Monday, January 24, 2011

मात्र 83 लाख रुपये में बना था संसद भवन........


 संसद भवन  का निर्माण मात्र 83 लाख रुपये में ब्रिटिश सरकार ने करवाया था।

नई दिल्ली की रचना करने वाले दो मशहूर वास्तुविदें सर एडविन लुटियंस और सर हर्बट बेकर ने इस अद्भुत इमारत का डिजाइन तैयार किया था और 12 फरवरी 1921 को दी ड्यूक आफ कनाट ने इस भवन की आधारशिला रखी थी। 145 खंभों वाली इस इमारत का निर्माण कार्य पूरा करवाने में बेकर को छह साल का समय लगा तथा इसका औपचारिक उद्घाटन 18 जनवरी 1927 को भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड इरविन ने किया था और इमारत के निर्माण की लागत 83 लाख रुपया आया था।

विंसटन चर्चिल ने एक जगह कहा था कि हमारी इमारतें हमें आकार देती हैं और हम अपनी इमारतों को।

दिल्ली के इतिहास के विशेषज्ञ और स्तंभकार आर वी स्मिथ ने संसद भवन इमारत के संबंध में कहा कि दुनिया के विभिन्न हिस्सों से भारत यात्रा पर आने वाले लोग संसद भवन की इमारत को देखने आते हैं लेकिन बहुत कम दिल्लीवासी होंगे जो इस आलीशान इमारत के बारे में गहराई से जानते होंगे।

उन्होंने कहा कि यह न केवल एक वास्तुशिल्प का अद्भुत नमूना है बल्कि अपने आप में यह हिंदुस्तान के आजादी के इतिहास के एक बड़े हिस्से को समेटे हुए है।

आंकड़ों के अनुसार, संसद भवन का व्यास 170.69 मीटर है और यह करीब छह एकड़ भूक्षेत्र में स्थित है। इसके प्रथम तल पर स्थित गलियारे में बेहद हल्के भूरे रंग के बलुआ पत्थर के 144 विशाल खंभे लगे हैं जिनमें से प्रत्येक खंभे की लंबाई 27 फुट है। इस इमारत के कुल 12 प्रवेश द्वार हैं जिनमें से संसद मार्ग पर स्थित एक नंबर द्वार प्रमुख प्रवेश द्वार है।

हालांकि संसद पर आतंकी हमले के बाद से इस प्रमुख द्वार को बंद कर दिया गया है और अब आवाजाही विजय चौक की ओर स्थित द्वार से संचालित होती है।

स्मिथ ने बताया कि संसद भवन का निर्माण पूरी तरह स्वदेशी सामग्री से हुआ था और भारतीय मजदूरों ने भारतीय लोकतंत्र के इस ऐतिहासिक सपने को अपने हाथों से मूर्त रूप दिया था, लेकिन इसमें खास बात यह है कि यह भव्य इमारत भारतीय परंपरा की प्रतीक है।

इमारत के भीतर और बाहर पानी के फव्वारों का निर्माण, खिड़कियों और दीवारों पर छज्जों की ओट तथा दीवारों के बीच में विभिन्न प्रकार की संगमरमर की 'जालियां' प्राचीन भारतीय इमारतों के वास्तुशिल्प की याद दिलाती हैं।

स्मिथ कहते हैं कि अंग्रेज वास्तुविदों ने भारतीय संसद भवन के डिजाइन और निर्माण में स्थानीय मौसम परिस्थितियों और वास्तुशिल्प को बारीकी से केंद्र में रखते हुए काम किया जो इस अद्भुत इमारत को देख कर ही समझ में आ सकता है।

खूबसूरती की मिसाल इस इमारत का मुख्य और केंद्रीय हिस्सा विशाल गोलाकार 'सेंट्रल हाल' है जिसकी तीन धुरियों पर लोकतंत्र के तीन खंभे लोकसभा, राज्यसभा तथा लाइब्रेरी हाल है जिसे पहले 'प्रिंसेज चैंबर' के नाम से जाना जाता था। इन तीनों परिसरों के बीच खूबसूरत बगीचे स्थित हैं।

इन तीनों गुंबदाकार भवनों के चारों ओर चार मंजिला गोलाकार इमारत है जिनमें मंत्रियों, संसदीय समितियों के अध्यक्षों, राजनीतिक दलों के कार्यालय, लोकसभा तथा राज्यसभा के महत्वपूर्ण सचिवालय तथा संसदीय कार्य मंत्रालय का कार्यालय स्थित हैं।

Saturday, January 22, 2011

भगत सिंह


भारतीय ह्रदय की सबसे जीवंत स्मृतियों में से हैं. आज उनका बलिदान दिवस है. उनकी शहादत के बाद भारत की लगभग सभी भाषाओँ में उन पर लिखा गया, वह जन-ज्वार का प्रकटीकरण था. यहाँ 'माधुरी' के पन्नों से भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की तस्वीर दी जा रही है. ये तस्वीरें माधुरी के अप्रैल अंक में प्रकाशित हुई थीं. २५ मार्च को गणेश शंकर विद्यार्थी ने भी अपने प्राणों की आहुति दे दी थी, उस पृष्ठ पर उनकी भी तस्वीर थी. विद्यार्थी जी की तस्वीर के साथ यह शीर्षक था 'भारत के एक अमूल्य रत्न'. भगत सिंह और उनके साथियों के साथ शीर्षक था 'स्वतंत्रता के तीन दीवाने'. तस्वीरों के नीचे यह नोट भी जुड़ा था " यदि ये तीनों त्यागी वीर अहिंसा के पुजारी होते तो भारत को बहुत लाभ पहुंचा सकते. क्योंकि अहिंसा और शांति ही हमारा उद्धार कर सकती है. " पत्रिका के संपादक रामसेवक त्रिपाठी थे. पवित्र जन रुचि उनके शब्दों से पूरी तरह शायद ही सहमत थी.
भगत सिंह के पत्रों में गहरी, कोमल और हरी संवेदना मिलती है. यहाँ उनके दो पत्र प्रस्तुत हैं, पढ़िए और उस चिर युवा की संजीदगी से जुड़िये.


कुलतार सिंह के नाम अंतिम पत्र.

सेंट्रल जेल, लाहौर.
३ मार्च १९३१
अजीज कुलतार,
आज तुम्हारी आँखों में आंसू देखकर बहुत दुःख हुआ. आह तुम्हारी बातों में बहुत दर्द था, तुम्हारे आंसू मुझसे सहन नहीं होते.
बरखुरदार, हिम्मत से शिक्षा प्राप्त करना और सेहत का ख्याल रखना. हौसला रखना और क्या कहूँ !
उसे यह फिक्र है हरदम नया तर्ज़े-ज़फा क्या है,
हमें यह शौक़ है देखें सितम की इन्तहा क्या है.
दहर से क्यों खफा रहें, चर्ख का क्यों गिला करें,
सारा जहाँ अदू सही, आओ मुकाबला करें.
कोई दम का मेहमान हूँ ऐ अहले-महफ़िल
चरागे-सहर हूँ बुझा चाहता हूँ.
हवा में रहेगी मेरे ख्याल की बिजली,
ये मुश्ते-खाक है फानी, रहे रहे न रहे.
अच्छा रुखसत. खुश रहो अहले-वतन, हम तो सफ़र करते हैं. हिम्मत से रहना.
नमस्ते.
तुम्हारा भाई भगत सिंह



कुलबीर के नाम पत्र.

लाहौर सेंट्रल जेल,
३ मार्च १९३१

प्रिय कुलबीर सिंह,
तुमने मेरे लिए बहुत कुछ किया. मुलाक़ात के वक़्त ख़त के जवाब में कुछ लिख देने के लिए कहा.कुछ अल्फाज़ लिख दूँ, बस-देखो, मैंने किसी के लिए कुछ न किया, तुम्हारे लिए भी कुछ नहीं. आजकल बिलकुल मुसीबत में छोड़कर जा रहा हूँ. तुम्हारी जिन्दगी का क्या होगा ? गुज़ारा कैसे करोगे ? यही सब सोचकर कांप जाता हूँ, मगर भाई हौसला रखना, मुसीबत में भी कभी मत घबराना. इसके सिवा और क्या कह सकता हूँ. अमेरिका जा सकते तो बहुत अच्छा होता, मगर अब तो यह भी नामुमकिन मालूम होता है. आहिस्ता-आहिस्ता मेहनत से पढ़ते जाना. अगर कोई सिख सको तो बेहतर होगा, मगर सब कुछ पिताजी की सलाह से करना. जहाँ तक हो सके, मुहब्बत से सब लोग गुज़ारा करना. इसके सिवाए क्या कहूँ ?
जानता हूँ कि आज तुम्हारे दिल के अन्दर गम का सुमद्र ठाठें मार रहा है. भाई तुम्हारी बात सोचकर मेरी आँखों में आंसू आ रहे हैं, मगर क्या किया जाये, हौसला करना, मेरे अजीज, मेरे बहुत-बहुत प्यारे भाई, जिन्दगी बड़ी सख्त है और दुनिया बड़ी बे-मुरव्वत. सब लोग बड़े बेरहम हैं. सिर्फ मुहब्बत और हौसले से ही गुज़ारा हो सकेगा. कुलतार की तालीम की फिक्र भी तुम ही करना. बड़ी शर्म आती है और अफ़सोस के सिवाए मैं कर ही क्या सकता हूँ. साथ वाला ख़त हिंदी में लिखा हुआ है. ख़त 'के' की बहन को दे देना. अच्छा नमस्कार, अजीज भाई अलविदा....रुखसत.
तुम्हारा खैर-अंदेश
भगत सिंह

जिन पर जन्मभूमि को गर्व है, उनमें से एक हैं — भगतसिंह

  भारत की आजादी के इतिहास को जिन अमर शहीदों के रक्त से लिखा गया है, जिन शूरवीरों के बलिदान ने भारतीय जन-मानस को सर्वाधिक उद्वेलित किया है, जिन्होंने अपनी रणनीति से साम्राज्यवादियों को लोहे के चने चबवाए हैं, जिन्होंने परतन्त्रता की बेड़ियों को छिन्न-भिन्न कर स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त किया है तथा जिन पर जन्मभूमि को गर्व है, उनमें से एक हैं — भगतसिंह। भगतसिंह का जन्म 27 सितम्बर, 1907 को पंजाब के जिला लायलपुर में बंगा गांव (पाकिस्तान) में हुआ था । भगतसिंह के पिता सरदार किशन सिंह एवं उनके दो चाचा अजीतसिंह तथा स्वर्णसिंह अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ होने के कारण जेल में बन्द थे । यह एक विचित्र संयोग ही था कि जिस दिन भगतसिंह पैदा हुए उनके पिता एवं चाचा को जेल से रिहा किया गया । इस शुभ घड़ी के अवसर पर भगतसिंह के घर में खुशी और भी बढ गर्ऌ थी । यही सब देखते हुए भगतसिंह की दादी ने बच्चे का नाम भागां वाला (अच्छे भाग्य वाला) रखा । बाद में उन्हें भगतसिंह कहा जाने लगा । एक देशभक्त के परिवार में जन्म लेने के कारण भगतसिंह को देशभक्ति और स्वतंत्रता का पाठ विरासत में पढने क़ो मिल गया था । भगतसिंह जब चार-पांच वर्ष के हुए तो उन्हें गांव के प्राइमरी स्कूल में दाखिला दिलाया गया। वे अपने साथियों में इतने अधिक लोकप्रिय थे कि उनके मित्र उन्हें अनेक बार कन्धों पर बैठाकर घर तक छोड़ने आते थे । भगतसिंह को स्कूल के तंग कमरों मे बैठना अच्छा नहीं लगता था। वे कक्षा छोड़कर खुले मैदानों में घूमने निकल जाते थे । वे खुले मैदानों की तरह ही आजाद होना चाहते थे । प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के पश्चात भगतसिंह को 1916-17 में लाहौर के डीएवी स्कूल में दाखिला दिलाया गया । वहां उनका संपर्क लाला लाजपतराय और अम्बा प्रसाद जैसे देशभक्तों से हुआ । 1919 में रोलेट एक्ट के विरोध में संपूर्ण भारत में प्रदर्शन हो रहे थे और इसी वर्ष 13 अप्रैल को जलियांवाला बाग काण्ड हुआ । इस काण्ड का समाचार सुनकर भगतसिंह लाहौर से अमृतसर पहुंचे । देश पर मर-मिटने वाले शहीदों के प्रति श्रध्दांजलि दी तथा रक्त से भीगी मिट्टी को उन्होंने एक बोतल में रख लिया, जिससे हमेशा यह याद रहे कि उन्हें अपने देश और देशवासियों के अपमान का बदला लेना है । 1920 के महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन से प्रभावित होकर 1921 में भगतसिंह ने स्कूल छोड़ दिया । असहयोग आंदोलन से प्रभावित छात्रों के लिए लाला लाजपतराय ने लाहौर में नेशनल कॉलेज की स्थापना की थी । इसी कॉलेज में भगतसिंह ने भी प्रवेश लिया । पंजाब नेशनल कॉलेज में उनकी देशभक्ति की भावना फलने-फूलने लगी । इसी कॉलेज में ही यशपाल, भगवती चरण, सुखदेव, तीर्थराम, झण्डासिंह आदि क्रांतिकारियों से संपर्क हुआ । कॉलेज में एक नेशनल नाटक क्लब भी था । इसी क्लब के माध्यम से भगतसिंह ने देशभक्तिपूर्ण नाटकों में अभिनय भी किया । ये नाटक थे — राण प्रताप, भारत-दुर्दशा और सम्राट चन्द्रगुप्त। वर्ष 1923 में जब उन्होंने एफ.ए. परीक्षार् उत्तीण की, तब बड़े भाई जगतसिंह की अकाल मृत्यु हो जाने के कारण उनके विवाह की चर्चाएं चलने लगीं । घर के लोग वंश को चलाने के लिए उनका विवाह शीघ्र कर देना चाहते थे । परन्तु भगतसिंह तो भारत मां की बेड़ियों को काट देने के लिए उद्यत थे । विवाह उन्हें अपने मार्ग में बाधा लगी । वे इस चक्कर से बचने के लिए कॉलेज से भाग गए और दिल्ली पहुंचकर दैनिक समाचारपत्र अर्जुन में संवाददाता के रूप में कार्य करने लगे । वर्ष 1924 में उन्होंने कानपुर में दैनिक पत्र प्रताप के संचालक गणेश शंकर विद्यार्थी से भेंट की । इस भेंट के माध्यम से वे बटुकेश्वर दत्त और चन्द्रशेखर आजाद के संपर्क में आए । बटुकेश्वर दत्त से उन्होंने बांग्ला सीखी । हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के सदस्य बने । अब भगतसिंह पूर्ण रूप से क्रांतिकारी कार्यों तथा देश के सेवा कार्यों में संलग्न हो गए थे । जिस समय भगतसिंह का चन्द्रशेखर आजाद से संपर्क हुआ, तब ऐसा प्रतीत होने लगा मानों दो उल्का पिंड, ज्वालामुखी, देशभक्त, आत्मबलिदानी एक हो गए हों । इन दोनों ने मिलकर न केवल अपने क्रांतिकारी दल को मजबूत किया, बल्कि उन्होंने अंग्रेजों के दांत भी खट्टे करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । भगतसिंह ने लाहौर में 1926 में नौजवान भारत सभा का गठन किया । यह सभा धर्मनिरपेक्ष संस्था थी तथा इसके प्रत्येक सदस्य को सौगन्ध लेनी पड़ती थी कि वह देश के हितों को अपनी जाति तथा अपने धर्म के हितों से बढक़र मानेगा । यह सभा हिन्दुओं, मुसलमानों तथा अछूतों के छुआछूत, जात-पात, खान-पान आदि संकीर्ण विचारों को मिटाने के लिए संयुक्त भोजों का आयोजन भी करती थी । परन्तु मई 1930 में इसे गैर-कानूनी घोषित कर दिया गया । 1927 के दिसम्बर महीने में काकोरी केस के संबंध में रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला, राजेन्द्र लाहिड़ी और रोशनसिंह को फांसी दी गई । चन्द्रशेखर आजाद अंग्रेजों के जाल में नहीं फंसे । वे अब भी आजाद ही थे । क्रांतिकारी दल में अस्त-व्यस्तता उत्पन्न हो गई थी । क्रांतिकारी दल की अस्त-व्यस्तता चन्द्रशेखर को खटक रही थी । अत: वे भगतसिंह से मिले । भगतसिंह और आजाद ने दल को पुन: संगठित किया । दल के लिए नए सिरे से अस्त्र-शस्त्र संग्रह किए गए । ब्रिटिश सरकार अब भगतसिंह को किसी भी कीमत पर गिरपऊतार करने के लिए कटिबध्द थी । 1927 में दशहरे वाले दिन एक चाल द्वारा भगतसिंह को गिरपऊतार कर लिया गया । उन पर झूठा मुकदमा चलाया गया । परन्तु वे भगतसिंह पर आरोप साबित नहीं कर पाए । उन्हें भगतसिंह को छोड़ना पड़ा । 8 और 9 सितम्बर, 1928 को क्रांतिकारियों की एक बैठक दिल्ली के फिरोजशाह के खण्डरों में हुई । भगतसिंह के परामर्श पर हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन का नाम बदलकर हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन रखा गया । वर्ष 1919 से लागू शासन सुधार अधिनियमों की जांच के लिए फरवरी 1928 में साइमन कमीशन मुम्बई पहुंचा । जगह-जगह साइमन कमीशन के विरुध्द विरोध प्रकट किया गया । 30 अक्तूबर, 1928 को कमीशन लाहौर पहुंचा । लाला लाजपतराय के नेतृत्व में एक जुलूस कमीशन के विरोध में शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहा था, जिसमें भीड़ बढती जा रही थी । इतने व्यापक विरोध को देखकर सहायक अधीक्षक साण्डर्स जैसे पागल हो गया था, उसने इस शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर लाठी चार्ज किया । लाला लाजपतराय पर लाठी के अनेक वार किए गए । वे खून से लहूलुहान हो गए । भगतसिंह यह सब कुछ अपनी आंखों से देख रहे थे। 17 नवम्बर, 1928 को लालाजी का देहान्त हो गया । भगतसिंह का खून खौल उठा, वे बदला लेने के लिए तत्पर हो गए । लाला लाजपतराय की हत्या का बदला लेने के लिए हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन ने भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव, आजाद और जयगोपाल को यह कार्य सौंपा । इन क्रांतिकारियों ने साण्डर्स को मारकर लालाजी की मौत का बदला लिया। साण्डर्स की हत्या ने भगतसिंह को पूरे देश का लाड़ला नेता बना दिया । इस अवसर पर जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में यह वर्णन किया है – भगतसिंह एक प्रतीक बन गया । साण्डर्स के कत्ल का कार्य तो भुला दिया गया लेकिन चिह्न शेष बना रहा और कुछ ही माह में पंजाब का प्रत्येक गांव और नगर तथा बहुत कुछ उत्तरी भारत उसके नाम से गूंज उठा । उसके बारे में बहुत से गीतों की रचना हुई और इस प्रकार उसे जो लोकप्रियता प्राप्त हुई । वह आश्चर्यचकित कर देने वाली थी । अंग्रेज सरकार से बचने के लिए भगतसिंह ने अपने केश और दाढी क़टवाकर, पैंट पहन कर और सिर पर हैट लगाकर वेश बदलकर, अंग्रेजों की आंखें में धूल झोंकते हुए कलकत्ता पहुंचे । कलकत्ता में कुछ दिन रहने के उपरान्त वे आगरा गए । हिन्दुस्तान समाजवादी गणतंत्र संघ की केन्द्रीय कार्यकारिणी की एक सभा हुई, जिसमें पब्लिक सेपऊटी बिल तथा डिस्प्यूट्स बिल पर चर्चा हुई । इनका विरोध करने के लिए भगतसिंह ने केन्द्रीय असेम्बली में बम फेंकने का प्रस्ताव रखा । साथ ही यह भी कहा कि बम फेंकते समय इस बात का ध्यान रखा जाए कि किसी व्यक्ति के जीवन को कोई हानि न हो । इसके बाद क्रांतिकारी स्वयं को गिरपऊतार करा दे । इस कार्य को करने के लिए भगतसिंह अड़ गए कि वह स्वयं यह कार्य करेंगे । आजाद इसके विरुध्द थे परन्तु विवश होकर आजाद को भगतसिंह का निर्णय स्वीकार करना पड़ा । भगतसिंह के सहयाक बने — बटुकेश्वर दत्त । 8 अप्रैल, 1929 को दोनों निश्चित समय पर असेम्बली में पहुंचे । जैसे ही बिल के पक्ष में निर्णय देने के लिए असेम्बली का अध्यक्ष उठा, भगतसिंह ने एक बम फेंका, फिर दूसरा । दोनों ने नारा लगाया इन्कलाब जिन्दाबाद… साम्राज्यवाद का नाश हो, इसी के साथ अनेक पर्चे भी फेंके, जिनमें अंग्रेजी साम्राजयवाद के प्रति आम जनता का रोष प्रकट किया गया था । बम फेंकने के उपरान्त इन्होंने अपने आपको गिरपऊतार कराया । इनकी गिरपऊतारी के उपरान्त अनेक क्रांतिकारियों को पकड़ लिया गया, जिसमें सुखदेव, जयगोपाल तथा किशोरीलाल शामिल थे । भगतसिंह को यह अच्छी तरह मालूम था कि अब अंग्रेज उनके साथ कैसा सलूक करेंगे ? उन्होंने अपने लिए वकील भी नहीं रखा, बल्कि अपनी आवाज जनता तक पहुंचाने के लिए अपने मुकदमे की पैरवी उन्होंने खुद करने की ठानी । 7 मई, 1929 को भगतसिंह तथा बटुकेश्वर दत्त के विरुध्द न्याय का नाटक शुरू हुआ । भगतसिंह ने 6 जून, 1929 के दिन अपने पक्ष में वक्तव्य दिया, जिसमें भगतसिंह ने स्वतंत्रता, साम्राज्यवाद, क्रांति आदि पर विचार प्रकट किए तथा सर्वप्रथम क्रांतिकारियों के विचार सारी दुनिया के सामने रखे । 12 जून, 1929 को सेशन जज ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 307 तथा विस्फोटक पदार्थ अधिनियम की धारा 3 के अंतर्गत आजीवन कारावास की सजा दी । ये दोनों देशभक्त अपनी बात को और अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाना चाहते थे इसलिए इन्होंने सेशन जज के निर्णय के विरुध्द लाहौर हाइकोर्ट में अपील की । यहां भगतसिंह ने पुन: अपना भाषण दिया । 13 जनवरी, 1930 को हाईकोर्ट ने सेशन जज के निर्णय को मान्य ठहराया । अब अंग्रेज शासकों ने नए तरीके द्वारा भगतसिंह तथा बटुकेश्वर दत्त को फंसाने का निश्चय किया । इनके मुकदमे को ट्रिब्यूनल के हवाले कर दिया । 5 मई, 1930 को पुंछ हाउस, लाहौर में मुकदमे की सुनवाई शुरू की गई । इसी बीच आजाद ने भगतसिंह को जेल से छुड़ाने की योजना भी बनाई, परन्तु 28 मई को भगवतीचरण बोहरा, जो बम का परीक्षण कर रहे थे, घायल हो गए तथा उनकी मृत्यु हो जाने के बाद योजना सफल नहीं हो सकी । अदालत की कार्यवाही लगभग तीन महीने तक चलती रही । 26 अगस्त, 1930 को अदालत का कार्य लगभग पूरा हो गया । अदालत ने भगतसिंह को भारतीय दंड संहिता की धारा 129, 302 तथा विस्फोटक पदार्थ अधिनियम की धारा 4 तथा 6 एफ तथा भारतीय दण्ड संहिता की धारा 120 के अंतर्गत अपराधी सिध्द किया तथा 7 अक्तूबर, 1930 को 68 पृष्ठीय निर्णय दिया, जिसमें भगतसिंह, सुखदेव तथा राजगुरु को फांसी की सजा दी गई । लाहौर में धारा 144 लगा दी गई । इस निर्णय के विरुध्द नवम्बर 1930 में प्रिवी परिषद में अपील दायर की गई परन्तु यह अपील 10 जनवरी, 1931 को रद्द कर दी गई । प्रिवी परिषद में अपील रद्द किए जाने पर न केवल भारत में ही बल्कि विदेशों से भी लोगों ने इसके विरुध्द आवाज उठाई । विभिन्न समाचारपत्रों में भगतसिंह और राजगुरु एवं सुखदेव की फांसी की सजा के विरुध्द अपनी पुरजोर आवाज बुलन्द की । हस्ताक्षर अभियान चलाए गए । यहां तक कि इंग्लैंड की संसद के निचले सदन के कुछ सदस्यों ने भी इस सजा का विरोध किया । पिस्तौल और पुस्तक भगतसिंह के दो परम विश्वसनीय मित्र थे, जेल के बंदी जीवन में जब पिस्तौल छीन ली जाती थी, तब पुस्तकें पढक़र ही वे अपने समय का सदुपयोग करते थे, जेल की काल कोठरी में रहते हुए उन्होंने कुछ पुस्तकें भी लिखी थी — आत्मकथा, दि डोर टू डेथ (मौत के दरवाजे पर), आइडियल ऑफ सोशलिज्म (समाजवाद का आदर्श), स्वाधीनता की लड़ाई में पंजाब का पहला उभार, जेल में पुस्तकें पढते-पढते वे मस्ती में झूम उठते ओर शहीद राम प्रसाद बिस्मिल की यह पंक्तियां गाने लगते – मेरा रंग दे बसंती चोला । इसी रंग में रंग के शिवा ने मां का बंधन खोला ॥ मेरा रंग दे बसंती चोला यही रंग हल्दीघाटी में खुलकर था खेला । नव बसंत में भारत के हित वीरों का यह मेला मेरा रंग दे बसन्ती चोला । फांसी का समय प्रात:काल 24 मार्च, 1931 निर्धारित हुआ था, पर सरकार ने भय के मारे 23 मार्च को सायंकाल 7.33 बजे, उन्हें कानून के विरुध्द एक दिन पहले, प्रात:काल की जगह संध्या समय तीनों देशभक्त क्रांतिकारियों को एक साथ फांसी देने का निश्चय किया । जेल अधीक्षक जब फांसी लगाने के लिए भगतसिंह को लेने उनकी कोठरी में पहुंचा तो उसने कहा , न्न सरदारजी । फांसी का वक्त हो गया है, आप तैयार हो जाइए न्न उस समय भगतसिंह लेनिन के जीवन चरित्र को पढने में तल्लीन थे, उन्होंने कहा, न्न ठहरो । एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल रहा है न्न और फिर वे जेल अधीक्षक के साथ चल दिए । सुखदेव और राजगुरू को भी फांसी स्थल पर लाया गया । भगतसिंह ने अपनी दाईं भुजा राजगुरू की बाईं भुजा में डाल ली और बाईं भुजा सुखदेव की दाईं भुजा में । क्षण भर तीनों रुके और तब वे यह गुनगुनाते हुए फांसी पर झूल गए – दिल से निकलेगी न मर कर भी वतन की उल्पएत मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वतन आएगी परन्तु ब्रिटिश सरकार द्वारा इन देशभक्तों पर किए जाने वाले अत्याचारों का अभी खात्मा नहीं हुआ था । उन्होंने इन शहीदों के मृत शरीर का एक बार फिर अपमान करना चाहा । उन्होंने उनके शरीर को टुकड़ों में विभाजित किया । उनमें अभी भी जेल के मुख्य द्वार से बाहर लाने की हिम्मत नहीं थी । वे शरीर के उन हिस्सों को बोरियों में भरकर रातों-रात चुपचाप फिरोजपुर के पास सतलुज के किनारे जा पहुंचे । मिट्टी का तेल छिड़कर आग ला दी गई । परन्तु यह बात आंधी की तरह फिरोजपुर से लाहौर तक शीघ्र पहुंच गई । अंग्रेजी फौजियों ने जब देखा की हजारों लोग मशालें लिए उनकी ओर आ रहे हैं तो वे वहां से भाग गए, तब देशभक्तों ने उनके शरीर का विधिवत दाह संस्कार किया । भगतसिंह तथा उनके साथियों की शहादत की खबर से सारा देश शोक के सागर में डूब चुका था । मुम्बई, मद्रास तथा कलकत्ता जैसे महानगरों का माहौल चिन्तनीय हो उठा । भारत के ही नहीं विदेशी अखबारों ने भी अंग्रेज सरकार के इस कृत्य की बहुत आलोचनाएं कीं । अंग्रेज शासकों के दिमागों पर भगतसिंह का खौफ इतना छाया हुआ था कि वे उनके चित्रों को भी जब्त करने लगे थे । भगतसिंह की शौहरत से प्रभावित होकर डॉ. पट्टाभिसीतारमैया ने लिखा है — न्न यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि भगतसिंह का नाम भारत में उतना ही लोकप्रिय था, जितना की गांधीजी का । न्न भगतसिंह तथा उनके साथियों को फांसी दिए जाने पर लाहौर के उर्दू दैनिक समाचारपत्र पयाम ने लिखा था — न्न हिन्दुस्तान इन तीनों शहीदों को पूरे ब्रितानिया से ऊंचा समझता है । अगर हम हजारों-लाखों अंग्रेजों को मार भी गिराएं, तो भी हम पूरा बदला नहीं चुका सकते । यह बदला तभी पूरा होगा, अगर तुम हिन्दुस्तान को आजाद करा लो, तभी ब्रितानिया की शान मिट्टी में मिलेगी। ओ ! भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव, अंग्रेज खुश हैं कि उन्होंने तुम्हारा खून कर दिया । लेकिन वो गलती पर हैं । उन्होंने तुम्हारा खून नहीं किया, उन्होंने अपने ही भविष्य में छुरा घोंपा है । तुम जिन्दा हो और हमेशा जिन्दा रहोगे ...................

Sunday, January 16, 2011

ankjyotish369

जय श्री राम...स्वागत है आप का | यह ब्लॉग अंक ज्योतिष और बॉडी लैंग्वेज पर आधारित है | जन्म-तिथि पता नहीं होने पर बॉडी लैंग्वेज-विश्लेषण कर परामर्श/समाधान/भविष्य-कथन किया जाता है |समर्थकों को उन के मूलांक का अंक ज्योतिष और बॉडी लैंग्वेज पर आधारित परामर्श सहित विश्लेषण भेजा जाएगा |
09 April, 2010
शिरडी वाले साई बाबा:" साई नाथ तेरे हजारों हाथ..."
शिरडी वाले साई बाबा:" साई नाथ तेरे हजारों हाथ..."







जय श्री राम ............ | आदरणीय मित्रो,आज हम एक बार फिर उपस्थित हैं आप की सेवा में अपने वचन के अनुसार | कई दिनों से जो बात करने की चर्चा कर रहे थे,अब वह बात करने का समय भी आ गया है | हम ने कहा था कि हम आप से उस अप्रतिम विभूति की चर्चा करेंगे,जिस ने असंख्य लोगों का जीवन ही बदल कर रख दिया | इस आलेख के शीर्षक से ही आप समझ गये होंगे की हम किन की बात कर रहे हैं ? जी हाँ,हम आज आप से बात करने जा रहे हैं 'शिरडी वाले साई बाबा' की | जिन के दिये दो मूल मन्त्रों---'श्रद्धा' (विश्वास) और 'सबूरी' (धीरज)---के सहारे न जाने कितने लोगों का जीवन शक्तिमय है | बाबा को किसी प्रकार की चर्चा में सीमित कर पाना हमारी क्षमताओं से सर्वथा बाहर की बात थी | ऐसा कर पाने के लिए हम ने उन्हीं से अनुमति ली | यह हमारा सौभाग्य है कि हमें उन की अनुमति मिली | इस से भी बढ़ कर हम तो यह कहेंगे कि इस आलेख के लिए हमें उन का ही आदेश मिला है | हम जो अब यहाँ चर्चा करने जा रहे हैं,यह उन्हीं की प्रेरणा से हो रही है | तो आइए,साई नाथ का नाम ले कर आरम्भ करते हैं यह पावन चर्चा |
जन्म-दिनांक सम्बन्धी विभिन्न मत

बाबा की जन्म-दिनांक को ले कर विभिन्न मत प्रचलित हैं | हमें बाबा की तीन जन्म-दिनांक मिलीं | एक थी 18-05-1837,रात्रि 08 बजे,ग्राम-पथरी,महाराष्ट्र | दूसरी थी 28-09-1835 | तीसरी थी 27-09-1838,आन्ध्र प्रदेश | हम कई दिनों तक तो इस जन्म-दिनांक-पहेली को हल नहीं कर पाये | फिर उसी युक्ति को काम लिया | कौनसी ? अरे वही,'तेरा तुझ को अर्पण' वाली | हम ने यह दायित्व बाबा पर ही छोड़ दिया कि वे स्वयं बताएँ कि उन की सही जन्म-दिनांक क्या है ? इस के बाद फिर उन्हीं की कृपा से हमें सही जन्म-दिनांक मिली | हाँ,दिनांक ही,जन्म-स्थान नहीं | हम ने बाबा की जन्म-दिनांक के रूप में 27-09-1838 को पाया | फिर जब अंक ज्योतिषीय विश्लेषण की कसौटियों पर कसा तो वहाँ भी इसे खरा पाया | अभी यहाँ 'जन्मांक-नामांक विश्लेषण' में आप स्वयं इस बात के साक्षी बनेंगे | हाँ,इस जन्म-दिनांक के साथ जुड़े स्थान (आन्ध्र प्रदेश ) से हम सहमत नहीं हैं |
जन्मांक-नामांक विश्लेषण

बाबा का जन्म 27-09-1838 को हुआ | इस का मूलांक-9,मासांक-9,वर्षांक-2 और भाग्यांक भी 2 हुआ | चलित का अंक 6 (ऋणात्मक) था | बाबा की सूर्य राशि 'तुला' ठहरी | जन्म का मूलांक 27 रचनात्मकता का प्रतीक है | यह उच्च सम्मान की प्राप्ति करवाता है | जन्म का वर्षं 20 जागरण,न्याय-प्रियता व योजनाओं में सफलता पाने का अंक है | इतना अवश्य है की यह सफलता देरी से मिलती है | ऐसे लोगों की उपमा एक देवदूत से दी जाती है | चूँकि यह अंक बाबा का भाग्यांक भी है,इस लिए इस के फल का प्रभाव दोहरा हो जाता है | यहाँ देखिये बाबा के जन्म के मूलांक में बैठे दोनों अंक (2 व 7) सहोदर हैं | ये स्त्री अंक कहलाते हैं | ये अंक माता,पत्नी,परिवार,बहन व विश्वास के हैं | बाबा के यहाँ ये अंक सशक्त अवस्था में तो हैं,किन्तु यह अवस्था विखंडित है,क्यों कि इन का जन्म अंक 6 के ऋणात्मक समय में हुआ है | अंक 6 यानि शुक्र यानि सुख | इन के साथ बाबा के भाग्यांक 2 की युति भी विश्लेषित की जाए तो इस अवस्था का विषैलापन बढ़ जाता है | इस सशक्तावस्था के कारण ही बाबा के जीवन में माता,पत्नी,परिवार,बहन और पारिवारिक दायरे में विश्वास का सर्वथा अभाव रहा | इन्हें माता का सुख बिलकुल नहीं मिला | बहन का सुख भी कहाँ मिला ? पिता ने तो जन्म से पहले ही छोड़ दिया था | तो ऐसे में भला परिवार का सुख कहाँ रहा ? इसी प्रबल शुक्र विखंडनावस्था के कारण ही बाबा को स्त्री सुख यानि पत्नी का सुख नहीं मिला | उन्होंने विवाह नहीं किया | अंक 6 की यह अवस्था उन की बॉडी लैंग्वेज में भी साफ़ दिखाई पड़ती है | उन का शरीर विखंडित व विमंदित शुक्र वाला था | 'था' का मतलब अब उन का शरीर नहीं है,वे तो सदा सर्वदा अपने भक्तों के साथ हैं ही | अब देखिए कमाल इन स्त्री अंकों (2 व 7) की इस सशक्त विखंडनावस्था का | ये अंक अपना ऋणात्मक फल देते हैं,मगर पारिवारिक दायरे में ही | परिवार से बाहर यही अवस्था धनात्मक फल देती है | इसी लिए साई बाबा को अन्य स्त्रियों का अपार स्नेह मिला,भले ही वह वायजा बाई हो या कोई और | इस के अलावा उन्हें अपने मुरीदों का एक अनंत परिवार भी मिला | इस श्रद्धा और स्नेह के आगे तो परिवार का स्नेह फीका पड़ जाता है | बाबा के जन्म का मूलांक 9 और भी बहुत कुछ बताता है | अंक 2,7 व 9 का यह त्रिकोण स्त्रीत्व प्रधानता से धर्म व अध्यात्म के प्रसार को भी इंगित करता है,किन्तु यह प्रसार सामाजिकता प्रधान होता है | इसी लिए बाबा का सारा ज़ोर सामाजिकता व मानवता पर ही है |

बाबा का जन्म गुरुवार को हुआ | इस का अंक है-3 | बाबा के 'साई बाबा' नाम के अंक बनाते हैं-१० | इसे 'सौभाग्य का चक्र' भी कहते हैं | यह आत्मविश्वास,निष्ठा व सम्मान का प्रतीक है | ऐसे लोगों के जीवन में उतर-चढ़ाव बहुत आते हैं | बाबा का तो समस्त जीवन इस बात का साक्षी है | इस नामांक को भाग्यांक में जोड़ दिया जाए तो अंक 3 उन का संयुक्तांक भी ठहरता है | बाबा का समस्त जीवन अंक 3 की प्रधानता वाला है | यह अंक प्रवचन,उपदेश,मार्गदर्शन,गुरु,ज्ञान आदि का है | 'साई' का तो अर्थ ही 'ज्ञान-संपन्न' होता है | अपने भाग्यांक 2 की अंक 3 से प्रच्छन्न युति के कारण ही बाबा औपचारिक स्वरूप में किसी पीठ या गद्दी पर आसीन हो कर प्रवचन नहीं करते थे | यह युति व्यास-पीठ-नुमा प्रवचनकर्ता नहीं बनने देती है | इन का बचपन का नाम 'बाबू' था | इस का अंक बनता है-11,जिस का प्रतीकार्थ यह है कि ऐसे लोगों को अन्य लोगों से भय रहता है | इन्हें दूसरों से धोखा मिलता है | इन के मार्ग में कई कठिनाइयाँ आती हैं | इस नामांक का मूलांक बनता है-2 | यह अंक जन्म के अंकों के साथ मिल कर पूर्व में उल्लेखित स्त्री अंकों के दोष को बढ़ाता है | इस लिए जब तक बाबा का नाम 'बाबू' चला,वे बहुत दुखी और परेशान रहे | जब से उन का नाम 'साई बाबा' पड़ा,तब से उन के जीवन की समूची दशा ही बदल गयी | यह है नाम की महिमा |
बाबा की अंक कुण्डली

अब बात करते हैं बाबा की जन्म की अंक कुंडली की | यहाँ हम सब से पहले चर्चा करेंगे 'पितृद्रोह युति' यानि 'GODFTHER PROBLEM ' की | यह दो प्रकार की होती है---(1) उच्चस्थ,और (2) निम्नस्थ | (1) उच्चस्थ:---इस का तात्पर्य यह है कि जातक को अपने पिता,पिता-समक्ष,संरक्षक,गुरु या ख़ैर-ख्वाह का सुख नहीं मिलता है | (2) निम्नस्थ:---जातक स्वयं जिन का पितृ-परुष यानि पिता,पिता-समकक्ष,गुरु,संरक्षक या ख़ैर-ख्वाह होता है,उन के कारण उसे दुःख उठाना पड़ता है | यह 'पितृद्रोहात्मक युति' जितनी प्रबल होती है,यह सुख उतना ही कम मिलता है | अभी पहले हम बाबा के यहाँ इस युति की उच्चस्थ अवस्था का विश्लेषण करते हैं ,निम्नस्थ अवस्था का विश्लेषण उन के देहांत के अंकों के विश्लेषण के समय करेंगे | बाबा की अंक कुंडली में अंक 1 के साथ दोहरी भूमिका में अंक 8 बैठा है | इस से पितृद्रोह की अवस्था बहुत प्रबल हो गयी है | यह बात इन के जीवन-वृत्त की घटनाओं से भी सिद्ध होती है | इस का सब से पहला प्रभाव दिखता है कि इन के पिता श्री गंगा भावडिया इन्हें इन के जन्म से पहले ही (गृह-त्याग के रूप में) छोड़ कर चले गये थे | तो इन्हें पिता का सुख कहाँ मिला ? फिर जिस मुस्लिम परिवार ने इन्हें अपनाया,उस का मुखिया भी इन्हें अपनाने के मात्र चार साल बाद ही चल बसा | हुआ भी क्या था उसे ? दो-चार दिन बस मामूली बुख़ार | तो बाबा को यहाँ भी पितृ-सुख नहीं मिला | इस के बाद पालनहारी मुस्लिम माँ ने वेकुशा महाराज (कुछ मतों के अनुसार बैकुंठ महाराज) के आश्रम में डाल दिया | मगर यह सुख भी बाबा के भाग्य में अधिक कहाँ लिखा था ? मात्र 12 वर्षों के बाद ही ये महाराज भी स्वर्ग सिधार गये | अब यह बालक ( हमारे साई बाबा ) पूर्णतः पितृ-विहीन हो गये | तो ऐसा होता है कुण्डली की इस 'पितृद्रोह युति' का फल | ठीक ऐसा ही गोस्वामी तुलसीदास जी के साथ भी हुआ था | मित्रो,हम ने जो आप से निवेदन किया था न कि बाबा की यह जन्म-दिनांक हमें सही लग रही है,तो उस का कारण भी यहाँ हम ने बता दिया है | अब आप स्वयं ही देखिए कि बाबा के अब तक के इस जीवन-वृत्त से क्या ऐसा सिद्ध नहीं हो रहा है ? इस लिए ही तो बाबा ने स्वयं हमें अपनी सही जन्म-दिनांक की प्रेरणा दी या बतायी

वैसे तो मित्रो,बाबा का जीवन अपार घटनाक्रम-भरा रहा | उन की किस घटना की बात करें और किसे छोड़ें ? मगर कुछ बातों को ज्योतिषीय विश्लेषण की दृष्टि से आवश्यक समझ कर ले रहे हैं,जिस से कि आप अंक ज्योतिष के दायरे में रोचक ढंग से इस विश्लेषण को समझ सकें | अंक ज्योतिष में अंक 3,6 व 9 का समूह 'सर्वश्रेष्ठ' कहलाता है | बाबा के जीवन पर इस अंक-समूह का सघन प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है | अंक 3 के कुछ प्रभाव की बात तो हम पूर्व में कर ही चुके हैं | अब इस विश्लेषण को आगे बढ़ाते हैं | बाबा वेकुशा महाराज के आश्रम में १२ वर्ष रहे | इस का अंक बनता है-3 | यह समयावधि थी वर्ष 1842 से वर्ष 1854 | 1842 का अंक बनता है-6 और 1854 का अंक बनता है-9 | वर्ष 1854 में ये शिरडी पहुँचे,मगर दो महीनों के बाद ही चुपचाप निकल पड़े | दुबारा ये शिरडी पहुँचे 3 साल बाद वर्ष 1857 में | इस वर्ष का अंक बनता है-3 | इस वर्ष ने भारतीय समाज का हुलिया ही बदल कर रख दिया | ईश्वर की असीम अनुकम्पा से इधर साई बाबा ने शिरडी में अलख जगाना शुरू किया, और उधर पराधीन भारत ने अंग्रेजों के विरुद्ध आज़ादी का अलख जगाना | क्या इन दोनों बातों का एक साथ होना मात्र एक संयोग था ? नहीं,इस के पीछे प्रभु का कोई विशिष्ट मंतव्य अवश्य था |
देहांत

बाबा का देहांत हुआ 15-10-1918 को | हम ने यहाँ 'देहांत' शब्द प्रयुक्त किया है,'निधन' नहीं | कारण बहुत स्पष्ट है | 'निधन' का अर्थ है 'नाश','मरण' व मृत्यु' | बाबा का ना तो 'नाश' हुआ,ना ही 'मरण' और ना ही 'मृत्यु' | उन का तो बस,'देहांत' हुआ था | हमारी नज़रों के आगे से उन की देह विलुप्त हो गयी | बाबा तो हैं ही | तो उन के देहांत की दिनांक का मूलांक बनता है-6 | इस का मासांक-1,वर्षांक-भी 1 और भाग्यांक बनता है-8 | हम ने बाबा के जन्मंकों का विश्लेषण करते समय शुक्र की जिस सशक्त विखंडनावस्था का उल्लेख किया था,वह यहाँ भी सिद्ध होती है | देहांत के मूलांक 6 और भाग्यांक 8 की पारस्परिक युति शुक्र को विखंडित कर देती है | बाबा के देहांत का चलित था-अंक 6 (ऋणात्मक) | तनिक ध्यान दीजिए,यह वही चलित है जो कि उन के जन्म का है;यानि बाबा के जन्म और देहांत का चलित समय एक ही है | क्या अद्भुत संयोग है !!! बाबा का देहांत मंगलवार को हुआ था,जिस का अंक है-9 | उन के देहांत का समय था 02 बज कर 30 मिनट यानि कि तब 02 बज कर 31 वाँ मिनट चल रहा था | इन का अंक बनता है-6 | बाबा को तब आयु का 81 वाँ वर्ष चल रहा था | इस का अंक बनता है-9 | बाबा के यहाँ जिस 'पितृद्रोह युति' या 'GODFATHER PROBLEM ' की निम्नस्थ अवस्था का हम ने यहाँ पूर्व में उल्लेख किया है, वह देहांत के इन अंकों से होती है | बाबा का आयु अंक इस बात का प्रमाण प्रस्तुत करता है | 81 वें वर्ष में अंक 1 व 8 में यही युति बन रही है | कहा भी जाता है कि बाबा ने अपने एक भक्त की बीमारी अपने पर ले ली थी,और उसी बीमारी के कारण वे चल बसे;यानि कि वे जिस के पितृ-पुरुष थे,उस के कारण उन का यह सुख नष्ट हो गया | देहांत की दिनांक के अंकों की व्याख्या करें तो देहांत का मूलांक 15 मन्त्र,जादू व रहस्य से सम्बन्धित है | बाबा के देहांत के बाद भी उन का जादू यानि चमत्कार जारी है,'साई' नाम अपने-आप में सब से विलक्षण मन्त्र की भूमिका निभा ही रहा है | रहा सवाल रहस्य का,तो बाबा के चमत्कारों और उन की कृपा का रहस्य भला समझ ही कौन सका है ? जब तक बाबा की स्वयं की ही अहैतुकी कृपा न हो,तब तक भला उसे समझा भी कैसे जा सकता है ? बाबा के देहांत के वर्ष का संयुक्तांक है-19 | यह सूर्य का प्रतीक है | ऐसे व्यक्ति की सभी योजनाएँ सफल होती हैं | ऐसे व्यक्ति को अपार आदर-सम्मान व सफलता मिलती है |
तीसरा जन्म कब ?
मित्रो,आप आश्चर्य कर रहे होंगे कि साई बाबा के पुनर्जन्म के क्रम में हम दूसरे जन्म की बजाय यह तीसरे जन्म का जिक्र क्यों कर रहे हैं ? इस बात से तनिक भी आश्चर्य-चकित मत होइए,क्यों कि बाबा का दूसरा जन्म तो आज से लगभग चौरासी साल पहले हो चुका है | इस बारे में हम अगले आलेख में विस्तार से चर्चा करेंगे | आप ही बताइए कि जब दूसरा जन्म हो चुका है तो हम तीसरे जन्म के बारे में ही तो बात करेंगे न | बाबा का पहला जन्म हुआ अंक 2 के वर्ष में यानि कि वर्ष 1838 में | बाबा का दूसरा जन्म हुआ अंक 9 के वर्ष में यानि कि वर्ष 1926 में | 'पुनर्क्रम निर्धारण विधि' से बाबा का अगला जन्म अब फिर से अंक 2 के ही वर्ष में होना है | अब प्रश्न उठता है कि यह वर्ष कौनसा होगा ? तो यह जानने के लिए बाबा के पहले जन्म के अंकों की शरण में चलते हैं | बाबा के पहले जन्म के मूलांक का वृहदंक है-27 व वर्ष का वृहदंक है-20 | इस युति को पहले तो सीधे-सीधे देखें तो यह वर्ष बनता है-2720,जो कि दूसरे जन्म की वर्तमान अवस्था को दृष्टिगत रखते हुए संभव नहीं है,क्यों कि दैहिक धर्म की भी अपनी सीमा होती है | बाबा के दूसरे जन्म के शरीर की वर्तमान अवस्था लगभग चौरासी साल है,और वर्ष 2720 से कुछ वर्ष पहले भी इस की पूर्णाहुति मान ली जाए,तब भी यह देह-यात्रा लगभग 800 वर्ष की हो जाएगी,जो कि दैहिक धर्म के अनुकूल नहीं बैठ रही है | अब बात करते हैं दूसरे विकल्प की | दूसरा विकल्प यह है कि जन्म के वर्ष और मूलांक के संयुक्तांक की 'विरुद्ध युति' बना ली जाए | यह युति बनती है-वर्ष 2027 | बाबा के पहले जन्म के पहले जन्म के अंकों से ये दो ही विकल्प बनते हैं | इस प्रकार बाबा के तीसरे जन्म का वर्ष ठहरता है-2027 |

एक और विधि भी है | जन्म के कारक अंक होते हैं-1 व 2 | अंक 1 पुरुष व अंक 2 स्त्री का होता है | इन के मेल से अंक 3 का जन्म होता है | इस बात को सांसारिक या दैहिक स्तर पर इस प्रकार समझिए कि पुरुष व स्त्री के मेल से संतान पैदा होती है | तब अंक 1 पिता व अंक 2 माता का हो जाता है | उन के देहांत का भाग्यांक है-8 | उन के देहांत के वर्ष 1918 में इस अंक 8 को जोड़ देने से बाबा के अगले यानि दूसरे जन्म का वर्ष प्राप्त होता है-1926 | बाबा के पहले जन्म की आयु थी-81 वाँ वर्ष | इस में जन्म के कारक संयुक्तांक 12 को जोड़ दें तो आती है-संख्या 93 | यह बाबा के दूसरे जन्म के शरीर की आयु है | इस का तात्पर्य यह हुआ कि बाबा के दूसरे जन्म का देहांत होगा वर्ष 2019 में | अब इस में देहांत के कारक अंक 8 को जोड़ दिया जाए तो बाबा के अगले यानि तीसरे जन्म का वर्ष मिल जाता है | यह मिलता है-वर्ष 2027 | अब तनिक यह भी देख लिया जाए कि वर्ष 2027 में किस समय में बाबा फिर से अवतरित होंगे ? बाबा का पहला जन्म हुआ अंक 6 ( ऋणात्मक) में | उन का दूसरा जन्म हुआ अंक 3 (ऋणात्मक) में | अंक 3,6 व 9 के समूह का अब शेष रहा अंक है-9 | अब इसी का क्रम है | अंक 9 एक कैलेण्डर वर्ष में दो बार आता है | 21 मार्च से 20 अप्रेल (धनात्मक) और 21 अक्टूबर से 20 नवम्बर (ऋणात्मक) | इस में भी 21 अक्टूबर से 20 नवम्बर वाली अवधि अधिक जमती है,क्यों कि पहली बात तो यह कि इस में चलित की ऋणात्मकता की क्रमबद्धता जारी रहती है,दूसरी बात यह कि बाबा के पहले जन्म के देहांत के 9 वें वर्ष में दूसरा जन्म हुआ | अब तीसरे जन्म के वर्ष 2027 में इस परिधि में तो 21 अक्टूबर से 20 नवम्बर वाला समय ही आ रहा है | इस में यदि संक्रमण काल के सात दिन सम्मिलित कर लिये जाएँ तो यह अवधि बढ़ कर 27 नवम्बर तक हो जाती है | उस दिनांक को गुरुवार,मंगलवार या शुक्रवार हो सकता है | इस नाते अक्टूबर महीने की 21 और नवम्बर महीने की 5,9,11,18 व 23 तारीख़ मिलती है | फिर भी मोटे तौर पर यह वर्ष 2027 ठहरता है | अब वास्तव में बाबा का जन्म किस दिन व दिनांक को होगा,यह तो स्वयं बाबा ही जानते हैं,हम ने तो बस अपनी तुच्छ बुद्धि से तनिक गणित लगा कर यह जानने का बस एक विनम्र प्रयास भर किया है | बाबा हमें इस धृष्टता के लिए अवश्य ही क्षमा कर रहे होंगे |


तो मित्रो,हम ने आप की सेवा में साई बाबा के जीवन व आगामी संभाव्य को अंक ज्योतिषीय दृष्टिकोण से रखने का यह प्रयास किया है | अपनी तुच्छ क्षमता से जो भी बन सकता था,हम ने वह करने की पूरी ईमानदारी से कोशिश की है | इस में रही त्रुटियों के लिए हम सर्वप्रथम तो बाबा से और फिर आप से क्षमा माँगते हैं | बाबा हमें और अधिक सक्षम बनाएँ,जिससे हम अधिक सक्षम हो कर अपनी गणनाएँ कर सकें | आज के लिए बस इतना ही | हाँ,अगले आलेख में हम बात करेंगे बाबा के दूसरे जन्म के बारे में | ......... अब आज के आनंद की जय | जय साई नाथ | ............ जय श्री राम |



































प्रस्तुतकर्ता डॉ.कुमार गणेश 369 पर 3:34 PM इसे ईमेल करें
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लेबल: अंकज्योतिष, अध्यात्म, धर्म, वेकुशा, शिरडी, श्रद्धा, सबूरी, साई बाबा
प्रतिक्रियाएँ:

3 टिप्पणियाँ:

Pandit Kishore Ji ने कहा…

bahut hi gyanvardhak jaankaari di hain mitravar aapne
April 09, 2010 5:01 PM
अल्पना वर्मा ने कहा…

साई बाबा के विषय में अद्भुत जानकारी ,दुर्लभ चित्र ,संग्रहणीय लेख .
April 10, 2010 4:32 PM
ACHARYA RAMESH SACHDEVA ने कहा…

BHAI GAJAB KAR DIYA.
ESE KAHTE H GYAN
AUR YEH HOTA H JYOTISH.

BAS AAP KISI VYAKTI AISE JANAKARI DE JO ES DESH KA BHAGAY BAD DALE? JO ES DESH SE BHARASHTA CHAR BHAGA DE? JO UNEMPLOYMENT DUR KAR DE?
JO CHARACTER BUILD KAR DE? JO KHUD BHI JIYE AUR AURO KO BHI JEENE DE.
April 14, 2010 10:59 PM

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Saturday, January 15, 2011

भारत माता की जय..................




अंग्रेजों से लड़ते समय सारे भारत ने `भारत माता की जय´ का नारा लगाया था।
    ऐसी ही नारेबाजी के बीच पं. नेहरू ने एक सभा में भीड़ से पूछा ``यह भारत माता कौन है?´´ एक व्यक्ति ने कहा कि यह धरती। पंडित जी ने पूछा ``कौन सी धरती? किसी खास गांव की? जिले की? या पूरे भारत की?´´ फिर पं. नेहरू ने स्वयं उत्तर दिया, ``भारत वह सब कुछ है जो वे सोचते हैं लेकिन इससे भी कुछ ज्यादा है- पर्वत, नदियां, वन, विशाल खेत, मैदान और आप सब, हम सब। आप भारत माता के अंग हैं। आप स्वयं भारत माता है।´´

भारत का प्रचीन राष्ट्रजीवन संस्कृति प्रेरित था, धर्म निर्देशित नहीं था। दर्शन, विज्ञान और अनुभव से निर्मित संस्कृति ही राजा और राज्यव्यवस्था की प्ररेणा थी। लुडविग जैसे विद्वानों ने ऋग्वैदिक काल की सभी समितियों को राज्यव्यवस्था का अंग माना है। भारत की राज्य व्यवस्था में आमजनों की सहज भागीदारी थी। संसदीय जनतंत्रा का सर्वप्रथम जन्म भारत में ही हुआ। ब्रिटिश संसदीय व्यवस्था को दुनिया की प्रथम संसदीय व्यवस्था मानने वाले विद्वान वैदिककालीन जनतंत्रा संस्कृति और बौद्धकालीन गणतंत्रा की उपेक्षा करते हैं। ब्रिटिश संसदीय व्यवस्था राजशाही की प्रतिक्रिया से धीरे-धीरे विकसित हुई। वे आज भी `राजा´ जैसी संस्था से पिंड नहीं छुड़ा पाए। ब्रिटिश परंपरा में अभी भी `राजा-रानी´ हैं, लेकिन भारत का संविधान प्राचीन भारतीय संस्कृति से चलता है, राज्य व्यवस्था संविधान के अधीन है। लोकजीवन में संविधान की लोकप्रियता नहीं है। संविधान की जानकारी विद्वान अधिवक्ताओं को है, सिविल सेवा के अधिकारियों को है, बाकी लोग संविधान से कोई वास्ता नहीं रखते, गो कि दुनिया का सबसे बड़ा लिखित संविधान भारत का ही है।


संविधान निर्माता सास्कृतिक क्षमताओं से परिचित थे। संविधान सभा के तमाम सदस्य वैदिक परंपरा, संस्कृति और संसदीय व्यवस्था के जानकार थे। लेकिन डॉ अंबेडकर सहित कुछेक को छोड़कर सबके दिमाग में `आर्यआक्रमण´ का झूठा कथानक था। बावजूद इसके संविधान की प्रथम मौलिक हस्तलिखित अंग्रेजी प्रति में सांस्कृतिक राष्ट्रभाव वाले 23 चित्र उकेरे गए। संविधान की मूल प्रति के मुखपृष्ठ पर श्रीराम और श्रीकृष्ण के चित्र थे। जाहिए है कि श्रीराम और श्रीकृष्ण ही भारत की राज्य व्यवस्था का चेहरा बनाए गए थे। भाग एक में सिंधु सभ्यता की स्मृति वाले मोहनजोदड़ो काल की मोहरों के चित्र थे। भाग दो में `भारत की नागरिकता वाले´ अध्याय में वैदिककाल के गुरूकुल आश्रम का भव्य दिव्य चित्रा था। यानी वैदिक गुरूकुल ही भारतीय नागरिकता की अभिव्यक्ति था। भाग तीन के मौलिक अधिकार वाले पृष्ठ पर श्रीराम की लंका विजय का चित्रांकन था। यहां मौलिक अधिकार पौरूष पराक्रम के ही अनुवर्ती माने गए थे। भाग चार में `नीति निर्देशक तत्व´ वाले पृष्ठ पर श्रीकृष्ण अर्जुन के उपदेश वाला प्रेरक चित्रा था। संविधान सभा की अधिकृत कार्यवाही (26 नवंबर-1949) में इसका उल्लेख है। संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ राजेंद्र प्रसाद ने कहा था ``अब सदस्यों को संविधान की प्रतियों पर हस्ताक्षर करने हैं। एक हस्तलिखित अंग्रेजी की प्रति है। इस पर कलाकारों ने चित्र अंकित किए हैं, दूसरी छपी हुई अंग्रेजी प्रति है।´´


संविधान में संस्कृतिमूलक दिव्य भव्य मनोहारी चित्र थे। भारतीय संविधान के विद्यार्थी `चित्रमय संविधान की प्रति´ से वंचित किए गए। चित्रों में भारतीय संस्कृति की झांकी थी। संस्कृति ही नागरिक को सभ्य बनाती है। सभ्य सभा के योग्य होते हैं। संस्कृति उन्हें विचारशील, विवेकशील बनाती है। वे स-मिति (समिति) होते हैं। संविधान सभा के आखिरी दिन (24 नवंबर-1949) अध्यक्ष राजेंद्र प्रसाद की बड़ी प्रशंसा हुई। उन्होंने संविधान सभा में भारतीय सांस्कृतिक महाकोश-महाभारत की कथा सुनाई- ``प्रशंसापूर्ण भाषणों को सुनते हुए मुझे महाभारत के एक कथानक का स्मरण आया। इस ग्रंथ में बहुत ही विषम परिस्थितियों के फलस्वरूप जो जटिल समस्याएं उठ खड़ी होती हैं, श्रीकृष्ण उन्हें किस प्रकार हल करते हैं, उसका वर्णन है।´´ राजेंद्र बाबू ने आगे कहा ``एक दिन अर्जुन ने यह प्रण किया कि सूर्यास्त के पूर्व मैं अमुक कार्य समाप्त कर दूंगा और यदि समाप्त न कर पाया तो चिता जलाकर भस्म हो जाऊंगा। वे उसे पूरा नहीं कर पाए। अर्जुन अपने प्रण पर अटल थे। श्रीकृष्ण ने समस्या हल की, यदि अर्जुन स्वयं अपनी प्रशंसा करें अथवा अन्य लोगों से अपनी प्रशंसा सुने तो यह आत्मघात अथवा भस्म होने के समान ही होगा.....मैं कई बातों को पूरा नहीं कर पाया। मैंने इसी भगवान से इस प्रकार के भाषणों को सुना है।´´ (भारतीय संविधान सभा कार्यवाही, खण्ड 12, पृष्ठ 4259-60)

संस्कृति सर्वोच्च मार्गदर्शक होती है
भारत का स्वतंत्राता संग्राम सांस्कृतिक था। लेकिन संविधान निर्माण का काम राजनीतिक हो गया। 1857 के स्वाधीनता संग्राम से डरी ब्रिटिश सत्ता ने ठीक एक वर्ष बाद भारत शासन अधिनियम 1858 बनाया। इंग्लैंड का `राजा´ ही भारत का राजा था। अंग्रेज सिद्ध करना चाहते थे कि वे भारत पर कानून का शासन करते हैं। उन्होंने 1861 में भारतीय परिषद कानून बनाया। इसी वर्ष पुलिस अधिनियम 1861 भी बनाया गया। स्वतंत्रा भारत की पुलिस आज भी उसी कानून से शासित है। आम जनता अंग्रेजी हुकूमत से खफा हुई। रोष बढ़ा। जनता में उबाल आया। एक अंग्रेज एओ ह्यूम ने सन-1885 में कांग्रेस को जन्म दिया। 1892 में अंग्रेजों ने नया कानून `भारतीय परिषद अधिनियम 1892´ बनाया। भारत के लिए अंडरसेक्रेटरी ऑफ स्टेट ने कहा ``भारत के शासन का आधार विस्तृत करने और उसके कृत्यों को बढ़ाने के लिए और गैर सरकारी तथा भारत के स्थानीय तत्वों को शासन के काम में भाग लेने का अवसर देने के लिए यह अधिनियम है।´´ इसमें दो नई छूटें थीं। पहली, भारतीय विधान परिषद में अफसरों का बहुमत था पा इसके गैर सरकारी सदस्य बंगाल चैंबर ऑफ कामर्स और प्रांतीय विधान परिषद द्वारा नामजद होने लगे। दूसरी, परिषदों को बजट पर सलाह देने और सरकार से सवाल पूछने का अधिकार मिला।


1909 में सेक्रेटरी ऑफ स्टेट लार्ड मोरले और वायसराय मिंटो के सुधार आए और नया `भारतीय परिषद अधिनियम´ आया। सेना, विदेशी कार्य और देशी रियासतें छोड़, बाकी विषयों पर बोलने, बहस करने की शक्ति विधान परिषद को मिली। इनका आकार बढ़ा। अफसरों की संख्या घटी। निर्वाचित लोगों की तादाद बढ़ी। आधुनिक संसद की ही तरह तब विधान परिषद थी। वहां अफसर ही सदस्य होते थे। 1909 के अधिनियम (कानून) से अफसर हटे। चुनाव के जरिये आए सदस्यों की संख्या बढ़ी पर इसी कानून में `भारतीय संस्कृति´ विरोधी व्यवस्था भीकी गई। `मजहब´ को खास मान्यता मिली। मुस्लिम समुदाय के लिए पृथक प्रतिनिधित्व का प्राविधान हुआ। भारतीय संस्कृति को समाप्त करने के लिए कट्टरपंथी मुसलमानों की मांगों को प्रोत्साहन दिया गया।


ब्रिटिश संसद 1919 में फिर नया भारत शासन अधिनियम लाई। भारत में दो तरह की सरकारों (एक केंद्रीय, दूसरी प्रांतीय) की व्यवस्था शुरू हुई। चुनाव के जरिये सीटें मिलने के अवसर बढ़े। केंद्र में सदन बने। बहरहाल इसी तरह की कुछ और छूटें भी थीं। लेकिन सारी ताकत गवर्नर जनरल के हाथ थी। अंग्रेज हर बार कोई न कोई छूट देते थे। कांग्रेसजन खुश होते थे पर भारत की आम जनता पूर्ण स्वरतंत्रय चाहती थी, सो लड़ाई भी जारी रहती थी। फिर 1935 में नया `भारत शासन अधिनियम 1935´ आया और मुस्लिम लीग खुश हो गई। राजनीतिज्ञों के पद बढ़े। सीटें बढ़ीं। बेशक अधिकार लंदन में थे पर यहां भी रूतबा था, हनक भी थी। 1935 के `भारत शासन अधिनियम´ की ज्यादातर बातें आज के भारतीय संविधान में हैं। केंद्र और राज्यों की शक्ति का बंटवारा आदि तत्व आधार रूप में वहां विद्यमान हैं। इस दौर में (सन-1935 से लेकर 1947 तक) इसी कानून का रूप भारत में संविधान जैसा था। याद रखना चाहिए कि 1858 से 1935 तक अंग्रेजों ने कुछ न कुछ दिया। संघर्ष जारी रहा। भारत की आजादी किसी क्रांति से नहीं आई और न ही हमारा संविधान ही। 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन हुआ। अतंरराष्ट्रीय परिस्थितियां अंग्रेजों के खिलाफ थीं। भारतीय स्वाधीनता का दबाव बढ़ा।

अंतत: बना अपना संविधान। भारत के लोगों द्वारा, भारत के लोगों की खातिर, भारत के लोगों द्वारा अधिनियमित, आत्मर्पित। भारत ने दुनिया का सबसे बड़ा संविधान बनाया। लेकिन इसमें भारतीय संस्कृति का अभाव है। इसमें अल्पसंख्यकों को विशेषाधिकार है पर अल्पसंख्यकों की परिभाषा नहीं हैं। कानून के समक्ष समता है पर विशेषाधिकार भी हैं। उद्देश्यिका बड़ी प्यारी है पर उसके प्रवर्तन के अधिकार नहीं हैं। नीति निर्देशक तत्व हैं पर उसके लिए न्यायालय जाने का अधिकार नहीं है। समान नागरिक संहिता एक महान आदर्श है पर उसके लागू कराने की व्यवस्था नहीं है। हिंदी राजभाषा है पर इसके लागू न कराने की खुरपेंच भी है। संविधान का अनुच्छेद 370 अस्थायी है पर स्थायी से ज्यादा स्थायी है। संविधान में सौ से ज्यादा संशोधन हो गए तो भी देश का काम नहीं चलता। बहरहाल यह है अपना, हम सबका संविधान। यह भारत की आस्था है।

भारत प्राचीन राष्ट्र है। यह राज्यों की यूनियन मात्र नहीं है। यह जीता-जागता राष्ट्र पुरूष है। हिमालय से लेकर कन्याकुमारी और द्वारिका से लेकर मणिपुर तक विस्तृत इस भारत भूमि की अपनी विशिष्ट सत्यखोजी परंपरा है लेकिन भारत के संविधान निर्माताओं ने अनुच्छेद एक में इसे, `राज्यों की यूनियन´ की संज्ञा दी है। भारत एक जीवंत सांस्कृतिक, भौगोलिक प्राकृतिक सरंचना है। यह ऋग्वेद का विराट `पुरूष´ और गीता का विश्वरूप है। यह एक संस्कृति, एक जन, एक राष्ट्र है। बावजूद इसके संविधान में राज्यों की यूनियन (संघ-संगठन) है।संविधान में भारत का नाम इंडिया है- इंडिया दैट इज भारत (अनु.1) संविधान निर्माता भारत के नाम पर भी सर्वसम्मत नहीं थे। भारत की संविधान सभा में नामकरण पर भी तीखी बहस हुई। मतदान हुआ। भारत को 38 और इंडिया को 51 वोट मिले। भारत हार गया, इंडिया जीत गया। हरिविष्णु कामथ ने `भारत या अंग्रेजी भाषा में इंडिया´ नामकरण का संशोधन पेश किया। कामथ ने कहा कि भारत पसंद न हो तो विकल्प में `हिंद, या अंग्रेजी भाषा में इंडिया´ रख दिया जाए (संविधान सभा कार्यवाही 18 सितंबर-1949)। अपने भाषण में उन्होंने भारत, हिंदुस्थान, हिंद, भरतभूमि, भारतवर्ष आदि नामों के सुझाव देते हुए दुष्यंत पुत्रा भरत की कथा से भारत का उल्लेख किया। सेठ गोविंद दास ने कहा कि `इंडिया दैट इज भारत´ यह नाम रखने का तरीका बहुत सुदंर नहीं है। भारत जिसे विदेशों में इंडिया भी कहा जाता है यह नाम ठीक होता। सेठ ने `इंडिया´ नाम को यूनानी प्रदाय बताया और भारत को महाभारत से खोजते हुए, ``अथते कीर्ति पष्यामि, वर्ष भारत भरतम´´ सुनाकर भारत पर जोर दिया। मद्रास के के एस सुब्बाराव ने `भारत´ को प्रचीन नाम बताकर अपना पक्ष रखा और कहा ``भारत नाम ऋग्वेद में है।´´


पं कमलापति त्रिपाठी ने नामकरण प्रस्ताव पर बोलते हुए कहा था, ``अध्यक्ष महोदय, `इंडिया दैट इज भारत´ के स्थान पर `भारत दैट इज इंडिया´ लगाया जाता तो वह अधिक उपयुक्त होता। एक हजार वर्ष की पराधीनता में हमारे देश ने अपना सब कुछ खो दिया। संस्कृति, सम्मान, मनुष्यता, गौरव, आत्मा, स्वरूप और अपना नाम भी।´´ त्रिपाठी ने तमाम वैदिक, पौराणिक तर्क दिए। डॉ अंबेडकर ने कहा कि `यह सब सुनने के लिए मेरे पास समय नहीं है।´ पी एस देशमुख ने कहा ``तो आप जा सकते हैं।´´ हरगोविंद पंत ने कहा ``भारतवर्ष नाम सीधे क्यों नहीं ग्रहण किया जाता। इंडिया से हमारी ममता क्यों हैं?´´


असल में खांटी राजनीति से जुड़ लोगों का नाम और काम से कोई खास मतलब नहीं होता। सत्ता ही ऐसी राजनीति का सर्वोपरि लक्ष्य होती है। राष्ट्र सर्वोपरिता उनका मानस नहीं बनती। अंग्रेजों से लड़ते समय सारे भारत ने `भारत माता की जय´ का गगनचुंबी नारा लगाया। ऐसी ही नारेबाजी के बीच पं. नेहरू ने एक सभा में भीड़ से पूछा ``यह भारत माता कौन है?´´ एक व्यक्ति ने कहा कि यह धरती। पंडित जी ने पूछा ``कौन सी धरती? किसी खास गांव की? जिले की? या पूरे भारत की?´´ फिर पं. नेहरू ने स्वयं उत्तर दिया, ``भारत वह सब कुछ है जो वे सोचते हैं लेकिन इससे भी कुछ ज्यादा है- पर्वत, नदियां, वन, विशाल खेत, मैदान और आप सब, हम सब। आप भारत माता के अंग हैं। आप स्वयं भारत माता है।´´ डिस्कवरी ऑफ इंडिया´ (पृष्ठ 61-62), पंडितजी ने इसी किताब में चीनी यात्री इतिसिंग द्वारा इस देश को भारत कहे जाने का उल्लेख किया। अपनी इस दस्तावेजी कृति में पंडितजी ने ऋग्वेद, उपनिषद, महाभारत, रामायण, इतिहास, संस्कृति और देश के सभी प्रतीकों को भारत के वैभव से जोड़ा। लेकिन भारत के संविधान में उन्हीं के प्रभाव में भारत का नाम इंडिया हो गया। भारत माता मदर इंडिया हो गई, लेकिन सौभाग्य है कि हम सब भी इंडियन नहीं हो गए। संस्कृति ने राष्ट्र की चित्ति, चैतन्य और हमारा स्वरूप मौलिक बनाए रखा है।

भारत माता...............

भाल रचे कुंकुम केसर, निज हाथ में प्यारा तिरंगा उठाये।
राष्ट्र के गीत बसें मन में, उर राष्ट्र के ज्ञान की प्रीति सजाये।
अम्बुधि धोता है पाँव सदा, नैनों में विशाल गगन लहराए।
गंगा यमुना शुचि नदियों ने, मणि मुक्ता हार जिसे पहनाये।
है सुन्दर ह्रदय प्रदेश जहां, हरियाली जिसकी मन भाये ।
भारत माँ शुभ्र ज्योत्सनामय, सब जग के मन को हरषाये।

हिम से मंडित इसका किरीट,गर्वोन्नत गगनांगन भाया।
उगता रवि जब इस आँगन में, लगता सोना है बिखराया।
मरुभूमि व सुन्दरवन से सज़ी, दो सुन्दर बाहों युत काया।
वो पुरुष पुरातन विन्ध्याचल, कटि- मेखला बना हरषाया ।
कण कण में शूर वीर बसते, नस नस में शौर्य भाव छाया।
हर तृण ने इसकी हवाओं के, शूरों का परचम लहराया ।

इस ओर उठाये आँख कोई, वह शीश न फिर उठ पाता है।
वह दृष्टि न फिरसे देख सके, जो इस पर जो दृष्टि गढ़ाता है ।
यह भारत प्रेम -पुजारी है, जग हित ही इसे सुहाता है ।
हम विश्व शान्ति हित के नायक, यह शान्ति दूत कहलाता है।
यह विश्व सदा से भारत को, गुरु जगत का कहता आता है।
इस युग में भी यह ज्ञान ध्वजा, नित नित फहराता जाता है।

इतिहास बसे अनुभव संबल, मेधा बल वेद ऋचाओं में।
अब रोक सकेगा कौन इसे, चल दिया पुनः नव राहों में।
नित नव तकनीक सजाये कर, विज्ञान का बल ले बाहों में।
नव ज्ञान तरंगित इसके गुण, फैले अब दशों दिशाओं में।
नित नूतन विविध भाव गूंजें, इस देश की कला कथाओं में।
ललचाते देव, मिले जीवन, भारत की सुखद हवाओं में।

jay............hind..................bharat mata ki jay.............