73वें संविधान संशोधन के बाद देश में पंचायती राज का सपना साकार हो सका है।इस एवज में पंचायतों के परम्परागत स्वरूप में काफी बदलाव आ गये हैं।सबसे बडा बदलाव पंचायतों के न्यायिक स्वरूप में आया है।खैर,इस बात से अलग इस समय पंचायत चुनाव की हकीकत खुली ऑखों से देखी जानी जरूरी है,ताकि हम जान सकें कि पंचायती राज कानून के रास्ते भारत के निचले पायदान पर लोकतंत्र स्थापित करने के कितने करीब हैं।सही नजरिया गॉव स्तर पर चुनाव की तैयारियों से प्राप्त करना ज्यादा कारगर होगा।
इस समय पूरे-पूरे गॉंव चुनाव के प्रति जागरूक हैं।शायद ही कोई गॉव का निवासी ऐसा होगा,जो चुनावी गणित में अपने को विशेषज्ञ न समझता हो।इसे देखकर तो ऐसा लगता है,जैसे,राग दरबारी उपन्यास का पात्र शनीचर हर जगह मौजूद है।अपनी जाति के वोट बढाने एवं लाठी की ताकत बढाने के लिये आम आदमी जनसंख्या बढाने में पूरी तरह से व्यस्त है।वह व्यस्त रहने के लिये और कोई काम नहीं करता।दबी-छुपी बेरोजगारी से पूरे गॉंव त्रस्त हैं।गॉव के कई स्थानों पर लोग गोल घेरे में बैठे हुये ताश या जुआ खेलते मिल जायेंगें।इस खेल में खिलाडियों की साख को ऐसे युवक प्रमाणित करते हैं,जो थानों में पुलिस से थोडी-बहुत जुगाड रखते हैं एवं वास्ता पडने पर किसी भी विवाद में दान-दक्षिणा देकर मामले को रफा-दफा कर सकतें हैं।सही मायने में यही लोग गॉव में नेता हैं।इस मामले में बाबा रामदेव का कथन सही दिखता है कि गॉव की राजनीति थानों व ब्लाकों से चलती है।पुलिस का एक सिपाही या दरोगा किसी की नेतागिरी हिट कर सकता है या उसे पलीता लगा सकता है।इसलिये आमतौर पर नेतागिरी की इच्छा रखने वाला कोई भी आदमी पुलिस के खिलाफ नहीं जाता।यहॉं पुलिस पंचायतों के अनुसार नहीं चलती बल्कि पंचायतें पुलिस के अनुकूल कार्य करती हैं।गॉंव के कुछ समझदार व पढे लिखे लोग बताते हैं कि पंचायती राज कानून के बनने से पहले,आजादी के बाद ग्राम स्वराज की संकल्पना में गॉंवों को विकास का केन्द्र बनाया जाना प्रस्तावित था लेकिन पता नहीं फिर कब व कैसे, गॉंव के स्थान पर ब्लाक व तहसील काबिज हो गये।अब केबल गॉव का सचिव व लेखपाल नियुक्त गॉंव के लिये होता है लेकिन उसका कार्यालय ब्लाक व तहसील में होता है और उनकी असली ताकत जिला मुख्यालय पर होती है।अब प्रधान उनकी बाट जोहते हैं,यदा-कदा इनके दर्शन गॉव में होते हैं।
गॉव में एक कहावत बहुत प्रचलन में है कि ‘‘प्रधानी का चुनाव,प्रधानमंत्री के चुनाव से ज्यादा कठिन है।‘’वास्तव में ऐसा है भी क्योंकि पूरे पॉच साल तक के सम्बध अब वोट निधार्रित करता है न कि गॉंव समाज का आपसी सम्बध।चुनाव में यह स्पष्ट रहता है कि किसने किसको वोट दिया है।अब गॉव के प्रधान की हैसियत पहले के विधायक की बराबर है। यह भी बिल्कुल सच है क्योंकि अब गॉव के विकास कार्यो के लिये इतना ज्यादा पैसा आता है कि उसमें हिस्सेदारी की कीमत किसी भी रंजिश को बरदाश्त कर सकती है। इस कारण से गॉव में झगडे व रजिंशे भी बढी हैं।अबेंडकर गॉंव घोषित होने पर सरकार गॉंव में पैसे की पोटली खोल देती है।और गाँव वाले अंबेडकर गॉंव में बनने बाली सीमेंटिड सडक पर भैंस व बैल बांधकर उपयोग में ला रहें हैं।इसे रोकना झगडे को आमंत्रण देना है। नरेगा का पैसा गाँव का कायाकल्प करे या न करे लेकिन प्रधान का कायाकल्प कर दे रहा है।फर्जी मजदूरी का भुगतान मस्टर रोल पर दिखाया जा रहा है। शासन का जोर अभी पूरी तरह से नरेगा के पैसे को खर्च करने पर है।गॉवों में इस धन से कितनी परिसम्पत्तियों का निर्माण हुआ,इसका आकलन व प्रमाणन बाद में किया जायेगा। इसी प्रकार लगभग दर्जनों लाभकारी योजनाओं ने पंचायत चुनावों को मंहगा कर दिया है। गॉंव में शाम होने का इतंजार भी नहीं किया जा रहा है,मांस-मदिरा का सेवन का बडी बेतक्कुलफी से किया जा रहा है। अब स्वाभाविक है कि जब ज्यादा पैसा खर्च होगा तो कमाई भी उसी अनुपात में की जायेगी।इसलिये एम,एल,सी, जैसे चुनाव में प्रत्येक प्रधान व बी,डी,सी, मेम्बर को मोटी रकम मिल जाती है।अप्रत्यक्ष चुनावों में खुलकर वोंटों की खरीद-फरोख्त होती है।हम इन चुनावों के समय आचार संहिता के अनुपालन पर ध्यान नहीं दे पायेंगें तो इसका असर देश में सांसदों के चुनाव तक पर पडेगा ही।महिलाओं के आरक्षण का सवाल हो या एस,सी,एस,टी आरक्षण का मसला चुनाव की असली डोर पुरूषों व प्रभु जातियों के हाथ में है।महिला प्रधान चयनित गॉव में कभी किसी बैठक में आप उस महिला को नहीं देखेंगें जो वास्तव में प्रधान है। हॉं पंचायती राज का एक प्रभाव बडा स्पष्ट दिखायी देने लगा है कि अब गॉव का कोई आदमी अब सरकारी दौरे को कोई तबज्जो नहीं देता,वो केवल फायदे के सरकारी कारकून को पहचानता है। कुछ भी हो इतना सच है कि पंचायती राज ने लोकतंत्र के निचले पायदान पर खुशहाली को चाहे चंद आदमी तक ही पहुंचाया हो लेकिन आम आदमी को राजनैतिक रूप से जागरूक अवश्य किया है।
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