Saturday, January 15, 2011
भारत माता की जय..................
अंग्रेजों से लड़ते समय सारे भारत ने `भारत माता की जय´ का नारा लगाया था।
ऐसी ही नारेबाजी के बीच पं. नेहरू ने एक सभा में भीड़ से पूछा ``यह भारत माता कौन है?´´ एक व्यक्ति ने कहा कि यह धरती। पंडित जी ने पूछा ``कौन सी धरती? किसी खास गांव की? जिले की? या पूरे भारत की?´´ फिर पं. नेहरू ने स्वयं उत्तर दिया, ``भारत वह सब कुछ है जो वे सोचते हैं लेकिन इससे भी कुछ ज्यादा है- पर्वत, नदियां, वन, विशाल खेत, मैदान और आप सब, हम सब। आप भारत माता के अंग हैं। आप स्वयं भारत माता है।´´
भारत का प्रचीन राष्ट्रजीवन संस्कृति प्रेरित था, धर्म निर्देशित नहीं था। दर्शन, विज्ञान और अनुभव से निर्मित संस्कृति ही राजा और राज्यव्यवस्था की प्ररेणा थी। लुडविग जैसे विद्वानों ने ऋग्वैदिक काल की सभी समितियों को राज्यव्यवस्था का अंग माना है। भारत की राज्य व्यवस्था में आमजनों की सहज भागीदारी थी। संसदीय जनतंत्रा का सर्वप्रथम जन्म भारत में ही हुआ। ब्रिटिश संसदीय व्यवस्था को दुनिया की प्रथम संसदीय व्यवस्था मानने वाले विद्वान वैदिककालीन जनतंत्रा संस्कृति और बौद्धकालीन गणतंत्रा की उपेक्षा करते हैं। ब्रिटिश संसदीय व्यवस्था राजशाही की प्रतिक्रिया से धीरे-धीरे विकसित हुई। वे आज भी `राजा´ जैसी संस्था से पिंड नहीं छुड़ा पाए। ब्रिटिश परंपरा में अभी भी `राजा-रानी´ हैं, लेकिन भारत का संविधान प्राचीन भारतीय संस्कृति से चलता है, राज्य व्यवस्था संविधान के अधीन है। लोकजीवन में संविधान की लोकप्रियता नहीं है। संविधान की जानकारी विद्वान अधिवक्ताओं को है, सिविल सेवा के अधिकारियों को है, बाकी लोग संविधान से कोई वास्ता नहीं रखते, गो कि दुनिया का सबसे बड़ा लिखित संविधान भारत का ही है।
संविधान निर्माता सास्कृतिक क्षमताओं से परिचित थे। संविधान सभा के तमाम सदस्य वैदिक परंपरा, संस्कृति और संसदीय व्यवस्था के जानकार थे। लेकिन डॉ अंबेडकर सहित कुछेक को छोड़कर सबके दिमाग में `आर्यआक्रमण´ का झूठा कथानक था। बावजूद इसके संविधान की प्रथम मौलिक हस्तलिखित अंग्रेजी प्रति में सांस्कृतिक राष्ट्रभाव वाले 23 चित्र उकेरे गए। संविधान की मूल प्रति के मुखपृष्ठ पर श्रीराम और श्रीकृष्ण के चित्र थे। जाहिए है कि श्रीराम और श्रीकृष्ण ही भारत की राज्य व्यवस्था का चेहरा बनाए गए थे। भाग एक में सिंधु सभ्यता की स्मृति वाले मोहनजोदड़ो काल की मोहरों के चित्र थे। भाग दो में `भारत की नागरिकता वाले´ अध्याय में वैदिककाल के गुरूकुल आश्रम का भव्य दिव्य चित्रा था। यानी वैदिक गुरूकुल ही भारतीय नागरिकता की अभिव्यक्ति था। भाग तीन के मौलिक अधिकार वाले पृष्ठ पर श्रीराम की लंका विजय का चित्रांकन था। यहां मौलिक अधिकार पौरूष पराक्रम के ही अनुवर्ती माने गए थे। भाग चार में `नीति निर्देशक तत्व´ वाले पृष्ठ पर श्रीकृष्ण अर्जुन के उपदेश वाला प्रेरक चित्रा था। संविधान सभा की अधिकृत कार्यवाही (26 नवंबर-1949) में इसका उल्लेख है। संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ राजेंद्र प्रसाद ने कहा था ``अब सदस्यों को संविधान की प्रतियों पर हस्ताक्षर करने हैं। एक हस्तलिखित अंग्रेजी की प्रति है। इस पर कलाकारों ने चित्र अंकित किए हैं, दूसरी छपी हुई अंग्रेजी प्रति है।´´
संविधान में संस्कृतिमूलक दिव्य भव्य मनोहारी चित्र थे। भारतीय संविधान के विद्यार्थी `चित्रमय संविधान की प्रति´ से वंचित किए गए। चित्रों में भारतीय संस्कृति की झांकी थी। संस्कृति ही नागरिक को सभ्य बनाती है। सभ्य सभा के योग्य होते हैं। संस्कृति उन्हें विचारशील, विवेकशील बनाती है। वे स-मिति (समिति) होते हैं। संविधान सभा के आखिरी दिन (24 नवंबर-1949) अध्यक्ष राजेंद्र प्रसाद की बड़ी प्रशंसा हुई। उन्होंने संविधान सभा में भारतीय सांस्कृतिक महाकोश-महाभारत की कथा सुनाई- ``प्रशंसापूर्ण भाषणों को सुनते हुए मुझे महाभारत के एक कथानक का स्मरण आया। इस ग्रंथ में बहुत ही विषम परिस्थितियों के फलस्वरूप जो जटिल समस्याएं उठ खड़ी होती हैं, श्रीकृष्ण उन्हें किस प्रकार हल करते हैं, उसका वर्णन है।´´ राजेंद्र बाबू ने आगे कहा ``एक दिन अर्जुन ने यह प्रण किया कि सूर्यास्त के पूर्व मैं अमुक कार्य समाप्त कर दूंगा और यदि समाप्त न कर पाया तो चिता जलाकर भस्म हो जाऊंगा। वे उसे पूरा नहीं कर पाए। अर्जुन अपने प्रण पर अटल थे। श्रीकृष्ण ने समस्या हल की, यदि अर्जुन स्वयं अपनी प्रशंसा करें अथवा अन्य लोगों से अपनी प्रशंसा सुने तो यह आत्मघात अथवा भस्म होने के समान ही होगा.....मैं कई बातों को पूरा नहीं कर पाया। मैंने इसी भगवान से इस प्रकार के भाषणों को सुना है।´´ (भारतीय संविधान सभा कार्यवाही, खण्ड 12, पृष्ठ 4259-60)
संस्कृति सर्वोच्च मार्गदर्शक होती है
भारत का स्वतंत्राता संग्राम सांस्कृतिक था। लेकिन संविधान निर्माण का काम राजनीतिक हो गया। 1857 के स्वाधीनता संग्राम से डरी ब्रिटिश सत्ता ने ठीक एक वर्ष बाद भारत शासन अधिनियम 1858 बनाया। इंग्लैंड का `राजा´ ही भारत का राजा था। अंग्रेज सिद्ध करना चाहते थे कि वे भारत पर कानून का शासन करते हैं। उन्होंने 1861 में भारतीय परिषद कानून बनाया। इसी वर्ष पुलिस अधिनियम 1861 भी बनाया गया। स्वतंत्रा भारत की पुलिस आज भी उसी कानून से शासित है। आम जनता अंग्रेजी हुकूमत से खफा हुई। रोष बढ़ा। जनता में उबाल आया। एक अंग्रेज एओ ह्यूम ने सन-1885 में कांग्रेस को जन्म दिया। 1892 में अंग्रेजों ने नया कानून `भारतीय परिषद अधिनियम 1892´ बनाया। भारत के लिए अंडरसेक्रेटरी ऑफ स्टेट ने कहा ``भारत के शासन का आधार विस्तृत करने और उसके कृत्यों को बढ़ाने के लिए और गैर सरकारी तथा भारत के स्थानीय तत्वों को शासन के काम में भाग लेने का अवसर देने के लिए यह अधिनियम है।´´ इसमें दो नई छूटें थीं। पहली, भारतीय विधान परिषद में अफसरों का बहुमत था पा इसके गैर सरकारी सदस्य बंगाल चैंबर ऑफ कामर्स और प्रांतीय विधान परिषद द्वारा नामजद होने लगे। दूसरी, परिषदों को बजट पर सलाह देने और सरकार से सवाल पूछने का अधिकार मिला।
1909 में सेक्रेटरी ऑफ स्टेट लार्ड मोरले और वायसराय मिंटो के सुधार आए और नया `भारतीय परिषद अधिनियम´ आया। सेना, विदेशी कार्य और देशी रियासतें छोड़, बाकी विषयों पर बोलने, बहस करने की शक्ति विधान परिषद को मिली। इनका आकार बढ़ा। अफसरों की संख्या घटी। निर्वाचित लोगों की तादाद बढ़ी। आधुनिक संसद की ही तरह तब विधान परिषद थी। वहां अफसर ही सदस्य होते थे। 1909 के अधिनियम (कानून) से अफसर हटे। चुनाव के जरिये आए सदस्यों की संख्या बढ़ी पर इसी कानून में `भारतीय संस्कृति´ विरोधी व्यवस्था भीकी गई। `मजहब´ को खास मान्यता मिली। मुस्लिम समुदाय के लिए पृथक प्रतिनिधित्व का प्राविधान हुआ। भारतीय संस्कृति को समाप्त करने के लिए कट्टरपंथी मुसलमानों की मांगों को प्रोत्साहन दिया गया।
ब्रिटिश संसद 1919 में फिर नया भारत शासन अधिनियम लाई। भारत में दो तरह की सरकारों (एक केंद्रीय, दूसरी प्रांतीय) की व्यवस्था शुरू हुई। चुनाव के जरिये सीटें मिलने के अवसर बढ़े। केंद्र में सदन बने। बहरहाल इसी तरह की कुछ और छूटें भी थीं। लेकिन सारी ताकत गवर्नर जनरल के हाथ थी। अंग्रेज हर बार कोई न कोई छूट देते थे। कांग्रेसजन खुश होते थे पर भारत की आम जनता पूर्ण स्वरतंत्रय चाहती थी, सो लड़ाई भी जारी रहती थी। फिर 1935 में नया `भारत शासन अधिनियम 1935´ आया और मुस्लिम लीग खुश हो गई। राजनीतिज्ञों के पद बढ़े। सीटें बढ़ीं। बेशक अधिकार लंदन में थे पर यहां भी रूतबा था, हनक भी थी। 1935 के `भारत शासन अधिनियम´ की ज्यादातर बातें आज के भारतीय संविधान में हैं। केंद्र और राज्यों की शक्ति का बंटवारा आदि तत्व आधार रूप में वहां विद्यमान हैं। इस दौर में (सन-1935 से लेकर 1947 तक) इसी कानून का रूप भारत में संविधान जैसा था। याद रखना चाहिए कि 1858 से 1935 तक अंग्रेजों ने कुछ न कुछ दिया। संघर्ष जारी रहा। भारत की आजादी किसी क्रांति से नहीं आई और न ही हमारा संविधान ही। 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन हुआ। अतंरराष्ट्रीय परिस्थितियां अंग्रेजों के खिलाफ थीं। भारतीय स्वाधीनता का दबाव बढ़ा।
अंतत: बना अपना संविधान। भारत के लोगों द्वारा, भारत के लोगों की खातिर, भारत के लोगों द्वारा अधिनियमित, आत्मर्पित। भारत ने दुनिया का सबसे बड़ा संविधान बनाया। लेकिन इसमें भारतीय संस्कृति का अभाव है। इसमें अल्पसंख्यकों को विशेषाधिकार है पर अल्पसंख्यकों की परिभाषा नहीं हैं। कानून के समक्ष समता है पर विशेषाधिकार भी हैं। उद्देश्यिका बड़ी प्यारी है पर उसके प्रवर्तन के अधिकार नहीं हैं। नीति निर्देशक तत्व हैं पर उसके लिए न्यायालय जाने का अधिकार नहीं है। समान नागरिक संहिता एक महान आदर्श है पर उसके लागू कराने की व्यवस्था नहीं है। हिंदी राजभाषा है पर इसके लागू न कराने की खुरपेंच भी है। संविधान का अनुच्छेद 370 अस्थायी है पर स्थायी से ज्यादा स्थायी है। संविधान में सौ से ज्यादा संशोधन हो गए तो भी देश का काम नहीं चलता। बहरहाल यह है अपना, हम सबका संविधान। यह भारत की आस्था है।
भारत प्राचीन राष्ट्र है। यह राज्यों की यूनियन मात्र नहीं है। यह जीता-जागता राष्ट्र पुरूष है। हिमालय से लेकर कन्याकुमारी और द्वारिका से लेकर मणिपुर तक विस्तृत इस भारत भूमि की अपनी विशिष्ट सत्यखोजी परंपरा है लेकिन भारत के संविधान निर्माताओं ने अनुच्छेद एक में इसे, `राज्यों की यूनियन´ की संज्ञा दी है। भारत एक जीवंत सांस्कृतिक, भौगोलिक प्राकृतिक सरंचना है। यह ऋग्वेद का विराट `पुरूष´ और गीता का विश्वरूप है। यह एक संस्कृति, एक जन, एक राष्ट्र है। बावजूद इसके संविधान में राज्यों की यूनियन (संघ-संगठन) है।संविधान में भारत का नाम इंडिया है- इंडिया दैट इज भारत (अनु.1) संविधान निर्माता भारत के नाम पर भी सर्वसम्मत नहीं थे। भारत की संविधान सभा में नामकरण पर भी तीखी बहस हुई। मतदान हुआ। भारत को 38 और इंडिया को 51 वोट मिले। भारत हार गया, इंडिया जीत गया। हरिविष्णु कामथ ने `भारत या अंग्रेजी भाषा में इंडिया´ नामकरण का संशोधन पेश किया। कामथ ने कहा कि भारत पसंद न हो तो विकल्प में `हिंद, या अंग्रेजी भाषा में इंडिया´ रख दिया जाए (संविधान सभा कार्यवाही 18 सितंबर-1949)। अपने भाषण में उन्होंने भारत, हिंदुस्थान, हिंद, भरतभूमि, भारतवर्ष आदि नामों के सुझाव देते हुए दुष्यंत पुत्रा भरत की कथा से भारत का उल्लेख किया। सेठ गोविंद दास ने कहा कि `इंडिया दैट इज भारत´ यह नाम रखने का तरीका बहुत सुदंर नहीं है। भारत जिसे विदेशों में इंडिया भी कहा जाता है यह नाम ठीक होता। सेठ ने `इंडिया´ नाम को यूनानी प्रदाय बताया और भारत को महाभारत से खोजते हुए, ``अथते कीर्ति पष्यामि, वर्ष भारत भरतम´´ सुनाकर भारत पर जोर दिया। मद्रास के के एस सुब्बाराव ने `भारत´ को प्रचीन नाम बताकर अपना पक्ष रखा और कहा ``भारत नाम ऋग्वेद में है।´´
पं कमलापति त्रिपाठी ने नामकरण प्रस्ताव पर बोलते हुए कहा था, ``अध्यक्ष महोदय, `इंडिया दैट इज भारत´ के स्थान पर `भारत दैट इज इंडिया´ लगाया जाता तो वह अधिक उपयुक्त होता। एक हजार वर्ष की पराधीनता में हमारे देश ने अपना सब कुछ खो दिया। संस्कृति, सम्मान, मनुष्यता, गौरव, आत्मा, स्वरूप और अपना नाम भी।´´ त्रिपाठी ने तमाम वैदिक, पौराणिक तर्क दिए। डॉ अंबेडकर ने कहा कि `यह सब सुनने के लिए मेरे पास समय नहीं है।´ पी एस देशमुख ने कहा ``तो आप जा सकते हैं।´´ हरगोविंद पंत ने कहा ``भारतवर्ष नाम सीधे क्यों नहीं ग्रहण किया जाता। इंडिया से हमारी ममता क्यों हैं?´´
असल में खांटी राजनीति से जुड़ लोगों का नाम और काम से कोई खास मतलब नहीं होता। सत्ता ही ऐसी राजनीति का सर्वोपरि लक्ष्य होती है। राष्ट्र सर्वोपरिता उनका मानस नहीं बनती। अंग्रेजों से लड़ते समय सारे भारत ने `भारत माता की जय´ का गगनचुंबी नारा लगाया। ऐसी ही नारेबाजी के बीच पं. नेहरू ने एक सभा में भीड़ से पूछा ``यह भारत माता कौन है?´´ एक व्यक्ति ने कहा कि यह धरती। पंडित जी ने पूछा ``कौन सी धरती? किसी खास गांव की? जिले की? या पूरे भारत की?´´ फिर पं. नेहरू ने स्वयं उत्तर दिया, ``भारत वह सब कुछ है जो वे सोचते हैं लेकिन इससे भी कुछ ज्यादा है- पर्वत, नदियां, वन, विशाल खेत, मैदान और आप सब, हम सब। आप भारत माता के अंग हैं। आप स्वयं भारत माता है।´´ डिस्कवरी ऑफ इंडिया´ (पृष्ठ 61-62), पंडितजी ने इसी किताब में चीनी यात्री इतिसिंग द्वारा इस देश को भारत कहे जाने का उल्लेख किया। अपनी इस दस्तावेजी कृति में पंडितजी ने ऋग्वेद, उपनिषद, महाभारत, रामायण, इतिहास, संस्कृति और देश के सभी प्रतीकों को भारत के वैभव से जोड़ा। लेकिन भारत के संविधान में उन्हीं के प्रभाव में भारत का नाम इंडिया हो गया। भारत माता मदर इंडिया हो गई, लेकिन सौभाग्य है कि हम सब भी इंडियन नहीं हो गए। संस्कृति ने राष्ट्र की चित्ति, चैतन्य और हमारा स्वरूप मौलिक बनाए रखा है।
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