सरकार तो जनादेश से बन गई लेकिन उसे ठोस परिणाम देने होगें। अब तक मनमोहन सरकार का प्रेरणा स्रोत शेयर बाजार और कारपोरेट वर्ल्ड रहा है। अब गाँवों और कस्बों के विकास पर ध्यान देना होगा। शहरी गरीबों पर ध्यान देना होगा। आधारभूत ढाँचा विकसित करना होगा। बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति करनी होगी। राहुल ब्रिगेड के ज्यादातर नेता राजनीतिक सामंतों की संतान हैं और रईसजादे हैं। ग्रामीण और कस्बाई युवाओं की आशाओं और आकांक्षाओं की उन्हें कितनी समझ है यह किसी से छिपा नहीं है। राहुल ब्रिगेड युवा अवश्य है लेकिन यह देश के 30 प्रतिशत युवाओं के प्रतिनिधि हैं। 70 प्रतिशत युवाओं तक पहुँचना और उनको इस देश की मुख्य धारा मानना राहुल ब्रिगेड की असली चुनौती है। वर्ना सरकार की प्राथमिकता शहरी मध्यवर्ग, शेयर बाजार और औद्योगिक घरानों के इर्द-गिर्द ही घुमता रहेगा। देश की मिट्टी में अभी भी इतनी सामर्थ्य है कि वह मंदी के इस दौर में भी 110 करोड़ लोगों का पेट भर सकती है। ऐसे में सवाल सरकार के नजरिए का है, काम के तरीकों का है। अपने देश की भूमि पर अपने संस्थानों के जरिए ऐसी अर्थ व्यवस्था विकसित करनी होगी जो गाँव और पिछड़े इलाकों से लोगों का पलायन रोके। सबसे पहले शिक्षा-स्वास्थ्य-रोजगार को साधने का लक्ष्य बनाकर काम करना होगा। दूसरा क्षेत्र टेलीकॉम का है। तीसरा क्षेत्र विधि सुधारों का है। चौथा क्षेत्र भूमि सुधार औेर नदियों को जोड़ने का है इससे बाढ़, सूखा और पलायन रोका जा सकता है। पांचवां क्षेत्र कॉरपोरेट सेक्टर की पूँजी का देश हित में आधारभूत ढाँचे और बुनियादी सेवाओं के विस्तार में लगवाने का है। औद्योगिक घरानों में सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना लगातार घटती जा रही है। किसी भी विकसित देश में पूँजीपतियों के बीच सामाजिक उत्तरदायित्व अपने आप रहती है। बिल गेट्स और माईकल बफेट इसके महत्वपूर्ण उदाहरण हैं। यदि सरकार उपरोक्त क्षेत्रों में सफल होती है तो इनकी सरकार फिर वापिस आ सकती है। जनादेश अब विकास के मुद्दे से जुड़ गया है। बिना ठोस उपलब्धि के जनादेश नहीं मिलता। विकल्पहीनता लंबे समय तक नहीं रहती। यह ठीक है कि आज भाजपा कांग्रेस से 90 सीट पीछे है और उसका मत प्रतिशत भी कांग्रेस से 9.70 प्रतिशत कम है लेकिन भाजपा का पुनरूत्थान अब भी संभव है। उसके पास लोकसभा में 116 और राज्यसभा में 47 सांसद हैं। आठ राज्यों में सरकार है। यदि भाजपा का नेतृत्व अपने वैचारिक अधिष्ठान को युगानुकूल करके अपने सामाजिक आधार को विस्तृत करने का ठोस प्रोग्राम बनाये तो वह कांग्रेसी संस्थान का अब भी विकल्प बन सकती है। अत: कांग्रेस को ठोस परिणाम देने ही होगें। यू पी ए के पिछली सरकार के दौरान भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर की नीतियां और व्लैक मनी या काला धन की समानांतर अर्थ व्यवस्था ने इस देश को मंदी के मार्ग से काफी हद तक बचा लिया; वर्ना बेरोजगारी और मंदी की दोतरफा मार से, देश में हाहाकार मच जाता और समाज के भीतर सिविल वार या गृहयुध्द की स्थिति पैदा हो जाती। रिजर्व बैंक के गवर्नर की नीतियों को वाम मोर्चा का राजनैतिक सर्मथन भी प्राप्त था फलस्वरूप सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक एवं बीमा कंपनियों की हालत पश्चिमी देशों के मुकाबले स्थिर बनी रही। राजनीतिक अस्थिरता और भ्रष्टाचार के बावजूद इस देश का वर्तमान और भविष्य अच्छा है।
2002 से 2009 के बीच इस देश में काफी महत्वपूर्ण संक्रमण काल था। 2009 के बाद इस देश को पीछे मुड़कर देखना नहीं पड़ेगा।
पश्चिमी लोकतंत्रों के तजुर्बे से हासिल किए गए 'लिबरल फंटेसी' के कारण भारतीय मध्यवर्ग भी दो दलीय या तीन दलीय प्रणाली के अलावा किसी और स्थिति को ग्राह्य नहीं मानता। कांग्रेस के झंडे तले राजनीतिक भागीदारी के जिस मॉडल से भारत के विभिन्न जातीय, भाषाई और धार्मिक समुदायों को बराबरी की भागीदारी देने का वादा किया गया वह एक नारा ही बना रहा। दरअसल यह वादा सहभागिकता और सत्ता के बंटवारे के नाम पर एक चतुर प्रभु वर्ग का वर्चस्व बनाए रखने वाली व्यवस्था का लुभावना रूप था। भारतीय संदर्भ में अनुभव से यह उजागर हो चुका है कि किसी एक पार्टी में शामिल होने के बजाए हर समुदाय अपनी छोटी ताकत के दम पर राज्य और देश में अपनी अलग पार्टी बनाकर सत्ता में कहीं ज्यादा सार्थक हिस्सेदारी कर सकते हैं। इस तरह गठजोड़ों के युग को भारत के राजनीतिक भविष्य का आवश्यक तत्व एवं लोकतंत्र के विकास-क्रम का स्वाभाविक चरण माना जाना चाहिए। भारत की विविधता का प्रतिनिधित्व एक राजनीतिक दल और एक विचारधारा द्वारा किया जाना एक अव्यवहारिक अपेक्षा है। उदाहरण के लिए केरल की गठबंधन राजनीति के बावजूद केरल का विकास नहीं रुका है। केरल में लंबे समय से गठजोड़ों की सफल राजनीति चल रही है। केन्द्र में भी 1989 से गठबंधन या अल्पमत की सरकारें चल रहीं हैं लेकिन इस देश का विकास नहीं रूक रहा है। इस यथार्थ को स्वीकार कर ही इस देश की राजनीति का भविष्य बनने वाला है।..................part-6
Monday, January 10, 2011
भारतीय राजनीति का भविष्य................part-5
जिस तरह सार्त्र 1968 के युवा विद्रोह के नायक नहीं बन पाए उसी तरह भारत का वर्तमान नेतृत्व जिसमें कांग्रेस का नेतृत्व विशेष रूप से शामिल है 2014 या 2019 के आम चुनावों में युवा मतदाताओं की कसौटी पर खरा उतरने वाला नहीं है। मनमोहन सिंह ने 1991 में पूँजीवादी रास्ता अपनाया था। 2004 से 2008 के बीच वाममोर्चा के दबाव में वे आार्थिक स्तर पर पूँजीवादी नीतियों को काबू में रखने के लिए मजबूर थे, परन्तु 2008 की जुलाई में उनकी सरकार अमेरिका परस्त विदेश नीति के मुद्दे पर गिरते-गिरते बची थी। सरकार को बचाने के लिए प्रजातंत्र की नैतिकता ताक पर रखकर खरीद-फरोख्त कर एम. पी. जुटाए गए थे। इस बार कांग्रेस को 206 सीटें मिली हैं। 2004 के 145 से यह काफी ज्यादा है। परन्तु 1991 में कांग्रेस को 232 और 1984 में करीब 415 सीटें मिली थीं। अत: केवल सीटों की संख्या बढ़ जाने से कांग्रेस को जादू का चिराग नहीं मिल गया है। देश की बहुत सारी समस्याओं पर ठोस काम करना होगा। इस वक्त जनता की काँग्रेसी गठबंधन की सरकार से वैसी ही आशाएं हैं जैसी 1998 -99 में भाजपा गठबधन की सरकार से थी। कांग्रेस के नेतृत्व के पास युवाओं को लुभाने के लिए राहुल गांधी और प्रियंका गांधी का चेहरा काफी नहीं है। कांग्रेस के पास ठोस नीतियों का अभाव है। कड़े निर्णय लेने का 1980 के बाद कांग्रेस का इतिहास नहीं है। अत: संभावना यही है कि मनमोहन सिंह उदारीकरण की पूँजीवादी नीतियों को ही आगे बढ़ाएंगे तथा युवाओं को लुभाने के लिए पूँजीवादी सब्ज-बाग दिखाए जाएंगे लेकिन विश्वव्यापी मंदी और आतंकवाद के दोहरे दबाव को झेलते हुए कांग्रेस इस देश और युवा वर्ग की अपेक्षाओं पर कितना खरा उतरेगी इस पर भाजपा को गंभीर नजर रखनी होगी और एक सजग एवं उत्तरदायी विपक्ष की भूमिका निभानी होगी। कांग्रेस की चूक भाजपा के लिए संजीवनी साबित हो सकती है बशर्ते भाजपा अपने नेतृत्व एवं विचारधारा के स्तर पर लंबित समस्याओं का जल्द से जल्द समाधान कर ले। परंतु उसके लिए भाजपा को राजनैतिक लड़ाई मैदान में लड़नी होगी, वातानुकूलित कमरों में नहीं। चुनाव जमीनी प्रबंधन से जीते जाते हैं हाइटेक प्रचार से नहीं। भारत की राजनीतिक या आर्थिक हकीकत गुणात्मक रूप से अब भी वैसी ही है जैसी 2004 में थी, इसलिए गठबंधन की राजनीति का जीवन काल अभी लंबा है। 206 सीट आने के बाद कांग्रेस खुशफहमी में जी रही है कि राहुल गांधी के नेतृत्व में वह 2014 में अकेले सरकार बना लेगी। कांग्रेस की यह खुशफहमी देश की ठोस राजनीतिक धरातल के बारे में नासमझी की उपज है। छोटे क्षेत्रीय दलों के प्रति उसका मौजूदा नजरिया एक बार फिर से गैर-कांग्रेसवाद की आवश्यकता को बल प्रदान करेगा जिससे भाजपा को नि:संदेह फायदा होगा। वाम मोर्चा का पतन अब रूकने वाला नहीं है। नई चुनौतियों के इस युग में न वामपंथ का आकर्षण बचा है न जमीनी स्तर पर इनका संगठन ऊर्जावान है। अत: भाजपा 2014 में कांग्रेसी गठबंधन के खिलाफ एक विवेक सम्मत एवं ऊर्जावान धूरी अब भी बन सकती है बशर्ते वह अपनी वर्तमान कमियों को दूर करने में सफलता पा ले। वर्ना कोई नया दल या गठबंधन इस मौके का फायदा उठा सकता है । यह मौका है भारत को एक महान राष्ट्र बनाने के लिए सकारात्मक राजनीति करने का। यह मौका है भारतीय समाज की विविधता को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए विभिन्न समुदायों की आशा एवं आकांक्षा को प्रतिनिधित्व देने का। कोई भी एक दल इस काम को अकेले नहीं कर सकता। यह काम न जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में हो पाया था और न इंदिरा गांधी या राजीव गांधी के नेतृत्व में हो पाया था। यह काम न मोरारजी देसाई कर पाए थे और न नरसिम्हा राव। यह न अटल बिहारी वाजपेयी कर पाए थे और न अब तक मनमोहन सिंह कर पाये हैं। स्वतंत्रता आंदोलन की विरासत कब की खत्म हो चुकी है। अब सोनिया-राहुल की टीम कांग्रेस को चाहे जितना मजबूत करने की कोशिश करें, 545 सीटों की लोकसभा में कांग्रेस पार्टी अकेले भारत के सभी समुदायों और वर्गों के हितों की रक्षा नहीं कर सकती। इसके लिए कई राजनीतिक दलों की प्रासंगिकता बनी रहेगी। भारतीय राजनीति में राहुल कांग्रेस का अच्छा भविष्य है। लेकिन यह मानना कि केवल कांग्रेस का भविष्य है सच्चाई से मुँह मोड़ना है। भारत चीन या अमेरिका नहीं है। भारत में विविधता बढ़ी है, घटी नहीं है। इसके लिए प्रत्येक ऊर्जावान दल को नई राजनीतिक रणनीति रचनी पड़ेगी, नया नारा गढ़ना पड़ेगा। नया एजेंडा लाना पड़ेगा, नई प्रतिबध्दता विकसित करनी पड़ेगी। नई सत्ता की राजनीति 2009 में शुरू हुई है अभी तो कई अप्रत्याशित घटनाएं घटनी हैं। 2014 में अभी 5 वर्ष बाकी है। 2019 में 10 वर्ष बाकी है। अभी से राहुल ब्रिगेड़ की 2014 में ताजपोशी निश्चित नहीं मानी जा सकती। यह असंभव नहीं है लेकिन काफी मुश्किल और अनगढ़ रास्तों से कांग्रेस पार्टी को चलना पड़ेगा। जरा सी चूक हुई कि राजनीति का शतरंज बदल जाएगा। यू. पी. में मायावती के साथ यही हुआ है। केन्द्र में कांग्रेस के साथ भी यही हो सकता है।.............part-5
भारतीय राजनीति का भविष्य............part-4
सिनेमा के अलावे राजनैतिक प्रक्रिया को धार्मिक भावनाएं भी गहराई से प्रभावित करती है। मैक्स वेबर ने विश्व के प्रमुख धर्मों के सामाजिक मनोविज्ञान का विश्लेषण प्रस्तुत किया है। अगस्त कोम्ट के जमाने से समाजशास्त्रियों का मानना रहा है कि समाज की धार्मिक भावनाओं के नियमण में पुरोहितों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। सेमेटिक धर्मों में पौरोहित्य प्रशिक्षण की व्यवस्थित प्रक्रिया है लेकिन सनातन धर्मों में इसकी प्रक्रिया अवरूध्द हो गई हैं। खासकर हिन्दुओं में पौरोहित्य प्रशिक्षण की युगानुकूल व्यवस्था लंबे समय से लंबित है। सोसाइटी फॉर इंडियन थॉट एंड एक्शन (SITA) इस क्षेत्र में गंभीर शोध, विमर्श एवं प्रशिक्षण में लगी हुई है। इसी तरह जगदगुरू रामानंदाचार्य राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय, जयपुर पौरोहित्य का डिप्लोमा शुरू करने जा रहा है। अशोक गहलोत की सरकार राज्य सरकार के अधीन मंदिरों एवं धर्मस्थानों में इन्हें नौकरी देगी। दक्षिण भारत के राज्यों में कर्मकांड जानने वाले पुरोहित पर्याप्त संख्या में मिल जाते हैं। जवाहरलाल नेहरू दूसरे प्रकार के युगानुकूल मंदिरों और पुरोहितों की बात करते थे। स्वामी विवेकानंद और दयानंद की दृष्टि से नेहरू प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित थे या वे यूरोपीय धर्म सुधार आंदोलन के प्रभाव में ऐसा कह रहे थे इसके बारे में केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है। परन्तु महात्मा गांधी की योजना भी इसी लक्ष्य (धार्मिक सुधार) को दूसरे साधनों से पूरा करने की थी। उनके सर्वोदयी कार्यकर्ता समकालीन भारत के पुरोहित ही थे। संघ (RSS) के प्रचारक भी अप्रत्यक्ष रूप से यही काम करने का दावा करते हैं। इन सबमें गांधी जी की समझ सबसे ज्यादा स्वदेशानुकूल थी। विवेकानंद एवं दयानंद भारतीय मध्यवर्ग की दृष्टि से ज्यादा युगानुकूल थे। जवाहरलाल नेहरू भी इसी शैव-शाक्त परम्परा के प्रतिनिधि थे।
जहां तक समकालीन भारतीय राजनीति की बात है 1977 से लोकसभा के सांसद बहुत कम मतों से जीत रहे हैं। मददाताओं में वोट डालने का उत्साह लगातार कम हो रहा है। 1977 में 60.5% वोटरों ने वोट डाला था। 2009 में 58.2% वोटरों ने वोट डाला। झारखंड और जम्मू काश्मीर के सांसदों को 17% मत मिलने पर विजय मिल गई है। बिहार और उत्तरप्रदेश में 18% मत विजय के लिए पर्याप्त था। महाराष्ट्र, उत्तराखंड और गुजरात के सांसदों को 23% मत मिला है। मध्य प्रदेश और राजस्थान के सांसदों को 24% मत मिला है। छत्तीसगढ़ के सांसदों को 25% मत मिला है। कर्नाटक में 26% मत मिला है। हरियाणा, आंध्र, असम, ओड़िसा के सांसदों को 29% मत मिला है। दिल्ली में 30% तमिलनाडु में 32% पंजाब में 33% केरल में 36% और बंगाल में 41% मत मिला है। यह लोकतंत्र के लिए बहुत अनुकूल स्थिति नहीं है कि 145 सांसदों को 20% से कम मत मिला है।
2020 में हम दुनिया के सबसे युवा राष्ट्र होंगे जहाँ कि औसत आयु 29 वर्ष होगी। लेकिन जब तक हमारी उच्च शिक्षा, तकनीकी शिक्षा और व्यावसायिक शिक्षा की समूची मरणासन्न व्यवस्था में पूर्ण क्रांतिकारी बदलाव नहीं होते भारत क्रुध्द, बेरोजगार और आवारा युवकों की आबादी बन जाएगी। तब भारत की वही हालत हो जाएगी जो फ्रांस की 1968 के आसपास थी। तब फ्रांस के विश्वविद्यालयों में युवाओं का विद्रोह फूट पड़ा था। उस वक्त फ्रांस में ज्यांपॉल सार्त्र की उसी तरह तूती बोल रही थी जिस तरह 2009 के आम चुनाव के बाद डा. मनमोहन सिंह की बोल रही है। सार्त्र की जिंदगी जब आकार ले रही थी तब फ्रांस समेत पूरे यूरोप में कोई भी आशा की किरण साबुत नहीं बची थी। दो विश्व युध्दों में अकल्पनीय सामूहिक संहार के सामने निरूपाय खड़ा सारा यूरोप कई स्तरों पर अकेला होता गया - सारे वाद, दर्शन, व्यवहार, रिश्ते बिखर गए या अर्थहीन हो गए। दर्शन, दिशा, अभिव्यक्ति की इस भयंकर अकेला कर देने वाली शून्यता को पहचानना और उसका उपाय खोजना बौध्दिक गहराई, उत्कंठा और साहस की मांग करता है। सार्त्र और उनकी मंडली में यह साहस था और इसी साहस ने उस दौर में सबका ध्यान खींचा। सार्त्र पूँजीवादी तथा मार्क्सवादी अतिरेकों और अतिवादों से परे एक तीसरा मध्यम मार्ग निकालना चाहते थे। तब तक पूँजीवाद और समाजवाद बीते जमाने की चीज बन चुकी थी। इनके पास समकालीन समस्याओं का समाधान नहीं है। महात्मा गांधी, जे. सी. कुमारप्पा और दत्तोपंत थेंगडी भी तीसरा रास्ता या मध्य मार्ग की बात भारत में करते रहे हैं। हाल में एंथोनी गिडेन्स भी तीसरे रास्ता की बात करते रहे हैं। लेकिन तीसरा रास्ता का सफर भारत और यूरोप दोनों जगह एक सैध्दांतिक संभावना भर रही है। इसका व्यावहारिक रास्ता काफी उबड़ खाबड़ है। एक पार्टी के रूप में भाजपा और तीसरे मोर्चे के अधिकांश घटक अनौपचारिक तौर पर इसी से मिलती-जुलती बात करते रहे हैं लेकिन इसका कोई ठोस औपचारिक विमर्श अभी तक इस देश में शुरू नहीं हो पाया है।.........................part-4
जहां तक समकालीन भारतीय राजनीति की बात है 1977 से लोकसभा के सांसद बहुत कम मतों से जीत रहे हैं। मददाताओं में वोट डालने का उत्साह लगातार कम हो रहा है। 1977 में 60.5% वोटरों ने वोट डाला था। 2009 में 58.2% वोटरों ने वोट डाला। झारखंड और जम्मू काश्मीर के सांसदों को 17% मत मिलने पर विजय मिल गई है। बिहार और उत्तरप्रदेश में 18% मत विजय के लिए पर्याप्त था। महाराष्ट्र, उत्तराखंड और गुजरात के सांसदों को 23% मत मिला है। मध्य प्रदेश और राजस्थान के सांसदों को 24% मत मिला है। छत्तीसगढ़ के सांसदों को 25% मत मिला है। कर्नाटक में 26% मत मिला है। हरियाणा, आंध्र, असम, ओड़िसा के सांसदों को 29% मत मिला है। दिल्ली में 30% तमिलनाडु में 32% पंजाब में 33% केरल में 36% और बंगाल में 41% मत मिला है। यह लोकतंत्र के लिए बहुत अनुकूल स्थिति नहीं है कि 145 सांसदों को 20% से कम मत मिला है।
2020 में हम दुनिया के सबसे युवा राष्ट्र होंगे जहाँ कि औसत आयु 29 वर्ष होगी। लेकिन जब तक हमारी उच्च शिक्षा, तकनीकी शिक्षा और व्यावसायिक शिक्षा की समूची मरणासन्न व्यवस्था में पूर्ण क्रांतिकारी बदलाव नहीं होते भारत क्रुध्द, बेरोजगार और आवारा युवकों की आबादी बन जाएगी। तब भारत की वही हालत हो जाएगी जो फ्रांस की 1968 के आसपास थी। तब फ्रांस के विश्वविद्यालयों में युवाओं का विद्रोह फूट पड़ा था। उस वक्त फ्रांस में ज्यांपॉल सार्त्र की उसी तरह तूती बोल रही थी जिस तरह 2009 के आम चुनाव के बाद डा. मनमोहन सिंह की बोल रही है। सार्त्र की जिंदगी जब आकार ले रही थी तब फ्रांस समेत पूरे यूरोप में कोई भी आशा की किरण साबुत नहीं बची थी। दो विश्व युध्दों में अकल्पनीय सामूहिक संहार के सामने निरूपाय खड़ा सारा यूरोप कई स्तरों पर अकेला होता गया - सारे वाद, दर्शन, व्यवहार, रिश्ते बिखर गए या अर्थहीन हो गए। दर्शन, दिशा, अभिव्यक्ति की इस भयंकर अकेला कर देने वाली शून्यता को पहचानना और उसका उपाय खोजना बौध्दिक गहराई, उत्कंठा और साहस की मांग करता है। सार्त्र और उनकी मंडली में यह साहस था और इसी साहस ने उस दौर में सबका ध्यान खींचा। सार्त्र पूँजीवादी तथा मार्क्सवादी अतिरेकों और अतिवादों से परे एक तीसरा मध्यम मार्ग निकालना चाहते थे। तब तक पूँजीवाद और समाजवाद बीते जमाने की चीज बन चुकी थी। इनके पास समकालीन समस्याओं का समाधान नहीं है। महात्मा गांधी, जे. सी. कुमारप्पा और दत्तोपंत थेंगडी भी तीसरा रास्ता या मध्य मार्ग की बात भारत में करते रहे हैं। हाल में एंथोनी गिडेन्स भी तीसरे रास्ता की बात करते रहे हैं। लेकिन तीसरा रास्ता का सफर भारत और यूरोप दोनों जगह एक सैध्दांतिक संभावना भर रही है। इसका व्यावहारिक रास्ता काफी उबड़ खाबड़ है। एक पार्टी के रूप में भाजपा और तीसरे मोर्चे के अधिकांश घटक अनौपचारिक तौर पर इसी से मिलती-जुलती बात करते रहे हैं लेकिन इसका कोई ठोस औपचारिक विमर्श अभी तक इस देश में शुरू नहीं हो पाया है।.........................part-4
भारतीय राजनीति का भविष्य.................part-3
इस बार कांग्रेस क्षेत्रीय दलों की कीमत पर बढ़ी है। भाजपा को नुकसान पहुंचा कर कांग्रेस मूलत: केवल शहरी क्षेत्रों और राजस्थान में जीती है। भाजपा को अपने सामाजिक आधार के बारे में समझदारी से योजना बनानी चाहिए और क्षेत्रीय स्तर पर कद्दावर नेताओं को तथा जमीनी कार्यकर्ताओं को फिर से सक्रिय करने के लिए अपने वैचारिक अधिष्ठान को युगानुकूल बनाकर ठोस एजेंडा पेश करना चाहिए। उत्तर भारत के 267 सीटों पर भाजपा की वर्तमान हालत एक राष्ट्रीय दल जैसी नहीं है। यदि यही हाल रहा तो भाजपा मात्र पश्चिमी भारत और कर्नाटक में सिमट कर रह जाएगी। 'डोला' प्रथा गुजरात में अभी हाल तक चली है। अत: उग्र हिन्दुत्व की गुजरात में आवश्यकता ऐतिहासिक रूप से बनी हुई थी। नरेन्द्र मोदी ने इस ऐतिहासिक आवश्यकता को पूरा किया। गुजराती हिन्दुओं की बहु- बेटियों की इज्जत 2002 तक सुरक्षित नहीं थी। अत: नरेन्द्र मोदी गुजरात के आम हिन्दुओं की दलित चेतना के प्रतिनिधि बन कर उभरे हैं। वहाँ अलग से बसपा या मायावती फेनोमेना की उत्तर प्रदेश जैसी संभावना सामान्य परिस्थिति में असंभव है। लेकिन हिन्दू प्रदेशों की सामाजिक परिस्थिति अलग है। मध्यप्रदेश, राजस्थान, पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, हिमाचल और उत्तरांचल आदि में उग्र हिन्दुत्व की सामाजिक-सांस्कृतिक आवश्यकता नहीं है। बंगाल में गुजरात जैसी स्थिति थी, अत: वहां सी. पी. एम. की उग्र राजनीति इतनी लंबी चली। सी. पी. एम. की उग्रता का विकल्प भी उग्र ममता बनर्जी ही हो सकती है। शिवराज सिंह चौहान, भूपेन्द्र सिंह हुड्डा, नीतीश कुमार, अशोक गहलोत, शीला दीक्षित, राहुल गांधी, नवीन पटनायक, जैसे मृदु स्वभाव के शालीन, व्यवहार कुशल नेतृत्व की उत्तर भारत में लोकप्रियता स्वाभाविक है। यह जुझारू कौमों (जातियों) का इलाका है। राष्ट्रीय स्तर पर तुलसीदास, रामकृष्ण परमहंस, महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, लालबहादुर शास्त्री, राजीव गांधी, नरसिम्हा राव, अटल बिहारी वाजपेयी, सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह जैसे व्यक्ति ही सफल नेतृत्व दे पाते हैं। राणा प्रताप, शिवाजी, गुरू गोविन्द सिंह, मोरारजी देसाई, संजय गांधी, वी. पी. सिंह, मायावती जैसे लोगों का अपना समर्थक वर्ग रहा है लेकिन इन्हें अखिल भारतीय स्तर पर वह सफलता नहीं मिली जो उपरोक्त शालीन, व्यवहार कुशल, लचीले युक्ति वादियों को मिली। इंदिरा गांधी एक अपवाद मानी जाएंगी। 16 वर्षों तक उनकी राजनीति में उग्रता और लचीलेपन का अजीब मिश्रण था। सरदार पटेल को आदर्श मानने वाले लालकृष्ण आडवाणी की राजनीति इंदिरा गांधी जैसी ज्यादा रही है सरदार पटेल जैसी कम परन्तु उनको इंदिरा गांधी की तरह सफलता नहीं मिली। दरअसल राजनीति में भाग्य की भूमिका तिकड़म और जोड़-तोड़ से ज्यादा होती है वर्ना शास्त्री, नरसिन्हा राव, मनमोहन सिंह, देवे गौड़ा या इन्दर गुजराल इस देश के प्रधानमंत्री नहीं होते। कल्याण सिंह की तुलना में राजनाथ सिंह ज्यादा भाग्यशाली रहे हैं। डॉ अंबेडकर की तुलना में कांसीराम-मायावती ज्यादा भाग्यशाली रहे हैं। आरिफ बेग की तुलना में उनके श्ष्यि शाहनवाज हुसैन ज्यादा भाग्यशाली रहे हैं।
अत: आने वाले 30 वर्षों की ठीक-ठीक राजनैतिक भविष्यवाणी नहीं की जा सकती, केवल महत्वपूर्ण प्रवृत्तियों की ओर ही संकेत किया जा सकता है। इसमें चुनाव से पूर्व प्रदर्शित सफलतम फिल्मों की कथा वस्तु और जितने वाली पार्टी या गठबंधन की राजनैतिक भाव-भूमि में एक संरचनात्मक सहधर्मिता दिखती है। उदाहरण के लिए 1952 के आम चुनाव से पहले फिल्म बैजू बावरा ने धूम मचाया हुआ था। 1957 के आम चुनाव से पहले मदर इंडिया और नया दौर की धूम मची हुई थी। 1967 के चुनाव से पहले उपकार फिल्म की धूम मची हुई थी। 1971 के आम चुनाव से पहले हरे रामा हरे कृष्णा की धूम मची हुई थी। 1977 के चुनावी साल में अमर अकबर एंथोनी की धूम मच रही थी। 1980 के चुनाव के समय कुर्बानी की धूम मची हुई थी। 1984 के चुनावी वर्ष में शराबी की धूम मची हुई थी। 1989 के चुनावों से पहले चांदनी और मैने प्यार किया की धूम मची हुई थी। 1991 के चुनावी वर्ष में हम और सौदागर की धूम मची हुई थी। 1996 के चुनावी वर्ष में राजा हिन्दूस्तानी और माचिस की धूम मची हुई थी। 1998 के चुनावी वर्ष में कुछ कुछ होता है और सत्या की धूम मची हुई थी। 1999 के चुनावी वर्ष में हम दिल दे चुके सनम और सरफरोश की धूम मची हुई थी। 2004 के चुनावी वर्ष में वीर जारा और धूम की सफलता चर्चित रही। 2009 के चुनावों से पहले राज 2 - द मिस्ट्री कंटीन्यूज एवं स्लमडॉग मिलेनियर की सफलता के साथ- साथ सिंह इज किंग, रब ने बना दी जोड़ी और गजनी की सफलता चौंकाती रही। तीनों फिल्में 2008 में रिलीज हुई थी और चुनाव के दौरान निर्माता-वितरक-मल्टीप्लेक्स का करीब-करीब दो माह से झगड़ा चल रहा था जिससे नई फिल्में रिलीज नहीं हो पा रही थीं। निर्माताओं और मल्टीप्लेक्स मालिकों की आपसी लड़ाई के तीन परिणाम हुए। एक तो यह की हिन्दी फिल्मों की प्रतियोगिता से मुक्त तीन विदेशी फिल्मों ने बाजी मारी। पहली फिल्म ऐंजल्स एंड डेमंस रही। दूसरी फिल्म स्टार ट्रेक रही। तीसरी फिल्म हैरी पॉटर एंड हाफ ब्लड प्रिंस रही। ऐंजल्स एंड डेमंस डा विंची कोड से पहले की कहानी है। यह एक मिथकिय फिल्म है जो डैन ब्राउन नामक लेखक की रचना है। इसका दूसरा परिणाम कांग्रेस और डी एम के की 2009 के लोक सभा चुनाव में अप्रत्याशित जीत रही। कांग्रेस की जीत की तुलना ऐंजल्स एंड डेमंस फिल्म से की जा सकती है। जबकि डी एम के की सफलता की तुलना स्टार ट्रेक से की जा सकती है। जब भी लोग आपस में लड़ते हैं हमेशा विदेशियों को फायदा होता है। राजनीति में विदेशियों की तुलना विपक्षियों से की जा सकती है। इसका तीसरा परिणाम श्रीलंका में शांति और एल टी टी ई का सफाया कहा जा सकता है। तीस वर्षों से प्रभाकरण श्रीलंकाई तमिलों का खूनी प्रतिनिधित्व कर रहा था। इसी तरह बिहार में लालू प्रसाद और राम विलास पासवान की तीस वर्षों की उग्र राजनीति का अंत हो गया। इसकी तुलना हैरी पॉटर एंड हाफ ब्लड प्रिंस से की जा सकती है।
विशेषज्ञों ने उपरोक्त फिल्मों की सफलता के कारण और सफल पाटिर्यों की सफलता के कारणों के बीच संरचनात्मक सहधर्मिता ढूँढा है। जो जनता अपना नेता चुनती है वह अपना मनोरंजन चुनना भी जानती है। दोनों चुनावों में संरचनात्मक संगति का बार-बार सामने आना महज संयोग नहीं कहा जा सकता। इसके पीछे जनता का सामाजिक मनोविज्ञान काम कर रहा होता है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में 'सिनेमा एंड कल्चर इन इंडिया' विषय पर एक लोकप्रिय कोर्स की पढाई होती है जिसमें जनता के उपरोक्त सामाजिक मनोविज्ञान पर गहन विश्लेषण प्रस्तुत किया जाता है। यह राजनैतिक समाजशास्त्र का एक नया आयाम है जिससे राजनैतिक प्रशिक्षण का नया कोर्स विकसित होने की प्रक्रिया में है। इसका लाभ आने वाले चुनाव से पहले उपलब्ध हो जाएगा।...................part-3
अत: आने वाले 30 वर्षों की ठीक-ठीक राजनैतिक भविष्यवाणी नहीं की जा सकती, केवल महत्वपूर्ण प्रवृत्तियों की ओर ही संकेत किया जा सकता है। इसमें चुनाव से पूर्व प्रदर्शित सफलतम फिल्मों की कथा वस्तु और जितने वाली पार्टी या गठबंधन की राजनैतिक भाव-भूमि में एक संरचनात्मक सहधर्मिता दिखती है। उदाहरण के लिए 1952 के आम चुनाव से पहले फिल्म बैजू बावरा ने धूम मचाया हुआ था। 1957 के आम चुनाव से पहले मदर इंडिया और नया दौर की धूम मची हुई थी। 1967 के चुनाव से पहले उपकार फिल्म की धूम मची हुई थी। 1971 के आम चुनाव से पहले हरे रामा हरे कृष्णा की धूम मची हुई थी। 1977 के चुनावी साल में अमर अकबर एंथोनी की धूम मच रही थी। 1980 के चुनाव के समय कुर्बानी की धूम मची हुई थी। 1984 के चुनावी वर्ष में शराबी की धूम मची हुई थी। 1989 के चुनावों से पहले चांदनी और मैने प्यार किया की धूम मची हुई थी। 1991 के चुनावी वर्ष में हम और सौदागर की धूम मची हुई थी। 1996 के चुनावी वर्ष में राजा हिन्दूस्तानी और माचिस की धूम मची हुई थी। 1998 के चुनावी वर्ष में कुछ कुछ होता है और सत्या की धूम मची हुई थी। 1999 के चुनावी वर्ष में हम दिल दे चुके सनम और सरफरोश की धूम मची हुई थी। 2004 के चुनावी वर्ष में वीर जारा और धूम की सफलता चर्चित रही। 2009 के चुनावों से पहले राज 2 - द मिस्ट्री कंटीन्यूज एवं स्लमडॉग मिलेनियर की सफलता के साथ- साथ सिंह इज किंग, रब ने बना दी जोड़ी और गजनी की सफलता चौंकाती रही। तीनों फिल्में 2008 में रिलीज हुई थी और चुनाव के दौरान निर्माता-वितरक-मल्टीप्लेक्स का करीब-करीब दो माह से झगड़ा चल रहा था जिससे नई फिल्में रिलीज नहीं हो पा रही थीं। निर्माताओं और मल्टीप्लेक्स मालिकों की आपसी लड़ाई के तीन परिणाम हुए। एक तो यह की हिन्दी फिल्मों की प्रतियोगिता से मुक्त तीन विदेशी फिल्मों ने बाजी मारी। पहली फिल्म ऐंजल्स एंड डेमंस रही। दूसरी फिल्म स्टार ट्रेक रही। तीसरी फिल्म हैरी पॉटर एंड हाफ ब्लड प्रिंस रही। ऐंजल्स एंड डेमंस डा विंची कोड से पहले की कहानी है। यह एक मिथकिय फिल्म है जो डैन ब्राउन नामक लेखक की रचना है। इसका दूसरा परिणाम कांग्रेस और डी एम के की 2009 के लोक सभा चुनाव में अप्रत्याशित जीत रही। कांग्रेस की जीत की तुलना ऐंजल्स एंड डेमंस फिल्म से की जा सकती है। जबकि डी एम के की सफलता की तुलना स्टार ट्रेक से की जा सकती है। जब भी लोग आपस में लड़ते हैं हमेशा विदेशियों को फायदा होता है। राजनीति में विदेशियों की तुलना विपक्षियों से की जा सकती है। इसका तीसरा परिणाम श्रीलंका में शांति और एल टी टी ई का सफाया कहा जा सकता है। तीस वर्षों से प्रभाकरण श्रीलंकाई तमिलों का खूनी प्रतिनिधित्व कर रहा था। इसी तरह बिहार में लालू प्रसाद और राम विलास पासवान की तीस वर्षों की उग्र राजनीति का अंत हो गया। इसकी तुलना हैरी पॉटर एंड हाफ ब्लड प्रिंस से की जा सकती है।
विशेषज्ञों ने उपरोक्त फिल्मों की सफलता के कारण और सफल पाटिर्यों की सफलता के कारणों के बीच संरचनात्मक सहधर्मिता ढूँढा है। जो जनता अपना नेता चुनती है वह अपना मनोरंजन चुनना भी जानती है। दोनों चुनावों में संरचनात्मक संगति का बार-बार सामने आना महज संयोग नहीं कहा जा सकता। इसके पीछे जनता का सामाजिक मनोविज्ञान काम कर रहा होता है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में 'सिनेमा एंड कल्चर इन इंडिया' विषय पर एक लोकप्रिय कोर्स की पढाई होती है जिसमें जनता के उपरोक्त सामाजिक मनोविज्ञान पर गहन विश्लेषण प्रस्तुत किया जाता है। यह राजनैतिक समाजशास्त्र का एक नया आयाम है जिससे राजनैतिक प्रशिक्षण का नया कोर्स विकसित होने की प्रक्रिया में है। इसका लाभ आने वाले चुनाव से पहले उपलब्ध हो जाएगा।...................part-3
भारतीय राजनीति का भविष्य.................part-2
सी. एस. डी. एस. के चुनाव विश्लेषण में इसी की छाया दिखती है। यह भाजपा के लिए आत्म- परीक्षण करने का सुनहरा मौका है। धीरे - धीरे भारतीय मध्यवर्ग की प्राथमिकताएं एवं आकांक्षाएं बदल गई हैं। अब युवा मतदाताओं की संख्या निर्णायक है। खासकर शहरी युवा 1950 से 1990 के बीच के मुद्दों से अपने को जोड़ नहीं पाता। 1991 के उदारीकरण के बाद एक नया ''भारत'' और एक नया ''इंडिया'' उभर रहा है। न अब गांव वैसे रहे, न शहर वैसे रहे। परन्तु इस देश के अधिकांश दल इस सच्चाई से अब भी मुँह चुरा रहे हैं। कांग्रेस का नेतृत्व भी पूरी तरह इस सच्चाई से वाकिफ नहीं है। लेकिन कुल मिलाकर वह तुलनात्मक रूप से मतदाताओं की नजर में बेहतर साबित हुई है। यदि भाजपा इस चुनाव परिणाम से सबक लेकर कायाकल्प करे तो अगले चुनाव में उसका प्रदर्शन बेहतर हो सकता है। वर्ना कोई नया दल सामने आयेगा। जनसंघ और भाजपा का जन्म नेहरूवादी अनियमितताओं को दुरूस्त करने के लिए हुआ था। भारत के बंटवारे के बाद पाकिस्तान से आए शरणार्थी एवं आर्यसमाज के समर्थक जनसंघी विचारधारा के सबसे कट्टर समर्थक थे। यह शीतयुध्द का भी काल था। भाजपा सोवियत संघ समर्थक कांग्रेस के विरूध्द एक प्रकार के नाटो समर्थक दल के रूप में उभरी थी। स्वामी विवेकानंद के हिन्दुत्व से भी यह प्रभावित थी। स्वामी विवेकानंद पश्चिमी ज्ञानविज्ञान एवं लोकतंत्र के साथ भारतीय संस्कृति के समन्वय की बात करते थे। अत: जब कांग्रेस ने 1991 से 1996 के बीच उदारीकरण चलाकर नेहरूवाद की इतिश्री कर दी तो भाजपा के प्रति मध्यवर्ग का स्वाभाविक रूप से आकर्षण बढ़ा। कांग्रेस खुद जनसंघ - भाजपा की नीतियों पर चलने वाली पार्टी बन चुकी थी। 1996, 1998, 1999 में भाजपा लगातार सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। लेकिन तब तक भाजपा का कांग्रेसीकरण पूरा हो चुका था। यह विशिष्ट पहचान वाली पार्टी नहीं रह गई थी। इसका 1998 से 2004 तक का शासन काल अन्य सरकारों से गुणात्मक रूप से भिन्न नहीं था। भाजपा ने खुद नारा लगाया था, सबको परखा बार–बार, हमको परखो एक बार। जनता ने जब भाजपा को शासन देकर परख लिया तो इस नारे का महत्व समाप्त हो गया। भाजपा भी वैसी ही निकली। इसकी कथनी और करनी में कांग्रेस से भी ज्यादा बड़ा अन्तर्विरोध निकला। 2004 से 2009 तक भाजपा अपनी हार के असली कारण को समझने से लगातार बचती रही। फलस्वरूप समयानुकूल परिवर्तन की बजाय भाजपा खुशफहमी में अपनी सरकार के लौटने का इंतजार करती रही। यह ''बैड लूजर'' साबित हुई वर्ना 2009 में उसकी जीत करीब-करीब पक्की थी। कांग्रेसी तक नहीं मान रहे थे कि 160-165 से ज्यादा सीटें आएंगी। 2009 में सीटों के परिसीमन के बाद यह पहला चुनाव था। कांग्रेस विकल्पहीनता के कारण 206 सीटों पर विजयी हुई है। 2004 में भाजपा अपने अंहकार के कारण 182 से 138 पर पहुंची थी। हमारी प्रजातांत्रिक व्यवस्था अब वयस्क हो चुकी है। अब मतदाता भावावेश में आकर वोट नहीं डालता। अपने विवेक से अपना नेता चुनता है। अब हम सर्वसमावेशी राजनीति के दौर में जी रहे हैं। इसमें वोटरों को वोट डालने के लिए प्रेरित करना सबसे आवश्यक है। इसमें अपनी एजेडा की बात करना ज्यादा आवश्यक है विरोधियों के प्रति नकारात्मक प्रचार उपयोगी साबित नहीं होती। धीरे-धीरे भाजपा की नैतिक धुरी गायब होती चली गई है। 2004 में 'इंडिया शाइनिंग' के अव्यवहारिक, खोखले नारे के बाद भाजपा का प्रचार अभियान विरोधी दलों के बारे में नकारात्मक प्रचार में ज्यादा जुटा रहा। इसके लिए आडवाणी के आसपास जड़विहीन ''विशेषज्ञों की मंडली जिम्मेदार मानी जाती है। हर दल की तरह जीतने की क्षमता को विचारधारा या नैतिकता पर तरजीह देकर टिकट बंटवारा का चलन आडवाणी, प्रमोद महाजन, सुधीन्द्र कुलकर्णी युग से पहले भाजपा में देखने-सुनने को नहीं मिलती थी। ऐसा लगता है कि भाजपा के कद्दावर नेता वर्तमान और भविष्य के लिए पार्टी को तैयार करने की बजाय आपसी लड़ाई में समय व्यतीत करते हैं और संगठन, विचारधारा तथा प्रचार-प्रसार का काम भाड़े के तिकड़मियों को दे दिया गया है। इसके बजाय कांग्रेस में सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह, राहुल गांधी का केन्द्रीय नेतृत्व तुलनात्मक रूप से ज्यादा परिपक्व दूरदर्शिता दिखलाने में कामयाब रहा है। परिसीमन आयोग ने लोकसभा एवं विधानसभा का नया परिसीमन किया है इसके राजनीतिक फलितार्थों के दृष्टि से अन्य दलों की तुलना में कांग्रेसी नेतृत्व संभवत: ज्यादा सजग था। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि 1984 में राजीव गांधी को 415 सीटें मिली थी और भाजपा को मात्र 2 । 1989 में कांग्रेस की सीटें 197 यानि आधी से भी कम रह गई थीं जबकि भाजपा की सीटें 2 से 86 हो गई थीं। अगले आम चुनाव में कांग्रेस को कड़ी प्रतियोगिता का सामना करना पड़ेगा। वामपंथी दलों का गढ़ अब ढ़हने लगा है। भाजपा को पश्चिम बंगाल, केरल और तेलंगाना में विशेष मेहनत करना चाहिए। उत्तर भारत में उसे कांग्रेस विरोधी प्रभु जातियों को अपने साथ फिर से जोड़ना चाहिए।.............part-2
भारतीय राजनीति का भविष्य..................part-1
भारतीय राजनीति में एक नए युग का शुभारंभ हो गया है। हमारे प्रजातंत्र में समन्वय का युग शुरू हुआ है। 1947 से 1977 तक थीसिस था। 1977 से 2007 एंटीथीसिस था। अब सिन्थेसिस का युग है। यह कमसे कम 30 वर्षों तक चलेगा। अब किसी भी तरह के अतिवाद या उग्रवाद के लिए जगह नहीं है। मध्यमार्ग ही सबका मार्ग होगा- लेफ्ट, राइट या सेन्टर (वामपंथ, दक्षिण पंथ, केन्द्रवाद या छद्म सेकुलरवाद/ धर्मनिरपेक्षवाद) सबको अति से बचना होगा। भारत एक हिन्दू बहुल देश है साथ ही यह विविधताओं वाला देश भी है। प्रजातंत्र की जड़ें गहरी हो चुकी हैं। देश की जनता समझदार हो चुकी है। आप केवल नारे लगाकर या मीडिया प्रबंधन के द्वारा इस देश की सत्ता नहीं पा सकते। ठोस काम करना होगा। सामाजिक न्याय की ईमानदार कोशिश करनी होगी। जनता बेहतर या कम खतरनाक विकल्प चुनेगी। इस देश का मानस क्रांति में विश्वास नहीं करता है। क्रमिक सुधार में विश्वास करता है। अनाडियों या ढ़ोंगियों की जमात से यह पारदर्शक भोगियों को ज्यादा भरोसेमंद मानता है।
सी एस डी एस के एक अध्ययन से पता चला है कि राष्ट्रीय चुनाव 2009 के दौरान कांग्रेसी गठबंधन ने शहरी निर्वाचन क्षेत्रों में अपनी सीटों और वोट प्रतिशत का इजाफा किया है। बंगलुरू और अहमदाबाद को छोड़कर भारत के सभी महानगरों में कांग्रेसी गठबंधन ने दूसरों का सफाया कर दिया है। कांग्रेसी गठबंधन ने 57 बड़ी शहरी सीटों में से 34 पर जीत हासिल की, जबकि भाजपायी गठबंधन को महज 19 सीटें मिलीं। अर्धशहरी इलाकों की 144 सीटों में से कांग्रेसी गठबंधन को 81 सीटों पर सफलता मिली जबकि भाजपायी गठबंधन को यहां पर मात्र 39 सीटें मिलीं। शहरी मध्यवर्ग के मतदाताओं के बीच कांग्रेसी गठबंधन भाजपायी गठबंधन से 15 फीसदी आगे रहा। भाजपा 1990 के दशक तक शहरी मध्यवर्ग की पार्टी मानी जाती थी। 1950 के दशक से 2009 के चुनाव तक जनसंघ-भाजपा ने कांग्रेस को भ्रष्ट, वंशवादी, छद्म धर्मनिरपेक्ष पार्टी के रूप में मीडिया में पेश किया है। मध्यवर्ग में भाजपा की लोकप्रियता ने 1990 के दशक में इसे केन्द्रीय स्तर पर सत्ता सुख हासिल करने का मौका दिया था।
अटल बिहारी वाजपेयी इस भाजपा के प्रतीक पुरूष थे। उन्होंने जनसंघ-भाजपा को 1950 के दशक से एक सुयोग्य एवं सक्षम टीम के बलपर कांग्रेसी वर्चस्व के प्रभावी विकल्प के रूप में तैयार किया था। इसमें दीनदयाल उपाध्याय, नानाजी देशमुख, जगन्नाथ राव जोशी, सुन्दर सिंह भंडारी, जे.पी. माथुर, केदारनाथ साहनी, केवल रतन मलकानी, लालकृष्ण आडवाणी, भैरो सिंह शेखावत, कुशाभाऊ ठाकरे, जनाकृष्णमूर्ति, विजया राजे सिंधिया, ओ. राजगौपाल, मुरली मनोहर जोशी, कल्याण सिंह, विष्णुकांत शास्त्री और कैलाशपति मिश्र आदि शामिल थे। 1985 में लालकृष्ण आडवाणी का दूसरे महत्वपूर्ण व्यक्ति के रूप में उदय हुआ। 1985 से अटल बिहारी वाजपेयी जननेता बने रहे और संगठन तथा विचारधारा के मामले में आडवाणी का वर्चस्व स्थापित होना शुरू हुआ। इनके आसपास जनता एवं इस देश की अस्मिता से कटे चाटुकारों, मैनेजरों और मीडिया प्रबंधकों की भीड़ इकट्ठा होने लगी। 1990 के दशक से तिकड़मी पार्टी एवं सरकारी महकमों में प्रतिष्ठित होते रहे और जमीनी कार्यकर्ता एवं प्रतिबध्द विचारक दरकिनार होने लगे। मध्यवर्ग और मीडिया में भाजपा को लोकतांत्रिक, नैतिक, प्रखर राष्ट्रवादी और नरम हिन्दुत्व वाला पार्टी माना जाता रहा। 1998 से 2004 तक राष्ट्रीय स्तर पर सत्ता मिलने के बाद प्रमोद महाजन, ब्रजेश मिश्र, रंजन भट्टाचार्य, अरूण जेटली, यशवंत सिन्हा, सुधीन्द्र कुलकर्णी, बलबीर पुंज, दीपक चोपड़ा जैसे लोग असली भाजपा बन चुके थे। अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी इनके अलावा किसी की भी सुनते ही नहीं थे। 2004 के बाद धीरे-धीरे आडवाणी सुधीन्द्र कुलकर्णी, दीपक चोपड़ा, प्रद्युत बोरा, बलबीर पुंज, नरसिम्हा राव आदि के मार्ग दर्शन में चलने लगे। अटल बिहारी वाजपेयी अपने ''परिवार'' तक सिमटकर रह गए। इस भाजपा को मध्यवर्ग के मतदाता के बीच हो चुके गुणात्मक परिवर्तन की जमीनी समझ नहीं रह गई थी। प्रतिबध्द कार्यकर्ता एवं जमीनी विचारक छटपटाते - छटपटाते घर बैठ चुके थे। 2009 के चुनाव परिणाम पर इसका असर पड़ना ही था।..................part-1
सी एस डी एस के एक अध्ययन से पता चला है कि राष्ट्रीय चुनाव 2009 के दौरान कांग्रेसी गठबंधन ने शहरी निर्वाचन क्षेत्रों में अपनी सीटों और वोट प्रतिशत का इजाफा किया है। बंगलुरू और अहमदाबाद को छोड़कर भारत के सभी महानगरों में कांग्रेसी गठबंधन ने दूसरों का सफाया कर दिया है। कांग्रेसी गठबंधन ने 57 बड़ी शहरी सीटों में से 34 पर जीत हासिल की, जबकि भाजपायी गठबंधन को महज 19 सीटें मिलीं। अर्धशहरी इलाकों की 144 सीटों में से कांग्रेसी गठबंधन को 81 सीटों पर सफलता मिली जबकि भाजपायी गठबंधन को यहां पर मात्र 39 सीटें मिलीं। शहरी मध्यवर्ग के मतदाताओं के बीच कांग्रेसी गठबंधन भाजपायी गठबंधन से 15 फीसदी आगे रहा। भाजपा 1990 के दशक तक शहरी मध्यवर्ग की पार्टी मानी जाती थी। 1950 के दशक से 2009 के चुनाव तक जनसंघ-भाजपा ने कांग्रेस को भ्रष्ट, वंशवादी, छद्म धर्मनिरपेक्ष पार्टी के रूप में मीडिया में पेश किया है। मध्यवर्ग में भाजपा की लोकप्रियता ने 1990 के दशक में इसे केन्द्रीय स्तर पर सत्ता सुख हासिल करने का मौका दिया था।
अटल बिहारी वाजपेयी इस भाजपा के प्रतीक पुरूष थे। उन्होंने जनसंघ-भाजपा को 1950 के दशक से एक सुयोग्य एवं सक्षम टीम के बलपर कांग्रेसी वर्चस्व के प्रभावी विकल्प के रूप में तैयार किया था। इसमें दीनदयाल उपाध्याय, नानाजी देशमुख, जगन्नाथ राव जोशी, सुन्दर सिंह भंडारी, जे.पी. माथुर, केदारनाथ साहनी, केवल रतन मलकानी, लालकृष्ण आडवाणी, भैरो सिंह शेखावत, कुशाभाऊ ठाकरे, जनाकृष्णमूर्ति, विजया राजे सिंधिया, ओ. राजगौपाल, मुरली मनोहर जोशी, कल्याण सिंह, विष्णुकांत शास्त्री और कैलाशपति मिश्र आदि शामिल थे। 1985 में लालकृष्ण आडवाणी का दूसरे महत्वपूर्ण व्यक्ति के रूप में उदय हुआ। 1985 से अटल बिहारी वाजपेयी जननेता बने रहे और संगठन तथा विचारधारा के मामले में आडवाणी का वर्चस्व स्थापित होना शुरू हुआ। इनके आसपास जनता एवं इस देश की अस्मिता से कटे चाटुकारों, मैनेजरों और मीडिया प्रबंधकों की भीड़ इकट्ठा होने लगी। 1990 के दशक से तिकड़मी पार्टी एवं सरकारी महकमों में प्रतिष्ठित होते रहे और जमीनी कार्यकर्ता एवं प्रतिबध्द विचारक दरकिनार होने लगे। मध्यवर्ग और मीडिया में भाजपा को लोकतांत्रिक, नैतिक, प्रखर राष्ट्रवादी और नरम हिन्दुत्व वाला पार्टी माना जाता रहा। 1998 से 2004 तक राष्ट्रीय स्तर पर सत्ता मिलने के बाद प्रमोद महाजन, ब्रजेश मिश्र, रंजन भट्टाचार्य, अरूण जेटली, यशवंत सिन्हा, सुधीन्द्र कुलकर्णी, बलबीर पुंज, दीपक चोपड़ा जैसे लोग असली भाजपा बन चुके थे। अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी इनके अलावा किसी की भी सुनते ही नहीं थे। 2004 के बाद धीरे-धीरे आडवाणी सुधीन्द्र कुलकर्णी, दीपक चोपड़ा, प्रद्युत बोरा, बलबीर पुंज, नरसिम्हा राव आदि के मार्ग दर्शन में चलने लगे। अटल बिहारी वाजपेयी अपने ''परिवार'' तक सिमटकर रह गए। इस भाजपा को मध्यवर्ग के मतदाता के बीच हो चुके गुणात्मक परिवर्तन की जमीनी समझ नहीं रह गई थी। प्रतिबध्द कार्यकर्ता एवं जमीनी विचारक छटपटाते - छटपटाते घर बैठ चुके थे। 2009 के चुनाव परिणाम पर इसका असर पड़ना ही था।..................part-1
भ्रष्टाचार से निपटने को संविधान संशोधन की तैयारी
भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के सुझाव देने के लिए पिछले सप्ताह गठित मंत्रियों के समूह के कार्यक्षेत्र में राजनीतिज्ञों सहित सरकारी कर्मचारियों और नौकरशाहों के ऐसे दुराचरण के मामलों को फास्ट-ट्रैक आधार पर निपटाने के लिए संविधान में संशोधन पर विचार करना शामिल है।
टू जी स्पेक्ट्रम सहित भ्रष्टाचार के कई मामलों पर विपक्ष के आरोपों से घिरी सरकार ने दुराचरण के मामलों से कड़ाई से निपटने की तैयारियों के तहत पिछले सप्ताह वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी की अध्यक्षता में आठ सदस्यीय समूह का गठन किया था। इस समूह को 60 दिन के अंदर अपनी रिपोर्ट सौंपनी है।
मंत्रियों का यह समूह भ्रष्टाचार से विधायी और प्रशासनिक दोनों तरीकों से निपटने के उपाय सुझाएगा।
इस समूह के कार्यक्षेत्र में सरकारी खर्च पर चुनाव कराने, सरकारी खरीद और ठेकों में पूरी पारदर्शिता बरतने, केंद्रीय मंत्रियों के विशेषाधिकारों को समाप्त करने और प्राकृतिक संसाधनों के दोहन आदि की खुली और प्रतिस्पर्धात्मक व्यवस्था के सुझाव देना शामिल है।
मुखर्जी की अध्यक्षता वाले इस समूह में शरद पवार, ए के एंटनी, एम वीरप्पा मोइली, कपिल सिब्बल, ममता बनर्जी और एम के अझागिरी शामिल हैं। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भ्रष्टाचार से सीधे निपटने के लिए पिछले महीने पांच सूत्री योजना सुझाई थी। उसी की पृष्ठभूमि में इस समूह का गठन किया गया है।
सोनिया के पांच सूत्रों में राजनीतिज्ञों सहित सरकारी कर्मचारियों के खिलाफ उठने वाले भ्रष्टाचार के मामलों को फास्ट ट्रैक के आधार पर निपटाना शामिल है। उन्होंने सरकारी खर्च से चुनाव कराने का भी सुझाव दिया है। सरकारी खरीदों में पूर्ण पारदर्शिता बरतने और मुख्यमंत्रियों तथा केंद्र और राज्यों के मंत्रियों के विशेषाधिकार समाप्त किया जाना भी सोनिया के सुझावों में शामिल है।
संप्रग अध्यक्ष ने यह सुझाव भी दिया है कि प्राकृतिक संसाधनों के दोहन में खुली और प्रतिस्पर्धात्मक प्रणाली बनाई जाए।
टू जी स्पेक्ट्रम सहित भ्रष्टाचार के कई मामलों पर विपक्ष के आरोपों से घिरी सरकार ने दुराचरण के मामलों से कड़ाई से निपटने की तैयारियों के तहत पिछले सप्ताह वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी की अध्यक्षता में आठ सदस्यीय समूह का गठन किया था। इस समूह को 60 दिन के अंदर अपनी रिपोर्ट सौंपनी है।
मंत्रियों का यह समूह भ्रष्टाचार से विधायी और प्रशासनिक दोनों तरीकों से निपटने के उपाय सुझाएगा।
इस समूह के कार्यक्षेत्र में सरकारी खर्च पर चुनाव कराने, सरकारी खरीद और ठेकों में पूरी पारदर्शिता बरतने, केंद्रीय मंत्रियों के विशेषाधिकारों को समाप्त करने और प्राकृतिक संसाधनों के दोहन आदि की खुली और प्रतिस्पर्धात्मक व्यवस्था के सुझाव देना शामिल है।
मुखर्जी की अध्यक्षता वाले इस समूह में शरद पवार, ए के एंटनी, एम वीरप्पा मोइली, कपिल सिब्बल, ममता बनर्जी और एम के अझागिरी शामिल हैं। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भ्रष्टाचार से सीधे निपटने के लिए पिछले महीने पांच सूत्री योजना सुझाई थी। उसी की पृष्ठभूमि में इस समूह का गठन किया गया है।
सोनिया के पांच सूत्रों में राजनीतिज्ञों सहित सरकारी कर्मचारियों के खिलाफ उठने वाले भ्रष्टाचार के मामलों को फास्ट ट्रैक के आधार पर निपटाना शामिल है। उन्होंने सरकारी खर्च से चुनाव कराने का भी सुझाव दिया है। सरकारी खरीदों में पूर्ण पारदर्शिता बरतने और मुख्यमंत्रियों तथा केंद्र और राज्यों के मंत्रियों के विशेषाधिकार समाप्त किया जाना भी सोनिया के सुझावों में शामिल है।
संप्रग अध्यक्ष ने यह सुझाव भी दिया है कि प्राकृतिक संसाधनों के दोहन में खुली और प्रतिस्पर्धात्मक प्रणाली बनाई जाए।
पंचायती राज-कितनी हकीकत,कितना फॅसाना
73वें संविधान संशोधन के बाद देश में पंचायती राज का सपना साकार हो सका है।इस एवज में पंचायतों के परम्परागत स्वरूप में काफी बदलाव आ गये हैं।सबसे बडा बदलाव पंचायतों के न्यायिक स्वरूप में आया है।खैर,इस बात से अलग इस समय पंचायत चुनाव की हकीकत खुली ऑखों से देखी जानी जरूरी है,ताकि हम जान सकें कि पंचायती राज कानून के रास्ते भारत के निचले पायदान पर लोकतंत्र स्थापित करने के कितने करीब हैं।सही नजरिया गॉव स्तर पर चुनाव की तैयारियों से प्राप्त करना ज्यादा कारगर होगा।
इस समय पूरे-पूरे गॉंव चुनाव के प्रति जागरूक हैं।शायद ही कोई गॉव का निवासी ऐसा होगा,जो चुनावी गणित में अपने को विशेषज्ञ न समझता हो।इसे देखकर तो ऐसा लगता है,जैसे,राग दरबारी उपन्यास का पात्र शनीचर हर जगह मौजूद है।अपनी जाति के वोट बढाने एवं लाठी की ताकत बढाने के लिये आम आदमी जनसंख्या बढाने में पूरी तरह से व्यस्त है।वह व्यस्त रहने के लिये और कोई काम नहीं करता।दबी-छुपी बेरोजगारी से पूरे गॉंव त्रस्त हैं।गॉव के कई स्थानों पर लोग गोल घेरे में बैठे हुये ताश या जुआ खेलते मिल जायेंगें।इस खेल में खिलाडियों की साख को ऐसे युवक प्रमाणित करते हैं,जो थानों में पुलिस से थोडी-बहुत जुगाड रखते हैं एवं वास्ता पडने पर किसी भी विवाद में दान-दक्षिणा देकर मामले को रफा-दफा कर सकतें हैं।सही मायने में यही लोग गॉव में नेता हैं।इस मामले में बाबा रामदेव का कथन सही दिखता है कि गॉव की राजनीति थानों व ब्लाकों से चलती है।पुलिस का एक सिपाही या दरोगा किसी की नेतागिरी हिट कर सकता है या उसे पलीता लगा सकता है।इसलिये आमतौर पर नेतागिरी की इच्छा रखने वाला कोई भी आदमी पुलिस के खिलाफ नहीं जाता।यहॉं पुलिस पंचायतों के अनुसार नहीं चलती बल्कि पंचायतें पुलिस के अनुकूल कार्य करती हैं।गॉंव के कुछ समझदार व पढे लिखे लोग बताते हैं कि पंचायती राज कानून के बनने से पहले,आजादी के बाद ग्राम स्वराज की संकल्पना में गॉंवों को विकास का केन्द्र बनाया जाना प्रस्तावित था लेकिन पता नहीं फिर कब व कैसे, गॉंव के स्थान पर ब्लाक व तहसील काबिज हो गये।अब केबल गॉव का सचिव व लेखपाल नियुक्त गॉंव के लिये होता है लेकिन उसका कार्यालय ब्लाक व तहसील में होता है और उनकी असली ताकत जिला मुख्यालय पर होती है।अब प्रधान उनकी बाट जोहते हैं,यदा-कदा इनके दर्शन गॉव में होते हैं।
गॉव में एक कहावत बहुत प्रचलन में है कि ‘‘प्रधानी का चुनाव,प्रधानमंत्री के चुनाव से ज्यादा कठिन है।‘’वास्तव में ऐसा है भी क्योंकि पूरे पॉच साल तक के सम्बध अब वोट निधार्रित करता है न कि गॉंव समाज का आपसी सम्बध।चुनाव में यह स्पष्ट रहता है कि किसने किसको वोट दिया है।अब गॉव के प्रधान की हैसियत पहले के विधायक की बराबर है। यह भी बिल्कुल सच है क्योंकि अब गॉव के विकास कार्यो के लिये इतना ज्यादा पैसा आता है कि उसमें हिस्सेदारी की कीमत किसी भी रंजिश को बरदाश्त कर सकती है। इस कारण से गॉव में झगडे व रजिंशे भी बढी हैं।अबेंडकर गॉंव घोषित होने पर सरकार गॉंव में पैसे की पोटली खोल देती है।और गाँव वाले अंबेडकर गॉंव में बनने बाली सीमेंटिड सडक पर भैंस व बैल बांधकर उपयोग में ला रहें हैं।इसे रोकना झगडे को आमंत्रण देना है। नरेगा का पैसा गाँव का कायाकल्प करे या न करे लेकिन प्रधान का कायाकल्प कर दे रहा है।फर्जी मजदूरी का भुगतान मस्टर रोल पर दिखाया जा रहा है। शासन का जोर अभी पूरी तरह से नरेगा के पैसे को खर्च करने पर है।गॉवों में इस धन से कितनी परिसम्पत्तियों का निर्माण हुआ,इसका आकलन व प्रमाणन बाद में किया जायेगा। इसी प्रकार लगभग दर्जनों लाभकारी योजनाओं ने पंचायत चुनावों को मंहगा कर दिया है। गॉंव में शाम होने का इतंजार भी नहीं किया जा रहा है,मांस-मदिरा का सेवन का बडी बेतक्कुलफी से किया जा रहा है। अब स्वाभाविक है कि जब ज्यादा पैसा खर्च होगा तो कमाई भी उसी अनुपात में की जायेगी।इसलिये एम,एल,सी, जैसे चुनाव में प्रत्येक प्रधान व बी,डी,सी, मेम्बर को मोटी रकम मिल जाती है।अप्रत्यक्ष चुनावों में खुलकर वोंटों की खरीद-फरोख्त होती है।हम इन चुनावों के समय आचार संहिता के अनुपालन पर ध्यान नहीं दे पायेंगें तो इसका असर देश में सांसदों के चुनाव तक पर पडेगा ही।महिलाओं के आरक्षण का सवाल हो या एस,सी,एस,टी आरक्षण का मसला चुनाव की असली डोर पुरूषों व प्रभु जातियों के हाथ में है।महिला प्रधान चयनित गॉव में कभी किसी बैठक में आप उस महिला को नहीं देखेंगें जो वास्तव में प्रधान है। हॉं पंचायती राज का एक प्रभाव बडा स्पष्ट दिखायी देने लगा है कि अब गॉव का कोई आदमी अब सरकारी दौरे को कोई तबज्जो नहीं देता,वो केवल फायदे के सरकारी कारकून को पहचानता है। कुछ भी हो इतना सच है कि पंचायती राज ने लोकतंत्र के निचले पायदान पर खुशहाली को चाहे चंद आदमी तक ही पहुंचाया हो लेकिन आम आदमी को राजनैतिक रूप से जागरूक अवश्य किया है।
इस समय पूरे-पूरे गॉंव चुनाव के प्रति जागरूक हैं।शायद ही कोई गॉव का निवासी ऐसा होगा,जो चुनावी गणित में अपने को विशेषज्ञ न समझता हो।इसे देखकर तो ऐसा लगता है,जैसे,राग दरबारी उपन्यास का पात्र शनीचर हर जगह मौजूद है।अपनी जाति के वोट बढाने एवं लाठी की ताकत बढाने के लिये आम आदमी जनसंख्या बढाने में पूरी तरह से व्यस्त है।वह व्यस्त रहने के लिये और कोई काम नहीं करता।दबी-छुपी बेरोजगारी से पूरे गॉंव त्रस्त हैं।गॉव के कई स्थानों पर लोग गोल घेरे में बैठे हुये ताश या जुआ खेलते मिल जायेंगें।इस खेल में खिलाडियों की साख को ऐसे युवक प्रमाणित करते हैं,जो थानों में पुलिस से थोडी-बहुत जुगाड रखते हैं एवं वास्ता पडने पर किसी भी विवाद में दान-दक्षिणा देकर मामले को रफा-दफा कर सकतें हैं।सही मायने में यही लोग गॉव में नेता हैं।इस मामले में बाबा रामदेव का कथन सही दिखता है कि गॉव की राजनीति थानों व ब्लाकों से चलती है।पुलिस का एक सिपाही या दरोगा किसी की नेतागिरी हिट कर सकता है या उसे पलीता लगा सकता है।इसलिये आमतौर पर नेतागिरी की इच्छा रखने वाला कोई भी आदमी पुलिस के खिलाफ नहीं जाता।यहॉं पुलिस पंचायतों के अनुसार नहीं चलती बल्कि पंचायतें पुलिस के अनुकूल कार्य करती हैं।गॉंव के कुछ समझदार व पढे लिखे लोग बताते हैं कि पंचायती राज कानून के बनने से पहले,आजादी के बाद ग्राम स्वराज की संकल्पना में गॉंवों को विकास का केन्द्र बनाया जाना प्रस्तावित था लेकिन पता नहीं फिर कब व कैसे, गॉंव के स्थान पर ब्लाक व तहसील काबिज हो गये।अब केबल गॉव का सचिव व लेखपाल नियुक्त गॉंव के लिये होता है लेकिन उसका कार्यालय ब्लाक व तहसील में होता है और उनकी असली ताकत जिला मुख्यालय पर होती है।अब प्रधान उनकी बाट जोहते हैं,यदा-कदा इनके दर्शन गॉव में होते हैं।
गॉव में एक कहावत बहुत प्रचलन में है कि ‘‘प्रधानी का चुनाव,प्रधानमंत्री के चुनाव से ज्यादा कठिन है।‘’वास्तव में ऐसा है भी क्योंकि पूरे पॉच साल तक के सम्बध अब वोट निधार्रित करता है न कि गॉंव समाज का आपसी सम्बध।चुनाव में यह स्पष्ट रहता है कि किसने किसको वोट दिया है।अब गॉव के प्रधान की हैसियत पहले के विधायक की बराबर है। यह भी बिल्कुल सच है क्योंकि अब गॉव के विकास कार्यो के लिये इतना ज्यादा पैसा आता है कि उसमें हिस्सेदारी की कीमत किसी भी रंजिश को बरदाश्त कर सकती है। इस कारण से गॉव में झगडे व रजिंशे भी बढी हैं।अबेंडकर गॉंव घोषित होने पर सरकार गॉंव में पैसे की पोटली खोल देती है।और गाँव वाले अंबेडकर गॉंव में बनने बाली सीमेंटिड सडक पर भैंस व बैल बांधकर उपयोग में ला रहें हैं।इसे रोकना झगडे को आमंत्रण देना है। नरेगा का पैसा गाँव का कायाकल्प करे या न करे लेकिन प्रधान का कायाकल्प कर दे रहा है।फर्जी मजदूरी का भुगतान मस्टर रोल पर दिखाया जा रहा है। शासन का जोर अभी पूरी तरह से नरेगा के पैसे को खर्च करने पर है।गॉवों में इस धन से कितनी परिसम्पत्तियों का निर्माण हुआ,इसका आकलन व प्रमाणन बाद में किया जायेगा। इसी प्रकार लगभग दर्जनों लाभकारी योजनाओं ने पंचायत चुनावों को मंहगा कर दिया है। गॉंव में शाम होने का इतंजार भी नहीं किया जा रहा है,मांस-मदिरा का सेवन का बडी बेतक्कुलफी से किया जा रहा है। अब स्वाभाविक है कि जब ज्यादा पैसा खर्च होगा तो कमाई भी उसी अनुपात में की जायेगी।इसलिये एम,एल,सी, जैसे चुनाव में प्रत्येक प्रधान व बी,डी,सी, मेम्बर को मोटी रकम मिल जाती है।अप्रत्यक्ष चुनावों में खुलकर वोंटों की खरीद-फरोख्त होती है।हम इन चुनावों के समय आचार संहिता के अनुपालन पर ध्यान नहीं दे पायेंगें तो इसका असर देश में सांसदों के चुनाव तक पर पडेगा ही।महिलाओं के आरक्षण का सवाल हो या एस,सी,एस,टी आरक्षण का मसला चुनाव की असली डोर पुरूषों व प्रभु जातियों के हाथ में है।महिला प्रधान चयनित गॉव में कभी किसी बैठक में आप उस महिला को नहीं देखेंगें जो वास्तव में प्रधान है। हॉं पंचायती राज का एक प्रभाव बडा स्पष्ट दिखायी देने लगा है कि अब गॉव का कोई आदमी अब सरकारी दौरे को कोई तबज्जो नहीं देता,वो केवल फायदे के सरकारी कारकून को पहचानता है। कुछ भी हो इतना सच है कि पंचायती राज ने लोकतंत्र के निचले पायदान पर खुशहाली को चाहे चंद आदमी तक ही पहुंचाया हो लेकिन आम आदमी को राजनैतिक रूप से जागरूक अवश्य किया है।
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