जेल में भगत सिंह ने करीब २ साल गुजारे। इस दौरान वे कई क्रान्तिकारी गतिविधियों से जुड़े रहे। उनका अध्ययन भी जारी रहा। उनके उस दौरान लिखे गये ख़त आज भी उनके विचारों के दर्पण हैं। इस दौरान उन्होंने कई तरह से पूँजीपतियों को अपना शत्रु बताया है। उन्होंने लिखा कि मजदूरों का शोषण करने वाला एक भारतीय ही क्यों न हो, वह उनका शत्रु है। उन्होंने जेल में अंग्रेज़ी में एक लेख भी लिखा जिसका शीर्षक था मैं नास्तिक क्यों हूँ?" जेल में भगत सिंह व उनके साथियों ने ६४ दिनों तक भूख हडताल की। उनके एक साथी यतीन्द्रनाथ दास ने तो भूख हड़ताल में अपने प्राण ही दे दिये ।
फ़ाँसी------------- भगतसिंह की माता विद्यावती का देश के नवयुवकों के नाम सन्देश जिसमें उन्होंने अपने हस्ताक्षर राष्ट्रभाषाहिन्दी में किये थे i २३ मार्च १९३१ को शाम में करीब ७ बजकर ३३ मिनट पर भगत सिंह तथा इनके दो साथियों सुखदेव व राजगुरु को फाँसी दे दी गई । फाँसी पर जाने से पहले वे लेनिन की नहीं बल्कि राम प्रसाद 'बिस्मिल' की जीवनी पढ़ रहे थे जो सिन्ध (वर्तमान पाकिस्तान का एक सूबा) के एक प्रकाशक भजन लाल बुकसेलर ने आर्ट प्रेस, सिन्ध से छापी थी। कहा जाता है कि जेल के अधिकारियों ने जब उन्हें यह सूचना दी कि उनके फाँसी का वक्त आ गया है तो उन्होंने कहा था- "ठहरिये! पहले एक क्रान्तिकारी दूसरे से मिल तो ले।" फिर एक मिनट बाद किताब छत की ओर उछाल कर बोले - "ठीक है अब चलो ।"
फाँसी पर जाते समय वे तीनों मस्ती से गा रहे थे -
मेरा रँग दे बसन्ती चोला, मेरा रँग दे;
मेरा रँग दे बसन्ती चोला। माय रँग दे बसन्ती चोला।।
फाँसी के बाद कहीं कोई आन्दोलन न भड़क जाए इसके डर से अंग्रेजों ने पहले इनके मृत शरीर के टुकड़े किए तथा फिर इसे बोरियों में भर कर फ़िरोजपुर की ओर ले गए जहाँ घी के बदले मिट्टी का तेल डालकर ही इनको जलाया जाने लगा । गाँव के लोगों ने आग जलती देखी तो करीब आए । इससे डरकर अंग्रेजों ने इनकी लाश के अधजले टुकड़ों को सतलुज नदी में फेंका और भाग गये। जब गाँव वाले पास आये तब उन्होंने इनके मृत शरीर के टुकड़ो कों एकत्रित कर विधिवत दाह संस्कार किया । और भगत सिंह हमेशा के लिये अमर हो गये। इसके बाद लोग अंग्रेजों के साथ-साथ गान्धी को भी इनकी मौत का जिम्मेवार समझने लगे । इस कारण जब गान्धी कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में हिस्सा लेने जा रहे थे तो लोगों ने काले झण्डों के साथ गान्धीजी का स्वागत किया । एकाध जग़ह पर गान्धी पर हमला भी हुआ किन्तु सादी वर्दी में उनके साथ चल रही पुलिस ने बचा लिया। बाद में गान्धी को अपनी यात्रा छुपकर करनी पड़ी ।
व्यक्तित्व-------------जेल के दिनों में उनके लिखे खतों व लेखों से उनके विचारों का अन्दाजा लगता है । उन्होंने भारतीय समाज में लिपि (पंजाबी की गुरुमुखी व शाहमुखी तथा हिन्दी और अरबी उर्दू के सन्दर्भ में विशेष रूप से), जाति और धर्म के कारण आयी दूरी पर दुःख व्यक्त किया था । उन्होंने समाज के कमजोर वर्ग पर किसी भारतीय के प्रहार को भी उसी सख्ती से सोचा जितना कि किसी अंग्रेज के द्वारा किए गये अत्याचार को ।
भगत सिंह को हिन्दी, उर्दू, पंजाबी तथा अंग्रेजी के अलावा बांग्ला भी आती थी जो उन्होंने बटुकेश्वर दत्त से सीखी थी । उनका विश्वास था कि उनकी शहादत से भारतीय जनता और उद्विग्न हो जायेगी और ऐसा उनके जिन्दा रहने से शायद ही हो पाये । इसी कारण उन्होंने मौत की सजा सुनाने के बाद भी माफ़ीनामा लिखने से साफ मना कर दिया । पं० रामप्रसाद 'बिस्मिल' ने अपनी आत्मकथा में जो-जो दिशा-निर्देश दिये थे उनका भगत सिंह ने अक्षरश: पालन किया।[1] उन्होंने अंग्रेज सरकार को एक पत्र भी लिखा, जिसमें कहा गया था कि उन्हें अंग्रेज़ी सरकार के ख़िलाफ़ भारतीयों के युद्ध का प्रतीक एक युद्धबन्दी समझा जाए तथा फ़ाँसी देने के बदले गोली से उड़ा दिया जाये ।
फ़ाँसी के पहले ३ मार्च को अपने भाई कुलतार को भेजे एक पत्र में भगत सिंह ने लिखा था -
उन्हें यह फ़िक्र है हरदम नयी तर्ज़-ए-ज़फ़ा क्या है
हमें यह शौक है देखें, सितम की इन्तहा क्या है
दहर से क्यों ख़फ़ा रहें,चर्ख से क्यों ग़िला करें
सारा जहाँ अदू सही,आओ! मुक़ाबला करें ।
इन जोशीली पंक्तियों से उनके शौर्य का अनुमान लगाया जा सकता है। शहीद भगत सिंह सदा ही शेर की तरह जिए। चन्द्रशेखर आजा़द से पहली मुलाकात के समय जलती हुई मोमबती पर हाथ रखकर उन्होंने कसम खायी थी कि उनकी जिन्दगी देश पर ही कुर्बान होगी और उन्होंने अपनी वह कसम पूरी कर दिखायी।
फ़ाँसी------------- भगतसिंह की माता विद्यावती का देश के नवयुवकों के नाम सन्देश जिसमें उन्होंने अपने हस्ताक्षर राष्ट्रभाषाहिन्दी में किये थे i २३ मार्च १९३१ को शाम में करीब ७ बजकर ३३ मिनट पर भगत सिंह तथा इनके दो साथियों सुखदेव व राजगुरु को फाँसी दे दी गई । फाँसी पर जाने से पहले वे लेनिन की नहीं बल्कि राम प्रसाद 'बिस्मिल' की जीवनी पढ़ रहे थे जो सिन्ध (वर्तमान पाकिस्तान का एक सूबा) के एक प्रकाशक भजन लाल बुकसेलर ने आर्ट प्रेस, सिन्ध से छापी थी। कहा जाता है कि जेल के अधिकारियों ने जब उन्हें यह सूचना दी कि उनके फाँसी का वक्त आ गया है तो उन्होंने कहा था- "ठहरिये! पहले एक क्रान्तिकारी दूसरे से मिल तो ले।" फिर एक मिनट बाद किताब छत की ओर उछाल कर बोले - "ठीक है अब चलो ।"
फाँसी पर जाते समय वे तीनों मस्ती से गा रहे थे -
मेरा रँग दे बसन्ती चोला, मेरा रँग दे;
मेरा रँग दे बसन्ती चोला। माय रँग दे बसन्ती चोला।।
फाँसी के बाद कहीं कोई आन्दोलन न भड़क जाए इसके डर से अंग्रेजों ने पहले इनके मृत शरीर के टुकड़े किए तथा फिर इसे बोरियों में भर कर फ़िरोजपुर की ओर ले गए जहाँ घी के बदले मिट्टी का तेल डालकर ही इनको जलाया जाने लगा । गाँव के लोगों ने आग जलती देखी तो करीब आए । इससे डरकर अंग्रेजों ने इनकी लाश के अधजले टुकड़ों को सतलुज नदी में फेंका और भाग गये। जब गाँव वाले पास आये तब उन्होंने इनके मृत शरीर के टुकड़ो कों एकत्रित कर विधिवत दाह संस्कार किया । और भगत सिंह हमेशा के लिये अमर हो गये। इसके बाद लोग अंग्रेजों के साथ-साथ गान्धी को भी इनकी मौत का जिम्मेवार समझने लगे । इस कारण जब गान्धी कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में हिस्सा लेने जा रहे थे तो लोगों ने काले झण्डों के साथ गान्धीजी का स्वागत किया । एकाध जग़ह पर गान्धी पर हमला भी हुआ किन्तु सादी वर्दी में उनके साथ चल रही पुलिस ने बचा लिया। बाद में गान्धी को अपनी यात्रा छुपकर करनी पड़ी ।
व्यक्तित्व-------------जेल के दिनों में उनके लिखे खतों व लेखों से उनके विचारों का अन्दाजा लगता है । उन्होंने भारतीय समाज में लिपि (पंजाबी की गुरुमुखी व शाहमुखी तथा हिन्दी और अरबी उर्दू के सन्दर्भ में विशेष रूप से), जाति और धर्म के कारण आयी दूरी पर दुःख व्यक्त किया था । उन्होंने समाज के कमजोर वर्ग पर किसी भारतीय के प्रहार को भी उसी सख्ती से सोचा जितना कि किसी अंग्रेज के द्वारा किए गये अत्याचार को ।
भगत सिंह को हिन्दी, उर्दू, पंजाबी तथा अंग्रेजी के अलावा बांग्ला भी आती थी जो उन्होंने बटुकेश्वर दत्त से सीखी थी । उनका विश्वास था कि उनकी शहादत से भारतीय जनता और उद्विग्न हो जायेगी और ऐसा उनके जिन्दा रहने से शायद ही हो पाये । इसी कारण उन्होंने मौत की सजा सुनाने के बाद भी माफ़ीनामा लिखने से साफ मना कर दिया । पं० रामप्रसाद 'बिस्मिल' ने अपनी आत्मकथा में जो-जो दिशा-निर्देश दिये थे उनका भगत सिंह ने अक्षरश: पालन किया।[1] उन्होंने अंग्रेज सरकार को एक पत्र भी लिखा, जिसमें कहा गया था कि उन्हें अंग्रेज़ी सरकार के ख़िलाफ़ भारतीयों के युद्ध का प्रतीक एक युद्धबन्दी समझा जाए तथा फ़ाँसी देने के बदले गोली से उड़ा दिया जाये ।
फ़ाँसी के पहले ३ मार्च को अपने भाई कुलतार को भेजे एक पत्र में भगत सिंह ने लिखा था -
उन्हें यह फ़िक्र है हरदम नयी तर्ज़-ए-ज़फ़ा क्या है
हमें यह शौक है देखें, सितम की इन्तहा क्या है
दहर से क्यों ख़फ़ा रहें,चर्ख से क्यों ग़िला करें
सारा जहाँ अदू सही,आओ! मुक़ाबला करें ।
इन जोशीली पंक्तियों से उनके शौर्य का अनुमान लगाया जा सकता है। शहीद भगत सिंह सदा ही शेर की तरह जिए। चन्द्रशेखर आजा़द से पहली मुलाकात के समय जलती हुई मोमबती पर हाथ रखकर उन्होंने कसम खायी थी कि उनकी जिन्दगी देश पर ही कुर्बान होगी और उन्होंने अपनी वह कसम पूरी कर दिखायी।
aapka pryas aur yogdan sarahniya hai ...
ReplyDeletekya aapke pas shrikrishna saral ki gadya sahityik pustake hai....kripya mujhe bataye.
swvnit@yahoo.co.in