१९२८ में साइमन कमीशन के बहिष्कार के लिये भयानक प्रदर्शन हुए। इन प्रदर्शनों मे भाग लेने वालों पर अंग्रेजी शासन ने लाठी चार्ज भी किया। इसी लाठी चार्ज से आहत होकर लाला लाजपत राय की मृत्यु हो गई। अब इनसे रहा न गया। एक गुप्त योजना के तहत इन्होंने पुलिस सुपरिंटेंडेंट सॉण्डर्स को मारने की सोची। सोची गई योजना के अनुसार भगत सिंह और राजगुरु सॉण्डर्स कोतवाली के सामने व्यस्त मुद्रा में टहलने लगे। उधर बटुकेश्वर दत्त अपनी साइकिल को लेकर ऐसे बैठ गये जैसे कि वो ख़राब हो गई हो । दत्त के इशारे पर दोनों सचेत हो गए। उधर चन्द्रशेखर आज़ाद पास के डी०ए०वी० स्कूल की चहारदीवारी के पास छिपे इनके घटना के अंजाम देने में रक्षक का काम कर रहे थे। सॉण्डर्स के आते ही राजगुरु ने एक गोली सीधी उसके सर में मारी जिसके तुरन्त बाद वह होश खो बैठा। इसके बाद भगत सिंह ने ३-४ गोली दाग कर उसके मरने का पूरा इन्तज़ाम कर दिया। ये दोनों जैसे ही भाग रहे थे कि एक सिपाही चानन सिंह ने इनका पीछा करना शुरू कर दिया। चन्द्रशेखर आज़ाद ने उसे सावधान किया -"आगे बढ़े तो गोली मार दूँगा।" नहीं मानने पर आज़ाद ने उसे गोली मार दी। इस तरह इन लोगों ने लाला लाजपत राय की मौत का बदला ले लिया ।
एसेम्बली में बम फेंकना-----------------भगत सिंह मूलतः खूनखराबे के पक्षधर नहीं थे। पर वे कार्ल मार्क्स के सिद्धान्तों से प्रभावित अवश्य थे। यही नहीं, वे समाजवाद के पक्के पक्षधर भी थे। इसी कारण से उन्हें पूंजीपतियों की मजदूरों के प्रति शोषण की नीति पसन्द नहीं आती थी। उस समय चूँकि अंग्रेज ही सर्वेसर्वा थे तथा बहुत कम भारतीय उद्योगपति तरक्की कर पाये थे, अतः अंग्रेजों के मजदूरों के प्रति रुख़ से उनका ख़फ़ा होना लाज़िमी था। ऐसी नीतियों के पारित होने को निशाना बनाना उनके दल का निर्णय था। सभी चाहते थे कि अंग्रेजों को पता चले कि हिन्दुस्तानी जाग चुके हैं और उनके हृदय में ऐसी नीतियों के खिलाफ़ क्षोभ है। ऐसा करने के लिये उन लोगों ने दिल्ली की केन्द्रीय एसेम्बली में बम फेंकने की सोची।भगत सिंह चाहते थे कि इसमें कोई खून खराबा न हो तथा अंग्रेजो तक उनकी 'आवाज़' भी पहुँचे। हालांकि उनके दल के सब लोग ऐसा नहीं सोचते थे पर अन्त में सर्वसम्मति से भगत सिंह तथा बटुकेश्वर दत्त का नाम चुना गया। निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार ८ अप्रैल, १९२९ को केन्द्रीय असेम्बली में इन दोनों ने एक ऐसे स्थान पर बम फेंका जहाँ कोई मौजूद न था,अन्यथा उसे चोट लग सकती थी। पूरा हॉल धुएँ से भर गया। वे चाहते तो भाग भी सकते थे पर उन्होंने पहले ही सोच रखा था कि उन्हें फ़ाँसी कबूल है अतः उन्होंने भागने से मना कर दिया। उस समय वे दोनों खाकी कमीज़ तथा निकर पहने थे। बम फटने के बाद उन्होंने इंकलाब-जिन्दाबाद का नारा लगाया और अपने साथ लाये हुए पर्चे हवा में उछाल दिये। इसके कुछ ही देर बाद पुलिस आ गयी और दोनों को ग़िरफ़्तार कर लिया गया।
एसेम्बली में बम फेंकना-----------------भगत सिंह मूलतः खूनखराबे के पक्षधर नहीं थे। पर वे कार्ल मार्क्स के सिद्धान्तों से प्रभावित अवश्य थे। यही नहीं, वे समाजवाद के पक्के पक्षधर भी थे। इसी कारण से उन्हें पूंजीपतियों की मजदूरों के प्रति शोषण की नीति पसन्द नहीं आती थी। उस समय चूँकि अंग्रेज ही सर्वेसर्वा थे तथा बहुत कम भारतीय उद्योगपति तरक्की कर पाये थे, अतः अंग्रेजों के मजदूरों के प्रति रुख़ से उनका ख़फ़ा होना लाज़िमी था। ऐसी नीतियों के पारित होने को निशाना बनाना उनके दल का निर्णय था। सभी चाहते थे कि अंग्रेजों को पता चले कि हिन्दुस्तानी जाग चुके हैं और उनके हृदय में ऐसी नीतियों के खिलाफ़ क्षोभ है। ऐसा करने के लिये उन लोगों ने दिल्ली की केन्द्रीय एसेम्बली में बम फेंकने की सोची।भगत सिंह चाहते थे कि इसमें कोई खून खराबा न हो तथा अंग्रेजो तक उनकी 'आवाज़' भी पहुँचे। हालांकि उनके दल के सब लोग ऐसा नहीं सोचते थे पर अन्त में सर्वसम्मति से भगत सिंह तथा बटुकेश्वर दत्त का नाम चुना गया। निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार ८ अप्रैल, १९२९ को केन्द्रीय असेम्बली में इन दोनों ने एक ऐसे स्थान पर बम फेंका जहाँ कोई मौजूद न था,अन्यथा उसे चोट लग सकती थी। पूरा हॉल धुएँ से भर गया। वे चाहते तो भाग भी सकते थे पर उन्होंने पहले ही सोच रखा था कि उन्हें फ़ाँसी कबूल है अतः उन्होंने भागने से मना कर दिया। उस समय वे दोनों खाकी कमीज़ तथा निकर पहने थे। बम फटने के बाद उन्होंने इंकलाब-जिन्दाबाद का नारा लगाया और अपने साथ लाये हुए पर्चे हवा में उछाल दिये। इसके कुछ ही देर बाद पुलिस आ गयी और दोनों को ग़िरफ़्तार कर लिया गया।
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