Friday, August 5, 2011

'क्रांति के नायक नेताजी सुभाषचन्द्र बोस'--------


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नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के जीवन के कुछ महत्वपूर्ण क्षण-----
सन्‌ १८९७, २३ जनवरी - कटक उड़ीसा में सुभाष चन्द्र बोस का जन्म |सन्‌ १९०२ - पाँच वर्ष की आयु में बालक सुभाष का अक्षरारंभ संस्कार संपन्न हुआ ।
सन्‌ १९०८ - ग्यारह वर्ष की आयु में उन्होने आर. कालेजियट स्कूल में प्रवेश लिया और यहीं उनका अपने शिष्य बेनी प्रसाद जी से परिचय हुआ ।
सन्‌ १९१६ - अंग्रेज प्रोफेसर ओटन द्वारा भारतीयों के लिए अपशब्द प्रयोग करना सहन नहीं हुआ और उन्होंने उस प्रोफ़ेसर की पिटाई कर दी |
सन्‌ १९२० - आई. सी. एस. से त्यागपत्र । सन्‌ १९२४ - गिरफ्तारी मांडले जेल में प्रवास ।
सन्‌ १९२७ - काँग्रेस आन्दोलन के मंच से सीधी कार्यवाही का प्रयास ।सन्‌ १९३३ - यूरोप में भारतीय पक्ष का प्रचार ।सन्‌ १९३७ - सुभाषचन्द्र बोस ने उत्तर भारत की अपनी धर्मयात्रा को आधार बनाते हुए अपनी आत्मकथा 'An Indian Pilgrim' लिखी |
सन्‌ १९४१ - ग्रेट एस्केप ।
सन्‌ १९४३ -आजाद हिन्द फौज व अन्तिम सरकार का गठन ।
सन्‌ १९४५ - भारत को मुक्‍त कराने के लिए आक्रमण, चलो दिल्ली चलो का आह्‌वान |
सन्‌ १९४५, १९ दिसम्बर - मन्चूरिया रेडियों से अंतिम सन्देश |
श्री जानकी नाथ बोस व श्रीमती प्रभा देवी की जी के बड़े परिवार में २३ जनवरी सन्‌१८९७ को उड़ीसा के कटक में उन्होंने जन्म लिया | प्रारम्भ से ही राजनीतिक परिवेश में पलेबढे सुभाष के घर का वातावरण कुलीन था | मेधावी सुभाष के विचारों पर स्वामी विवेकानंद का गहन प्रभाव था तथा उनको आध्यात्मिक गुरु मानते थे | स्वामी विवेकानंद के साहित्य से सुभाष का लगाव प्रभावी रूप में है | सुभाष लगभग 5 वर्ष के थे तब विवेकानंद का देहावसान हुआ था | सुभाष के लिए विवेकानंद गुजरे ज़माने के दार्शनिक नहीं थे बल्कि कीर्तिमान भारतीय थे | स्वामी विवेकानंद को पढ़कर सुभाष की धार्मिक जिज्ञासा प्रबल हुई थी|
सन्‌ १९०२ में पाँच वर्ष की आयु में बालक सुभाष का अक्षरारंभ संस्कार संपन्न हुआ । वे कटक के मिशनरी स्कूल मे पढते थे । सन्‌ १९०८ में ग्यारह वर्ष की आयु में उन्होने आर. कालेजियट स्कूल में प्रवेश लिया । यहीं उनका अपने शिष्य बेनी प्रसाद जी से परिचय हुआ । इनके राष्ट्रीय विचारों और व देशभक्ति से ओत-प्रोत व्यक्तित्व का सुभाष पर गहरा प्रभाव पडा । सन्‌ १९१५ में सुभाष ने प्रेसीडेन्सी कॉलेज में प्रवेश लिया और दर्शन शास्त्र को अपना प्रिय विषय चुना ।अपनी भारत माँ को पराधीनता से मुक्त करने के उनके अभियान का प्रारम्भ उस घटना से हुआ, जब सन्‌ १९१६ में विद्यार्थी जीवन काल में अंग्रेज प्रोफेसर ओटन द्वारा भारतीयों के लिए अपशब्द प्रयोग करना उनसे सहन नहीं हुआ और उन्होंने उस प्रोफ़ेसर ओटन को थप्पड मार दिया और उसकी पिटाई कर दी | परिणाम स्वरूप विख्यात प्रेसिडेंसी कालेज से उनको निकाल दिया गया । सन्‌ १९१७ में श्री श्यामाप्रसाद मुखर्जी के पिता आशुतोष मुखर्जी प्रयास से उनका निष्कासन रद्द हुआ । अब उनकी गणना विद्रोहियों में होने लगी | इसके पश्चात प्रिंस ऑफ़ वेल्स के आगमन पर सन्‌ १९२१ में उनको बंदी बनाया गया क्योंकि वह उनके स्वागत में आयोजित कार्यक्रम का बहिष्कार कर रहे थे|
राय बहादुर की उपाधि से विभूषित उनके पिता पाश्चात्य सभ्यता के रंग में रंगे थे और उनको सिविल सेवाओं में देखना चाहते थे,परन्तु सिविल सेवाओं की परीक्षा-परिणाम की रेंकिंग में चतुर्थ स्थान प्राप्त करने वाले सुभाष को अंग्रेजों की जी हजूरी कर अपने भाइयों पर अत्याचार करना पसंद नहीं था, कुछ समय उन्होंने विचार किया और हमारे देश के महान सपूत मह्रिषी अरविन्द घोष जिन्होंने स्वयं सिविल सेवाओं का मोह छोड़ देश की आजादी के संघर्ष को अपना धर्म माना था के आदर्श को शिरोधार्य कर अपना ध्येय अपनी भारतमाता की मुक्ति को बनाया और भारत लौट आये |
भारत में वह देशबंधु चितरंजन दास के साथ देश की आजादी के लिए बिगुल बजाना चाहते थे, उनको वह अपना राजनीतिक गुरु मानते थे, परन्तु रविन्द्रनाथ टेगोर ने उनको पहले महात्मा गांधी से मिलने का परामर्श दिया | सुभाष गांधीजी से भेंट करने गए,विचार-विमर्श किया |
भारतीय स्वतंत्रता के लिए अपने सर्वस्व का त्याग करने वाले क्रांति के नायक नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के सन्दर्भ में स्वतंत्र भारत की लोकतान्त्रिक सरकार की निम्न निंदनीय गतिविधियाँ हम सभी जागरूक भारतीयों के लिए विचारणीय हैं------
(१) नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के चित्रों को सरकारी कार्यालय आदि स्थानों पर लगाये जाने पर पाबन्दी क्यों लगाई गयी? यह पाबन्दी भारत सरकार की सहमति पर बम्बई सरकार ने ११ फरवरी सन्‌ १९४९ को गुप्त आदेश संख्या नं० 155211 के अनुसार प्रधान कार्यालय बम्बई उप-क्षेत्र कुलाबा-६ द्वारा लगाई गई ।
(२) नेताजी को अन्तर्राष्ट्रीय युद्ध अपराधी भारतीय नेताओं ने क्यों स्वीकार किया? अन्तर्राष्ट्रीय अपराधी गुप्त फाईल नं० 10(INA) क्रमांक २७९ के अनुसार नेताजी को सन्‌ १९९९ तक युद्ध अपराधी घोषित किया गया था, जिस फाईल पर आज़ाद भारत के तत्कालीन प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के हस्ताक्षर हैं । परन्तु 3-12-1968 में यू.एन.ओ. परिषद के प्रस्ताव नं० 2391/ xx3 के अनुसार सन्‌ १९९९ की बजाय आजीवन युद्ध अपराधी घोषित किया जिस पर आज़ाद भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरागांधी के हस्ताक्षर हैं ।
अगस्त सन्‌ २००२ में भारत सरकार द्वारा गठित मुखर्जी आयोग के सदस्यों को तब करारा झटका लगा, जब ब्रिटिश सरकारसे नेताजी सुभाष चन्द्र बोस जी से सम्बंधित गोपनीयदस्तावेजों की माँग की तथा ब्रिटिश सरकार ने मुखर्जी आयोग के सदस्यों को सुरक्षा कारणों का हवाला देते हुए वापिस लौटा दिया तथा सन्‌२०२१ से पहले अपने अभिलेखागार से कोई भी महत्वपूर्ण दस्तावेज जो नेताजी से सम्बंधित है,उनको देने से इन्कार कर दिया एवं मुखर्जी आयोग के सदस्य १३ अगस्त सन्‌ २००१ को लाल कृष्ण आडवाणी,तत्कालीन गृहमंत्री, भारत सरकार से मिले थे तथा आयोग के सदस्यों ने गृहमंत्री भारत सरकार से आग्रह किया था कि भारत सरकार लंदन में उनके लिए दस्तावेजों की उपयोगी सामग्री दिलाने के लिए समुचित कदम उठाए एवं आयोग के सदस्यों ने गृहमंत्री भारत सरकार से यह भी कहा था कि रूस के लिए भी सरकारी रूप से पत्र लिखें जिससे रूस भी ब्रिटिश सरकार पर दबाव डाले और आयोग के सदस्यों को दस्तावेज मिल सकें।यदि उस समय श्री अटल बिहारी वाजपेयी, तत्कालीन प्रधानमंत्री, भारत सरकार, सरकारी तौर पर ब्रिटेन पर दबाब डालते तो गोपनीयता समझौतों के दस्तावेज प्राप्त किये जा सकते थे । इसलिए तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी तथा तत्कालीन गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी का मौन रहना भी कोई राज की बात है तथा नेताजी के विरूद्ध हुए समझौतों को स्वीकृति देना है ।
नेताजी के विषय में भ्रमित भारतीयों के प्रश्नों के उत्तर भी भ्रम को दूर कर सकने में असमर्थ ही रहे हैं ----
अनेक प्रमाणों से अब जबकि सिद्ध हो चुका है कि नेताजी की मृत्यु वायुयान दुर्घटना में नहीं हुई थी और न ही आज सरकार के पास नेताजी के मृत्यु की कोई निश्‍चित तारीख है । इसके साथ ही खण्डित भारत सरकार शाहनवाज जांच कमेटी तथा खोसला आयोग द्वारा भी नेताजी की वायुयान दुर्घटना में मृत्यु सिद्ध नहीं कर पाई।उपरोक्‍त दोनों जांच समितियों की रिपोर्ट से भारत के लोगों को नेताजी के विषय में गुमराह करने का षड्‍यंत्र रचा । इस षड्‍यन्त्र से भारतीय लोगों के दिमाग में तरह-तरह के सवाल उठना जरूरी है । कुछ ऐसे प्रश्नों के उत्तर सुभाषवादी जनता (बरेली) की सन्‌ १९८२ में प्रकाशित एक “नेताजी प्रशस्तिका” में दिए गए हैं ।अब यह ज्वलंत प्रश्न है कि आज जो देश की हालत है उसे देखकर क्या नेताजी चुप रह सकते थे?अब यह एक और ज्वलंत प्रश्न है कि क्या नेताजी जैसा देशभक्‍त इतने लम्बे समय तक छिपकर बैठ सकता था ?इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि कौन सा ऐसा महान क्रान्तिकारी है जो छुप कर न रहा हो ? यथा--
(१) जरा सोचो रामचंद्र जी को अवतार माना जाता है, फिर उन्होंने छिपकर बाली को बाण क्यों मारा ?
(२) क्या पाण्डव छिपकर जंगलों में नहीं रहे थे ?
(३) क्या अर्जुन ने स्वयं को बचाने के लिए स्त्री का रूप धारण नहीं किया था ?
(४) क्या हजरत मौहम्मद साहब जिहाद में अपनी जान बचाने के लिए छिपकर मक्‍का छोड़कर मदीना नहीं चले गये थे ?
(५) क्या छत्रपति शिवाजी कायर थे, जो औरंगजेब की कैद से मिठाई की टोकरी में छिपकर निकले थे ?
(६) क्या चन्द्रशेखर आजाद और भगतसिंह समय-समय पर भूमिगत नहीं हुये थे ?
(७) क्या चे गोवेरा तथा मार्शल टीटो जैसे विश्‍व के महान क्रान्तिकारी अपनी जिन्दगी में अनेक बार भूमिगत नही हुये थे?क्या उपरोक्‍त सभी महान क्रान्तिकारी कायर थे ?
यह सभी क्रान्तिकारी बहुत साहसी थे और वे केवल अपने उद्देश्यों के लिये भूमिगत हुए थे । जबकि नेताजी इन क्रान्तिकारियों के गुरू भी हैं तथा नेताजी की लड़ाई तो पूरे विश्‍व में साम्राज्य के खिलाफ है । इसलिये नेताजी किसी भय से नहीं अपितु अपने महान उद्देश्य को पूरा करने के लिये भूमिगत हुए ।
जब नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने गृहत्याग किया, तब उनके परिवार वाले रोये और बिलखे | उस समय परिवार में बच्चों की संख्या अधिक होती थी, लेकिन इससे उनकी महत्ता कम नहीं होती थी | सुभाषचन्द्र बोस ने उत्तर भारत की अपनी धर्मयात्रा को आधार बनाते हुए अपनी आत्मकथा सन्‌ १९३७ में 'An Indian Pilgrim' के नाम से लिखी, इस तरह की यात्रायें और गोपनीयता,सर्वस्व का त्याग और अबूझ की तलाश सुभाष के जीवन यात्रा की अनिवार्यता बन गयी थी | देश की स्वतन्त्रता के लिए सुभाषचन्द्र बोस कुछ भी कर सकते थे. यह कुछ भी कर सकना कामयाब हुआ क्योंकि अंग्रेजी सरकार की फ़ौज में क्रांति की भावना स्थायी तौर पर घर कर गयी | आज़ाद हिंद फ़ौज के बाद रायल इन्डियन नेवल म्युटिनी ने अंग्रेजी सरकार को कंपा दिया था | ब्रिटिश फ़ौज का अब आखिरी सहारा भी भरोसे का नहीं रहा था | माउन्टबेटन को जल्दबाजी में वायसराय बना कर लाया गया ताकि भारत को आज़ादी दे कर ब्रिटिश यहाँ से प्रतिष्ठापूर्वक निकल सकें | साम्राज्य को सांघातिक चोट पहुचाने का कार्य सुभाष चन्द्र बोस ने किया था |
यह बहुत कम व्यक्ति जानते हैं कि नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने एक कविता सन्‌ १९३० में लिखी थी---
"जीवन धाराजितना अधिक त्याग करेंगे,
हम जीवन काउतने ही वेग से प्रवाहित होगी,
जीवनधाराजीवन चलेगा तब अंतहीन,
बहुत कुछ है कहने के लिएऔर....
जीवन-शक्ति है भरपूर मुझ में,
बहुत सी खुशियाँ हैं यहाँ,
बहुत सी हैं अभिलाषाएं,
इन सब से परिपूर्ण मात्र हैजीवनधारा...."
यह याद रहे कि व्यक्‍ति जितना महान होता है, उसका उद्देश्य भी उतना ही महान होता है ।प्रश्न यह है कि नेताजी का क्या उद्देश्य है ? प्रश्न यह है कि यदि नेताजी जीवित हैं तो क्यों नहीं आते ?इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने सन्‌ १९३१ में कहा था “इस समय हमारा एक ही लक्ष्य है- “भारत की स्वाधीनता” | नेताजी भारत के विभाजन के विरूद्ध थे । उन्होंने यह भी कहा था कि “हमारा युद्ध केवल ब्रिटिश साम्राज्य से नहीं बल्कि संसार के साम्राज्यवाद के विरूद्ध है । अतः हम केवल भारत के लिये ही नहीं बल्कि मनुष्य मात्र के हितों के लिये भी लड़ रहे हैं । भारत की पूर्ण स्वतंत्रता का अर्थ है- समस्त मानव जाति का भय मुक्‍त हो जाना । "भारतीय स्वाधीनता संग्राम के महत्वपूर्ण स्वर्णिम अध्याय को लिखते हुए ” आज़ाद हिंद फौज” का ७००० सैनिकों के साथ गठन किया | इसके बाद ही उनको” नेता जी ” का नाम मिला. “तुम मुझे खून दो मै तुम्हे आज़ादी दूंगा ” ‘ का नारा देने वाले सुभाष ने दिया “दिल्ली चलो ” का जोशीला नारा और आज़ाद हिंद फौज ने जापानी सेना की सहायता से अंडमान निकोबार पहुँच कर देश को अंग्रेजी दासता से मुक्त कराने का प्रथम चरण पूरा किया और इन द्वीपों को “शहीद” तथा “स्वराज” नाम प्रदान किये..कोहिमा और इम्फाल को आज़ाद कराने के प्रयास में सफल न होने पर भी हार नहीं मानी सुभाष ने,तथा आज़ाद हिंद फौज कीमहिला टुकड़ी “झांसी की रानी” रेजिमेंट के साथ आगे बढ़ते रहे | आज़ाद हिंद फौज का कार्यालय रंगून स्थानांतरित किया गया | उनके अनुयायी दिनप्रतिदिन बढ़ते ही जा रहे थे और ये खतरे की घंटी न जाने किस किस के लिए थी |नेताजी ने सिंगापूर में स्वाधीन भारत की अंतरिम सरकार का गठन किया और उसको नौ देशों ने मान्यता प्रदान की | जापान की सेना का भरपुर सहयोग उनको मिल ही रहा था,परन्तु वह चाहते थे अधिकाधिक भारतीयों की भागीदारी इसमें हो, धुरी राष्ट्रों की हार के कारण नेताजी को अपने सपने बिखरते लगे और उन्होंने रूस की ओर अपनी गति बढ़ायी थी | नेताजी मंचूरिया जाते समय लापता हो गए और शेष सब रहस्य बन गया और अनंत में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस खो गए | आज तक यह रहस्य रहस्य ही बना हुआ है |
"किस भाँति जीना चाहिए, किस भाँति मरना चाहिए ।
लो सब हमें निज पूर्वजों से सीख लेना चाहिए ।।"
(साभार-राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त)
जहाँ तक हम भारतवासियों के विश्‍वास का प्रश्न है, तो हम यही मानते हैं कि नेताजी सुभाषचन्द्र बोस अभी भी जीवित हैं और अब भारत के लोगों के विवेक व सोच पर निर्भर करता है । लेकिन वे कब प्रकट होंगे इस प्रश्न का समुचित उत्तर नेताजी के अनुसार तृतीय विश्‍व युद्ध की चरम सीमा पर प्रकट होना है । जैसा कि उन्होंने १९ दिसम्बर सन्‌ १९४५ को मन्चूरिया रेडियों से अपने अन्तिम सन्देश में कहा था । नेताजी जानते थे कि द्वितीय विश्‍वयुद्ध के बाद भी एक और महायुद्ध अवश्य होगा, जिसकी सम्भावना उन्होंने २६ जून सन्‌ १९४५ को आजाद हिन्द रेडियो (सिंगापुर) से प्रसारित अपने एक भाषण में व्यक्‍त कर दी थी । धीरे-धीरे संसार तृतीय महायुद्ध के निकट पहुँच रहा है । इसी महायुद्ध में भारत पुनः अखण्ड होगा तथा नेताजी का प्रकटीकरण होगा ।
भारत के धूर्त राजनीतिज्ञों से नेताजी का कोई समझौता नहीं होगा । नेताजी किसी भी व्यक्‍ति या देश के बल पर नहीं, अपनी ही शक्‍ति के बल पर प्रकट होंगे । उनके प्रकट होने से पहले उनके नेताजी होने के बारे में सन्देह के बादल छँट चुके होंगे । जैसे अर्जुन का अज्ञातवास पूरा होने पर गाण्डीव धनुष की टंकार ने पाण्डवों के होने के सन्देह के बादल छांट दिये थे ।हमें सुभाष चन्द्र बोस की ये गीत 'खूनी हस्‍ताक्षर' याद दिलाता है---
वह खून कहो किस मतलब का, जिसमें उबाल का नाम नहीं ।
वह खून कहो किस मतलब का, आ सके देश के काम नहीं ।
वह खून कहो किस मतलब का, जिसमें जीवन, न रवानी है !
जो परवश होकर बहता है, वह खून नहीं, पानी है !
उस दिन लोगों ने सही-सही, खून की कीमत पहचानी थी ।
जिस दिन सुभाष ने बर्मा में, मॉंगी उनसे कुरबानी थी ।
बोले, स्‍वतंत्रता की खातिर, बलिदान तुम्‍हें करना होगा ।
तुम बहुत जी चुके जग में, लेकिन आगे मरना होगा ।
आज़ादी के चरणें में जो, जयमाल चढ़ाई जाएगी ।
वह सुनो, तुम्‍हारे शीशों के, फूलों से गूँथी जाएगी ।
आजादी का संग्राम कहीं, पैसे पर खेला जाता है ?
यह शीश कटाने का सौदा, नंगे सर झेला जाता है”
यूँ कहते-कहते वक्‍ता की, ऑंखें में खून उतर आया !
मुख रक्‍त-वर्ण हो दमक उठा, दमकी उनकी रक्तिम काया !
आजानु-बाहु ऊँची करके, वे बोले,”रक्‍त मुझे देना ।
इसके बदले भारत की, आज़ादी तुम मुझसे लेना ।”
हो गई उथल-पुथल, सीने में दिल न समाते थे ।
स्‍वर इनकलाब के नारों के, कोसों तक छाए जाते थे ।
“हम देंगे-देंगे खून”, शब्‍द बस यही सुनाई देते थे ।
रण में जाने को युवक खड़े, तैयार दिखाई देते थे ।
बोले सुभाष,” इस तरह नहीं, बातों से मतलब सरता है ।
लो, यह कागज़, है कौन यहॉं, आकर हस्‍ताक्षर करता है ?
इसको भरनेवाले जन को, सर्वस्‍व-समर्पण काना है।
अपना तन-मन-धन-जन-जीवन, माता को अर्पण करना है ।
पर यह साधारण पत्र नहीं, आज़ादी का परवाना है ।
इस पर तुमको अपने तन का, कुछ उज्‍जवल रक्‍त गिराना है !
वह आगे आए जिसके तन में, भारतीय ख़ूँ बहता हो।
वह आगे आए जो अपने को, हिंदुस्‍तानी कहता हो !
वह आगे आए, जो इस पर, खूनी हस्‍ताक्षर करता हो !
मैं कफ़न बढ़ाता हूँ, आए, जो इसको हँसकर लेता हो !
सारी जनता हुंकार उठी- हम आते हैं, हम आते हैं !
माता के चरणों में यह लो, हम अपना रक्‍त चढ़ाते हैं !
साहस से बढ़े युबक उस दिन, देखा, बढ़ते ही आते थे !
चाकू-छुरी कटारियों से, वे अपना रक्‍त गिराते थे !
फिर उस रक्‍त की स्‍याही में, वे अपनी कलम डुबाते थे !
आज़ादी के परवाने पर, हस्‍ताक्षर करते जाते थे |
उस दिन तारों ना देखा था, हिंदुस्‍तानी विश्‍वास नया।
जब लिखा था महा रणवीरों ने, ख़ूँ से अपना इतिहास नया ||

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