Friday, August 5, 2011

केंद्र ही भूल गया पातालकोट--


------------------------------------------------------------------------------------------
पातालकोट 89 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है. यहां कुल 12 गांव और 27 छोटी-छोटी बस्तियां हैं, लेकिन आज़ादी के 40 वर्ष बाद 1985 में इस क्षेत्र के सबसे बड़े गांव गैलडुब्बा को पक्की सड़क से जोड़ा गया. अभी 12 गांव और 27 बस्तियां सड़क सुविधा से अछूती हैं.
-----------------------------------------------------------------------------------------------
छिंदवाड़ा ज़िले में स्थित पातालकोट क्षेत्र प्राकृतिक संरचना का एक अजूबा है. सतपुड़ा पर्वत श्रेणियों की गोद में बसा यह क्षेत्र भूमि से एक हज़ार से 1700 फुट तक गहराई में बसा हुआ है. इस क्षेत्र में 40 से ज़्यादा मार्ग लोगों की पहुंच से दुर्लभ हैं और वर्षा के मौसम में यह क्षेत्र दुनिया से कट जाता है.
पातालकोट में भारिया जनजाति सदियों से बसी हुई है, लेकिन आज़ादी के छह दशक बाद भी यह क्षेत्र विकास की मुख्यधारा से बुरी तरह कटा हुआ है. कहने को तो विकास और जनकल्याण की तमाम योजनाएं इस क्षेत्र में काग़ज़ों पर लागू है, लेकिन सरकारी तंत्र की लापरवाही और लालची प्रवृत्ति के कारण इस क्षेत्र के ज़्यादातर लोगों को सरकारी योजनाओं और कार्यक्रमों का लाभ नहीं मिल रहा है. सरकारी काग़ज़ी हिसाब बताता है कि इस इलाक़े के विकास के लिए सरकार ने 400 करोड़ रुपयों से ज़्यादा खर्च किया है. यह जानकारी तीन साल पुरानी है. तब कांतिलाल भूरिया कांग्रेस के लोकसभा सांसद थे और एक समिति के ज़रिए इस क्षेत्र के विकास और जनकल्याण कार्यक्रमों की जांच भी की गई थी. भूरिया ने इस जांच में गहरी रुचि दिखाई थी, लेकिन जांच के नतीजों और उसके बाद सरकार द्वारा की गई सुधारात्मक कार्यवाहियों के बारे में कोई जानकारी नहीं है. यह सुखद संयोग है कि कांतिलाल भूरिया ही आज देश के आदिम जाति कल्याण मंत्री हैं. उनके मंत्रालय में देश की जनजातियों और वनवासियों के विकास और कल्याण के लिए हर साल अरबों रुपये खर्च होता है. बेहतर होगा कि कांतिलाल भूरिया पातालकोट के प्रति संवेदनशील मानवीय दृष्टिकोण अपनाएं और विकास की दृष्टि से उपेक्षित गरीबों और अभावग्रस्त लोगों को जनकल्याण और विकास के कार्यक्रमों का लाभ दिलाने की पहल करें.
1985 में बनी पहली सड़क
पातालकोट 89 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है. यहां कुल 12 गांव और 27 छोटी-छोटी बस्तियां हैं, लेकिन आज़ादी के 40 वर्ष बाद 1985 में इस क्षेत्र के सबसे बड़े गांव गैलडुब्बा को पक्की सड़क से जोड़ा गया. अभी 12 गांव और 27 बस्तियां सड़क सुविधा से अछूती हैं.
50 साल बाद झंडा फहराया
भारत 15 अगस्त 1947 को आजाद हुआ था, लेकिन पातालकोट में 50 साल बाद 1997 में पहली बार स्वतंत्रता दिवस के दिन स्कूल में तिरंगा झंडा फहराया गया.
सरकारी योजनाओं का हाल यह है कि 1998 में यहां 369 बच्चों में से एक ही बच्चे को विभिन्न प्रकार के टीके लगे थे. यहां शिशुमृत्यु दर और मातृमृत्यु दर सबसे ज़्यादा है.
आंगनवाड़ी केन्द्र बना अफसरों का विश्रामगृह
कहने को 2007 में यहां सरकार ने आंगनवाड़ी केंद्र खोला और बच्चों को स्वास्थ्य सेवाएं तथा पोषण आहार उपलब्ध कराने की व्यवस्था की, लेकिन समय पर चिकित्सा सामग्री और पोषण आहार सामग्री नहीं मिलने से यह केंद्र नियमित काम नहीं करता है.
मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने 3 फरवरी 2007 को पक्के आंगनवाड़ी केंद्र का लोकार्पण किया था, तब उनके साथ शासन के मंत्री, विधायक और ज़िले के कलेक्टर सहित आला अफसर भी पातालकोट में उतरे थे. मुख्यमंत्री ने आंगनवाड़ी केंद्र में रात बिताई और उसके बाद कलेक्टर ने उसमें ताला लगा दिया, अब यह केंद्र ज़िले के छोटे अफसरों के दौरे के समय उनके विश्रामगृह के रूप में काम में लाया जाता है. आंगनवाड़ी कार्यकर्ता अपने घर से ही काम करती हैं, लेकिन सामग्री के अभाव में वह भी काम करना बंद कर देती हैं.
प्रसव और चिकित्सा के लिए 25 किलोमीटर का लंबा रास्ता
पातालकोट के ग्रामीणों को सरकारी चिकित्सा एवं प्रसव सुविधा का लाभ लेने के लिए अपने गांव से 25 किलोमीटर दूर तामिया जाना होता है. सरकार ने मातृ मृत्यु दर और शिशुमृत्यु दर कम करने के लिए घरों में परंपरागत दवाइयों द्वारा प्रसव कराने पर रोक लगा दी है और संस्थागत प्रसव अर्थात अस्पतालों में प्रसव कराने पर उचित प्रोत्साहन राशि देने का नियम बनाया है, इसके साथ ही कन्या जन्म पर लाडली लक्ष्मी योजना के तहत सरकार कन्या के फिक्स डिपॉजिट भी देती हैं जो कि कन्या के वयस्क हो जाने पर एक लाख रुपए की राशि के रूप में उसे मिलता है. इसलिए सरकारी अस्पताल में प्रसव कराने का लालच इस इलाक़े के अभावग्रस्त और ग़रीब लोगों में बढ़ता जा रहा है, लेकिन पूरे इलाक़े में आसपास कोई अस्पताल है ही नहीं. मजबूरी में यहां के निवासियों को अपनी गर्भवती महिला को पांच किलोमीटर पैदल डोंगरा गांव तक ले जाना होता है और फिर वहां घंटों इंतजार के बाद बस या ट्रक के जरिए 25 किलोमीटर दूर तामिया सरकारी अस्पताल पहुंचना पड़ता है. अस्पताल में गर्भवती महिला को यदि सरकारी डॉक्टर ने भर्ती कर लिया तो ठीक, वरना और भी कई दिक्कतों का सामना करना पड़ता है. यही हाल गंभीर बीमारियों से पीड़ित लोगों का हैं, इन्हें भी तामिया ही इलाज के लिए जाना होता है.

No comments:

Post a Comment