घटना उन दिनों की है, जब लालबहादुर शास्त्री भारत के रेलमंत्री थे। शास्त्रीजी की सादगी और त्याग प्रवृत्ति अनुपम थी। उन्हें देखकर कोई उनके पद के विषय में अनुमान भी नहीं लगा सकता था। शास्त्रीजी के मन में इस चीज को लेकर अहंकार भी नहीं था। एक बार शास्त्रीजी रेलगाड़ी में यात्रा कर रहे थे। उनकी सीट प्रथम श्रेणी के डिब्बे में थी। वे उस ओर जा ही रहे थे कि उन्हें एक अत्यधिक बीमार व्यक्ति दिखा। उन्हें उस पर दया आ गई, क्योंकि उसमें चलने की भी ताकत नहीं थी।
शास्त्रीजी ने उसके पास जाकर उसे सहारा देकर बैठाया और पूछा कि उसे कहां जाना है। संयोग से उसका और शास्त्रीजी का गंतव्य स्थल एक ही था। शास्त्रीजी ने उसे प्रथम श्रेणी के डिब्बे में अपनी सीट पर लिटा दिया और स्वयं तृतीय श्रेणी के डिब्बे में उसकी बर्थ पर जाकर चादर ओढ़कर लेट गए। थोड़ी देर बाद टिकट निरीक्षक आया और उन्हें बुरा-भला कहने लगा। शास्त्रीजी जागे और जब उन्होंने उसे अपना परिचय पत्र दिखाया तो वह बुरी तरह घबरा गया। फिर बोला- सर आप और तीसरे दर्जे में। चलिए मैं आपको प्रथम श्रेणी में पहुंचा देता हूं। शास्त्रीजी सहजता से बोले- अरे भैया मुझे नींद आ रही है। क्यों मेरी नींद खराब करते हो। यह कहकर वे फिर चादर ओढ़कर सो गए। दरअसल अपने उच्च पद का अभिमान न करते हुए सादगी और आम जनता के बीच रच-बसकर जीवन व्यतीत करने वाला ही सही अर्थो में बड़प्पन शब्द का अधिकारी होता है।
शास्त्रीजी ने उसके पास जाकर उसे सहारा देकर बैठाया और पूछा कि उसे कहां जाना है। संयोग से उसका और शास्त्रीजी का गंतव्य स्थल एक ही था। शास्त्रीजी ने उसे प्रथम श्रेणी के डिब्बे में अपनी सीट पर लिटा दिया और स्वयं तृतीय श्रेणी के डिब्बे में उसकी बर्थ पर जाकर चादर ओढ़कर लेट गए। थोड़ी देर बाद टिकट निरीक्षक आया और उन्हें बुरा-भला कहने लगा। शास्त्रीजी जागे और जब उन्होंने उसे अपना परिचय पत्र दिखाया तो वह बुरी तरह घबरा गया। फिर बोला- सर आप और तीसरे दर्जे में। चलिए मैं आपको प्रथम श्रेणी में पहुंचा देता हूं। शास्त्रीजी सहजता से बोले- अरे भैया मुझे नींद आ रही है। क्यों मेरी नींद खराब करते हो। यह कहकर वे फिर चादर ओढ़कर सो गए। दरअसल अपने उच्च पद का अभिमान न करते हुए सादगी और आम जनता के बीच रच-बसकर जीवन व्यतीत करने वाला ही सही अर्थो में बड़प्पन शब्द का अधिकारी होता है।
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