार को संवाददाताओं से कहा, "मामले की सच्चाई यह है कि हम अफगानिस्तान में एक लड़ाई लड़ रहे हैं, और हमारे सामने एक समस्या उस स्थान का पता लगाना है, जहां से यह मुद्दा उठ रहा है। क्या हक्कानी नेटवर्क की सुरक्षित पनाहगाह पाकिस्तान में तो नहीं है।" कार्ने ने कहा, "इस मुद्दे को हम अपने पाकिस्तानी साथियों के साथ उठा चुके हैं। और उन व्यापक क्षेत्रों को लेकर हमारे बीच नियमित चर्चा जारी है, जहां हमारे साझा हित हैं और हम एक-दूसरे को सहयोग करते हैं।"यह पूछे जाने पर कि क्या ड्रोन हमलों के अलावा पाकिस्तान के साथ सैन्य कार्रवाई के बारे में चर्चा जारी है, कार्ने ने कहा, "निश्चित तौर पर हम अमेरिका के दुश्मनों को जहां भी पाते हैं उनके खिलाफ कार्रवाई करते हैं। जैसा कि आपने ओसामा बिन लादेन के मामले में देखा, जो कि पाकिस्तान में मिला।"यह पूछे जाने पर कि क्या हाल की घटनाओं के बाद पाकिस्तान के साथ सम्बंध ऐसे बिंदु पर पहुंच गए हैं, जहां से वापसी सम्भव नहीं है, कार्ने ने कहा, "पाकिस्तान के साथ हमारे रिश्ते जटिल, लेकिन बहुत महत्वपूर्ण हैं।"
कार्ने ने कहा, "पाकिस्तान अलकायदा के खिलाफ लड़ाई में हमारा महत्वपूर्ण सहयोगी रहा है, और वह लड़ाई जारी है। और हम आशा करते हैं कि पाकिस्तान के साथ इस मुद्दे पर हमारा सहयोग जारी रहेगा।"कार्ने ने कहा, "इसमें कोई संदेह नहीं कि हमारे बीच असहमतियां है, हमारे रिश्ते में जटिलताएं हैं और इस बारे में हम अपने पाकिस्तानी साथियों के साथ खुलकर व स्पष्ट बातें करते हैं।"कार्ने ने कहा, "लेकिन हम निश्चिततौर पर मानते हैं कि हमारा रिश्ता काफी महत्वपूर्ण है। जिस तरह का सहयोग हमारे बीच है, वह हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण है और हमें इसे जारी रखने की जरूरत है, ताकि हम उस क्षेत्र में अलकायदा से अति प्रभावी तरीके से निपट सकें और सफल हो सकें।"अमेरिका ने हक्कानी नेटवर्क से जुड़े पांच संदिग्धों के नाम गुरुवार को अपनी आतंवादी सूची में शामिल कर दिए हैं। अमेरिका का मानना है कि इस आतंकवादी संगठन को पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी इंटर-सर्विसिस इंटेलिजेंस (आईएसआई) से मदद मिल रही है। जिन पांच लोगों के नाम आतंकवादी सूची में शामिल किए गए हैं, उनमें अब्दुल अजीज अब्बासिन, हाजी फैजुल्ला खान नूरजई, हाजी मलिक नूरजई, अब्दुर रहमान और फजल रहीम शामिल हैं। अमेरिकी वित्त विभाग ने अब्बासिन को हक्कानी नेटवर्क का एक प्रमुख कमांडर बताया है। हाजी फैजुल्ला, हाजी मलिक और अब्दुर रहमान पर तालिबान को धन व सामग्री मुहैया कराने का आरोप है। जबकि फजल रहीम अलकायदा और इस्लामिक मूवमेंट ऑफ उज्बेकिस्तान को कथितरूप से वित्तीय मदद पहुंचाता है।
व्हाइट हाउस के प्रेस सचिव जे कार्ने ने गुरुवार को संवाददाताओं से कहा, "मामले की सच्चाई यह है कि हम अफगानिस्तान में एक लड़ाई लड़ रहे हैं, और हमारे सामने एक समस्या उस स्थान का पता लगाना है, जहां से यह मुद्दा उठ रहा है। क्या हक्कानी नेटवर्क की सुरक्षित पनाहगाह पाकिस्तान में तो नहीं है।" कार्ने ने कहा, "इस मुद्दे को हम अपने पाकिस्तानी साथियों के साथ उठा चुके हैं। और उन व्यापक क्षेत्रों को लेकर हमारे बीच नियमित चर्चा जारी है, जहां हमारे साझा हित हैं और हम एक-दूसरे को सहयोग करते हैं।"यह पूछे जाने पर कि क्या ड्रोन हमलों के अलावा पाकिस्तान के साथ सैन्य कार्रवाई के बारे में चर्चा जारी है, कार्ने ने कहा, "निश्चित तौर पर हम अमेरिका के दुश्मनों को जहां भी पाते हैं उनके खिलाफ कार्रवाई करते हैं। जैसा कि आपने ओसामा बिन लादेन के मामले में देखा, जो कि पाकिस्तान में मिला।"यह पूछे जाने पर कि क्या हाल की घटनाओं के बाद पाकिस्तान के साथ सम्बंध ऐसे बिंदु पर पहुंच गए हैं, जहां से वापसी सम्भव नहीं है, कार्ने ने कहा, "पाकिस्तान के साथ हमारे रिश्ते जटिल, लेकिन बहुत महत्वपूर्ण हैं।"
कार्ने ने कहा, "पाकिस्तान अलकायदा के खिलाफ लड़ाई में हमारा महत्वपूर्ण सहयोगी रहा है, और वह लड़ाई जारी है। और हम आशा करते हैं कि पाकिस्तान के साथ इस मुद्दे पर हमारा सहयोग जारी रहेगा।"कार्ने ने कहा, "इसमें कोई संदेह नहीं कि हमारे बीच असहमतियां है, हमारे रिश्ते में जटिलताएं हैं और इस बारे में हम अपने पाकिस्तानी साथियों के साथ खुलकर व स्पष्ट बातें करते हैं।"कार्ने ने कहा, "लेकिन हम निश्चिततौर पर मानते हैं कि हमारा रिश्ता काफी महत्वपूर्ण है। जिस तरह का सहयोग हमारे बीच है, वह हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण है और हमें इसे जारी रखने की जरूरत है, ताकि हम उस क्षेत्र में अलकायदा से अति प्रभावी तरीके से निपट सकें और सफल हो सकें।"अमेरिका ने हक्कानी नेटवर्क से जुड़े पांच संदिग्धों के नाम गुरुवार को अपनी आतंवादी सूची में शामिल कर दिए हैं। अमेरिका का मानना है कि इस आतंकवादी संगठन को पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी इंटर-सर्विसिस इंटेलिजेंस (आईएसआई) से मदद मिल रही है। जिन पांच लोगों के नाम आतंकवादी सूची में शामिल किए गए हैं, उनमें अब्दुल अजीज अब्बासिन, हाजी फैजुल्ला खान नूरजई, हाजी मलिक नूरजई, अब्दुर रहमान और फजल रहीम शामिल हैं। अमेरिकी वित्त विभाग ने अब्बासिन को हक्कानी नेटवर्क का एक प्रमुख कमांडर बताया है। हाजी फैजुल्ला, हाजी मलिक और अब्दुर रहमान पर तालिबान को धन व सामग्री मुहैया कराने का आरोप है। जबकि फजल रहीम अलकायदा और इस्लामिक मूवमेंट ऑफ उज्बेकिस्तान को कथितरूप से वित्तीय मदद पहुंचाता है।
जब लालबहादुर शास्त्री बने खास से आम---
घटना उन दिनों की है, जब लालबहादुर शास्त्री भारत के रेलमंत्री थे। शास्त्रीजी की सादगी और त्याग प्रवृत्ति अनुपम थी। उन्हें देखकर कोई उनके पद के विषय में अनुमान भी नहीं लगा सकता था। शास्त्रीजी के मन में इस चीज को लेकर अहंकार भी नहीं था। एक बार शास्त्रीजी रेलगाड़ी में यात्रा कर रहे थे। उनकी सीट प्रथम श्रेणी के डिब्बे में थी। वे उस ओर जा ही रहे थे कि उन्हें एक अत्यधिक बीमार व्यक्ति दिखा। उन्हें उस पर दया आ गई, क्योंकि उसमें चलने की भी ताकत नहीं थी।
शास्त्रीजी ने उसके पास जाकर उसे सहारा देकर बैठाया और पूछा कि उसे कहां जाना है। संयोग से उसका और शास्त्रीजी का गंतव्य स्थल एक ही था। शास्त्रीजी ने उसे प्रथम श्रेणी के डिब्बे में अपनी सीट पर लिटा दिया और स्वयं तृतीय श्रेणी के डिब्बे में उसकी बर्थ पर जाकर चादर ओढ़कर लेट गए। थोड़ी देर बाद टिकट निरीक्षक आया और उन्हें बुरा-भला कहने लगा। शास्त्रीजी जागे और जब उन्होंने उसे अपना परिचय पत्र दिखाया तो वह बुरी तरह घबरा गया। फिर बोला- सर आप और तीसरे दर्जे में। चलिए मैं आपको प्रथम श्रेणी में पहुंचा देता हूं। शास्त्रीजी सहजता से बोले- अरे भैया मुझे नींद आ रही है। क्यों मेरी नींद खराब करते हो। यह कहकर वे फिर चादर ओढ़कर सो गए। दरअसल अपने उच्च पद का अभिमान न करते हुए सादगी और आम जनता के बीच रच-बसकर जीवन व्यतीत करने वाला ही सही अर्थो में बड़प्पन शब्द का अधिकारी होता है।
शास्त्रीजी ने उसके पास जाकर उसे सहारा देकर बैठाया और पूछा कि उसे कहां जाना है। संयोग से उसका और शास्त्रीजी का गंतव्य स्थल एक ही था। शास्त्रीजी ने उसे प्रथम श्रेणी के डिब्बे में अपनी सीट पर लिटा दिया और स्वयं तृतीय श्रेणी के डिब्बे में उसकी बर्थ पर जाकर चादर ओढ़कर लेट गए। थोड़ी देर बाद टिकट निरीक्षक आया और उन्हें बुरा-भला कहने लगा। शास्त्रीजी जागे और जब उन्होंने उसे अपना परिचय पत्र दिखाया तो वह बुरी तरह घबरा गया। फिर बोला- सर आप और तीसरे दर्जे में। चलिए मैं आपको प्रथम श्रेणी में पहुंचा देता हूं। शास्त्रीजी सहजता से बोले- अरे भैया मुझे नींद आ रही है। क्यों मेरी नींद खराब करते हो। यह कहकर वे फिर चादर ओढ़कर सो गए। दरअसल अपने उच्च पद का अभिमान न करते हुए सादगी और आम जनता के बीच रच-बसकर जीवन व्यतीत करने वाला ही सही अर्थो में बड़प्पन शब्द का अधिकारी होता है।
लालबहादुर शास्त्री की मौत से संबंधित पत्राचार का खुलासा नहीं---
विदेश मंत्रालय ने पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की मौत को लेकर मास्को स्थित भारतीय दूतावास के साथ पिछले 47 साल के दौरान हुए पत्र व्यवहार का यह कहते हुए खुलासा करने से इनकार कर दिया है कि इससे देश की संप्रभुता और अखंडता तथा अंतरराष्ट्रीय संबंधों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।
पूर्व में विदेश मंत्रालय ने कहा था कि उसके पास ताशकंद में 1966 को हुई शास्त्री की मत्यु के संबंध में केवल एक मेडिकल रिपोर्ट को छोड़ कर कोई दस्तावेज नहीं है। यह मेडिकल रिपोर्ट उस डॉक्टर की है जिसने उनकी जांच की थी। इसके बाद विदेश मंत्रालय ने भारत और पूर्ववर्ती सोवियत संघ के बीच शास्त्री की मौत को लेकर हुए पत्र व्यवहार के बारे में चुप्पी साध ली थी।
एक पारदर्शिता संबंधी वेबसाइट डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू डॉट एंडदसीक्रेसी डॉट कॉम के संचालक अनुज धर ने सूचना का अधिकार के अंतर्गत दिए गए अपने आवेदन में शास्त्री की मौत के बाद विदेश मंत्रालय और मास्को स्थित भारतीय दूतावास तथा दोनों देशों के विदेश मंत्रालयों के बीच हुए पत्र व्यवहार का ब्यौरा मांगा था।
उन्होंने यह भी कहा था कि अगर कोई पत्र व्यवहार नहीं हुआ है तो इसकी भी जानकारी दी जाए। धर ने दिवंगत प्रधानमंत्री की जांच करने वाले डॉक्टर आरएन चुग की मेडिकल रिपोर्ट भी मांगी थी जो शास्त्री के पोते और भाजपा प्रवक्ता सिद्धार्थ नाथ सिंह के अनुसार, सार्वजनिक संपत्ति है।
मंत्रालय ने यह नहीं कहा कि कोई पत्र व्यवहार हुआ या नहीं। उसने जवाब दिया कि जो सूचनाएं मांगी गई हैं उन्हें सूचना का अधिकार अधिनियम की धारा 8 (एक) (ए) के तहत जाहिर नहीं किया जा सकता। इस धारा के तहत ऐसी सूचना के खुलासे पर रोक है जिससे देश की संप्रभुता और अखंडता पर तथा विदेश से संबंधों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता हो।
मंत्रालय ने इस धारा के तहत छूट मांगने का कारण नहीं बताया जबकि केंद्रीय सूचना आयोग के आदेशों के अनुसार, कारण बताना आवश्यक है। वर्ष 1965 में हुए भारत पाक युद्ध के बाद शास्त्री जनवरी 1966 में पूर्ववर्ती सोवियत संघ में पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति अयूब खान के साथ एक बैठक के लिए ताशकंद गए थे। संयुक्त घोषणापत्र पर हस्ताक्षर करने के कुछ ही घंटे के बाद शास्त्री की रहस्यमय परिस्थितियों में मत्यु हो गई थी।
सिंह ने बताया कि डाक्टर की रिपोर्ट सार्वजनिक की जा चुकी है। मेरे पास इसकी एक प्रति है। इसमें डाक्टर ने अंत में लिखा है -हो सकता है -इससे ऐसा लगता है कि उनकी मौत का कारण जैसे कुछ शब्दों का इस्तेमाल किया गया है जिसका मतलब दिल का दौरा हो सकता है। प्रधानमंत्री की मौत को आप इस तरह नहीं बता सकते-इसके लिए आपको 100 फीसदी निश्चित होना होगा। धर का कहना है कि विदेश में प्रधानमंत्री की मौत से खासी हलचल हुई होगी और मास्को स्थित भारतीय दूतावास में भी गतिविधियां कम नहीं हुई होंगी। उन्होंने कहा इस घटना को लेकर कई फोन और टेलीग्राम आए होंगे लेकिन विदेश मंत्रालय इनमें से किसी का भी खुलासा करने को तैयार नहीं है।
धर के अनुसार, पूर्व में उन्होंने कहा कि मास्को स्थित भारतीय दूतावास में डा चुग की रिपोर्ट के अलावा कोई दस्तावेज नहीं है। अब वे कहते हैं कि वे फोन कॉल्स और टेलीग्राम का ब्यौरा जाहिर नहीं कर सकते। इसका मतलब यह है कि ये रिकॉर्डस हैं लेकिन पहले कह दिया गया कि रिकार्डस नहीं हैं।
सिंह ने कहा कि इनके खुलासे से अगर देश को सच पता चल जाएगा तो कुछ राजनीतिक दलों में उथलपुथल हो जाएगी क्योंकि शास्त्री नेहरू से अधिक लोकप्रिय थे। धर ने यह मामला राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के समक्ष एक बार फिर उठाने की योजना बनाई है।
पूर्व में विदेश मंत्रालय ने कहा था कि उसके पास ताशकंद में 1966 को हुई शास्त्री की मत्यु के संबंध में केवल एक मेडिकल रिपोर्ट को छोड़ कर कोई दस्तावेज नहीं है। यह मेडिकल रिपोर्ट उस डॉक्टर की है जिसने उनकी जांच की थी। इसके बाद विदेश मंत्रालय ने भारत और पूर्ववर्ती सोवियत संघ के बीच शास्त्री की मौत को लेकर हुए पत्र व्यवहार के बारे में चुप्पी साध ली थी।
एक पारदर्शिता संबंधी वेबसाइट डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू डॉट एंडदसीक्रेसी डॉट कॉम के संचालक अनुज धर ने सूचना का अधिकार के अंतर्गत दिए गए अपने आवेदन में शास्त्री की मौत के बाद विदेश मंत्रालय और मास्को स्थित भारतीय दूतावास तथा दोनों देशों के विदेश मंत्रालयों के बीच हुए पत्र व्यवहार का ब्यौरा मांगा था।
उन्होंने यह भी कहा था कि अगर कोई पत्र व्यवहार नहीं हुआ है तो इसकी भी जानकारी दी जाए। धर ने दिवंगत प्रधानमंत्री की जांच करने वाले डॉक्टर आरएन चुग की मेडिकल रिपोर्ट भी मांगी थी जो शास्त्री के पोते और भाजपा प्रवक्ता सिद्धार्थ नाथ सिंह के अनुसार, सार्वजनिक संपत्ति है।
मंत्रालय ने यह नहीं कहा कि कोई पत्र व्यवहार हुआ या नहीं। उसने जवाब दिया कि जो सूचनाएं मांगी गई हैं उन्हें सूचना का अधिकार अधिनियम की धारा 8 (एक) (ए) के तहत जाहिर नहीं किया जा सकता। इस धारा के तहत ऐसी सूचना के खुलासे पर रोक है जिससे देश की संप्रभुता और अखंडता पर तथा विदेश से संबंधों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता हो।
मंत्रालय ने इस धारा के तहत छूट मांगने का कारण नहीं बताया जबकि केंद्रीय सूचना आयोग के आदेशों के अनुसार, कारण बताना आवश्यक है। वर्ष 1965 में हुए भारत पाक युद्ध के बाद शास्त्री जनवरी 1966 में पूर्ववर्ती सोवियत संघ में पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति अयूब खान के साथ एक बैठक के लिए ताशकंद गए थे। संयुक्त घोषणापत्र पर हस्ताक्षर करने के कुछ ही घंटे के बाद शास्त्री की रहस्यमय परिस्थितियों में मत्यु हो गई थी।
सिंह ने बताया कि डाक्टर की रिपोर्ट सार्वजनिक की जा चुकी है। मेरे पास इसकी एक प्रति है। इसमें डाक्टर ने अंत में लिखा है -हो सकता है -इससे ऐसा लगता है कि उनकी मौत का कारण जैसे कुछ शब्दों का इस्तेमाल किया गया है जिसका मतलब दिल का दौरा हो सकता है। प्रधानमंत्री की मौत को आप इस तरह नहीं बता सकते-इसके लिए आपको 100 फीसदी निश्चित होना होगा। धर का कहना है कि विदेश में प्रधानमंत्री की मौत से खासी हलचल हुई होगी और मास्को स्थित भारतीय दूतावास में भी गतिविधियां कम नहीं हुई होंगी। उन्होंने कहा इस घटना को लेकर कई फोन और टेलीग्राम आए होंगे लेकिन विदेश मंत्रालय इनमें से किसी का भी खुलासा करने को तैयार नहीं है।
धर के अनुसार, पूर्व में उन्होंने कहा कि मास्को स्थित भारतीय दूतावास में डा चुग की रिपोर्ट के अलावा कोई दस्तावेज नहीं है। अब वे कहते हैं कि वे फोन कॉल्स और टेलीग्राम का ब्यौरा जाहिर नहीं कर सकते। इसका मतलब यह है कि ये रिकॉर्डस हैं लेकिन पहले कह दिया गया कि रिकार्डस नहीं हैं।
सिंह ने कहा कि इनके खुलासे से अगर देश को सच पता चल जाएगा तो कुछ राजनीतिक दलों में उथलपुथल हो जाएगी क्योंकि शास्त्री नेहरू से अधिक लोकप्रिय थे। धर ने यह मामला राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के समक्ष एक बार फिर उठाने की योजना बनाई है।
उस लड़के का नाम था ‘लालबहादुर शास्त्री’........
लालबहादुर शास्त्री---
लाल बहादुर शास्त्री जी हमारे देश के कर्मठ , सच्चे एवं,ईमानदार प्रधान मंत्री थे । वे जीवन पर्यन्त देश की समस्यओं,के साथ संघर्षरत रहे.....और इसी संघर्ष में उन्होनें अपने प्राणों की आहुति दी । अपने व्यक्तिगत जीवन में अशांति होते हुए भीउन्होने देश में शांति की स्थापना में लगे रहे........वे आज भी अपने देश में अपेक्षित हैं.....................आइये उस धरती के लाल को नमन करें.........प्रस्तुत हैं कुछ उनसे समबन्धित कुछ प्रेरक प्रसंग॥
किसी गाँव में रहने वाला एक छोटा लड़का अपने दोस्तों के साथ गंगा नदी के पार मेला देखने गया। शाम को वापस लौटते समय जब सभी दोस्त नदी किनारे पहुंचे तो लड़के ने नाव के किराये के लिए जेब में हाथ डाला। जेब में एक पाई भी नहीं थी। लड़का वहीं ठहर गया। उसने अपने दोस्तों से कहा कि वह और थोड़ी देर मेला देखेगा। वह नहीं चाहता था कि उसे अपने दोस्तों से नाव का किराया लेना पड़े। उसका स्वाभिमान उसे इसकी अनुमति नहीं दे रहा था।
उसके दोस्त नाव में बैठकर नदी पार चले गए। जब उनकी नाव आँखों से ओझल हो गई तब लड़के ने अपने कपड़े उतारकर उन्हें सर पर लपेट लिया और नदी में उतर गया। उस समय नदी उफान पर थी। बड़े-से-बड़ा तैराक भी आधे मील चौड़े पाट को पार करने की हिम्मत नहीं कर सकता था। पास खड़े मल्लाहों ने भी लड़के को रोकने की कोशिश की।उस लड़के ने किसी की न सुनी और किसी भी खतरे की परवाह न करते हुए वह नदी में तैरने लगा। पानी का बहाव तेज़ था और नदी भी काफी गहरी थी। रास्ते में एक नाव वाले ने उसे अपनी नाव में सवार होने के लिए कहा लेकिन वह लड़का रुका नहीं, तैरता गया। कुछ देर बाद वह सकुशल दूसरी ओर पहुँच गया।उस लड़के का नाम था ‘लालबहादुर शास्त्री’।
छः साल का एक लड़का अपने दोस्तों के साथ एक बगीचे में फूल तोड़ने के लिए घुस गया। उसके दोस्तों ने बहुत सारे फूल तोड़कर अपनी झोलियाँ भर लीं। वह लड़का सबसे छोटा और कमज़ोर होने के कारण सबसे पिछड़ गया। उसने पहला फूल तोड़ा ही था कि बगीचे का माली आ पहुँचा। दूसरे लड़के भागने में सफल हो गए लेकिन छोटा लड़का माली के हत्थे चढ़ गया। बहुत सारे फूलों के टूट जाने और दूसरे लड़कों के भाग जाने के कारण माली बहुत गुस्से में था। उसने अपना सारा क्रोध उस छः साल के बालक पर निकाला और उसे पीट दिया।नन्हे बच्चे ने माली से कहा – “आप मुझे इसलिए पीट रहे हैं क्योकि मेरे पिता नहीं हैं!”यह सुनकर माली का क्रोध जाता रहा। वह बोला – “बेटे, पिता के न होने पर तो तुम्हारी जिम्मेदारी और अधिक हो जाती है।”माली की मार खाने पर तो उस बच्चे ने एक आंसू भी नहीं बहाया था लेकिन यह सुनकर बच्चा बिलखकर रो पड़ा। यह बात उसके दिल में घर कर गई और उसने इसे जीवन भर नहीं भुलाया।उसी दिन से बच्चे ने अपने ह्रदय में यह निश्चय कर लिया कि वह कभी भी ऐसा कोई काम नहीं करेगा जिससे किसी का कोई नुकसान हो।उस लड़के का नाम था ‘लालबहादुर शास्त्री’।
लाल बहादुर शास्त्री जी हमारे देश के कर्मठ , सच्चे एवं,ईमानदार प्रधान मंत्री थे । वे जीवन पर्यन्त देश की समस्यओं,के साथ संघर्षरत रहे.....और इसी संघर्ष में उन्होनें अपने प्राणों की आहुति दी । अपने व्यक्तिगत जीवन में अशांति होते हुए भीउन्होने देश में शांति की स्थापना में लगे रहे........वे आज भी अपने देश में अपेक्षित हैं.....................आइये उस धरती के लाल को नमन करें.........प्रस्तुत हैं कुछ उनसे समबन्धित कुछ प्रेरक प्रसंग॥
किसी गाँव में रहने वाला एक छोटा लड़का अपने दोस्तों के साथ गंगा नदी के पार मेला देखने गया। शाम को वापस लौटते समय जब सभी दोस्त नदी किनारे पहुंचे तो लड़के ने नाव के किराये के लिए जेब में हाथ डाला। जेब में एक पाई भी नहीं थी। लड़का वहीं ठहर गया। उसने अपने दोस्तों से कहा कि वह और थोड़ी देर मेला देखेगा। वह नहीं चाहता था कि उसे अपने दोस्तों से नाव का किराया लेना पड़े। उसका स्वाभिमान उसे इसकी अनुमति नहीं दे रहा था।
उसके दोस्त नाव में बैठकर नदी पार चले गए। जब उनकी नाव आँखों से ओझल हो गई तब लड़के ने अपने कपड़े उतारकर उन्हें सर पर लपेट लिया और नदी में उतर गया। उस समय नदी उफान पर थी। बड़े-से-बड़ा तैराक भी आधे मील चौड़े पाट को पार करने की हिम्मत नहीं कर सकता था। पास खड़े मल्लाहों ने भी लड़के को रोकने की कोशिश की।उस लड़के ने किसी की न सुनी और किसी भी खतरे की परवाह न करते हुए वह नदी में तैरने लगा। पानी का बहाव तेज़ था और नदी भी काफी गहरी थी। रास्ते में एक नाव वाले ने उसे अपनी नाव में सवार होने के लिए कहा लेकिन वह लड़का रुका नहीं, तैरता गया। कुछ देर बाद वह सकुशल दूसरी ओर पहुँच गया।उस लड़के का नाम था ‘लालबहादुर शास्त्री’।
छः साल का एक लड़का अपने दोस्तों के साथ एक बगीचे में फूल तोड़ने के लिए घुस गया। उसके दोस्तों ने बहुत सारे फूल तोड़कर अपनी झोलियाँ भर लीं। वह लड़का सबसे छोटा और कमज़ोर होने के कारण सबसे पिछड़ गया। उसने पहला फूल तोड़ा ही था कि बगीचे का माली आ पहुँचा। दूसरे लड़के भागने में सफल हो गए लेकिन छोटा लड़का माली के हत्थे चढ़ गया। बहुत सारे फूलों के टूट जाने और दूसरे लड़कों के भाग जाने के कारण माली बहुत गुस्से में था। उसने अपना सारा क्रोध उस छः साल के बालक पर निकाला और उसे पीट दिया।नन्हे बच्चे ने माली से कहा – “आप मुझे इसलिए पीट रहे हैं क्योकि मेरे पिता नहीं हैं!”यह सुनकर माली का क्रोध जाता रहा। वह बोला – “बेटे, पिता के न होने पर तो तुम्हारी जिम्मेदारी और अधिक हो जाती है।”माली की मार खाने पर तो उस बच्चे ने एक आंसू भी नहीं बहाया था लेकिन यह सुनकर बच्चा बिलखकर रो पड़ा। यह बात उसके दिल में घर कर गई और उसने इसे जीवन भर नहीं भुलाया।उसी दिन से बच्चे ने अपने ह्रदय में यह निश्चय कर लिया कि वह कभी भी ऐसा कोई काम नहीं करेगा जिससे किसी का कोई नुकसान हो।उस लड़के का नाम था ‘लालबहादुर शास्त्री’।
लालबहादुर शास्त्री----------
(2 अक्तूबर, 1904 - 11 जनवरी, 1966),भारत के तीसरे और दूसरे स्थायी प्रधानमंत्री थे । वह 1963-1965 के बीच भारत के प्रधान मन्त्री थे। उनका जन्म मुगलसराय, उत्तर प्रदेश मे हुआ था।लालबहादुर शास्त्री का जन्म 1904 में मुगलसराय, उत्तर प्रदेश में लाल बहादुर श्रीवास्तव के रुप में हुआ था। उनके पिता शारदा प्रसाद एक गरीब शिक्षक थे, जो बाद में राजस्व कार्यालय में लिपिक (क्लर्क) बने।
भारत की स्वतंत्रता के पश्चात शास्त्रीजी को उत्तर प्रदेश के संसदीय सचिव के रुप में नियुक्त किया गया था। वो गोविंद बल्लभ पंत के मुख्यमंत्री के कार्यकाल में प्रहरी एवं यातायात मंत्री बने। यातायात मंत्री के समय में उन्होनें प्रथम बार किसी महिला को संवाहक (कंडक्टर) के पद में नियुक्त किया। प्रहरी विभाग के मंत्री होने के बाद उन्होने भीड़ को नियंत्रण में रखने के लिए लाठी के जगह पानी की बौछार का प्रयोग प्रारंभ कराया। 1951 में, जवाहर लाल नेहरु के नेतृत्व मे वह अखिल भारत काँग्रेस कमेटी के महासचिव नियुक्त किये गये। उन्होने 1952, 1957 व 1962 के चुनावों मे कांग्रेस पार्टी को भारी बहुमत से जिताने के लिए बहुत परिश्रम किया।जवाहरलाल नेहरू का उनके प्रधानमंत्री के कार्यकाल के दौरान 27 मई, 1964 को देहावसान हो जाने के बाद, शास्त्री जी ने 9 जुन 1964 को प्रधान मंत्री का पद भार ग्रहण किया।
शिक्षा------उनकी शिक्षा हरिशचंद्र उच्च विद्यालय और काशी विद्यापीठ में हुई थी। यहीं से उन्हें "शास्त्री" की उपाधि भी मिली जो उनके नाम के साथ जुड़ी रही।
जीवन------------अपने पिता मिर्ज़ापुर के श्री शारदा प्रसाद और अपनी माता श्रीमती रामदुलारी देवी के तीन पुत्रो में से वे दूसरे थे। शास्त्रीजी की दो बहनें भी थीं। शास्त्रीजी के शैशव मे ही उनके पिता का निधन हो गया। 1928 में उनका विवाह श्री गणेशप्रसाद की पुत्री ललितादेवी से हुआ और उनके छ: संतान हुई।स्नातक की शिक्षा समाप्त करने के पश्चात वो भारत सेवक संघ से जुड़ गये और देशसेवा का व्रत लेते हुये यहीं से अपने राजनैतिक जीवन की शुरुआत की। शास्त्रीजी विशुद्ध गाँधीवादी थे जो सारा जीवन सादगी से रहे और गरीबों की सेवा में अपनी पूरी जिंदगी को समर्पित किया। भारतीय स्वाधीनता संग्राम के सभी महत्वपूर्ण कार्यक्रमों में उनकी भागीदारी रही, और जेलों मे रहना पड़ा जिसमें 1921 का असहयोग आंदोलन और 1941 का सत्याग्रह आंदोलन सबसे प्रमुख है। उनके राजनैतिक दिग्दर्शकों में से श्री पुरुषोत्तमदास टंडन, पंडित गोविंदबल्लभ पंत, जवाहरलाल नेहरू इत्यादि प्रमुख हैं। 1929 में इलाहाबाद आने के बाद उन्होंने श्री टंडनजी के साथ भारत सेवक संघ के इलाहाबाद इकाई के सचिव के रूप में काम किया। यहीं उनकी नज़दीकी नेहरू से भी बढी। इसके बाद से उनका कद निरंतर बढता गया जिसकी परिणति नेहरू मंत्रिमंडल मे गृहमंत्री के तौर पर उनका शामिल होना था। इस पद पर वे 1951 तक बने रहे।शास्त्रीजी को उनकी सादगी, देशभक्ति और इमानदारी के लिये पूरा भारत श्रद्धापूर्वक याद करता है। उन्हे वर्ष 1966 मे भारत रत्न से सम्मनित किया गया।
भारत की स्वतंत्रता के पश्चात शास्त्रीजी को उत्तर प्रदेश के संसदीय सचिव के रुप में नियुक्त किया गया था। वो गोविंद बल्लभ पंत के मुख्यमंत्री के कार्यकाल में प्रहरी एवं यातायात मंत्री बने। यातायात मंत्री के समय में उन्होनें प्रथम बार किसी महिला को संवाहक (कंडक्टर) के पद में नियुक्त किया। प्रहरी विभाग के मंत्री होने के बाद उन्होने भीड़ को नियंत्रण में रखने के लिए लाठी के जगह पानी की बौछार का प्रयोग प्रारंभ कराया। 1951 में, जवाहर लाल नेहरु के नेतृत्व मे वह अखिल भारत काँग्रेस कमेटी के महासचिव नियुक्त किये गये। उन्होने 1952, 1957 व 1962 के चुनावों मे कांग्रेस पार्टी को भारी बहुमत से जिताने के लिए बहुत परिश्रम किया।जवाहरलाल नेहरू का उनके प्रधानमंत्री के कार्यकाल के दौरान 27 मई, 1964 को देहावसान हो जाने के बाद, शास्त्री जी ने 9 जुन 1964 को प्रधान मंत्री का पद भार ग्रहण किया।
शिक्षा------उनकी शिक्षा हरिशचंद्र उच्च विद्यालय और काशी विद्यापीठ में हुई थी। यहीं से उन्हें "शास्त्री" की उपाधि भी मिली जो उनके नाम के साथ जुड़ी रही।
जीवन------------अपने पिता मिर्ज़ापुर के श्री शारदा प्रसाद और अपनी माता श्रीमती रामदुलारी देवी के तीन पुत्रो में से वे दूसरे थे। शास्त्रीजी की दो बहनें भी थीं। शास्त्रीजी के शैशव मे ही उनके पिता का निधन हो गया। 1928 में उनका विवाह श्री गणेशप्रसाद की पुत्री ललितादेवी से हुआ और उनके छ: संतान हुई।स्नातक की शिक्षा समाप्त करने के पश्चात वो भारत सेवक संघ से जुड़ गये और देशसेवा का व्रत लेते हुये यहीं से अपने राजनैतिक जीवन की शुरुआत की। शास्त्रीजी विशुद्ध गाँधीवादी थे जो सारा जीवन सादगी से रहे और गरीबों की सेवा में अपनी पूरी जिंदगी को समर्पित किया। भारतीय स्वाधीनता संग्राम के सभी महत्वपूर्ण कार्यक्रमों में उनकी भागीदारी रही, और जेलों मे रहना पड़ा जिसमें 1921 का असहयोग आंदोलन और 1941 का सत्याग्रह आंदोलन सबसे प्रमुख है। उनके राजनैतिक दिग्दर्शकों में से श्री पुरुषोत्तमदास टंडन, पंडित गोविंदबल्लभ पंत, जवाहरलाल नेहरू इत्यादि प्रमुख हैं। 1929 में इलाहाबाद आने के बाद उन्होंने श्री टंडनजी के साथ भारत सेवक संघ के इलाहाबाद इकाई के सचिव के रूप में काम किया। यहीं उनकी नज़दीकी नेहरू से भी बढी। इसके बाद से उनका कद निरंतर बढता गया जिसकी परिणति नेहरू मंत्रिमंडल मे गृहमंत्री के तौर पर उनका शामिल होना था। इस पद पर वे 1951 तक बने रहे।शास्त्रीजी को उनकी सादगी, देशभक्ति और इमानदारी के लिये पूरा भारत श्रद्धापूर्वक याद करता है। उन्हे वर्ष 1966 मे भारत रत्न से सम्मनित किया गया।
2 अक्टूबर, गांधी एवं शास्त्री जयंती – अहिंसा से आगे बहुत कुछ और भी--
2 अक्टूबर है, बापू यानी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी (2 अक्टूबर, 1869 – 30 जनवरी, 1948) और देश के दूसरे प्रधानमंत्री स्वर्गीय लालबहादुर शास्त्री (2 अक्टूबर, 1904 – 11 जनवरी, 1966) की जन्मतिथि । दोनों का स्मरण करने और दोनों से किंचित् प्रेरणा लेने का दिन, हो सके तो ।जहां तक शास्त्रीजी का सवाल है उन्हें उनकी निष्ठा, देशभक्ति और सादगी के लिए याद किया जाता है, भले ही वैयक्तिक स्तर पर कम ही लोगों के लिए ये बातें आज सार्थक रह गयी हैं । प्रथम प्रधानमंत्री पंडित नेहरू की काबिना के एक ईमानदार मंत्री के तौर पर उनकी पहचान अवश्य रही है । किंतु प्रधानमंत्री के रूप में उनका कार्यकाल संक्षिप्त ही रहा, अतः उस भूमिका में वे कितना सफल रहे होते कह पाना आसान नहीं ।महात्मा गांधी की बात कुछ और ही रही है । उन्हें विश्व में अहिंसा के पुजारी के तौर पर जाना जाता है । संयुक्त राष्ट्र संगठन (UNO) ने तो आज के दिन (2 अक्टूबर) को ‘अहिंसा दिवस’ (Non-Violence Day) घोषित कर रखा है ।
मैं समझ नहीं पाता कि गांधीजी के विचारों को केवल अहिंसा के संदर्भ में ही क्यों महत्त्व दिया जाता है । क्या इसलिए कि आज के समय में जब चारों ओर हिंसात्मक घटनाएं नजर आ रही हैं, हर कोई अपने को असुरक्षित अनुभव कर रहा है ? यूं भौतिक (दैहिक तथा पदार्थगत) स्तर की हिंसा मानव समाज में सदा से ही रही है, परिवार के भीतर, परिवार-परिवार के बीच, विभिन्न समुदायों के बीच, और देशों के बीच । किंतु आतंकवाद के रूप में एक नये प्रकार की हिंसा का उदय हालिया वर्षों में हुआ है, जिससे हर कोई डरा-सहमा-सा दिखता है । जिस प्रकार की हिंसा आज देखने को मिल रही है वह अमीर-गरीब, राजनेता, उच्चपदस्थ प्रशासनिक अधिकारी, और आम आदमी सभी में असुरक्षा की भावना पैदा कर रही है । ऐसी स्थिति में हिंसात्मक घटनाओं की निंदा और अहिंसा की अहमियत पर जोर डालना ‘फैशनेबल’ बात बन गयी है । अन्यथा क्या मानव समाज के समक्ष अन्य प्रकार की अनेकों समस्याएं नहीं हैं, जिन पर ध्यान दिया जाना चाहिए और जिनके संदर्भ में गांधीजी के विचारों की चर्चा की जानी चाहिए ?
अहिंसा महात्मा गांधी के चिंतन-मनन और व्यवहार का एक हिस्सा भर रहा है, जिसे उन्होंने अपने राजनीतिक उद्येश्यों की प्राप्ति के लिए अपनाया था । अपने देश भारत की स्वतंत्रता-प्राप्ति में उनके अहिंसात्मक संघर्ष का कितना सफल योगदान रहा इस बात का निष्पक्ष आकलन करना मेरे मत में कठिन है । तथापि यह धारणा विश्व के राजनेताओं तथा बुद्धिजीवियों में व्याप्त है ही कि अहिंसा के प्रति उनके लगाव ने विदेशी शासकों को झुकने को विवश कर दिया था । अहिंसात्मक आचरण इक्का-दुक्का लोगों का हृदय परिवर्तन कर सकता है इसे मैं भी मानता हूं, किंतु व्यापक स्तर पर भी यह कारगर हो सकता है इस बात में मुझे शंका है । कुछ भी हो अहिंसा वांछनीय विचार तो है ही । पर क्या गांधीजी की बात केवल इसी अहिंसा के संदर्भ में की जानी चाहिए ? क्या उनके व्यक्तित्व के अन्य पहलुओं की चर्चा नहीं की जानी चाहिए ? क्या उन पहलुओं की आज की परिस्थितियों में प्रासंगिकता एवं अर्थवत्ता को नहीं स्वीकारा जाना चाहिए ?
वास्तव में महात्मा गांधी का व्यक्तित्व असाधारण था । वे जो सोचते थे उसे अमल में लाते थे और दूसरों के सामने अनुकरणीय दृष्टांत के रूप में प्रस्तुत करते थे । उनकी संकल्प शक्ति असामान्य थी । निःसंदेह उनके जैसा आत्मसंयमित, आत्मानुशासित व्यक्ति बन पाना आम आदमी के वश की बात नहीं है । तथापि कई बातें हैं जो हमारे द्वारा बिना बहुत कठिनाई के अथवा बड़े त्याग के स्वीकारी जा सकती हैं, जिनकी चर्चा उतने ही जोर-शोर से की जानी चाहिए जितनी अहिंसा की की जाती हैं । क्या हैं वे बातें जिन पर हमारा ध्यान जाना चाहिए ?
गांधीजी सादगी भरे जीवन के पक्षधर थे । दिखावे और तड़क-भड़क के वे विरोधी थे । लोगों की आलोचनाओं की परवाह किये बिना ही वे सीधे-सादे तरीके से पेश आते थे । कितने लोग हैं आज के युग में जो उनकी तरह का सादगी भरी जिंदगी जीने को तैयार हैं, विवशता में नहीं, बल्कि संपन्न होने के बावजूद ? आज के हिंदुस्तान में शायद कोई भी व्यक्ति अपनी संपन्नता के नग्न प्रदर्शन से परहेज नहीं करता है । दुर्भाग्य से यह बात उन राजनीतिक तथा सामाजिक कार्यों में संलग्न लोगों पर भी लागू होती हैं जो गांधीजी का नाम मौके-बेमौके लेते रहते हैं । समर्थ हों फिर भी सादगी से रहते हों ऐसे कुछ अपवाद अवश्य होंगे ।
गांधीजी सामाजिक भेदभाव के सख्त विरोधी थे । जाति और धर्म के नाम पर जितना भेदभाव बरताव अपने देश में होता है उतना शायद अन्यत्र नहीं होगा । महात्मा को राष्ट्रपिता कहने वाले हम आज तक सामाजिक समानता के उनके विचारों को नहीं अपना सके हैं । जातिवाद और धार्मिक भेदवाद वैयक्तिक स्तर ही हम नहीं अपनाये बैठे हैं, बल्कि वह हमारी राजनीति का अभिन्न अंग बन चुका है । भेदभाव की ऐसी नीति को उचित ठहराने में शायद ही किसी को लज्जा आती हो ।
गांधीजी श्रम के भी पुजारी थे । उनका मत था कि हर व्यक्ति को अपना कार्य यथासंभव स्वयं करना चाहिए और किसी कार्य को छोटे-बड़े की दृष्टि से नहीं देखा जाना चाहिए । हर उस कार्य को सम्मान दिया जाना चाहिए, जिसकी आवश्यकता स्वीकारी जाती हो और जिसे किसी न किसी ने संपन्न करना ही हो । किसी को इसलिए छोटा समझा जाये कि वह शारीरिक कार्य करता हो उचित नहीं है । उनके चिंतन पर गौर करें तो यही समझ में आएगा कि महात्मा गांधी शारीरिक श्रम को बौद्धिक श्रम की तुलना में तुच्छ एवं असम्मानजनक नहीं मानते थे । यह सत्य है कि दैहिक श्रम के बिना मानव समाज नहीं टिक सकता है । सर्वत्र ऐसे श्रमसाध्य अपरिहार्य कार्यों में लोग लगें हैं, किंतु उन्हें सम्मान के नजर से नहीं देखा जाता है । अपने देश में तो वे तिरस्कृत ही दिखते हैं । कहां है महात्मा की भावनाओं के प्रति सम्मान ? वर्तमान काल में जब वैश्विक स्तर पर यह भय व्यक्त किया जा रहा है कि हम कहीं ‘अचिरस्थाई विकास’ (unsustainable development) के भंवर में तो नहीं फंस गये हैं, और यह कि फलतः कहीं मानव समाज आत्मविनाश की ओर तो नहीं बढ़ रहा है, गांधीजी के श्रम संबंधी विचार अधिक प्रासंगिक हो जाते हैं । उनके अनुसार मशीनों पर हमारी निर्भरता कम होनी चाहिए और ऊर्जा की खपत पर हमें अंकुश लगाना चाहिए । कितने लोग होंगे जो उनसे सहमत होंगे और कितने होंगे जो ऐशोआराम की जिंदगी अंशतः भी छोड़ना चाहेंगे ?
गांधीजी समाज में व्याप्त आर्थिक विषमता के घोर विरोधी थे । वे ऐसी सामाजिक तथा राजनीतिक व्यवस्था के पक्षधर थे, जिसमें लोगों के मध्य आर्थिक विसंगति घटे । वे अगर आज हमारे बीच होते तो अवश्य ही उस वैश्विक अर्थव्यवस्था के विरुद्ध बोलते जो संपन्न को अधिक संपन्न और निर्धन को अधिक निर्धन बना रही है । सारी दुनिया में सामाजिक विचारक यह अनुभव कर रहे हैं कि सर्वत्र आर्थिक विसंगति बढ़ रही है । अपने देश की स्थिति तो अधिक ही दयनीय है । यहां एक ओर संपदासंपन्न जन हैं जो विश्व के धनाड्यतम लोगों में से हैं, तो वहीं दस-बीस प्रतिशत यानी दस-बीस करोड़ लोग निर्धनता की अति का जीवन बिता रहे हैं । विषमता सारे विश्व में हैं, किंतु अपने देश की जैसी नहीं, जहां एक-दो नहीं करोड़ों की संख्या में लोग भूखे पेट रात बिताने को मजबूर रहते हैं । महात्मा गांधी के अहिंसा-सिद्धांत की बात करने के पूर्व हमें इस प्रकार की बातों पर भी चिंतन कर लेना चाहिए ।
गांधीजी देश के गांवों और वहां की कृषि के विकास के हिमायती थे । वे इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं करना चाहते थे कि यहां के अधिसंख्य लोग कृषि पर निर्भर हैं, और यह भी कि यहां अप्रशिक्षित श्रमिकों की फौज है, जो केवल शारीरिक श्रम कर सकती है, परंतु किसी कार्य-कौशल में दक्ष नहीं है । आज देश के नीति-निर्माताओं का जोर आधुनिकतम प्रौद्योगिकी पर आधारित उद्योगों को आगे बढ़ाने तक सामित है । उनका ध्यान उन छोटे-मोटे उद्योग-धंधों की ओर नहीं है, जो समाज के असंपन्न वर्ग के जीवनाधार हैं ।
गांधीजी आज हमारे बीच होते तो देश की मौजूदा दोहरी शिक्षा नीति का अवश्य ही खुला विरोध करते । आज देश में दो समांतर शिक्षण व्यवस्थाएं चल रही है, एक अंग्रेजी आधारित व्यवस्था जिसे येनकेन प्रकारेण अपने पूरी आमदनी लगाकर बच्चों के लिए अपनाने को अधिसंख्य लोग विवश हैं, तो दूसरी ओर वह व्यवस्था है जो समाज के कमजोर असंपन्न लोगों के लिए बची रह जाती है, जहां शिक्षा के यह हाल हैं कि प्राथमिक स्तर पार कर चुकने के बाद भी अनेकों बच्चे अपना नाम क्षेत्रीय भाषा माध्यम में भी लिख नहीं सकते हैं । अंग्रेजी स्कूल खुलकर भारतीय भाषाओं का विरोध नहीं करते हैं, किंतु वहां यह परोक्ष संदेश अवश्य मिलता है कि अपनी भाषाओं की कोई अहमियत नहीं है, और यह कि अंग्रेजी के बिना व्यक्ति और देश आगे नहीं बढ़ सकते हैं । जिस अंग्रेजी के संदर्भ में गांधी को यह कहते बताया जाता है कि “दुनिया को बता दें कि गांधी अंग्रेजी नहीं जानता है ।” उसी अंग्रेजी को अब अपरिहार्य घोषित किया जा रहा है । ठीक है कि अंग्रेजी की स्वयं में अहमियत है – खास अहमियत है – लेकिन इस तथ्य को भुलाया नहीं जा सकता है कि यह सामाजिक विभाजन का एक कारण भी बन रहा है । देश आज संपन्न ‘इंडिया’ एवं पीछे छूटते ‘भारत’ में बंट रहा है । समाज वैसे ही तरह-तरह से बंटा है, और यह एक अतिरिक्त विभाजक समाज में प्रवेश में कर चुका है । समाज में एक ऐसा वर्ग जन्म ले रहा है जिसका तेजी से पाश्चात्यीकरण हो रहा है, और जो अपनी सांस्कृतिक जड़ों से कटता जा रहा है । महात्मा गांधी के लिए अवश्य ही आज की स्थिति विचलित करने वाली होती । तो क्या इन बातों पर विचार नहीं होना चाहिए ?
गांधीजी को शेष विश्व अहिंसा से जोड़ता है, क्योंकि उसके लिए व्यापक होती जा रही संगठित हिंसा एक गंभीर समस्या बन चुकी है । लेकिन क्या हम देशवासियों के लिए भी गांधी मात्र अहिंसा तक सीमित हैं ? क्या उनके समग्र चिंतन-मनन की कोई महत्ता नहीं है ? क्या उनके विचारों के अनुरूप आचरण अपनाने – अंशतः ही सही, कुछ तो – पर जोर नहीं दिया जाना चाहिए ? इस देश के लिए भी हिंसा चिंता का विषय है अवश्य, पर उसके आगे भी बहुत कुछ है जो कम माने नहीं रखता है । काश कि देशवासी कुछ तो गांधीजी को सम्मान देते, केवल शब्दों में नहीं आचरण में भी, अपनी करनी में भी । और कुछ ऐसा ही शास्त्रीजी को लेकर भी सोचा जा सकता है ।
मैं समझ नहीं पाता कि गांधीजी के विचारों को केवल अहिंसा के संदर्भ में ही क्यों महत्त्व दिया जाता है । क्या इसलिए कि आज के समय में जब चारों ओर हिंसात्मक घटनाएं नजर आ रही हैं, हर कोई अपने को असुरक्षित अनुभव कर रहा है ? यूं भौतिक (दैहिक तथा पदार्थगत) स्तर की हिंसा मानव समाज में सदा से ही रही है, परिवार के भीतर, परिवार-परिवार के बीच, विभिन्न समुदायों के बीच, और देशों के बीच । किंतु आतंकवाद के रूप में एक नये प्रकार की हिंसा का उदय हालिया वर्षों में हुआ है, जिससे हर कोई डरा-सहमा-सा दिखता है । जिस प्रकार की हिंसा आज देखने को मिल रही है वह अमीर-गरीब, राजनेता, उच्चपदस्थ प्रशासनिक अधिकारी, और आम आदमी सभी में असुरक्षा की भावना पैदा कर रही है । ऐसी स्थिति में हिंसात्मक घटनाओं की निंदा और अहिंसा की अहमियत पर जोर डालना ‘फैशनेबल’ बात बन गयी है । अन्यथा क्या मानव समाज के समक्ष अन्य प्रकार की अनेकों समस्याएं नहीं हैं, जिन पर ध्यान दिया जाना चाहिए और जिनके संदर्भ में गांधीजी के विचारों की चर्चा की जानी चाहिए ?
अहिंसा महात्मा गांधी के चिंतन-मनन और व्यवहार का एक हिस्सा भर रहा है, जिसे उन्होंने अपने राजनीतिक उद्येश्यों की प्राप्ति के लिए अपनाया था । अपने देश भारत की स्वतंत्रता-प्राप्ति में उनके अहिंसात्मक संघर्ष का कितना सफल योगदान रहा इस बात का निष्पक्ष आकलन करना मेरे मत में कठिन है । तथापि यह धारणा विश्व के राजनेताओं तथा बुद्धिजीवियों में व्याप्त है ही कि अहिंसा के प्रति उनके लगाव ने विदेशी शासकों को झुकने को विवश कर दिया था । अहिंसात्मक आचरण इक्का-दुक्का लोगों का हृदय परिवर्तन कर सकता है इसे मैं भी मानता हूं, किंतु व्यापक स्तर पर भी यह कारगर हो सकता है इस बात में मुझे शंका है । कुछ भी हो अहिंसा वांछनीय विचार तो है ही । पर क्या गांधीजी की बात केवल इसी अहिंसा के संदर्भ में की जानी चाहिए ? क्या उनके व्यक्तित्व के अन्य पहलुओं की चर्चा नहीं की जानी चाहिए ? क्या उन पहलुओं की आज की परिस्थितियों में प्रासंगिकता एवं अर्थवत्ता को नहीं स्वीकारा जाना चाहिए ?
वास्तव में महात्मा गांधी का व्यक्तित्व असाधारण था । वे जो सोचते थे उसे अमल में लाते थे और दूसरों के सामने अनुकरणीय दृष्टांत के रूप में प्रस्तुत करते थे । उनकी संकल्प शक्ति असामान्य थी । निःसंदेह उनके जैसा आत्मसंयमित, आत्मानुशासित व्यक्ति बन पाना आम आदमी के वश की बात नहीं है । तथापि कई बातें हैं जो हमारे द्वारा बिना बहुत कठिनाई के अथवा बड़े त्याग के स्वीकारी जा सकती हैं, जिनकी चर्चा उतने ही जोर-शोर से की जानी चाहिए जितनी अहिंसा की की जाती हैं । क्या हैं वे बातें जिन पर हमारा ध्यान जाना चाहिए ?
गांधीजी सादगी भरे जीवन के पक्षधर थे । दिखावे और तड़क-भड़क के वे विरोधी थे । लोगों की आलोचनाओं की परवाह किये बिना ही वे सीधे-सादे तरीके से पेश आते थे । कितने लोग हैं आज के युग में जो उनकी तरह का सादगी भरी जिंदगी जीने को तैयार हैं, विवशता में नहीं, बल्कि संपन्न होने के बावजूद ? आज के हिंदुस्तान में शायद कोई भी व्यक्ति अपनी संपन्नता के नग्न प्रदर्शन से परहेज नहीं करता है । दुर्भाग्य से यह बात उन राजनीतिक तथा सामाजिक कार्यों में संलग्न लोगों पर भी लागू होती हैं जो गांधीजी का नाम मौके-बेमौके लेते रहते हैं । समर्थ हों फिर भी सादगी से रहते हों ऐसे कुछ अपवाद अवश्य होंगे ।
गांधीजी सामाजिक भेदभाव के सख्त विरोधी थे । जाति और धर्म के नाम पर जितना भेदभाव बरताव अपने देश में होता है उतना शायद अन्यत्र नहीं होगा । महात्मा को राष्ट्रपिता कहने वाले हम आज तक सामाजिक समानता के उनके विचारों को नहीं अपना सके हैं । जातिवाद और धार्मिक भेदवाद वैयक्तिक स्तर ही हम नहीं अपनाये बैठे हैं, बल्कि वह हमारी राजनीति का अभिन्न अंग बन चुका है । भेदभाव की ऐसी नीति को उचित ठहराने में शायद ही किसी को लज्जा आती हो ।
गांधीजी श्रम के भी पुजारी थे । उनका मत था कि हर व्यक्ति को अपना कार्य यथासंभव स्वयं करना चाहिए और किसी कार्य को छोटे-बड़े की दृष्टि से नहीं देखा जाना चाहिए । हर उस कार्य को सम्मान दिया जाना चाहिए, जिसकी आवश्यकता स्वीकारी जाती हो और जिसे किसी न किसी ने संपन्न करना ही हो । किसी को इसलिए छोटा समझा जाये कि वह शारीरिक कार्य करता हो उचित नहीं है । उनके चिंतन पर गौर करें तो यही समझ में आएगा कि महात्मा गांधी शारीरिक श्रम को बौद्धिक श्रम की तुलना में तुच्छ एवं असम्मानजनक नहीं मानते थे । यह सत्य है कि दैहिक श्रम के बिना मानव समाज नहीं टिक सकता है । सर्वत्र ऐसे श्रमसाध्य अपरिहार्य कार्यों में लोग लगें हैं, किंतु उन्हें सम्मान के नजर से नहीं देखा जाता है । अपने देश में तो वे तिरस्कृत ही दिखते हैं । कहां है महात्मा की भावनाओं के प्रति सम्मान ? वर्तमान काल में जब वैश्विक स्तर पर यह भय व्यक्त किया जा रहा है कि हम कहीं ‘अचिरस्थाई विकास’ (unsustainable development) के भंवर में तो नहीं फंस गये हैं, और यह कि फलतः कहीं मानव समाज आत्मविनाश की ओर तो नहीं बढ़ रहा है, गांधीजी के श्रम संबंधी विचार अधिक प्रासंगिक हो जाते हैं । उनके अनुसार मशीनों पर हमारी निर्भरता कम होनी चाहिए और ऊर्जा की खपत पर हमें अंकुश लगाना चाहिए । कितने लोग होंगे जो उनसे सहमत होंगे और कितने होंगे जो ऐशोआराम की जिंदगी अंशतः भी छोड़ना चाहेंगे ?
गांधीजी समाज में व्याप्त आर्थिक विषमता के घोर विरोधी थे । वे ऐसी सामाजिक तथा राजनीतिक व्यवस्था के पक्षधर थे, जिसमें लोगों के मध्य आर्थिक विसंगति घटे । वे अगर आज हमारे बीच होते तो अवश्य ही उस वैश्विक अर्थव्यवस्था के विरुद्ध बोलते जो संपन्न को अधिक संपन्न और निर्धन को अधिक निर्धन बना रही है । सारी दुनिया में सामाजिक विचारक यह अनुभव कर रहे हैं कि सर्वत्र आर्थिक विसंगति बढ़ रही है । अपने देश की स्थिति तो अधिक ही दयनीय है । यहां एक ओर संपदासंपन्न जन हैं जो विश्व के धनाड्यतम लोगों में से हैं, तो वहीं दस-बीस प्रतिशत यानी दस-बीस करोड़ लोग निर्धनता की अति का जीवन बिता रहे हैं । विषमता सारे विश्व में हैं, किंतु अपने देश की जैसी नहीं, जहां एक-दो नहीं करोड़ों की संख्या में लोग भूखे पेट रात बिताने को मजबूर रहते हैं । महात्मा गांधी के अहिंसा-सिद्धांत की बात करने के पूर्व हमें इस प्रकार की बातों पर भी चिंतन कर लेना चाहिए ।
गांधीजी देश के गांवों और वहां की कृषि के विकास के हिमायती थे । वे इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं करना चाहते थे कि यहां के अधिसंख्य लोग कृषि पर निर्भर हैं, और यह भी कि यहां अप्रशिक्षित श्रमिकों की फौज है, जो केवल शारीरिक श्रम कर सकती है, परंतु किसी कार्य-कौशल में दक्ष नहीं है । आज देश के नीति-निर्माताओं का जोर आधुनिकतम प्रौद्योगिकी पर आधारित उद्योगों को आगे बढ़ाने तक सामित है । उनका ध्यान उन छोटे-मोटे उद्योग-धंधों की ओर नहीं है, जो समाज के असंपन्न वर्ग के जीवनाधार हैं ।
गांधीजी आज हमारे बीच होते तो देश की मौजूदा दोहरी शिक्षा नीति का अवश्य ही खुला विरोध करते । आज देश में दो समांतर शिक्षण व्यवस्थाएं चल रही है, एक अंग्रेजी आधारित व्यवस्था जिसे येनकेन प्रकारेण अपने पूरी आमदनी लगाकर बच्चों के लिए अपनाने को अधिसंख्य लोग विवश हैं, तो दूसरी ओर वह व्यवस्था है जो समाज के कमजोर असंपन्न लोगों के लिए बची रह जाती है, जहां शिक्षा के यह हाल हैं कि प्राथमिक स्तर पार कर चुकने के बाद भी अनेकों बच्चे अपना नाम क्षेत्रीय भाषा माध्यम में भी लिख नहीं सकते हैं । अंग्रेजी स्कूल खुलकर भारतीय भाषाओं का विरोध नहीं करते हैं, किंतु वहां यह परोक्ष संदेश अवश्य मिलता है कि अपनी भाषाओं की कोई अहमियत नहीं है, और यह कि अंग्रेजी के बिना व्यक्ति और देश आगे नहीं बढ़ सकते हैं । जिस अंग्रेजी के संदर्भ में गांधी को यह कहते बताया जाता है कि “दुनिया को बता दें कि गांधी अंग्रेजी नहीं जानता है ।” उसी अंग्रेजी को अब अपरिहार्य घोषित किया जा रहा है । ठीक है कि अंग्रेजी की स्वयं में अहमियत है – खास अहमियत है – लेकिन इस तथ्य को भुलाया नहीं जा सकता है कि यह सामाजिक विभाजन का एक कारण भी बन रहा है । देश आज संपन्न ‘इंडिया’ एवं पीछे छूटते ‘भारत’ में बंट रहा है । समाज वैसे ही तरह-तरह से बंटा है, और यह एक अतिरिक्त विभाजक समाज में प्रवेश में कर चुका है । समाज में एक ऐसा वर्ग जन्म ले रहा है जिसका तेजी से पाश्चात्यीकरण हो रहा है, और जो अपनी सांस्कृतिक जड़ों से कटता जा रहा है । महात्मा गांधी के लिए अवश्य ही आज की स्थिति विचलित करने वाली होती । तो क्या इन बातों पर विचार नहीं होना चाहिए ?
गांधीजी को शेष विश्व अहिंसा से जोड़ता है, क्योंकि उसके लिए व्यापक होती जा रही संगठित हिंसा एक गंभीर समस्या बन चुकी है । लेकिन क्या हम देशवासियों के लिए भी गांधी मात्र अहिंसा तक सीमित हैं ? क्या उनके समग्र चिंतन-मनन की कोई महत्ता नहीं है ? क्या उनके विचारों के अनुरूप आचरण अपनाने – अंशतः ही सही, कुछ तो – पर जोर नहीं दिया जाना चाहिए ? इस देश के लिए भी हिंसा चिंता का विषय है अवश्य, पर उसके आगे भी बहुत कुछ है जो कम माने नहीं रखता है । काश कि देशवासी कुछ तो गांधीजी को सम्मान देते, केवल शब्दों में नहीं आचरण में भी, अपनी करनी में भी । और कुछ ऐसा ही शास्त्रीजी को लेकर भी सोचा जा सकता है ।
गांधी जयंती एवं अंताराष्ट्रीय अहिंसा दिवस: निष्प्रभावी हो चुका गांधी का अहिंसा सिद्धांत---
2 अक्टूबर, गांधी जयंती है । इसी दिन हमारे पूर्वप्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का भी जन्मदिन है । गांधी जयंती हम दशकों से मनाते आ रहे हैं, और अब तो ‘अंताराष्ट्रीय अहिंसा दिवस’ (International Nonviolence Day) के तौर पर उसे विश्व स्तर के दिवस का दर्जा भी मिल चुका है । औपचारिकता के नाते ही सही, गांधी को याद करने वाले कम नहीं हैं । उस दिन की सरकारी छुट्टी प्रायः हर किसी को गांधी की याद तो दिला ही जाती है । लेकिन शास्त्रीजी का भी यही जन्मदिन है यह बात शायद कम ही लोगों के ध्यान में आती होगी । उनके संक्षिप्त प्रधानमंत्रित्व काल और तासकंद में उनकी ‘रहस्यमय’ मृत्यु का कुछ स्मरण तो बुढ़ा रही मेरी पीढ़ी के लोगों को होगा ही ।
उन दोनों दिवंगत जननेताओं – एक तो महात्मा ही माने जाते हैं – को मैं श्रद्धांजलि पेश करता हूं । इसके अतिरिक्त मैं कर भी क्या सकता हूं भला ! उनकी जो बातें मुझे ठीक लगती हैं उन्हें अपनाने की भरसक कोशिश करते ही आ रहा हूं । यह भी बता दूं कि उनकी हर बात, खासकर गांधीजी की, हर बात मुझे सही नहीं लगती है । शास्त्रीजी के बारे में बहुत कुछ कहने को नहीं है । उन्हें एक ईमानदार राजनेता एवं प्रधानमंत्री के तौर पर जाना जाता है । बस इतना ही काफी है । किंतु गांधीजी के बारे में बहुत कुछ कहा जा सकता है । वे विवादों से पूरी तरह परे रहे हों और सभी उन्हें समान रूप से सम्मान देते आए हों ऐसा नहीं हैं ।
श्रद्धा का आधार-----अस्तु इस अवसर पर गांधीजी को लेकर एक टिप्पणी प्रस्तुत करने का मन है मेरा । गांधीजी को सारे विश्व में अहिंसा के पुजारी के तौर पर जाना जाता है । किंतु लोग यह भूल जाते हैं कि अहिंसा उनके विचारों या जीवन दर्शन का मात्र एक पहलू था । क्या और कुछ भी ऐसा नहीं रहा है जिसके लिए उन्हें याद किया जाए ? दूसरे शब्दों में क्या कुछ ऐसी बातें गांधी-दर्शन में नहीं रही हैं जो अहिंसा के भी ऊपर हों ? क्या कारण है कि उन्हें केवल अहिंसा के लिए इतना याद किया जाता है ?
गांधीजी उन गिने-चुने महान् व्यक्तियों में से एक हैं जिनको मैं विशेष श्रद्धा के साथ याद करता हूं । बमुश्किल आठ-दश लोग होंगे, बस । दुर्भाग्य से वर्तमान समय में एक भी नहीं जिसे मैं श्रद्धेय पाता हूं । फिर भी मैं गांधीजी की हर बात को सही नहीं मानता, उनका हर विचार या व्यवहार मेरे लिये स्वीकार्य नहीं है । उन बातों को लेकर मैं उनकी आलोचना करने से नहीं हिचकता । मैं उन्हें श्रद्धेय इसलिए मानता हूं कि वे संकल्प के धनी थे, उनकी करनी और कथनी में पर्याप्त संगति रहती थी, जो आज के अतिसम्मानित माने जाने वाले किसी चर्चित व्यक्ति में नहीं दिखाई देती है । वे समाजहित के प्रति संवेदनशील थे । उनके इरादे नेक थे । उनमें अनेकों ऐसी बातें थीं जो बिरले लोगों में ही देखने को मिलती हैं । फिर भी मेरी दृष्टि में अहिंसा उनके विचारों का सर्वाधिक कमजोर पक्ष था । इस माने में मैं गांधीजी को एक भ्रमित व्यक्ति मानता हूं । कैसे यही मैं स्पष्ट करना चाहता हूं ।
अहिंसा की बात-----हिंसा प्राणीमात्र की एक कमजोरी है, ठीक वैसे ही जैसे भूख-प्यास, भय, क्रोध, काम (यौनेच्छा), छल, वर्चस्व, प्रेम, करुणा, आदि । अविकसित जीवधारियों में ये बहुत स्पष्ट तौर पर नहीं दिखाई देते हैं, किंतु विकसित में कमोबेश नजर आ ही जाते हैं । और मनुष्यों में तो इससे आगे बहुत कुछ और भी देखने को मिलता है, जैसे धन-संपदा संग्रह करने की लालसा, दूसरे को अपनी हैसियत दिखाने की प्रवृत्ति, निंदा-प्रशंसा करना, एवं उनसे प्रभावित होना, बदले की भावना, और अहंकार, इत्यादि । शायद ही कोई व्यक्ति हो जो इनसे मुक्त हो । लेकिन इन सबके ऊपर विवेक है जो मनुष्य को अन्य जीवधारियों से भिन्न बनाता है । यही विवेक उसे अपनी तमाम कमजोरियों का ‘दमन’ अथवा ‘शमन’ करने को प्रेरित करता है, उसी के बल पर वह स्थिति को नियंत्रण में रखता है । विवेक के कारण ही प्राचीन मनीषियों ने मानव योनि को कर्मयोनि एवं अन्यों को भोगयोनि कहा है ।
किंतु विवेक की तीव्रता तथा उसकी प्रभाविता सबमें समान रूप से विद्यमान नहीं रहती हैं । अनुभव बताता है कि जहां एक ओर लोग दूसरों के कष्ट से स्वयं दुःखी होते हैं, तो वहीं अन्य दूसरों को कष्ट में देख या उन्हें कष्ट देकर आनंदित भी होते हैं । आप राक्षसी वृत्ति कहकर इस प्रवृत्ति की निंदा कर सकते हैं, लेकिन इसके अस्तित्व को मानने से इनकार नहीं कर सकते हैं और न ही उसे मिटा सकते हैं । जो है सो है ही, हमें अच्छा और स्वीकार्य लगे या बुरा तथा अवांछित, कोई माने नहीं रखता है । मनुष्यों में अवगुण क्यों होते हैं, वे कहां से आते हैं, उनसे मुक्ति कैसे मिल सकती है, जैसे प्रश्नों के बारे में तमाम तरह के मत हो सकते हैं । मैं उनकी चर्चा में नहीं पड़ता, मैं तो इस बात पर जोर डालना चाहता हूं कि लोगों में गुण-अवगुण कमोबेश होते ही हैं, किसी में बेहद कम तो किसी में बेहद अधिक भी । और यही तथ्य व्यवहार में माने रहता है ।
अवगुणों से आप मानव समुदाय को मुक्त नहीं कर सकते हैं । संभव है कि आप किसी एक को या कुछएक को प्रेरित कर लें, उन्हें अवगुणों से मुक्त कर लें, किंतु सब पर प्रभाव नहीं डाल सकते हैं । इतिहास साक्षी है कि कभी भी ऐसा कोई महापुरुष पैदा नहीं हुआ है जो पूरे समाज को ‘रास्ते’ में ला सका हो, यहां तक कि उन लोगों को भी नहीं जो उसके अनुयायी होने का दम्भ भरते हों । अगर ऐसा होता तो बुद्ध, महावीर या ईसा के ‘तथाकथित’ अनुयायी अहिंसक होते । यह भरोसा करना भी मूर्खता होगी कि वारंवार के अनुनय-विनय से कोई व्यक्ति मान ही जाएगा और उस रास्ते पर चल पड़ेगा जिसे श्रेयस्कर बताया गया हो ।
प्रभावी है क्या अहिंसा का मार्ग?------मेरी दृष्टि में अहिंसा के रास्ते को ही एकमात्र एवं उचित रास्ता बताना गांधीजी की कमजोरी थी । वे यह मानते थे, जितना मैं समझ पाया हूं, कि अहिंसक विरोध या असहयोग के माध्यम से आप दूसरों को अपने पक्ष में कर सकते हैं । किंतु ऐसा मानना आम सामाजिक अनुभव को नकारना है । यह संभव है कि जिस व्यक्ति में संवेदनशीलता तथा उदारता का पर्याप्त अंश हो वह आपके निरंतर चल रहे विरोध से पसीज जाए और आपकी बात मान ले । लेकिन ऐसा सभी के साथ नहीं हो सकता है । ऐसे लोग भी इस धरती पर मिलेंगे, जो आपके विरोध पर और अधिक उग्र एवं कठोर हो जाएंगे । आपका विरोध यदि किसी के अहंभाव को ठेस पहुंचावे तो वह शायद ही आपकी बात माने । जैसे आप अपनी बात पर अड़े रहें, यह दावा करते हुए कि आप सही हैं, वैसे ही वह भी अपनी जिद नहीं छोड़ने वाला । तब आपका अहिंसक विरोध निष्फल होना ही है ।
असल तथ्य यह है कि हिंसक आंदोलन अधिक प्रभावी होता है । ऐसा सुनना बृहत्तर जनसमुदाय को अच्छा नहीं लगेगा । परंतु यह समाज की एक वास्तविकता है, ऐसा मेरा मानना है । इस बात को नकारा नहीं जा सकता है कि कोई भी जीवधारी भय की सहज वृत्ति से मुक्त नहीं होता है, मनुष्य भी नहीं । अवश्य ही कुछएक मनुष्य सिद्धांतों के प्रति इतने समर्पित हो सकते है कि भय की भावना कमजोर पड़ जाए । किंतु ऐसा अपवाद-स्वरूप कभी-कभार होता है न कि सामान्यतः । ऐसे अपवादों को छोड़ दें तो अधिसंख्य लोग भय के वश में रहते हैं । हिंसा की संभावना इस भय की जननी होती है । इसलिए अहिंसा की तुलना में हिंसा कहीं अधिक प्रभावी होती है, भले ही हम अहिंसा की बात जोरशोर से करें ।
सामाजिक व्यवस्थाएं हिंसा पर आधारित होती हैं - ऐसी हिंसा जिसे वैधानिक मान्यता मिली रहती है । राष्ट्रों के बीच शांति एवं समझौता सैनिक-हिंसा के भय पर ही आधारित रहती है । राष्ट्र के भीतर भी व्यवस्था हिंसक बल-प्रयोग से ही संभव हो पाती है । आज तो स्थिति इतनी विकट हो चुकी है कि अहिंसक आंदोलनों को सरकारें एवं संस्थाएं नजरअंदाज कर देती हैं । संवाद-प्रक्रिया भी तभी स्थापित हो पाती है जब आप हिंसक आंदोलन पर उतरते हैं या उसका भय विरोधी पक्ष को दिखाते हैं ।
मानव समाज में आदर्श मूल्य कभी भी पूर्णरूपेण स्थापित रहे होंगे यह मैं नहीं मान सकता, तथाकथित सत्ययुग में भी, फिर भी हालात इतने बुरे शायद नहीं रहे होंगे । आज मूल्यों में काफी गिरावट आ चुकी है, और लक्ष्य-प्राप्ति में हिंसा एक प्रभावी हथियार बन चुका है । मुझे लगता है कि गांधीजी के अहिंसा-सिद्धांत की व्यावहारिक प्रभाविता अब बाकी नहीं बची है i
उन दोनों दिवंगत जननेताओं – एक तो महात्मा ही माने जाते हैं – को मैं श्रद्धांजलि पेश करता हूं । इसके अतिरिक्त मैं कर भी क्या सकता हूं भला ! उनकी जो बातें मुझे ठीक लगती हैं उन्हें अपनाने की भरसक कोशिश करते ही आ रहा हूं । यह भी बता दूं कि उनकी हर बात, खासकर गांधीजी की, हर बात मुझे सही नहीं लगती है । शास्त्रीजी के बारे में बहुत कुछ कहने को नहीं है । उन्हें एक ईमानदार राजनेता एवं प्रधानमंत्री के तौर पर जाना जाता है । बस इतना ही काफी है । किंतु गांधीजी के बारे में बहुत कुछ कहा जा सकता है । वे विवादों से पूरी तरह परे रहे हों और सभी उन्हें समान रूप से सम्मान देते आए हों ऐसा नहीं हैं ।
श्रद्धा का आधार-----अस्तु इस अवसर पर गांधीजी को लेकर एक टिप्पणी प्रस्तुत करने का मन है मेरा । गांधीजी को सारे विश्व में अहिंसा के पुजारी के तौर पर जाना जाता है । किंतु लोग यह भूल जाते हैं कि अहिंसा उनके विचारों या जीवन दर्शन का मात्र एक पहलू था । क्या और कुछ भी ऐसा नहीं रहा है जिसके लिए उन्हें याद किया जाए ? दूसरे शब्दों में क्या कुछ ऐसी बातें गांधी-दर्शन में नहीं रही हैं जो अहिंसा के भी ऊपर हों ? क्या कारण है कि उन्हें केवल अहिंसा के लिए इतना याद किया जाता है ?
गांधीजी उन गिने-चुने महान् व्यक्तियों में से एक हैं जिनको मैं विशेष श्रद्धा के साथ याद करता हूं । बमुश्किल आठ-दश लोग होंगे, बस । दुर्भाग्य से वर्तमान समय में एक भी नहीं जिसे मैं श्रद्धेय पाता हूं । फिर भी मैं गांधीजी की हर बात को सही नहीं मानता, उनका हर विचार या व्यवहार मेरे लिये स्वीकार्य नहीं है । उन बातों को लेकर मैं उनकी आलोचना करने से नहीं हिचकता । मैं उन्हें श्रद्धेय इसलिए मानता हूं कि वे संकल्प के धनी थे, उनकी करनी और कथनी में पर्याप्त संगति रहती थी, जो आज के अतिसम्मानित माने जाने वाले किसी चर्चित व्यक्ति में नहीं दिखाई देती है । वे समाजहित के प्रति संवेदनशील थे । उनके इरादे नेक थे । उनमें अनेकों ऐसी बातें थीं जो बिरले लोगों में ही देखने को मिलती हैं । फिर भी मेरी दृष्टि में अहिंसा उनके विचारों का सर्वाधिक कमजोर पक्ष था । इस माने में मैं गांधीजी को एक भ्रमित व्यक्ति मानता हूं । कैसे यही मैं स्पष्ट करना चाहता हूं ।
अहिंसा की बात-----हिंसा प्राणीमात्र की एक कमजोरी है, ठीक वैसे ही जैसे भूख-प्यास, भय, क्रोध, काम (यौनेच्छा), छल, वर्चस्व, प्रेम, करुणा, आदि । अविकसित जीवधारियों में ये बहुत स्पष्ट तौर पर नहीं दिखाई देते हैं, किंतु विकसित में कमोबेश नजर आ ही जाते हैं । और मनुष्यों में तो इससे आगे बहुत कुछ और भी देखने को मिलता है, जैसे धन-संपदा संग्रह करने की लालसा, दूसरे को अपनी हैसियत दिखाने की प्रवृत्ति, निंदा-प्रशंसा करना, एवं उनसे प्रभावित होना, बदले की भावना, और अहंकार, इत्यादि । शायद ही कोई व्यक्ति हो जो इनसे मुक्त हो । लेकिन इन सबके ऊपर विवेक है जो मनुष्य को अन्य जीवधारियों से भिन्न बनाता है । यही विवेक उसे अपनी तमाम कमजोरियों का ‘दमन’ अथवा ‘शमन’ करने को प्रेरित करता है, उसी के बल पर वह स्थिति को नियंत्रण में रखता है । विवेक के कारण ही प्राचीन मनीषियों ने मानव योनि को कर्मयोनि एवं अन्यों को भोगयोनि कहा है ।
किंतु विवेक की तीव्रता तथा उसकी प्रभाविता सबमें समान रूप से विद्यमान नहीं रहती हैं । अनुभव बताता है कि जहां एक ओर लोग दूसरों के कष्ट से स्वयं दुःखी होते हैं, तो वहीं अन्य दूसरों को कष्ट में देख या उन्हें कष्ट देकर आनंदित भी होते हैं । आप राक्षसी वृत्ति कहकर इस प्रवृत्ति की निंदा कर सकते हैं, लेकिन इसके अस्तित्व को मानने से इनकार नहीं कर सकते हैं और न ही उसे मिटा सकते हैं । जो है सो है ही, हमें अच्छा और स्वीकार्य लगे या बुरा तथा अवांछित, कोई माने नहीं रखता है । मनुष्यों में अवगुण क्यों होते हैं, वे कहां से आते हैं, उनसे मुक्ति कैसे मिल सकती है, जैसे प्रश्नों के बारे में तमाम तरह के मत हो सकते हैं । मैं उनकी चर्चा में नहीं पड़ता, मैं तो इस बात पर जोर डालना चाहता हूं कि लोगों में गुण-अवगुण कमोबेश होते ही हैं, किसी में बेहद कम तो किसी में बेहद अधिक भी । और यही तथ्य व्यवहार में माने रहता है ।
अवगुणों से आप मानव समुदाय को मुक्त नहीं कर सकते हैं । संभव है कि आप किसी एक को या कुछएक को प्रेरित कर लें, उन्हें अवगुणों से मुक्त कर लें, किंतु सब पर प्रभाव नहीं डाल सकते हैं । इतिहास साक्षी है कि कभी भी ऐसा कोई महापुरुष पैदा नहीं हुआ है जो पूरे समाज को ‘रास्ते’ में ला सका हो, यहां तक कि उन लोगों को भी नहीं जो उसके अनुयायी होने का दम्भ भरते हों । अगर ऐसा होता तो बुद्ध, महावीर या ईसा के ‘तथाकथित’ अनुयायी अहिंसक होते । यह भरोसा करना भी मूर्खता होगी कि वारंवार के अनुनय-विनय से कोई व्यक्ति मान ही जाएगा और उस रास्ते पर चल पड़ेगा जिसे श्रेयस्कर बताया गया हो ।
प्रभावी है क्या अहिंसा का मार्ग?------मेरी दृष्टि में अहिंसा के रास्ते को ही एकमात्र एवं उचित रास्ता बताना गांधीजी की कमजोरी थी । वे यह मानते थे, जितना मैं समझ पाया हूं, कि अहिंसक विरोध या असहयोग के माध्यम से आप दूसरों को अपने पक्ष में कर सकते हैं । किंतु ऐसा मानना आम सामाजिक अनुभव को नकारना है । यह संभव है कि जिस व्यक्ति में संवेदनशीलता तथा उदारता का पर्याप्त अंश हो वह आपके निरंतर चल रहे विरोध से पसीज जाए और आपकी बात मान ले । लेकिन ऐसा सभी के साथ नहीं हो सकता है । ऐसे लोग भी इस धरती पर मिलेंगे, जो आपके विरोध पर और अधिक उग्र एवं कठोर हो जाएंगे । आपका विरोध यदि किसी के अहंभाव को ठेस पहुंचावे तो वह शायद ही आपकी बात माने । जैसे आप अपनी बात पर अड़े रहें, यह दावा करते हुए कि आप सही हैं, वैसे ही वह भी अपनी जिद नहीं छोड़ने वाला । तब आपका अहिंसक विरोध निष्फल होना ही है ।
असल तथ्य यह है कि हिंसक आंदोलन अधिक प्रभावी होता है । ऐसा सुनना बृहत्तर जनसमुदाय को अच्छा नहीं लगेगा । परंतु यह समाज की एक वास्तविकता है, ऐसा मेरा मानना है । इस बात को नकारा नहीं जा सकता है कि कोई भी जीवधारी भय की सहज वृत्ति से मुक्त नहीं होता है, मनुष्य भी नहीं । अवश्य ही कुछएक मनुष्य सिद्धांतों के प्रति इतने समर्पित हो सकते है कि भय की भावना कमजोर पड़ जाए । किंतु ऐसा अपवाद-स्वरूप कभी-कभार होता है न कि सामान्यतः । ऐसे अपवादों को छोड़ दें तो अधिसंख्य लोग भय के वश में रहते हैं । हिंसा की संभावना इस भय की जननी होती है । इसलिए अहिंसा की तुलना में हिंसा कहीं अधिक प्रभावी होती है, भले ही हम अहिंसा की बात जोरशोर से करें ।
सामाजिक व्यवस्थाएं हिंसा पर आधारित होती हैं - ऐसी हिंसा जिसे वैधानिक मान्यता मिली रहती है । राष्ट्रों के बीच शांति एवं समझौता सैनिक-हिंसा के भय पर ही आधारित रहती है । राष्ट्र के भीतर भी व्यवस्था हिंसक बल-प्रयोग से ही संभव हो पाती है । आज तो स्थिति इतनी विकट हो चुकी है कि अहिंसक आंदोलनों को सरकारें एवं संस्थाएं नजरअंदाज कर देती हैं । संवाद-प्रक्रिया भी तभी स्थापित हो पाती है जब आप हिंसक आंदोलन पर उतरते हैं या उसका भय विरोधी पक्ष को दिखाते हैं ।
मानव समाज में आदर्श मूल्य कभी भी पूर्णरूपेण स्थापित रहे होंगे यह मैं नहीं मान सकता, तथाकथित सत्ययुग में भी, फिर भी हालात इतने बुरे शायद नहीं रहे होंगे । आज मूल्यों में काफी गिरावट आ चुकी है, और लक्ष्य-प्राप्ति में हिंसा एक प्रभावी हथियार बन चुका है । मुझे लगता है कि गांधीजी के अहिंसा-सिद्धांत की व्यावहारिक प्रभाविता अब बाकी नहीं बची है i
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