Saturday, October 1, 2011

2 अक्टूबर, गांधी एवं शास्त्री जयंती – अहिंसा से आगे बहुत कुछ और भी--

2 अक्टूबर है, बापू यानी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी (2 अक्टूबर, 1869 – 30 जनवरी, 1948) और देश के दूसरे प्रधानमंत्री स्वर्गीय लालबहादुर शास्त्री (2 अक्टूबर, 1904 – 11 जनवरी, 1966) की जन्मतिथि । दोनों का स्मरण करने और दोनों से किंचित् प्रेरणा लेने का दिन, हो सके तो ।जहां तक शास्त्रीजी का सवाल है उन्हें उनकी निष्ठा, देशभक्ति और सादगी के लिए याद किया जाता है, भले ही वैयक्तिक स्तर पर कम ही लोगों के लिए ये बातें आज सार्थक रह गयी हैं । प्रथम प्रधानमंत्री पंडित नेहरू की काबिना के एक ईमानदार मंत्री के तौर पर उनकी पहचान अवश्य रही है । किंतु प्रधानमंत्री के रूप में उनका कार्यकाल संक्षिप्त ही रहा, अतः उस भूमिका में वे कितना सफल रहे होते कह पाना आसान नहीं ।महात्मा गांधी की बात कुछ और ही रही है । उन्हें विश्व में अहिंसा के पुजारी के तौर पर जाना जाता है । संयुक्त राष्ट्र संगठन (UNO) ने तो आज के दिन (2 अक्टूबर) को ‘अहिंसा दिवस’ (Non-Violence Day) घोषित कर रखा है ।
                                                                             
मैं समझ नहीं पाता कि गांधीजी के विचारों को केवल अहिंसा के संदर्भ में ही क्यों महत्त्व दिया जाता है । क्या इसलिए कि आज के समय में जब चारों ओर हिंसात्मक घटनाएं नजर आ रही हैं, हर कोई अपने को असुरक्षित अनुभव कर रहा है ? यूं भौतिक (दैहिक तथा पदार्थगत) स्तर की हिंसा मानव समाज में सदा से ही रही है, परिवार के भीतर, परिवार-परिवार के बीच, विभिन्न समुदायों के बीच, और देशों के बीच । किंतु आतंकवाद के रूप में एक नये प्रकार की हिंसा का उदय हालिया वर्षों में हुआ है, जिससे हर कोई डरा-सहमा-सा दिखता है । जिस प्रकार की हिंसा आज देखने को मिल रही है वह अमीर-गरीब, राजनेता, उच्चपदस्थ प्रशासनिक अधिकारी, और आम आदमी सभी में असुरक्षा की भावना पैदा कर रही है । ऐसी स्थिति में हिंसात्मक घटनाओं की निंदा और अहिंसा की अहमियत पर जोर डालना ‘फैशनेबल’ बात बन गयी है । अन्यथा क्या मानव समाज के समक्ष अन्य प्रकार की अनेकों समस्याएं नहीं हैं, जिन पर ध्यान दिया जाना चाहिए और जिनके संदर्भ में गांधीजी के विचारों की चर्चा की जानी चाहिए ?
अहिंसा महात्मा गांधी के चिंतन-मनन और व्यवहार का एक हिस्सा भर रहा है, जिसे उन्होंने अपने राजनीतिक उद्येश्यों की प्राप्ति के लिए अपनाया था । अपने देश भारत की स्वतंत्रता-प्राप्ति में उनके अहिंसात्मक संघर्ष का कितना सफल योगदान रहा इस बात का निष्पक्ष आकलन करना मेरे मत में कठिन है । तथापि यह धारणा विश्व के राजनेताओं तथा बुद्धिजीवियों में व्याप्त है ही कि अहिंसा के प्रति उनके लगाव ने विदेशी शासकों को झुकने को विवश कर दिया था । अहिंसात्मक आचरण इक्का-दुक्का लोगों का हृदय परिवर्तन कर सकता है इसे मैं भी मानता हूं, किंतु व्यापक स्तर पर भी यह कारगर हो सकता है इस बात में मुझे शंका है । कुछ भी हो अहिंसा वांछनीय विचार तो है ही । पर क्या गांधीजी की बात केवल इसी अहिंसा के संदर्भ में की जानी चाहिए ? क्या उनके व्यक्तित्व के अन्य पहलुओं की चर्चा नहीं की जानी चाहिए ? क्या उन पहलुओं की आज की परिस्थितियों में प्रासंगिकता एवं अर्थवत्ता को नहीं स्वीकारा जाना चाहिए ?
वास्तव में महात्मा गांधी का व्यक्तित्व असाधारण था । वे जो सोचते थे उसे अमल में लाते थे और दूसरों के सामने अनुकरणीय दृष्टांत के रूप में प्रस्तुत करते थे । उनकी संकल्प शक्ति असामान्य थी । निःसंदेह उनके जैसा आत्मसंयमित, आत्मानुशासित व्यक्ति बन पाना आम आदमी के वश की बात नहीं है । तथापि कई बातें हैं जो हमारे द्वारा बिना बहुत कठिनाई के अथवा बड़े त्याग के स्वीकारी जा सकती हैं, जिनकी चर्चा उतने ही जोर-शोर से की जानी चाहिए जितनी अहिंसा की की जाती हैं । क्या हैं वे बातें जिन पर हमारा ध्यान जाना चाहिए ?
गांधीजी सादगी भरे जीवन के पक्षधर थे । दिखावे और तड़क-भड़क के वे विरोधी थे । लोगों की आलोचनाओं की परवाह किये बिना ही वे सीधे-सादे तरीके से पेश आते थे । कितने लोग हैं आज के युग में जो उनकी तरह का सादगी भरी जिंदगी जीने को तैयार हैं, विवशता में नहीं, बल्कि संपन्न होने के बावजूद ? आज के हिंदुस्तान में शायद कोई भी व्यक्ति अपनी संपन्नता के नग्न प्रदर्शन से परहेज नहीं करता है । दुर्भाग्य से यह बात उन राजनीतिक तथा सामाजिक कार्यों में संलग्न लोगों पर भी लागू होती हैं जो गांधीजी का नाम मौके-बेमौके लेते रहते हैं । समर्थ हों फिर भी सादगी से रहते हों ऐसे कुछ अपवाद अवश्य होंगे ।
गांधीजी सामाजिक भेदभाव के सख्त विरोधी थे । जाति और धर्म के नाम पर जितना भेदभाव बरताव अपने देश में होता है उतना शायद अन्यत्र नहीं होगा । महात्मा को राष्ट्रपिता कहने वाले हम आज तक सामाजिक समानता के उनके विचारों को नहीं अपना सके हैं । जातिवाद और धार्मिक भेदवाद वैयक्तिक स्तर ही हम नहीं अपनाये बैठे हैं, बल्कि वह हमारी राजनीति का अभिन्न अंग बन चुका है । भेदभाव की ऐसी नीति को उचित ठहराने में शायद ही किसी को लज्जा आती हो ।
गांधीजी श्रम के भी पुजारी थे । उनका मत था कि हर व्यक्ति को अपना कार्य यथासंभव स्वयं करना चाहिए और किसी कार्य को छोटे-बड़े की दृष्टि से नहीं देखा जाना चाहिए । हर उस कार्य को सम्मान दिया जाना चाहिए, जिसकी आवश्यकता स्वीकारी जाती हो और जिसे किसी न किसी ने संपन्न करना ही हो । किसी को इसलिए छोटा समझा जाये कि वह शारीरिक कार्य करता हो उचित नहीं है । उनके चिंतन पर गौर करें तो यही समझ में आएगा कि महात्मा गांधी शारीरिक श्रम को बौद्धिक श्रम की तुलना में तुच्छ एवं असम्मानजनक नहीं मानते थे । यह सत्य है कि दैहिक श्रम के बिना मानव समाज नहीं टिक सकता है । सर्वत्र ऐसे श्रमसाध्य अपरिहार्य कार्यों में लोग लगें हैं, किंतु उन्हें सम्मान के नजर से नहीं देखा जाता है । अपने देश में तो वे तिरस्कृत ही दिखते हैं । कहां है महात्मा की भावनाओं के प्रति सम्मान ? वर्तमान काल में जब वैश्विक स्तर पर यह भय व्यक्त किया जा रहा है कि हम कहीं ‘अचिरस्थाई विकास’ (unsustainable development) के भंवर में तो नहीं फंस गये हैं, और यह कि फलतः कहीं मानव समाज आत्मविनाश की ओर तो नहीं बढ़ रहा है, गांधीजी के श्रम संबंधी विचार अधिक प्रासंगिक हो जाते हैं । उनके अनुसार मशीनों पर हमारी निर्भरता कम होनी चाहिए और ऊर्जा की खपत पर हमें अंकुश लगाना चाहिए । कितने लोग होंगे जो उनसे सहमत होंगे और कितने होंगे जो ऐशोआराम की जिंदगी अंशतः भी छोड़ना चाहेंगे ?
गांधीजी समाज में व्याप्त आर्थिक विषमता के घोर विरोधी थे । वे ऐसी सामाजिक तथा राजनीतिक व्यवस्था के पक्षधर थे, जिसमें लोगों के मध्य आर्थिक विसंगति घटे । वे अगर आज हमारे बीच होते तो अवश्य ही उस वैश्विक अर्थव्यवस्था के विरुद्ध बोलते जो संपन्न को अधिक संपन्न और निर्धन को अधिक निर्धन बना रही है । सारी दुनिया में सामाजिक विचारक यह अनुभव कर रहे हैं कि सर्वत्र आर्थिक विसंगति बढ़ रही है । अपने देश की स्थिति तो अधिक ही दयनीय है । यहां एक ओर संपदासंपन्न जन हैं जो विश्व के धनाड्यतम लोगों में से हैं, तो वहीं दस-बीस प्रतिशत यानी दस-बीस करोड़ लोग निर्धनता की अति का जीवन बिता रहे हैं । विषमता सारे विश्व में हैं, किंतु अपने देश की जैसी नहीं, जहां एक-दो नहीं करोड़ों की संख्या में लोग भूखे पेट रात बिताने को मजबूर रहते हैं । महात्मा गांधी के अहिंसा-सिद्धांत की बात करने के पूर्व हमें इस प्रकार की बातों पर भी चिंतन कर लेना चाहिए ।
गांधीजी देश के गांवों और वहां की कृषि के विकास के हिमायती थे । वे इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं करना चाहते थे कि यहां के अधिसंख्य लोग कृषि पर निर्भर हैं, और यह भी कि यहां अप्रशिक्षित श्रमिकों की फौज है, जो केवल शारीरिक श्रम कर सकती है, परंतु किसी कार्य-कौशल में दक्ष नहीं है । आज देश के नीति-निर्माताओं का जोर आधुनिकतम प्रौद्योगिकी पर आधारित उद्योगों को आगे बढ़ाने तक सामित है । उनका ध्यान उन छोटे-मोटे उद्योग-धंधों की ओर नहीं है, जो समाज के असंपन्न वर्ग के जीवनाधार हैं ।
गांधीजी आज हमारे बीच होते तो देश की मौजूदा दोहरी शिक्षा नीति का अवश्य ही खुला विरोध करते । आज देश में दो समांतर शिक्षण व्यवस्थाएं चल रही है, एक अंग्रेजी आधारित व्यवस्था जिसे येनकेन प्रकारेण अपने पूरी आमदनी लगाकर बच्चों के लिए अपनाने को अधिसंख्य लोग विवश हैं, तो दूसरी ओर वह व्यवस्था है जो समाज के कमजोर असंपन्न लोगों के लिए बची रह जाती है, जहां शिक्षा के यह हाल हैं कि प्राथमिक स्तर पार कर चुकने के बाद भी अनेकों बच्चे अपना नाम क्षेत्रीय भाषा माध्यम में भी लिख नहीं सकते हैं । अंग्रेजी स्कूल खुलकर भारतीय भाषाओं का विरोध नहीं करते हैं, किंतु वहां यह परोक्ष संदेश अवश्य मिलता है कि अपनी भाषाओं की कोई अहमियत नहीं है, और यह कि अंग्रेजी के बिना व्यक्ति और देश आगे नहीं बढ़ सकते हैं । जिस अंग्रेजी के संदर्भ में गांधी को यह कहते बताया जाता है कि “दुनिया को बता दें कि गांधी अंग्रेजी नहीं जानता है ।” उसी अंग्रेजी को अब अपरिहार्य घोषित किया जा रहा है । ठीक है कि अंग्रेजी की स्वयं में अहमियत है – खास अहमियत है – लेकिन इस तथ्य को भुलाया नहीं जा सकता है कि यह सामाजिक विभाजन का एक कारण भी बन रहा है । देश आज संपन्न ‘इंडिया’ एवं पीछे छूटते ‘भारत’ में बंट रहा है । समाज वैसे ही तरह-तरह से बंटा है, और यह एक अतिरिक्त विभाजक समाज में प्रवेश में कर चुका है । समाज में एक ऐसा वर्ग जन्म ले रहा है जिसका तेजी से पाश्चात्यीकरण हो रहा है, और जो अपनी सांस्कृतिक जड़ों से कटता जा रहा है । महात्मा गांधी के लिए अवश्य ही आज की स्थिति विचलित करने वाली होती । तो क्या इन बातों पर विचार नहीं होना चाहिए ?
गांधीजी को शेष विश्व अहिंसा से जोड़ता है, क्योंकि उसके लिए व्यापक होती जा रही संगठित हिंसा एक गंभीर समस्या बन चुकी है । लेकिन क्या हम देशवासियों के लिए भी गांधी मात्र अहिंसा तक सीमित हैं ? क्या उनके समग्र चिंतन-मनन की कोई महत्ता नहीं है ? क्या उनके विचारों के अनुरूप आचरण अपनाने – अंशतः ही सही, कुछ तो – पर जोर नहीं दिया जाना चाहिए ? इस देश के लिए भी हिंसा चिंता का विषय है अवश्य, पर उसके आगे भी बहुत कुछ है जो कम माने नहीं रखता है । काश कि देशवासी कुछ तो गांधीजी को सम्मान देते, केवल शब्दों में नहीं आचरण में भी, अपनी करनी में भी । और कुछ ऐसा ही शास्त्रीजी को लेकर भी सोचा जा सकता है ।

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