Thursday, February 24, 2011

विनायक सेन को राजद्रोही साबित करने के चक्कर में मानव-अधिकारों पर हमला


विनायक सेन को काल्पनिक आरोपों की जद में आजीवन कारावास की सजा के समर्थन और विरोध के स्वर केवल भारत ही नहीं ,वरन यूरोप ,अमेरिका में भी सुने जा रहे हैं .इस फैसले के विरोध में दुनिया भर के लोकतान्त्रिक ,जनवादी ,धर्मनिरपेक्ष और वामपंथी शामिल हैं ,वे जुलुस ,नुक्कड़ नाटक ,रैली और सेमिनारों के मार्फ़त श्री विनायक सेन की बेगुनाही पर अलख जगा रहेँ हैं और इस फैसले के समर्थन में वे लोग उछल-कूद कर रहे हैं जो स्वयम हिंदुत्व के नाम की गई हिंसात्मक गतिविधियों में फंसे अपने भगनी भ्राताओं की आपराधिक हिसा पर देश की धर्मनिरपेक्ष कतारों के असहयोग से नाराज थे .ये समां कुछ ऐसा ही है जैसा कि शहीद भगतसिंह -सुखदेव -राजगुरु कि शहादत के दरम्यान हुआ था, उस समय गुलाम भारत की अधिसंख्य जनता-जनार्दन ने भगत सिंह और उनके क्रन्तिकारी साथियों के पक्ष में सिंह गर्जना की थी और उस समय की ब्रिटिश सत्ता के चाटुकारों-पूंजीपतियों , पोंगा-पंथियों ने भगतसिंह जैसे महान शहीदों को तत्काल फाँसी दिए जाने की पेशकश की थी .इस दक्षिणपंथी सत्तामुखापेक्षी धारा के समकालिक जीवाणुओं ने भी निर्दोष क्रांतीकारी विनायक सेन को जल्द से जल्द सूली पर चढ़वाने का अभियान चला रखा है इनके पूर्वजों को जिस तरह भगत सिंह इत्यादि को फाँसी पर चढ़वाने में सफलता मिल गई थी वैसी , आज के उत्तर-आधुनिक दौर में विनायक सेन को फाँसी पर चढ़वाने में उनके आधुनिक उत्तराधिकारियों को नहीं मिल सकी है. इसीलिए वे जहर उगल रहे हैं , विनायक सेन के वहाने सम्पूर्ण गैर साम्प्रदायिक जनवादी आवाम को गरिया रहे हैं .

चूँकि जिस प्रकार तमाम विपरीत धारणाओं, अंध-विश्वासों, कुटिल-मंशाओं और संकीर्णताओं के वावजूद कट्टरवादी -साम्प्रदायिकता के रक्ताम्बुज महासागरों के बीच सत्यनिष्ठ -ईमानदार व्यक्ति हरीतिका के टापू की तरह हो सकते हैं, उसी तरह कट्टर-उग्र वामपंथ की कतारों में भी कुछ ऐसे सत्पुरुष हो सकते हैं जो न केवल सर्वहारा अपितु सम्पूर्ण मानव मात्र के हितैषी हो सकते हैं ,क्या विनायक सेन ऐसे ही एक अपवाद नहीं हैं ?

विगत नवम्बर में और कई मर्तबा पहले भी मैंने प्रवक्ता .कॉम पर नक्सलवाद के खिलाफ ,माओ वादियों के खिलाफ शिद्दत से लिखा था , जो मेरे ब्लॉग www .janwadi .blogspot .com पर उपलब्ध है , पश्चिम बंगाल हो या आंध्र या बिहार सब जगह उग्र वाम पंथ और संसदीय लोकतंत्रात्मक आस्था वाले वाम पंथ में लगातार संघर्ष चलता रहा है किन्तु माकपा इत्यादि के अहिंसावाद ने बन्दुक वाले माओवादिओं के हाथों बहुत कुछ खोया है , अब तो लगता है की अहिंसक क्रांति की मुख्य धारा का लोप हो जायेगा और उसकी जगह पर ये नक्सलवादी, माओवादी अपना वर्ग संघर्ष अपने तौर तरीके से जारी रखेंगे जब तक की उनका अभीष्ट सिद्ध नहीं हो जाता देश के कुछ चुनिन्दा वाम वुद्धिजीवी भी आज हतप्रभ हैं की किस ओर जाएँ ? विनायक सेन प्रकरण ने विचारधाराओं को एतिहासिक मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है . इस प्रकरण की सही और अद्द्तन तहकीकात के वाद यह स्वयम सिद्ध होता है की विनायक सेन निर्दोष हैं ,और जब विनायक सेन निर्दोष हैं तो उनसे किसे क्या खतरा हो सकता है?राजद्रोह की परिभाषा यदि यही है; जो विनायक सेन पर तामील हुई है; तो भारत में कोई देशभक्त नहीं बचता ..

मैं न तो नक्सलवाद और न ही माओवाद का समर्थक हूँ और न कोई मानव अधिकार आयोग का एक्टिविस्ट ;डॉ विनायक सेन के बारे में उतना ही जानता हूँ जितना प्रेस और मीडिया ने अब तक बताया.जब किसी व्यक्ति को कोई ट्रायल कोर्ट राजद्रोह का अपराधी घोषित करे , और आजीवन कारावास की सजा सुनाये ;तो जिज्ञासा स्वाभाविक ही सचाई के मूल तक पहुंचा देती है. पता चला की डॉ विनायक सेन ने छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के बीच काफी काम किया है .उन्हें राष्ट्रीय -अंतर राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित किया जा चुका है .वे पीपुल्स यूनियंस फॉर सिविल लिबर्टीज {पी यु सी एल ] के प्रमुख की हैसियत से मानव अधिकारों के लिए निरंतर कार्यशील रहे .उन्होंने नक्सलवादियों के खिलाफ खड़े किये गए “सलवा जुडूम’ जैसे संगठनों की ज्यादतियों का प्रबल विरोध किया .छत्तीसगढ़ स्टेट गवर्नमेंट और पुलिस की उन पर निरंतर वक्र द्रष्टि रही है .

मई २००७ में उन्हें जेल में बंद तथाकथित नक्सलवादी नेता नारायण सान्याल का सन्देश लाने -ले जाने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था .उन्हें लगभग दो साल बाद २००९ में सुप्रीम कोर्ट से जमानत मिली थी .उस समय भी उनकी गिरफ्तारी ने वैचारिक आधार पर देश को दो धडों में बाँट दिया था .एक तरफ वे लोग थे जो उनसे नक्सली सहिष्णुता के लिए नफ़रत करते थे; दूसरी ओर वे लोग थे जो मानव अधिकार ,प्रजातंत्र और शोषण विहीन समाज के तरफदार होने से स्वाभाविक रूप से विनायक सेन के पक्ष में खड़े थे .इनमे से अनेकों का मानना था की विनायक सेन को बलात फसाया जा रहा है .उस समय उनके समर्थन में बहुत कम लोग थे ;क्योंकि उस वक्त तक नक्सलवादियों और आदिवासियों के बीच काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं में भेद करने की पुलिसिया मनाही थी .नक्सलवाद और मानव अधिकारवाद के उत्प्रेरकों में फर्क करने में छत्तीसगढ़ पुलिस की असफलता के परिणाम स्वरूप उस वक्त सच्चाई के पक्ष में खड़ा हो पाना बेहद खतरों से भरा हुआ अग्नि-पथ था .इस दौर में जबकि सही व्यक्ति या विचार के समर्थन में खड़ा होना जोखिम भरा है तब विनायक सेन का अपराध बस इतना सा था की वे नारायण सान्याल से जेल में जाकर क्यों मिले ?

भारत की किसी भी जेल के बाहर वे सपरिजन -घंटों ,हफ़्तों ,महीनो ,इस बात का इन्तजार करते हैं कि उन्हें उनके जेल में बंद सजायफ्ता सपरिजन से चंद मिनिटों कि मुलाकात का अवसर मिलेगा ,मेल मुलाकात का यह सिलसिला आजीवन चलता रहता है किन्तु किसी भी आगन्तुक मित्र -बंधू बांधव को आज तक किसी ट्रायल कोर्ट ने सिर्फ इस बिना पर कि आप एक कैदी से क्यों मिलते हैं ? आजीवन कारावास तो नहीं दिया होगा .बेशक नारायण सान्याल कोई बलात्कारी ,हत्यारे या लुटेरे भी नहीं हैं और उनसे मिलने उनकी कानूनी मदद करने के आरोपी विनायक सेन भी कोई खूंखार -दुर्दांत दस्यु नहीं हैं . उनका अपराध बस इतना सा ही है कि आज जब हर शख्स डरा-सहमा हुआ है ,तब विनायक महोदय आप निर्भीक सिंह कि मानिंद सीना तानकर क्यों चलते हो ?

क़ानून को इन कसौटियों और तथ्यों से परहेज करना पड़ता है सो सबूत और गवाहों कि दरकार हुआ करती है और इस प्रकरण के केंद्र में विमर्श का असली मुद्दा यही है कि इस छत्तीसगढ़िया न्याय को यथावत स्वीकृत करें या लोकतंत्र कि विराट परिधि में पुन: परिभाषित करने कि सुप्रीम कोर्ट से मनुहार करें अधिकांश देशवासियों का मंतव्य यही है ; बेशक कुछ लोग व्यक्तिश विनायक सेन नामक बहुचर्चित मानव अधिकार कार्यकर्त्ता को इस झूंठे आरोप और अन्यायपूर्ण फैसले से मुक्त करना -बचाना चाहते होंगे. कुछ लोग इस प्रकरण में जबरन अपनी मुंडी घुसेड रहे हैं और चाहते हैं कि विनायक सेन के बहाने उनके अपने मर्कट वानरों कि गुस्ताखियाँ पर पर्दा डाला जा सके जबकि उनका इस प्रकरण से दूर का भी लेना देना नहीं है. संभवतः वे रमण सरकार कि असफलता को ढकने कि कोशिश कर रहे हैं ..

छतीसगढ़ पुलिस ने विनायक सेन के खिलाफ जो मामला बनाया और ट्रायल कोर्ट ने फैसला दिया वह न्याय के बुनियादी मानकों पर खरा नहीं उतरता .पुलिस के अनुसार पीयूष गुहा नामक एक व्यक्ति को ६ मई -२००७ को रायपुर रेलवे स्टेशन के निकट गिरफ्तार किया गया था जिसके पास प्रतिबंधित माओवादी पम्फलेट ,एक मोबाइल ,४९ हजार रूपये और नारायण सान्याल द्वारा लिखित ३ पत्र मिले जो डॉ विनायक सेन ने पीयूष गुहा को दिए थे .पीयूष गुहा भी कोई खूंखार आतंकवादी या डान नहीं बल्कि एक मामूली तेंदूपत्ता व्यापारी है जो नक्सलवादियों के आतंक से निज़ात पाने के लिए स्वयम नक्सल विरोधी सरकारी कामों का प्रशंसक था .

डॉ विनायक सेन को भारतीय दंड संहिता कि धारा १२४ अ {राजद्रोह }और १२४ बी {षड्यंत्र ]तथा सी एस पी एस एक्ट और गैर कानूनी गतिविधि निरोधक अधिनियम कि विभिन्न धाराओं के तहत सुनाई गई सजा पर एक प्रसिद्द वकील वी कृष्ण अनंत का कहना है कि “१८६० कि मूल भारतीय दंड संहिता में १२४ -अ थी ही नहीं इसे तो अंग्रेजों ने बाद में जब देश में स्वाधीनता आन्दोलन जोर पकड़ने लगा तो अभिव्यक्ति कि आजादी को दबाने के लिए १८९७ में बालगंगाधर तिलक और कुछ साल बाद मोहनदास करमचंद गाँधी को जेल में बंद करने ,जनता कि मौलिक अभिव्यक्ति कुचलने के लिए तत्कालीन वायसराय द्वारा अमल में लाइ गई ”

भारत के पूर्व मुख्य-न्यायधीश न्यायमूर्ति श्री वी पी सिन्हा ने केदारनाथ सिंह बनाम बिहार राज्य मामले में १९६२ में फैसला दिया था कि धारा १२४-अ के तहत किसी को भी तभी सजा दी जानी चाहिए जब किसी व्यक्ति द्वारा लिखित या मौखिक रूप से लगातार ऐसा कुछ लिखा जा रहा हो जिससे क़ानून और व्यवस्था भंग होने का स्थाई भाव हो .जैसे कि वर्तमान गुर्जर आन्दोलन के कारण विगत दिनों देश को अरबों कि हानी हुई ,रेलें २-२ दिन तक लेट चल रहीं या रद्द ही कर दी गई ,आम जानता को परेशानी हुई सो अलग .सरकार किरोड़ीसिंह बैसला को हाथ लगाकर देखे .यह न्याय का मखौल ही है कि एक जेंटलमेन पढ़ा लिखा आदमी जो देश और समाज का नव निर्माण करना चाहता है, मानवतावादी है , वो सींकचों के अंदर है ;और जिन्हें सींकचों के अंदर होना चाहिए वे देश को चर रहे हैं .

कुछ लोग उग्र वाम से भयभीत हैं ,होना भी चाहिए, वह किसी भी क्रांती का रक्तरंजित रास्ता हो भारत कि जनता को मंजूर नहीं, यह गौतम -महावीर -गाँधी का देश है. जाहिर है यहाँ पर वही विचार टिकेगा जो बहुमत को मंजूर होगा .नक्सलियों को न तो बहुमत प्राप्त है और न कभी होगा .वे यदि बन्दूक के बल पर सत्ता हासिल करना चाहते हैं तो उनको इस देश कि बहुमत जनता का सहयोग कभी नहीं मिलेगा भले ही वो कितने ही जोर से इन्कलाब का नारा लगायें .यहाँ यह भी प्रासंगिक है कि देश के करोड़ों दीन-दुखी शोषित जन अपने शांतिपूर्ण संघर्षों को भी इन्कलाब -जिंदाबाद से अभिव्यक्त करते हैं …भगत सिंह ने भी फाँसी के तख्ते से इसी नारे के मार्फ़त अपना सन्देश राष्ट्र को प्रेषित किया था … यदि विनायक सेन ने भी कभी ये नारा लगाया हो तो उसकी सजा आजीवन कारावास कैसे हो सकती है और यह भी संभव है कि इस तरह के फैसलों से हमारे देश में संवाद का वह रास्ता बंद हो सकता है जो लाल देंगा जैसे विद्रोहियों के लिए खोला गया और जो आज कश्मीरी अलगाववादियों के लिए भी गाहे बगाहे टटोला जाता है सत्ता से असहमत नागरिक समाज ऐसे रास्ते खोलने में अपनी छोटी -मोटी भूमिका यदा -कदा अदा किया करता है, डॉ विनायक सेन उसी नागरिक समाज के सम्मानित सदस्य हैं .

शिव सेना की प्रेस विज्ञप्ति


शर्म! इन ठेकेदारों को नहीं पता भगत सिंह का शहादत दिवस .......................

ये शिव सेना है, जो कह दे, जो कर दे कम है। इनके लिए वेलेंनटाइन डे पश्चिम से आयातित पर्व है सो इसका विरोध करने का ठेका इन्होंने उठा रखा है। लेकिन शहीदे आजम भगत सिंह तो इसी देश के सपूत थे, जिन्होंने देश की आजादी की खातिर ब्रिटिश साम्राज्यवाद का विरोध करते हुए 23 मार्च 1931 को राजगुरू और सुखदेव के साथ फांसी के फंदे को चूमा था। लेकिन ये ठहरी शिव सेना, जब जो मन आए कह दिया और कर दिया। जर्बदस्ती देश भक्ति का तमगा लेकर घूमने वाले इन शिवसैनिकों को इतना तक पता नहीं कि भगत सिंह को 23 मार्च 1931 में फांसी दी गई थी, न कि 14 फरवरी 1935 को। इतिहास को विकृत ढंग से पेश करने का खेल खेलना तो इनकी फितरत है, सो किसी न किसी बहाने इस काम को ये करते रहते हैं। 14 फरवरी को बनारस में शिव सेना ने हर बार की तरह इस बार भी वेलेंटाइन डे का विरोध करने का ठेका ले रखा था और किया भी और कुछ नहीं हो सका तो विरोध के बहाने इतिहास को ही विकृत करने के काम को बखूबी अंजाम दिया।
शिवसेना ने प्रेस को जारी विज्ञप्ति में 23 मार्च 1931 की जगह 14 फरवरी 1935 को शहीदे आजम भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव का शहादत दिवस बताते हुए खूब हो हल्ला मचाया। इसी बहाने इन्होंने युवाओं से अपील की भगत सिंह के शहादत दिवस के दिन वेलेंटाइन डे मनाना शहीदों का अपमान है। भगत सिंह और उनके साथियों की याद अचानक शिवसैनिकों को कैसे आ गई ये सोचनीय प्रश्‍न है। भगत सिंह और उनके साथियों ने जिस तरह के आजाद भारत का सपना देखा था, उस भारत में तो शिवसैनिकों के लिए कोई जगह ही नहीं दिखती। अगर भगत सिंह आज होते तो उनकी लड़ाई आज इसी तरह के ताकतों के खिलाफ जारी रहती जो देश के कानून से परे अपना कानून बनाकर जोर जबरन उसे मनवाने के लिए आए दिन कोई न कोई तमाशा खड़ा करते रहते है।
यही नहीं बनारस में सुनियोजित ढंग से सैकड़ों मोबाइल पर 14 फरवरी को ये संदेश भेजा गया कि आज ही भगत सिंह का शहादत दिवस है। खैर इन लोगों से और उम्मीद भी क्या रखी जा सकती है। जो बात तो करते है स्वदेश और स्वदेशी की लेकिन जिन्हें इतना ही याद नहीं कि बहरे ब्रिटिश हुकूमत को अपनी बात सुनाने के लिए ऐसेम्बली में बम फेंकने से लेकर अपने फांसी के दिन तक साम्राज्‍यवाद के खिलाफ जेल तक में अपना अभियान जारी रखने वाले भगतसिंह और उनके साथियों को कब फांसी दी गई और उनकी जंग किस बात के लिए और किनसे थी। बावजूद इसके हमें याद रखना चाहिए ये शिव सेना है और इस स्वतंत्र देश में इनके अपने नियम और कानून है ...! नीचे शिवसेना पर क्लिक करके पूरी प्रेस विज्ञप्ति आप पढ़ सकते हैं.

अंत में उनका शरीर मंदिर बन गया था


आज से ठीक तिरसठ साल पहले एक धार्मिक आतंकवादी की गोलियों से महात्मा गाँधी की मृत्यु हो गयी थी. कुछ लोगों को उनकी हत्या के आरोप में सज़ा भी हुई लेकिन साज़िश की परतों से पर्दा कभी नहीं उठ सका. खुद महात्मा जी अपनी हत्या से लापरवाह थे. जब २० जनवरी को उसी गिरोह ने उन्हें मारने की कोशिश की जिसने ३० जनवरी को असल में मारा तो सरकार चौकन्नी हो गयी थी लेकिन महत्मा गाँधी ने सुरक्षा का कोई भारी बंदोबस्त नहीं होने दिया. ऐसा लगता था कि महात्मा गाँधी इसी तरह की मृत्यु का इंतज़ार कर रहे थे. इंसानी मुहब्बत के लिए आख़िरी साँसे लेना उनका सपना भी था. जब १९२६ में एक धार्मिक उन्मादी ने स्वामी श्रद्धानंद जी महराज को मार डाला तो गाँधी जी को तकलीफ तो बहुत हुई लेकिन उन्होंने उनके मृत्यु के दूसरे पक्ष को देखा. २४ दिसंबर १९२६ को आल इण्डिया कांग्रेस कमेटी की बैठक में गाँधी जी ने कहा कि” स्वामी श्रद्धानंद जी की मृत्यु मेरे लिए असहनीय है. लेकिन मेरा दिल शोक माने से साफ़ इनकार कर रहा है. उलटे यह प्रार्थना कर रहा है कि हम सबको इसी तरह की मौत मिले. (कलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ महात्मा गाँधी अंक ३२). अपनी खुद की मृत्यु के कुछ दिन पहले पाकिस्तान से आये कुछ शरणार्थियों के सामने उन्होंने सवाल किया था ” क्या बेहतर है? अपने होंठों पर ईश्वर का नाम लेते हुए अपने विश्वास के लिए मर जाना या बीमारी, फालिज या वृद्धावस्था का शिकार होकर मरना. जहां तक मेरा सवाल है मैं तो पहली वाली मौत का ही वरण करूंगा ” ( प्यारेलाल के संस्मरण)
महात्मा जी की मृत्यु के बाद जवाहरलाल नेहरू का वह भाषण तो दुनिया जानती है जो उन्होंने रेडियो पर देश वासियों को संबोधित करते हुए दिया था. उसी भाषण में उन्होंने कहा था कि हमारी ज़िंदगी से प्रकाश चला गया है. लेकिन उन्होंने हरिजन (१५ फरवरी १९४८) में जो लिखा, वह महात्मा जी को सही श्रद्धांजलि है. लिखते हैं कि ‘उम्र बढ़ने के साथ साथ ऐसा लगता था कि उनका शरीर उनकी शक्तिशाली आत्मा का वाहन हो गया था. उनको देखने या सुनने के वक़्त उनके शरीर का ध्यान ही नहीं रहता था, लगता था कि जहां वे बैठे होते थे, वह जगह एक मंदिर बन गयी है‘ अपनी मृत्यु के दिन भी महात्मा गाँधी ने भारत के लोगों के लिए दिन भर काम किया था. लेकिन एक धर्माध आतंकी ने उन्हें मार डाला.

मोहनदास करमचंद गाँधी के जीवन का अंतिम दिन



लेरी कार्लिस और डोमनिक लेपियर द्वारा १९७५मे लिखी पुस्तक 'फ्रीडम एट मिदनेट' में भारतीय स्वाधीनता सब्ग्राम की आद्योपांत कहानी का वर्णन है ...इसमें गांधी जी की हत्या का विषद और प्रमाणिक वर्णन भी है .....
मोहनदास करमचंद गाँधी के जीवन का अंतिम दिन- की दिन चर्या में सूर्योदय से पहले लगभग ०३.३० बजे उनका जागना और ईश्वर आराधना .दोपहर के आराम के बाद वे १०-१२ प्रतीक्षारत आगंतुको से मिले ,बातचीत की .अंतिम मुलाकाती के साथ चर्चा उनके लिए घोर मानसिक वेदना दायक रही .वे अंतिम मुलाकाती थे सरदार वल्लव भाई पटेल . उन दिनों पंडित जी और पटेल के बीच नीतिगत मतभेद चरम पर थे . पटेल तो संभवत: नेहरु मंत्रिमंडल से त्यागपत्र देने के मूड में थे ; लेकिन गांधीजी उन्हें समझा रहे थे कि यह देश हित में नहीं होगा .
गांधीजी ने समझाया कि नवोदित स्वाधीन भारत के लिए यह उचित होगा कि तमाम मसलों पर हम तीनो -याने गांधीजी .नेहरूजी और पटेल सर्वसम्मत राय बनाए जाने कि अनवरत कोशिश करेंगे .आपसी मतभेदों में वैयक्तिक अहम् को परे रखते हुए देश को विश्व मानचित्र पर पहचान दिलाएंगे .पटेल से बातचीत करते समय गांधीजी कि निगाह अपने चरखे और सूत पर ही टिकी थी .जब बातचीत में तल्खी आने लगी तो मनु और आभा जो श्रोता द्वय थीं ,वे नर्वस होने लगीं ,लगभग ग़मगीन वातावरण में उन दोनों ने गांधीजी को इस गंभीर वार्ता से न चाहते हुए भी टोकते हुए याद दिलाया कि प्रार्थना का समय याने पांच बजकर दस मिनिट हो चुके हैं .
पटेल से बातचीत स्थिगित करते हुए गांधीजी बोले 'अभी मुझे जाने दो. ईश्वर कि प्रार्थना -सभा में जाने का वक्त हो चला है ' आभा और मनु के कन्धों पर हाथ रखकर गाँधी जी अपने जीवन कि अंतिम पद यात्रा पर चल पड़े ,जो बिरला हौऊस के उनके कमरे से प्रारंभ हुई और उसी बिरला हाउऊस के बगीचे में समाप्त होने को थी .....
अपनी मण्डली सहित गांधीजी उस प्रार्थना सभा में पहुंचे जो लान के मध्य थी और जहाँ .नियमित श्रद्धालुओं कि भीड़ उनका इंतज़ार कर रही थी और उन्ही के बीच हत्यारे भी खड़े थे .गांधीजी ने सभी उपस्थित जनों के अभ्वादानार्थ नमस्कार कि मुद्रा में हाथ जोड़े ..... करकरे कि आँखें नाथूराम गोडसे पर टिकी थीं ...जिसने जेब से पिस्तौल निकालकर दोनों हथेलियों के दरम्यान छिपा लिया .....जब गांधीजी ३-४ कदम फासले पर रह गए तो नाथूराम दो कदम आगे आकार बीच रास्ते आकार खड़ा हो गया ...उसने नमस्कार कि मुद्रा में हाथ जोड़े ,वह धीमें -धीमें अपनी कमर मोड़कर झुका और बोला "नमस्ते गाँधी 'देखने वालों ने समझा कि कोई भल मानुष है जो गांधीजी के चरणों में नमन करना चाहता है ...मनु ने कहा भाई बापू को देर हो रही है प्रार्थना में ..जरा रास्ता दो ...उसी क्षण नाथूराम ने अपने बाएं हाथ से मनु को धक्का दिया ...उसके दायें हाथ में पिस्तौल चमक उठी .उसने तीन बार घोडा दवाया ...प्राथना स्थल पर तीन धमाके सुने गए ...महात्मा जी कि मृत देह को बिरला भवन के अंदर ले जाया गया आनन् -फानन लार्ड माउन्ट वेटन,सरदार पटेल ,पंडित नेहरु और अन्य हस्तियाँ उस शोक संत्र्प्त माहोल के बीच पहुंचे ...जहां श्रध्धा सुमन अर्पित करते हुए अंतिम ब्रिटिश प्रतिनिधि ने ये उदगार व्यक्त किये .....'महात्मा गाँधी को ...इतिहास में वो सम्मान मिले जो बुद्ध, ईसा को प्राप्त हुआ ....

"आज नई दिल्ली में शाम के पांच बजकर सत्रह मिनिट पर , राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की हत्या हो गई " उनका हत्यारा एक हिन्दू है ' वह एक ब्राम्हण है ' उसका नाम नाथूराम गोडसे है ' स्थान बिरला हॉउस ..........ये आल इंडिया रेडिओ है ........{पार्श्व में शोक धुन }......
उस वैश्विक शोक काल में तत्कालीन सूचना और संचार माध्यमों ने जिस नेकनीयती और मानवीयता के साथ सच्चे राष्ट्रवाद का परिचय दिया वह भारत के परिवर्तीसूचना और संचार माध्यमों का दिक्दर्शन करने का प्रश्थान बिंदु है. यदि गाँधी जी का हत्यारा कोई अंग्रेज या मुस्लिम होता तो भारतीय उपमहादीप की धरती रक्तरंजित हो चुकी होती.तमाम आशंकाओं के बरक्स आल इडिया रेडिओ और अखवारों की तातकालिक भूमिका के परिणाम स्वरूप देश एक और महाविभीशिका से बच गया .........

बाबरी मस्जिद में मूर्ति रखने की प्रथम सूचना रिपोर्ट 23 दिसंबर 1949


२३ दिसम्बर 1949 की ऍफ़.ई.आर

नक़ल रिपोर्ट एस.ओ. बतारिख 23-12-49 जेरे दफा 147/295/448 ताजिराते हिंद रेक्स के जरिये, पंडित श्री राम देव दुबे एस.एस इंस्पेक्टर इन्चार्ज थाना अयोध्या फैजाबाद अभय राम के खिलाफ (२) राम सुकुल दस (३) सुदर्शन दस, साकिन अयोध्या, फैजाबाद 50-60 अफराद नाम व पता नामालूम, थाना अयोध्या (मिसिल - स्टेट बनाम जन्म भूमि/बाबरी मस्जिद जेरे दफा 145 सी.आर.पी.सी) केस नंबर 3/49, आखिरी हुक्म 3-9-1953,
जबानी

बा इत्तिला माता प्रसाद कान्सटेबल नंबर-7 तकरीबन 7 बजे सुबह के, जब मैं जन्मभूमि पहुंचा, तो मालूम हुआ कि तखमीनन 50-60 अफराद का मजमा कुफुल, जो बाबरी मस्जिद के कम्पाउन्ड में लगे हुए थे, तोड़ कर व नीज दीवार के जरिये सीढ़ी फांद कर अन्दर मस्जिद मदाखिलत कर के मूर्ती श्री भगवान की स्थापित ( कायम) कर दी और दीवारों पर अन्दर बहार सीता राम जी वगैरा गेरू से व पीले रंगे से लिख दिया, कान्सटेबल नंबर 7 बंस राज मामूर ड्यूटी मना किया, नहीं माने, पी.एस.सी की गारद, जो वहां मौजूद थी, इमदाद के लिए बुलाई, लेकिन उस वक्त तक लोग अन्दर तक मस्जिद में दाखिल हो चुके थे, अफसरान वाला, जिला, मौके पर तशरीफ़ लाये और मसरुफे-इंतजाम रहे। बादहू मजमा तख्मिनन 5-6 हजार इकठ्ठा होकर मजहबी नारे व कीर्तन लगा कर, अन्दर जाना चाहते थे, लेकिन माकूल इंतजाम होने की वजह से, राम सुकुल दस, सुदर्शन दस व पचास साठ अफराद न मालूम ने बलवा कर के मस्जिद में मदाखिलत कर के मूर्ति स्थापित करके, मस्जिद नापाक की है, मुलाजिमीन मामूरह ड्यूटी के बहुत से अफराद ने इसको देखा है लिहाजा चेक की गयी, सही है।

नोट- मैं हेड मुहर्रिर तसदीक करता हूँ कि हस्ब बयान एस.ई इत्तलाती रिपोर्ट में लफ्ज नाकाबिले तहरीर लिखा गया..........पढ़ा सही है।



दस्तखत
परमेश्वर सिंह, हेड मुहर्रिर
23-12-49
मुहर

प्रधानमंत्री पद की दौड़ में बाबा रामदेव

जिस काम को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नहीं कर सका, जिसे करने की आस लिए विश्व हिंदू परिषद बू़ढी होने लगी है और भाजपा भावी प्रधानमंत्री का नाम घोषित करने के बाद भी इस सपने की ओर एक क़दम नहीं बढ़ पाई, उस काम को अब एक बाबा पूरा करना चाहता है. इस बाबा ने इंग्लैंड में एक पूरा आइलैंड ख़रीद लिया है, इसने अमेरिका के ह्यूस्टन में लगभग तीन सौ एकड़ ज़मीन ख़रीद ली है. आज इस साधु के पास एक मोटे अंदाज़े के अनुसार, साठ से सत्तर हज़ार करोड़ का साम्राज्य है. पिछले दस सालों में इस साधु बाबा की सफलता की ऐसी अप्रतिम कहानी निर्मित हुई है, जिसका कोई जोड़ भूतकाल में नहीं मिलता. आज यह बाबा देश की सभी 542 संसदीय सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़ा करने की योजना बना कर उस पर अमल कर रहा है. भाजपा और कांग्रेस इसकी रणनीति से परेशानी महसूस कर रही हैं. चुनाव लड़ने के लिए राजनैतिक दलों या ईमानदार राजनेताओं को भले पैसे की कमी हो, लेकिन बाबा के पास पैसे की कोई कमी नहीं है. चुनाव जीतने के लिए अधिकतम जितने धन की ज़रूरत होगी, उसके इंतज़ाम का नक्शा बाबा के दिमाग़ में तैयार है. आइए, आपको विस्तार से बाबा रामदेव के बारे में बताते हैं.
बाबा रामदेव भारत की राजनीति बदल देना चाहते हैं. वह सभी संसदीय सीटों पर चुनाव लड़ना चाहते हैं. पिछले बीस सालों में यह काम भाजपा भी नहीं कर पाई. उसके पास सभी संसदीय सीटों पर लड़ने वाले उम्मीदवार ही नहीं उपलब्ध हो पाए. बाबा रामदेव की पतंजलि योग पीठ में एक भी मंदिर नहीं है और न ही वह आज हिंदू धर्म को अपना ध्वज वाहक बना रहे हैं. उनका कहना है कि वह इंसानियत को मज़हब मानते हैं.
अमेरिका में राष्ट्रपति पद का चुनाव हर चार साल में होता है और वहां की प्रचार एजेंसियां और रणनीति बनाने वाली एजेंसियां एक चुनाव ख़त्म होते ही अगले चार साल बाद होने वाले चुनाव की तैयारियों में जुट जाती हैं. अब तक भारत में ऐसा नहीं हुआ, पर लगता है कि दिमाग़ रखने वाले कई समूहों ने मिलकर बाबा रामदेव की रणनीति बनाई है तथा 2014 में होने वाले आम चुनावों में उन्हें प्रधानमंत्री बनाने की आख़िरी बाज़ी चल दी है. ये समूह हो सकता है देसी हों, लेकिन हो सकता है विदेशी भी हों. लंदन के पास का आइलैंड और ह्यूस्टन की ज़मीन कुछ तो इशारे कर ही रही है.
बाबा ने देश में योग सिखाने की शुरुआत की. बाबा से पहले योग देश में कम, विदेश में योगा के नाम से ज़्यादा जाना जाता था. हमारे यहां से योग जानने वाले विदेशों में बड़े धनवान स्वामी बन गए, वहां संपत्तियां भी ख़रीद लीं. बाबा ने देश में योगा को योग के रूप में पुन:स्थापित किया तथा योग को लेकर एक नई चेतना पैदा की. नरसिंहराव की उदारीकरण की नीति के बाद देश में पैसे का तीव्र आगमन हुआ, जिसने मध्यम वर्ग व उच्च वर्ग की जीवनशैली पर ख़ासा असर डाला. शरीर बेडौल हुआ, बीमारियां बढ़ीं. मधुमेह और हृदय रोग ने तो सर्दी-जुकाम की जगह ले ली. बाबा के योग की मार्केटिंग ने लोगों को आकर्षित किया.
इन्हीं दिनों टेलीविज़न आया, सहारा ग्रुप के मालिक सुब्रत राय ने संभवतः सबसे पहले बाबा को अपने टेलीविज़न पर उतारा. बड़े मैदान में योग के सार्वजनिक प्रदर्शन को टेलीविज़न के ज़रिए दिखाया. इसमें सबसे बड़ा योगदान बाबा के पेट खींचने की यौगिक मुद्रा ने किया. पेट निकलने के कॉम्प्लेक्स के शिकार लोगों ने इसे एक स्वर्णिम अवसर के रूप में लिया. पैसे वालों में यह बीमारी आम है, ख़ासकर उनकी पत्नियों को लगा कि बाबा का योग उन्हें छरहरा और आकर्षक बना देगा. उनका सोचना ग़लत नहीं था. लगातार योग करने से यह संभव हो सकता था. कई लोगों को इसका फायदा भी हुआ. सुब्रत राय के सबसे विश्वस्त साथी ओ पी श्रीवास्तव और उनकी पत्नी को भी इसका लाभ मिला. उनकी पत्नी ने बाबा रामदेव को अपना भाई बना लिया. सुब्रत राय का साम्राज्य ओ पी श्रीवास्तव ही चलाते हैं. बाबा रामदेव के देशव्यापी भ्रमण और उनके व्यक्तित्व को विराट बनाने की योजना कार्यरूप में परिणित होने लगी.
बाबा रामदेव की यौगिक क्रियाओं की सीडी तैयार की गई और उन्हें लगभग हर टेलीविज़न चैनल पर सुबह और शाम चलवाया जाने लगा. देश की जनता हतप्रभ थी तथा उसने बाबा रामदेव के बारे में जानना और पूछना शुरू कर दिया. बाबा के बड़े मैदानों में योग शिविर की सीडी और वीडियो कैसेट बनाकर बेचे जाने लगे. जिन बीमारियों से पैसे वाले पीड़ित हैं, उन्हीं से राजनेता भी पीड़ित हैं. मंत्रियों, सांसदों, मुख्यमंत्रियों ने भी बाबा से संपर्क करना शुरू कर दिया. और, यहीं से बाबा रामदेव सत्ता प्रतिष्ठान के ड्राइंगरूम, किचन रूम और बेडरूम में घुस गए.
बाबा ने योग सिखाने का मूलमंत्र बनाया. आप ख़ैरियत से हैं तो सारा देश ख़ैरियत से है. बाबा ने हिंदुस्तान के हर हिस्से में घूमने का कार्यक्रम बनाया तथा लोगों से संपर्क का प्रमुख ज़रिया योग को बनाया. बाबा विदेशों में भी गए, क्योंकि उनकी योजना बनाने वालों को मालूम था कि बिना विदेश में पैठ बनाए हिंदुस्तान में सर्वशक्तिशाली नहीं बना जा सकता, क्योंकि दुनिया ग्लोबल हो गई है. इसी क्रम में बाबा रामदेव ने योग के लिए पतंजलि योगपीठ ट्रस्ट बनाया तथा भारत स्वाभिमान के नाम से आंदोलन का सूत्रपात किया.
बाबा रामदेव हरिद्वार में गुरु शंकर देव के शिष्य थे तथा साइकिल पर चलते थे. उन्हें साइकिल पर चलते देखने वालों की बड़ी संख्या है. अब गुरु शंकर देव का कुछ पता नहीं है कि वह कहां हैं. न देखे जाने से पहले वह बहुत दुखी थे, ऐसा हरिद्वार में बहुत से लोगों का कहना है. कहां हैं गुरुशंकर देव, इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है और बाबा रामदेव तो इस पर बिल्कुल ख़ामोश हैं. गुरुकी पूजा भगवान से पहले की जाती है, गुरु-गोविंद दोउ खड़े, काके लागू पाय, बलिहारी गुरु आपने, जिन्ह गोविंद दियो बताय. पर बाबा रामदेव ने कभी अपने गुरुका नाम कहीं, किसी भी परिस्थिति में नहीं लिया.
बाबा रामदेव के सबसे विश्वस्त साथी बालकिशन महाराज हैं. बाबा जिन्हें भी लाते हैं या जिन्हें खींचते या आकर्षित करते हैं, उन्हें कंसोलिडेट करने का काम बालकिशन महाराज करते हैं. बाबा के पीछे रहने वाले बालकिशन महाराज ने बाबा के आयुर्वेद का साम्राज्य खड़ा किया है. पहले आयुर्वेद को भारत में ग्लैमर मेडिसिन के रूप में नहीं देखा जाता था. जड़ी-बूटियों को इज़्ज़त दिलाने में, ग्लैमरस बनाने में बालकिशन महाराज का बड़ा योगदान है. आज बाबा रामदेव को एक ब्रांड बनाने में सबसे बड़ा योगदान बालकिशन महाराज का है. आज बाबा सब कुछ बेचना चाहते हैं. आटा, आंवला, फलों का रस, दवाएं, यहां तक कि अब वह पानी भी बेचने जा रहे हैं. और, सबके पीछे हैं बाबा के परम विश्वस्त बालकिशन महाराज.
अब तक बाबा रामदेव को भाजपा के लोग हिंदुत्व का अलमबरदार मान रहे थे और कांग्रेस उन्हें आरएसएस का ख़ु़फिया एजेंट मान रही थी. मुसलमानों के एक हिस्से को उनमें धर्मनिरपेक्षता दिखाई दे रही थी. सबसे पहले बाबा के मुस्लिम नेताओं से रिश्तों के बारे में जानें. बाबा ने एक मर्म समझ लिया कि यदि हिंदुस्तान में सियासी तौर पर कुछ करना है तो बिना मुसलमानों के संभव नहीं है, क्योंकि उनकी आबादी अट्ठारह प्रतिशत के आसपास है. इस तथ्य को जानते हुए भी भाजपा इस ओर क़दम आज तक नहीं उठा पाई. बाबा ने सबसे पहले मुस्लिम उलेमाओं से संपर्क साधा. काफी परखने के बाद उन्होंने धर्मगुरु कल्बे रुशैद रिज़वी से संपर्क किया.
महीनों की बातचीत के बाद बाबा ने उन्हें अपने कार्यक्रमों में आने का न्यौता दिया. मौलाना कल्बे रुशैद रिज़वी के भाषणों से प्रभावित हो, बाबा उन्हें अपने पास बैठाने लगे और उनके द्वारा मुस्लिम समाज से संपर्क साधना शुरू किया. बाबा की इस कोशिश का नतीजा जल्दी ही सामने आ गया, जब जमैतुल उलेमा ए हिंद के मौलाना महमूद मदनी ने एक बड़े जलसे में उन्हें देवबंद आने की दावत दी.
देवबंद मुसलमानों में काफी इ़ज़्ज़त की नज़र से देखा जाता है, बल्कि यहां से जारी की गई सलाहें फतवे का असर रखती हैं. बाबा रामदेव देवबंद गए और उन्होंने लाखों मुसलमानों की भीड़ को संबोधित किया. संबोधन उन्होंने कुरान शरीफ की आयत से शुरू किया. इस बीच देवबंद से कहा जा चुका था कि वंदे मातरम गाना ग़ैर इस्लामी है. बाबा ने वहां जमा लाखों की भीड़ के साथ प्रमुख मौलानाओं से कहा कि जब मैं कुरान की आयत पढ़कर मुसलमान नहीं बन सकता, तब आप वंदे मातरम पढ़कर हिंदू कैसे बन सकते हैं? उन्होंने वहां उपस्थित उलेमाओं से योग करने के लिए कहा, क्योंकि सभी के पेट निकल गए हैं. मुस्लिम समाज को बाबा रामदेव में ऐसा साधु नज़र आया, जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या विश्व हिंदू परिषद से बिल्कुल अलग क़िस्म का साधु है. मौलाना मदनी ने बाबा की देश को बनाने की कोशिश में साथ देने का वायदा किया. बाबा का बड़ा मक़सद पूरा हो गया और उन्हें मुस्लिम समाज एक अलग नज़र से देखने लगा.
विश्व हिंदू परिषद या भाजपा से अलग बाबा रामदेव ने धर्म की जगह संस्कृति का सहारा लिया. बाबा को पता है कि गुजरात में नवरात्रि में मुसलमान डांडिया खेलते हैं और सत्ताइसवां रोज़ा शबे कदर का हिंदू औरतें रखती हैं. बाबा इस बात को कहते भी हैं और समझाते भी हैं. इसलिए उनकी स्वीकार्यता हिंदू धर्म के नाम पर राजनीति करने वाले नेताओं से बहुत ज़्यादा है. एक मुस्लिम धर्मगुरु ने कहा कि पता नहीं चोली के पीछे क्या है, पर दिखने में चोली अच्छी दिखाई देती है.
मौलाबा कल्बे रुशैद रिज़वी का ज़िक्र एक बार फिर करना चाहेंगे. बाबा के साथ सभाओं के अलावा बाबा उन्हें अपने टीवी चैनल पर भी लाते हैं. हरिद्वार में पतंजलि दो के उद्‌घाटन के अवसर पर उन्होंने मौलाना से कहा, आपसे दिल मिलता है, बाक़ी से आंखें मिलती हैं. उन्होंने इस अवसर पर आयोजित सभा में कहा कि वह अट्ठारह करोड़ मुसलमानों में से हीरा चुनकर लाए हैं. मज़हब वालों का तो मकान रहता है, पर सेक्युलरिज़्म का पूरा मुल्क रहता है. कहना चाहिए कि बाबा ने अपने साथ मुसलमानों, सिखों, जैनियों और ईसाइयों के ऐसे धर्मगुरुओं को लिया है, जिनकी गुणवत्ता और छाप अच्छी है. बाबा ने 2009 से 2010 अप्रैल तक हर राज्य से लोगों को हरिद्वार में बुलाया तथा पतंजलि योगपीठ में बड़े-बड़े शिविर लगाए. अलग-अलग क्षेत्रों में काम करने वालों जैसे डॉक्टर, बुद्धिजीवी, चार्टर्ड एकाउंटेंट, शिक्षक, सीनियर प्रोफेसर तथा उनके अनुसार देश से प्यार करने वाले ईमानदार लोगों के आठ-आठ दिनों के शिविर लगाए गए. इन शिविरों के अंत में सभी को सेहत की ह़िफाज़त, योग की तालीम तथा देश में शरी़फों को जीने का हक़ दिलाने के लिए लड़ने का संकल्प दिलाया जाता है.
बाबा ने अपना आख़िरी विदेशी दौरा अभी-अभी समाप्त किया है. वह नेपाल गए थे और वहां उन्होंने माओवादी नेता प्रचंड से राजनैतिक बात की और उन्हें भी अपने अभियान में शामिल करने के लिए तैयार कर लिया. अब बाबा विदेश नहीं जाएंगे, बल्कि देश के हर हिस्से में घूमेंगे. अप्रैल के बाद यानी इसी महीने के बाद बाबा एक देशव्यापी आंदोलन की योजना बना रहे हैं. उन्होंने भारत स्वाभिमान ट्रस्ट बनाया है और उसकी राजनैतिक शाखा भारत स्वाभिमान जवान बनाई है. यह भारत स्वाभिमान जवान ही इस वर्ष राजनैतिक दल के रूप में बदल जाएगी, जो लोकसभा का चुनाव लड़ेगी. बिना जाति को आधार बनाए राष्ट्र के बारे में सोचने वाले जीतें, ऐसा बाबा का कहना है. बाबा ने एक और बात कही है कि हिंदू मुसलमान को जिताएं और मुसलमान हिंदू को. बाबा की योजना है कि 2014 तक भारत स्वाभिमान ट्रस्ट के सदस्यों की संख्या पचास करोड़ हो जाए.
बाबा रामदेव चुनावी घोषणापत्र का पूर्वाभ्यास अभी से कर रहे हैं, जिसे वह अग्निपत्र कहते हैं. अग्निपत्र कहता है कि सत्ता आने पर स्वदेशी चिकित्सा व्यवस्था 2. स्वदेशी शिक्षा व्यवस्था 3. स्वदेशी अर्थव्यवस्था 4. स्वदेशी क़ानून व कर व्यवस्था 5. भारतीय संस्कृति की रक्षा 6. भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी, ग़रीबी, महंगाई व भूख मुक्त वैभवशाली भारत का निर्माण 7. ग्रामीण स्वावलंबन 8. पर्यावरण की रक्षा 9. नियंत्रित जनसंख्या लक्ष्य हासिल किए जाएंगे. बाबा ने अपने लोगों से कहा है कि वे देश की व्यवस्था चलाने वालों से सवाल पूछें. इसके लिए उन्होंने एक प्रश्नावली भी तैयार कर अपने समर्थकों को दी है.
बाबा ने नौ सवाल पूछने के लिए कहा है और स्वयं नौ सूत्री घोषणापत्र बनाने की योजना बना ली है. उन्होंने देशभक्त पत्रकारों, लेखकों एवं बुद्धिजीवियों का भी आह्वान किया है कि वे आएं और उनके साथ जुड़ें. बाबा ने स्विस बैंकों से कालाधन वापस लाने की मुहिम पिछले लोकसभा चुनाव में चलाई थी. यही मांग भाजपा के मनोनीत प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने भी उठाई थी. 14 अप्रैल 2009 को बाबा से एक पत्रकार ने पूछा कि आप स्विस बैंक का मुद्दा, बीजेपी का मुद्दा उठा रहे हैं तो क्या आप भारतीय जनता पार्टी के एजेंट हैं? बाबा रामदेव ने जवाब दिया था कि मैं भारतीय जनता का एजेंट हूं, पार्टी का नहीं.
-------------बाबा रामदेव भारत की राजनीति बदल देना चाहते हैं. वह सभी संसदीय सीटों पर चुनाव लड़ना चाहते हैं. पिछले बीस सालों में यह काम भाजपा भी नहीं कर पाई. उसके पास सभी संसदीय सीटों पर लड़ने वाले उम्मीदवार ही नहीं उपलब्ध हो पाए. बाबा रामदेव की पतंजलि योग पीठ में एक भी मंदिर नहीं है और न ही वह आज हिंदू धर्म को अपना ध्वज वाहक बना रहे हैं. उनका कहना है कि वह इंसानियत को मज़हब मानते हैं.-----------
ओशो रजनीश के पास धर्म और धन का बड़ा साम्राज्य था, उन्होंने अपने को भगवान कहलवाना प्रारंभ कर दिया था. महर्षि महेश योगी का हेडक्वार्टर हालैंड में था तथा लगभग साठ देशों में उनके विश्वविद्यालय थे. भारत में उनके शिष्यों में रामनाथ गोयनका से लेकर मंत्रियों की बड़ी फौज़ थी, पर यह सपना तो वे भी नहीं देख पाए. बाबा रामदेव 2014 में लोकसभा का चुनाव पूरी तैयारी के साथ लड़ना चाहते हैं. वह दो हज़ार ग्यारह में छह लाख लोगों से व्यक्तिगत रूप से मिलना चाहते हैं. देश भर में फैले इन छह लाख लोगों की चयन समिति संसदीय चुनावों के लिए उम्मीदवार चुनेगी, जिनकी घोषणा भी 2011 के अंतिम दिनों में कर दी जाएगी. भारत स्वाभिमान ट्रस्ट के पचास करोड़ सदस्य बनाने का लक्ष्य भी बाबा दो हज़ार ग्यारह में ही पूरा कर लेना चाहते हैं.
बाबा के पास नाम है, बाबा के पास धन है, बाबा के पास चेहरा है, बाबा के पास अधूरे ही सही, पर कुछ मुद्दे हैं, लेकिन बाबा को दु:ख है कि उन्हें लोग गंभीरता से नहीं लेते और अभी तक उन्हें योग गुरु ही मानते हैं. इसलिए बाबा ने अब अपना टेलीविज़न चैनल ख़रीद लिया है तथा कई और ख़रीदना चाहते हैं. वह एक न्यूज़ चैनल भी शुरू करने जा रहे हैं, क्योंकि उन्हें डर है कि उनकी पूरी बात कोई टीवी चैनल नहीं दिखाएगा. टीवी चैनलों की रुचि उनकी राजनीति में नहीं, उनके पेट सिकोड़ने वाली कपालभाती की मुद्रा को दिखा कर अपने दर्शक बढ़ाने में है. जिस सहारा टेलीविज़न ने उन्हें सबसे पहले दिखाया था, उसी के चीफ को वह अपने न्यूज़ प्रोजेक्ट का चीफ बनाकर ले गए हैं. दूरदर्शन के लिए काम करने वाले वीरेंद्र मिश्र उनके लिए अब पूरे तौर पर कार्यक्रम बना रहे हैं. ये लोग पत्रकारों की बड़ी संख्या को अपनी ओर खींचने की योजना पर काम कर रहे हैं.
भाजपा के बड़े नेता अशोक साहू का कहना है कि बाबा आते हैं, जाते हैं, पब्लिक नोट देती है, वोट नहीं देती. लेकिन भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी ने बाबा को ख़त लिखा है कि यदि वह चुनाव में खड़े होंगे तो वोट बंटेगा. उधर कांग्रेस भी परेशान है और उसने अपने सभी मुख्यमंत्रियों और मंत्रियों को निर्देश दिया है कि वे बाबा से दूर रहें. स़िर्फ उसने संपर्क सूत्र के रूप में सुबोधकांत सहाय को बाबा से मिलने और भाजपा से दूर रखने की ज़िम्मेदारी सौंपी है.
भारत के पुराने और नए पूंजीपतियों के घरों में बाबा घुस गए हैं और बाबा को विश्वास है कि सभी उनके साथ खड़े होंगे. सुब्रत राय, रजत शर्मा, गुलाब कोठारी और सुभाष चंद्र गोयल बाबा के साथ खुले रूप में हैं. बाबा ने साधुओं की बड़ी संस्था अखाड़ा परिषद को भी अपने साथ कर लिया है.
पर बाबा ने एक घोषणा और की है कि वह न ख़ुद चुनाव लड़ेंगे और न प्रधानमंत्री बनेंगे. बाबा इस बुनियादी मर्म को जानते हैं कि अगर आप ख़ुद पद से दूर भागेंगे तो लोग आपको उस पद पर बैठा देंगे. आज बाबा रामदेव ने इस लड़ाई का मोर्चा ख़ुद संभाल लिया है. उन्हें लगता था कि रजत शर्मा, सुभाष गोयल और गुलाब कोठारी जैसे मीडिया के महारथी उनके लिए राजनीति में आने का माहौल बना देंगे, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. अब बाबा रामदेव चारों तऱफ चुनाव लड़ने की, अपने मुद्दों को उजागर करने की घोषणा स्वयं करने लगे हैं. भारतीय उद्योग जगत के बड़े पैसे वालों की बीवियां और उनकी बहनें बाबा के साथ अक्सर कार्यक्रमों में देखी जाती हैं, जिससे अंदाज़ा होता है कि यह वर्ग इस बार एक नया दांव खेलना चाहता है.
बाबा रामदेव को पहले भाजपा अपना सहयोगी मानती थी. उसे लगता था कि वह हिंदू जो उसकी कट्टरता की वज़ह से या विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल से चिढ़कर उसका साथ नहीं देगा, वह बाबा रामदेव के साथ जाएगा और चुनाव के बाद दोनों मिल जाएंगे, लेकिन अब भाजपा बाबा रामदेव से डरने लगी है. दूसरी ओर मुलायम सिंह यादव, लालू यादव और राम विलास पासवान बाबा रामदेव के क़दम को अपने लिए शुभ मानते हैं. यहां एक सवाल सभी को कांटे की तरह चुभ रहा है कि क्या बाबा रामदेव संघ का नया पत्ता तो नहीं हैं? बाबा के क़रीबी संबंध संघ के कई नेताओं से हैं. दूसरा सवाल कि क्या बाबा की राजनैतिक योजनाओं की रणनीति कहीं अमेरिकी कंपनियां तो नहीं बना रही हैं, जिन्हें इस काम में महारत हासिल है?
कुछ भी हो, कैसे भी सवाल हों, पर सत्तर हज़ार करोड़ की प्रत्यक्ष हैसियत से ज़्यादा ताक़त रखने वाला भारत का योग गुरु देश के स्वास्थ्य को सुधारने के लिए एक बड़ा दांव खेलने जा रहा है. ऐसा ही दांव पिछले लोकसभा चुनाव के समय आंध्र में वहां के सुपरस्टार चिरंजीवी ने खेला था. उनकी सभाओं में अप्रतिम भीड़ होती थी. लगता था, आंध्र की राजनीति में चिरंजीवी का एकछत्र राज होगा, पर ऐसा हुआ नहीं. सिनेमा प्रेमी जनता ने उनका उत्साह बढ़ाया, लेकिन वोट देकर सरकार नहीं बनवाई. बाबा रामदेव और चिरंजीवी में बहुत अंतर है. बाबा अपना क़दम फूंक-फूंक कर रख रहे हैं. राजनैतिक दलों के प्रति आम जनता में उपजी निराशा उनके लिए बहुत बड़ी आशा है. अपनी बीमारियों से छुटकारा पाने के लिए बाबा के योग को आशा की किरण मानने वाले भारत के लोग बाबा का संसद के लिए कितना समर्थन करेंगे, यह देखना दिलचस्प होगा.
.........................भारत का राजनीतिक इतिहास कमल मोरारका............................
इंदिरा गांधी सन्‌ सतहत्तर में चुनाव हार गई थीं. चंद्रशेखर जी आपातकाल में उन्नीस महीने की जेल काटकर आए थे. जेल जाने से पहले वह कांग्रेस की सर्वोच्च संस्था, कांग्रेस वर्किंग कमेटी के सदस्य थे. देश में मोरारजी देसाई की सरकार बन चुकी थी. चंद्रशेखर जी इंदिरा जी से मिलने गए. उन्होंने इंदिरा जी से कहा कि मुझे बताइए, मैं आपके लिए क्या कर सकता हूं. इंदिरा जी परेशान थीं. बोलीं, मैं रहने के लिए महरौली में घर तलाश रही हूं. मेरे पास तो कोई घर भी नहीं है. चंद्रशेखर जी ने उनसे कहा कि आप परेशान मत होइए, आपके लिए घर का इंतज़ाम हो जाएगा.
-----------------कमल मोरारका 39 वर्ष तक चंद्रशेखर जी के विश्वस्त रहे. यह पूरा इंटरव्यू आप www.chauthiduniya.tv पर देख सकते हैं. इतिहास की ऐसी ही कई घटनाओं का पहली बार खुलासा हो रहा है और आगे भी होता रहेगा-------
वहां से उठकर चंद्रशेखर जी मोरारजी देसाई के पास गए. उन्होंने इंदिरा जी के घर के बारे में कहा तो मोरारजी ने तत्काल मना कर दिया. चंद्रशेखर जी ने उन्हें पहले तो समझाया, फिर कहा कि मैं वायदा कर आया हूं. अब आपको घर देना है, चाहे जैसे दें. मोरारजी भाई ने सोच कर कहा कि मार्केट रेट पर दे सकते हैं. चंद्रशेखर जी ने कहा, वैसे ही दे दें. इस तरह इंदिरा गांधी के लिए घर का इंतज़ाम हुआ.
इतिहास का पहिया घूमा. इंदिरा जी की हत्या के बाद चुनाव हुए, जिसमें राजीव गांधी अपार बहुमत से जीते. चंद्रशेखर जी चुनाव हार गए. उनके लिए भी घर का सवाल खड़ा हो गया. अब्दुल गफूर शहरी विकास मंत्री बने. सेंट्रल हाल में चंद्रशेखर जी ने उनसे कहा कि गफूर मियां, मुझे जब नोटिस भेजना, तब बता देना. मैं घर का इंतज़ाम कर रहा हूं. गफूर साहब ने उनसे कहा कि चंद्रशेखर जी, मुझे राजीव गांधी ने कहा है कि चंद्रशेखर जी को औपचारिक नोटिस भी नहीं जाना चाहिए. उन्हें वही घर मिलना चाहिए. शायद राजीव गांधी को इंदिरा जी के घर वाली घटना याद रही होगी या इंदिरा जी ने उन्हें बताया होगा.
अब्दुल गफूर ने चंद्रशेखर जी को वही घर जनता पार्टी अध्यक्ष के नाते एलॉट कर दिया, जो किसी श्रेणी में आता ही नहीं था. पांच साल वह रहे, बाद में वह पुनः चुन कर लोकसभा में आ गए.
चंद्रशेखर जी प्रधानमंत्री थे, तब भारत की आर्थिक हालत ख़राब थी. यह पिछले दस सालों की ग़लत आर्थिक नीति का परिणाम था. उन्हें फैसला लेना पड़ा कि सोना गिरवी रख पैसा लिया जाए. देश में माहौल बना दिया गया कि सारा सोना लंदन में गिरवी रख दिया गया. जबकि हक़ीक़त थी कि वही सोना गया था, जो स्मगलरों से ज़ब्त किया गया था. भारत का अपना सोना रिज़र्व बैंक के पास ही रखा था.
कश्मीर को लेकर चंद्रशेखर जी ने नवाज़ शरीफ से काफी गंभीर बात की, जिससे प्रभावित होकर नवाज़ शरीफ ने हॉटलाइन लगवा कर उनसे लगातार बातचीत की.
आमतौर पर धारणा है कि चंद्रशेखर जी की सरकार इसलिए गिरी, क्योंकि उनके घर के सामने हरियाणा पुलिस के दो सिपाही खड़े थे, जिन पर जासूसी का शक़ था. दरअसल सरकार इसलिए गिरी, क्योंकि चंद्रशेखर जी दो दिनों बाद बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि विवाद का सर्वसम्मत हल घोषित करने वाले थे. शरद पवार ने इसकी जानकारी राजीव गांधी को दे दी, जिस पर राजीव गांधी के सलाहकारों ने उनसे कहा कि सबसे बड़ी समस्या तो यही है. अगर इसे चंद्रशेखर जी ने हल कर दिया तो आपके लिए कुछ बचेगा ही नहीं. राजीव गांधी ने चंद्रशेखर जी से कहा कि आप दो दिनों तक कुछ न बोलें. और, इन्हीं दोनों दिनों में चंद्रशेखर जी की सरकार से कांग्रेस ने समर्थन वापस ले लिया. सरकार शरद पवार और राजीव गांधी की बातचीत के बाद गिरी.

मध्य प्रदेश में हर रोज 6 महिलाओं से बलात्कार


मध्य प्रदेश में हर रोज 6 महिलाओं से बलात्कार---

मध्य प्रदेश में हर रोज छह महिलाओं की अस्मत लूट ली जाती है, वहीं हर तीन दिन में दो महिलाएं सामूहिक बलात्कार का शिकार बनती हैं। इतना ही नहीं हर दस दिन में बलात्कार के बाद एक पीड़ित की हत्या कर दी जाती है। मंगलवार को सरकार की ओर से प्रस्तुत किए गए आंकड़ों से यह खुलासा हुआ है।
प्रदेश के गृह मंत्री उमाशंकर गुप्ता द्वारा मंगलवार को विधानसभा में दी गई जानकारी के मुताबिक 16 फरवरी 2010 से 31 जनवरी 2011 की अवधि में प्रदेश में 2,191 महिलाओं को बलात्कार का दंश झेलना पड़ा है। बलात्कार की सबसे ज्यादा 110 घटनाएं बैतूल जिले में हुईं वहीं राजधानी भोपाल इस मामले में दूसरे स्थान पर है जहां 99 महिलाओं की आबरू लूटी गई।
आंकड़ों के मुताबिक पीड़ितों में 828 अनुसूचित जाति जनजाति और 901 पिछड़ा वर्ग से हैं। वहीं 462 पीड़िता सामान्य वर्ग की हैं। कुल पीड़ितों में 1,163 वयस्क और 1,028 अवयस्क हैं।
कांग्रेस विधायक रामनिवास रावत व पांची लाल मेड़ा के सवालों के जवाब में बताया गया है कि 350 दिन की अवधि में 209 सामूहिक बलात्कार हुए हैं। वहीं 31 पीड़ितों की बलात्कार के बाद हत्या कर दी गई। बलात्कार के बाद हत्या के सबसे ज्यादा 11 मामले इंदौर में दर्ज किए गए।
गुप्ता ने बताया कि इन मामलों में अब तक 2,431 आरोपियों की गिरफ्तारी हो चुकी है और 132 आरोपी फरार हैं। कांग्रेस विधायक रामनिवास रावत ने कहा है कि प्रदेश की कानून व्यवस्था पूरी तरह चरमरा चुकी है और महिलाएं अपने आपको असुरक्षित महसूस कर रही हैं।
पिछले बर्षों के कुछ संक्षिप्त विवरण:

मध्य प्रदेश में महिला अपराधों में वृध्दि प्रतिदिन 7 महिलाओं के साथ बलात्कार---

मध्य प्रदेश में भी महिलाओं के खिलाफ हिंसा में तेजी से वृध्दि हुई है। सरकारी आंकडों पर गौर करें तो मध्य प्रदेश में पिछले एक वर्ष के दौरान प्रतिदिन औसतन बलात्कार की सात वारदातें दर्ज की गईं। अगर राष्ट्रीय स्तर पर महिलाओं पर यौन हिंसा सहित विभिन्न प्रकार की हिंसाओं पर नजर डालें तो 46 प्रतिशत के साथ मध्य प्रदेश दूसरे स्थान पर है। प्रदेश सरकार ने अपराधों में वृध्दि की बात स्वीकारते हुए कहा कि जनसंख्या में वृध्दि और शहरीकरण के कारण ऐसा हुआ है। महिला और पुरुष के खिलाफ एक जुलाई 2008 से 15 जून 2009 के बीच राज्य में एक लाख 51 हजार पांच सौ 98 अपराध दर्ज हुए। इनमें से से सबसे अधिक 11954 इंदौर जिले में और 10458 भोपाल जिले में दर्ज किए गए। इसके अलावा जबलपुर जिले में 8140 और ग्वालियर जिले में 5786 अपराध घटित हुए। हत्या की सबसे अधिक वारदातें इंदौर में 130 हुईं। इसके बाद ग्वालियर जिले में 94 लोगों की हत्या की गई। इंदौर जिला हत्या के अलावा हत्या के प्रयास और लूट के अपराधों में भी आगे रहा।
गौर करने वाली बात है कि भारत को आजाद हुए 60 साल से ज्यादा हो गए हैं। स्वतंत्रता के बाद भारत ने न जाने प्रगति की कितनी सीढ़ियां चढ़ ली हैं। अगर हम देखें तो विकास का पैमाना माने जाने वाला ऐसा कोई भी क्षेत्र नहीं बचा है, जहां भारत की पहुंच नहीं हो पाई है। इसमें सिर्फ देश और प्रदेशों के पुरुष ही नहीं बल्कि महिलाओं ने भी अग्रणी भूमिका निभाई हैं। आज कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं होगा जिसमें महिलाओं की भागीदारी न हो। परंतु तेजी से बदलते सामाजिक परिवेश में भारतीय महिलाओं की दशा पूर्ववत बनी हुई है। केंद्र सरकार तथा राज्य सरकारें भी औरतों के जीवनस्तर में सुधार का प्रयास कर रही हैं, लेकिन इनका प्रयास सार्थक साबित नहीं हो पा रहा है। ये वे तथ्य हैं जो उजागर हुए तथा जनता के सामने प्रस्तुत किए गए। उन घटनाओं की संख्या भी कम नहीं है, जिन्हें दबा दिया गया या लोकलज्जा के चलते उजागर नहीं किया गया। इन आंकड़ों से आप सहज अनुमान लगा सकते हैं कि प्रदेश की महिलाएं कितनी सुरक्षित हैं। इन घटनाओं से साफ जाहिर हो रहा है कि राज्य सरकार महिलाओं के उत्थान के लिए जो कदम उठा रही हैं, क्या उन्हें उसमें सफलता मिल पाई है। दूसरी ओर घर और दफ्तर दोनों जगह महिलाएं भेदभाव की शिकार हैं। करीब तीन चौथाई महिलाओं का मानना है कि उनके पति उनके काम में हाथ नहीं बंटाते हैं। केवल एक चौथाई पति ही खाना बनाने, घर की सफाई करने और बच्चों की देखभाल करने में पत्नियों का हाथ बंटाते हैं। समाज में महिलाएं पुरुषवादी मानसिकता और लैंगिक भेदभाव की शिकार हैं। यही कारण है कि उन्हें नौकरी में पदोन्नति नहीं मिलती। काम के बढ़िया अवसर नहीं मिलते और वे कार्यालयों में शीर्ष स्थान तक नहीं पहुंच पातीं।
अगर देश की बात करें तो मात्र 3.3 प्रतिशत महिलाएं ही महत्वपूर्ण पदों पर पहुंच पाती हैं। 17.7 प्रतिशत महिलाएं तो बीच की श्रेणी के पदों तक पहुंच पाती हैं। जबकि 78.9 प्रतिशत महिलाएं जूनियर स्तर तक ही रह जाती हैं। शहर में रहने वाली 66.33 प्रतिशत महिलाएं नौकरी करना चाहती हैं। जबकि 52.84 ग्रामीण महिलाएं घरेलू पत्नियां ही बने रहना चाहती हैं। शहरों में 29.95 प्रतिशत तथा महानगरों में 18.24 प्रतिशत महिलाएं नौकरी करना चाहती हैं। महानगरों में 16.91 प्रतिशत महिलाएं अपना व्यापार करना चाहती हैं जबकि शहरी इलाकों में यह प्रतिशत 3.72 प्रतिशत और ग्रामीण इलाकों में यह प्रतिशत 2.34 प्रतिशत है। नौकरी की संभावना बढने के बावजूद महानगरों की 17 प्रतिशत महिलाएं स्वरोजगार करना चाहती हैं। 42 प्रतिशत महिलाओं का मानना है कि वे पुरुषों की तरह दफ्तर में ज्यादा देर तक नहीं रह सकतीं। लोगों से सम्पर्क नहीं बना सकती। इसलिए उन्हें पदोन्नति नहीं मिल पाती और 34.66 प्रतिशत महिलाओं का मानना है कि वे पारिवारिक कारणों से पुरुष की तरह दौड-धूप नहीं कर सकतीं इसलिए वे नौकरी में पिछड जाती हैं। 22 प्रतिशत ग्रामीण महिलाएं पारिवारिक जिम्मेवारियों में फंस जाती हैं जबकि शहरों में 19 प्रतिशत तथा महानगरों में केवल 9 प्रतिशत महिलाएं पारिवारिक जिम्मेदारियों से बंधी हैं। इससे स्पष्ट है कि आधुनिक पुरुषप्रधान समाज में नारी को द्वितीय पंक्ति में रखा गया है। जब हम पुरुष और नारी में भेद नहीं करते हैं तो क्यों नहीं औरतों को प्रथम पंक्ति में रखते हैं।
महिलाओं को भी वे सभी अधिकार मिलने चाहिए जो पुरुषों को मिल रहे हैं। जहां तक क्षमता का सवाल है यह स्पष्ट हो चुका है कि महिलाएं प्रत्येक क्षेत्र में पुरुषों से आगे जा रही हैं, लेकिन हमारे समाज में नारी को वह स्थान नहीं दिया गया है, जो उसे मिलना चाहिए। समाज में नारी को पुरुष के साथ नीचे ओहदे पर रखा गया है, धारती पर आते ही लड़के और लड़की के मध्य अधिकांश परिवारों में भेद किया जाता है। लड़कियों की शिक्षा तथा विकास पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जाता है। यह सच है कि विगत कुछ दशकों की तुलना में वर्तमान समय में महिलाएं अधिकार संपन्न हुई हैं। पंचायत राज की विभिन्न स्तरीय संस्थाओं में आरक्षण मिल गया है। कुछ समय बाद लोकसभा और विधानसभाओं के चुनावों में भी आरक्षण मिल जाएगा, ऐसी आशा की जा रही है, लेकिन विगत कुछ वर्षों में महिलाओं पर हुए अत्याचार के आंकड़ों को देखा जाए तो सहज पता चल जाएगा कि महिलाओं की सुरक्षा कितना कठिन कार्य है। हमारा समाज नारी को वह स्थान नहीं दे पाया है, जो उसे मिलना चाहिए। आज महिलाओं के सामने असमानता सबसे बड़ी चुनौती है। नारी को इसके लिए अपनी चेतना को जगाना होगा। महिला उत्थान के लिए दो चीजें बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। महिलाओं के प्रति हमारे रुख में क्रांतिकारी परिवर्तन तथा पुरुष और नारी दोनों के लिए सार्वभौमिक शिक्षा। तभी हम नारी की स्थिति में परिवर्तन की आशा कर सकते हैं। औरतों पर हो रहे घटनाओं के कारणों की खोजकर अत्याचारियों को कडी से कड़ी सजा नहीं दी गई तो महिलाओं का वर्तमान और भविष्य अंधकारमय होता चला जाएगा।

हिंदू क्यों नहीं आतंकवादी हो सकता..........?


हिंदू क्यों नहीं आतंकवादी हो सकता?


मालेगांव, हैदराबाद, अजमेर और समझौता एक्सप्रेस में हुए बम विस्फोटों के सिलसिले में पिछले दिनों गिरफ्तार किए गए स्वामी असीमानंद, पूर्व में गिरफ्तार किए गए कर्नल श्रीकांत प्रसाद पुरोहित, साध्वी प्रज्ञा ठाकुर तथा इस सिलसिले में साजिश रचने के आरोपी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ नेता इंद्रेश कुमार के संदर्भ में प्रयुक्त हुए 'हिंदू आतंकवाद' शब्द पर संघ के सरसंघचालक मोहनराव भागवत से लेकर विश्व हिंदू परिषद के नेता अशोक सिंघल और भारतीय जनता पार्टी के नेता लालकृष्ण आडवाणी समेत संघी कुनबे के तमाम छोटे-बड़े नेताओं को गहरी आपत्ति है। ये नेता अपने कुछ कार्यकर्ताओं पर आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त होने के लगे आरोपों से इस कदर क्षुब्ध और बौखलाए हुए हैं कि वे इसे पूरे हिंदू समाज का अपमान और हिंदुओं के खिलाफ साजिश करार दे रहे हैं। इन नेताओं के इस कथन से तो निश्चित तौर पर कोई भी असहमत नहीं हो सकता कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता और आतंकवादी सिर्फ आतंकवादी ही होता है। लेकिन ऐसा कहने के साथ ही ये नेता जब अगली ही सांस में यह कहते हैं कि कोई भी हिंदू कभी आतंकवादी हो ही नहीं सकता तो उनका यह कथन सोचने पर मजबूर करता है। उनका यह कथन न सिर्फ उनके अपराध बोध का परिचय कराता है, बल्कि उनके पूर्व कथन का खोखलापन भी जाहिर करता है। क्योंकि जब वे यह कहते हैं कि कोई भी हिंदू कभी आतंकवादी नहीं हो सकता तो उनके इस कथन का निहितार्थ होता है कि कोई हिंदू तो आतंकवादी नहीं हो सकता, लेकिन कोई गैर हिंदू जरूर आतंकवादी हो सकता है, और जब आप कहते हैं कि कोई गैर हिंदू ही आतंकवादी हो सकता है तो फिर आपके यह कहने का क्या मतलब है कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता।


पिछले दिनों एक टीवी चैनल पर कथित हिंदू आतंकवाद के मुद्दे पर आयोजित बहस में शिरकत करते हुए भाजपा प्रवक्ता मुख्तार अब्बास नकवी भी फरमा रहे थे कि न तो कोई हिंदू और न ही भारतमाता का कोई सपूत कभी आतंकवादी हो सकता। नकवी या उनके जैसे जो भी लोग यह दावा करते हैं कि कोई हिंदू या भारतमाता का कोई सपूत कभी आतंकवादी नहीं हो सकता, उनसे यह सवाल पूछने का मन करता है कि जब कोई हिंदू किसी स्त्री के साथ बलात्कार कर सकता है, किसी की हत्या कर सकता है, चोरी कर सकता है, डाका डाल सकता है, लूटपाट कर सकता है, इसके अलावा और भी तमाम तरह के आपराधिक कृत्यों में लिप्त हो सकता है तो फिर वह आतंकवादी क्यों नहीं हो सकता? और फिर आखिर आतंकवाद किसे कहेंगे?

देश की आजादी के साथ ही हुए देश के बंटवारे के दौरान लाखों बेगुनाह हिंदुओं और मुसलमानों का कत्लेआम करने वाले क्या आतंकवादी न होकर शांति-दूत थे? बंटवारे के दौरान हुए उस खून-खराबे को आतंकवाद न भी माना जाए तो राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की निर्मम हत्या तो आजाद भारत की सबसे पहली और सबसे बड़ी आतंकवादी वारदात थी, जिसे अंजाम देने वाला वाला व्यक्ति कोई पाकिस्तान या फिलीस्तीन से नहीं आया था, बल्कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का यह स्वयंसेवक भी भारतमाता का ही एक भटका हुआ पूत था। नाथूराम गोडसे नामक यह स्वयंसेवक गांधी की हत्या के जरिए आतंक पैदा कर देश के बाकी नेताओं को यही तो संदेश देना चाहता था कि हिंदू-मुस्लिम मेलमिलाप की बात करने वालों वही हश्र होगा जो गांधी का हुआ है। लगभग डेढ़ दशक पंजाब ने खालिस्तान के नाम पर आतंकवाद की जिस दर्दनाक त्रासदी को झेला और जिसके चलते देश की प्रधानमंत्री को भी अपनी जान गंवानी पड़ी, उसे संघ परिवार क्या नाम देगा? उस आतंकवाद में शरीक नौजवान भी आखिर भारतमाता की बिगड़ैल संताने ही थीं। क्या मोहन भागवत, अशोक सिंघल, लालकृष्ण आडवाणी और उनकी ही 'राष्ट्रवादी' जमात के अन्य नेता इस हकीकत को नकार सकते हैं कि 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देशभर में हुई सिख विरोधी हिंसा, देश के बंटवारे के बाद की सबसे बड़ी त्रासदी थी। उस त्रासदी के दौरान भी असंख्य सिखों को जिंदा जलाने वालों और सिख महिलाओं के साथ बलात्कार करने वालों में ज्यादातर आरोपी हिंदू ही तो थे।

सवाल यह भी पूछा जा सकता है कि कोई दो दशक पूर्व ओडीसा में ग्राहम स्टेंस नामक निर्दोष बूढ़े पादरी और उसके मासूम बच्चों को जिंदा जलाने का कृत्य क्या आतंकवाद नहीं कहा जाएगा और उस कृत्य को अंजाम देने वाला बजरंग दल का पदाधिकारी दारासिंह क्या भारत से बाहर किसी दूसरे देश का नागरिक था? कोई दो वर्ष पूर्व ओडीसा में ही विश्व हिंदू परिषद के एक नेता लक्ष्मणानंद के नक्सलियों के हाथों मारे जाने की घटना का ठीकरा ईसाई मिशनरियों के माथे फोड़कर लगभग एक माह तक कंधमाल में हिंसा का तांडव मचाते हुए वहां रहने वाले सभी ईसाइयों के घरों और चर्चों को आग के हवाले कर डेढ़ सौ से भी ज्यादा लोगों को मौत के घाट उतार दिए जाने का समूचा घटनाक्रम किस तरह के राष्ट्रवाद से प्रेरित था? गुजरात में एक दशक पूर्व क्रिया की प्रतिक्रिया के नाम पर मुसलमानों का संगठित कत्लेआम क्या आतंकवादी कार्रवाई नहीं थी? उसी कत्लेआम के दौरान मुस्लिम समुदाय की कई गर्भवती स्त्रियों के गर्भ पर लातें मार-मार कर उनकी और उनके गर्भस्थ शिशुओं की हत्या कर देना किस तरह के मानव धर्म या राष्ट्रभक्ति से प्रेरित कृत्य था? शायद संघी कुनबे के भागवत, आडवाणी, सिंघल, नकवी आदि नेताओं की नजरों में किसी स्त्री के साथ बलात्कार या किसी को जिंदा जला देना आतंकवाद तो क्या सामान्य अपराध की श्रेणी में भी नहीं आता होगा। अगर आता तो वे यह बचकानी दलील कतई नहीं देते कि कोई हिंदू कभी आतंकवादी नहीं हो सकता। क्या यह अफसोस और ताज्जुब की बात नहीं है कि इस तरह के सारे शर्मनाक कृत्यों की आज तक संघ, भाजपा और विश्व हिंदू परिषद के किसी शीर्ष नेता ने औपचारिक रूप से निंदा तक नहीं की है।

खुद को राष्ट्रवाद का अलम्बरदार समझने वाले इन नेताओं को यहां यह याद दिलाना भी अप्रासंगिक नहीं होगा कि तमिलनाडु में सत्य मंगलम के जंगलों में लंबे समय तक आतंक का पर्याय रहा चंदन तस्कर वीरप्पन किसी दूसरे देश से भारत नहीं आया था और न ही वह मुस्लिम या ईसाई समुदाय से संबधित था। कोई चार दशक पूर्व चंबल घाटी में आतंक फैलाकर हजारों लोगों को लूटने और मौत के घाट उतारने वाले दस्युओं में भी कोई मुसलमान नहीं था। हमारे पड़ौसी देश श्रीलंका में ढाई दशक से भी ज्यादा समय तक लगातार खून-खराबा करते हुए लाखों लोगों को असमय ही मौत की नींद सुला देने वाला तमिल विद्रोहियों का संगठन लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम कोई मुसलमानों या ईसाइयों का नहीं बल्कि तमिल हिंदुओं का ही संगठन था और उसका सरगना प्रभाकरण भी एक हिंदू ही था। उसी संगठन के लोगों ने हमारे एक पूर्व प्रधानमंत्री की हत्या भी की। सीमा पार के पाकिस्तान पोषित आतंकवाद के साथ ही हमारा देश आज जिस एक और बड़ी चुनौती से जूझ रहा है वह है माओवादी आतंकवाद। देश के विभिन्न इलाकों में सक्रिय विभिन्न माओवादी संगठनों में अपवाद स्वरूप ही कोई मुस्लिम युवक होगा, अन्यथा सारे के सारे लड़ाके हिंदू ही हैं और सभी भारतमाता की ही भटकी हुई संताने हैं।

उपरोक्त सारे उदाहरण का आशय समूचे हिंदू समाज को लांछित या अपमानित करना कतई नहीं है। आशय तो सिर्फ यह बताना है कि चाहे वह गोडसे हो या दारासिंह, चाहे सिख विरोधी हिंसा के अपराधी हों या गुजरात के कातिल, चाहे वह चर्चों और ईसाइयों के घरों में आग लगाने वाले हों या माओवादी लड़ाके, सबके सब चाहे वे जिस जाति या संप्रदाय के हों, वे हैं तो भारत माता की भटकी हुई संतानें ही। स्वामी असीमानंद, कर्नल पुरोहित, साध्वी प्रज्ञा ठाकुर या इंडियन मुजाहिदीन और सिमी से जुड़े मुस्लिम नौजवान या पूर्वोत्तर में पृथक गोरखालैंड और बोडोलैंड के लिए संघर्षरत सभी लड़ाके भारतमाता की गुमराह की गई संताने ही हैं। इसलिए यह दंभोक्ति निहायत ही अतार्किक और बेमतलब है कि कोई हिंदू या भारतमाता की कोई संतान कभी आतंकवादी नहीं हो सकती।

लूटतंत्र में तब्दील होता गणतंत्र


26 जनवरी 1950 को जब मौजूदा संविधान को अंगीकार किया गया था, तब इसके निर्माताओं ने नहीं सोचा होगा कि जिस तंत्र पर इसे गण की भलाई के लिए लागू करने की जिम्मेदारी है, वही इसका सबसे अधिक दुरुपयोग करेगा। हमारा गणतंत्र साठ साल का हो गया है लेकिन इन छह दशकों में गणतंत्र लूटतंत्र में तब्दील हो चुका है। लोकतंत्र के चार स्तंभ हैं। विधायिका और कार्यपालिका बरसों पहले आम जन का विश्वास खो चुके हैं। पिछले कुछ सालों में मीडिया और न्यायपालिका पर भी गंभीर सवाल खड़े हुए हैं। इस समय भी कई जज साहेबान भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों की जद में हैं। देश के नेतृत्व को अपने दिल पर हाथ रखकर ईमानदारी से पूछना चाहिए कि क्या वह वास्तव में संविधान की मूल भावना का आदर कर पा रहा है? जिस तरह व्यवस्था में बैठे लोग और पूरा तंत्र भ्रष्टाचार में लिप्त है, उसके चलते क्या गणतंत्र दिवस मनाने का कोई औचित्य रह गया है? क्या इस गणतंत्र में गण की तंत्र को चिंता है?
पांच साल पहले 2005 में वाचडाग ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल ने एक सर्वे कराया। उसके नतीजे चौंकाने वाले हैं। इससे पता चलता है कि हमारा तंत्र किस कदर भ्रष्ट हो चुका है। उसमें पाया गया कि पचास प्रतिशत भारतीयों को अपने सही कार्य कराने के लिए भी सरकारी दफ्तरों में रिश्वत देनी पड़ती है। ट्रक वाले हर साल पुलिस और चुंगी अधिकारियों को 22 हजार पांच सौ करोड़ रुपये की रिश्वत देते हैं। लालफीतों में फंसी फाइलों को आगे सरकाने की एवज में छोटे से लेकर बड़े पदों पर बैठे नौकरशाह कुछ सौ रूपए से लेकर करोड़ों रुपयों तक की रिश्वत वसूलते हैं। मनरेगा, राशन कार्ड और इसी तरह की रोजमर्रा की जरूरतों के लिए गरीबों को भी भ्रष्ट तंत्र को रिश्वत देनी पड़ रही है। 2007 में भारत में हुए टीआई के सर्वेक्षण में यह बात सामने आई है कि गरीबी की रेखा से नीचे जीवन यापन करने वालों को भी मूलभूत और आवश्यकता आधारित सेवाएं पाने के लिए 900 करोड़ रुपये रिश्वत के तौर पर देने पड़े।
यह आज का कड़वा सच है कि मनरेगा जैसी योजनाओं के लिए केन्द्र से जारी होने वाला पैसा जरूरतमंदों के बजाय सफेदपोश नेताओं, ठेकेदारों और नौकरशाहों की तिजोरियों में पहुंच रहा है। प्रणब मुखर्जी कहते हैं कि करीब 16 हजार करोड़ रुपया विदेशी बैंकों में जमा है, लेकिन टीआई का दावा है कि भारत का विदेशी बैंकों में 462 अरब रुपया जमा है। हकीकत यह है कि राजनीति ही भ्रष्टाचार का पोषण करती रही है। सत्ता में बैठे लोग गैरकानूनी तरीकों से अपनी तिजोरियों को भरने में लगे हैं। आंकड़े बताते हैं कि भारत का दुनिया के अत्यंत भ्रष्ट देशों में 87वां स्थान है। भारत के अनेक राजनेता भ्रष्टाचार से सीधे तौर पर जुड़े हैं। आप यह जानकर हैरान होंगे कि 2009 के लोकसभा चुनाव में नेताओं ने प्रचार और दूसरे कार्यो पर करीब 10 हजार करोड़ रुपया खर्च किया है। उन्हें देश को बताना चाहिए कि उनके पास इतनी दौलत कहां से और कैसे आ रही है?
1964 में संतानम समिति ने टिप्पणी की थी कि ईमानदारी पर खरा नहीं उतरना मंत्रियों में असामान्य बात नहीं है। जो लोग पिछले सोलह साल (1947 से 63 तक) सत्ता में रहे हैं, उन्होंने गैरकानूनी तरीके से अपनी तिजोरियां भरी हैं। यह टिप्पणी बीसवीं सदी के सातवें दशक में आई थी, लेकिन आज इस इक्कीसवीं सदी के पहले दशक के अंत में हम कह सकते हैं कि तंत्र में बैठे लोग देश और देशवासियों की कतई परवाह नहीं करते और उन्हें जब भी, जहां भी मौका मिलता है-वे लूट में शामिल हो जाते हैं। विभिन्न मौकों पर कई नेताओं के नाम सामने आए हैं। लालू यादव और सुखराम जसे इक्का-दुक्का जेलों की हवा भी खा चुके हैं परन्तु अधिकांश का बाल भी बांका नहीं होता। कामनवेल्थ घोटाले में सुरेश कलमाड़ी एंड कंपनी का नाम जगजाहिर है लेकिन उन्हें कमेटी के अध्यक्ष पद से हटाए जाने का फैसला अब जाकर हुआ है।
देश में घपलों-घोटालों की लंबी फेहरिश्त है। 1991 में जालसाज अब्दुल करीब तेलगी हत्थे चढ़ा तो 43 हजार करोड़ के घोटाले का पर्दाफाश हुआ। उसने नकली स्टांप पेपर छपवाकर बैंकों, विदेशी निवेशकों, बीमा कंपनियों और शेयर बाजार के खिलाड़ियों को बेचने के लिए पूरा नेटवर्क खड़ा कर लिया था। तब शरद पवार और छगन भुजबल का नाम सामने आया लेकिन जल्दी ही दब भी गया। 2009 में सत्यम कंप्यूटर कंपनी में जालसाजी का मामला खुला। घोटाला हुआ 24 हजार करोड़ का। देश के इस सबसे बड़े कारपोरेट घोटाले के सूत्रधार बने रामलिंगा राजू, जिसके कई राजनेताओं से नजदीकी रिश्ते रहे हैं। 1987 में 64 करोड़ रुपये का बोफोर्स तोप घोटाला हुआ, जिसने राजीव गांधी सरकार की नींव हिलाकर रख दी। 1996 में 950 करोड़ रुपये का चारा घोटाला सामने आया, जिसमें बिहार के दो मुख्यमंत्रियों जगन्नाथ मिश्र और लालू प्रसाद यादव के नाम सामने आए। लालू को जेल भी जाना पड़ा।
1996 में ही 810 करोड़ रुपये का हवाला घोटाला सामने आया, जिसमें देश के अनेक जाने-माने नेताओं के नाम सामने आए। उससे पहले 1992 में हर्षद मेहता के 4000 करोड़ के प्रतिभूति घोटाले ने देश में तहलका मचाया था। 2000 में 32 करोड़ का यूटीआई घोटाला सामने आया। 2006 में 61 करोड़ रुपये का आईपीओ घोटाला, 2001 में 1350 करोड़ रुपये का म्युचुअल फंड घोटाला, 2009 में 4000 करोड़ रुपये का मधु कौड़ा घोटाला, 1995 में 1200 करोड़ रुपये का भंसाली घोटाला सामने आया, जिसने पूरे देश को शर्मसार किया। और इनके अलावा 2005 के तेल के बदले अनाज घोटाले, 2002 के होम ट्रेड घोटाला, 2000 के मैच फिक्सिंग , 1996 के यूरिया घोटाले, 1992 के इंडियन बैंक घोटाले, 1995 के झामुमो घूस कांड, 1996 के पल्प कांड और 1996 के ही दूरसंचार घोटाले को कैसे विस्मृत किया जा सकता है, जिसमें सुखराम को जेल की हवा भी खानी पड़ी है। इससे पहले 1974 में मारुति घोटाला, 1976 में कुआ तेल घोटाला, 1981 में अंतुले ट्रस्ट घोटाला, 1987 में एचडीडब्ल्यू दलाली और 1994 में चीनी आयात घोटाले भी सामने आ चुके हैं।
क्या इससे यह नहीं लगता कि हमारा लोकतंत्र और गणतंत्र पूरी तरह लूटतंत्र में तब्दील होता जा रहा है? कार्यपालिका और विधायिका से काफी पहले लोगों का विश्वास उठ चुका है-ले देकर मीडिया और न्यायपालिका पर भरोसा बना हुआ था, जो अब टूटता नजर आ रहा है। नीरा राडिया टैप कांड से साफ हो गया है कि देश मीडिया के जिन नामचीन चेहरों पर भरोसा करता रहा है, दरअसल वे खुद दूसरों के हाथों की कठपुतली बनकर काम करते हैं। हाल ही में भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश केजी बालकृष्णन के दामादों की संपत्तियों के संबंध में जो खुलासे हुए हैं, उससे तो देशवासी हिल गए हैं। जिस समय बालकृष्णन पद पर थे, उस समय उनके दामादों पर माया की बरसात हो रही थी। उन्होंने आय से अधिक संपत्ति अर्जित की और कई जमीनों के सौदे किए।

बाबा रामदेव की हिचकोले खाती नैया


कांग्रेस ने योग गुरु बाबा रामदेव से पूछा कि उनके पास इतना काला धन कहाँ से आया तो बाबा के समर्थक कांग्रेस के बहुत खिलाफ हो गए. लेकिन इस से कांग्रेसी रण नीतिकार बिलकुल भी चिंतिंत नहीं है. उनका विश्वास है कि रामदेव के भक्त लोग वैसे भी बीजेपी के साथ हे पाये जाते हैं. अभी तीन दिन पहले बाबा ने कहा था कहा था कि उनके पास कोई काला धन नहीं है. लेकिन अब सवाल उठ रहा है कि कि एक हज़ार करोड़ रूपये से ज्यादा की जो संपत्ति बाबा के पास है वह कहाँ से आई. अब बाबा खामोश हो गए हैं. लगता है कि उन्हें सरकार की ताक़त से कुछ डर लगने लगा है.
पिछले दिनों बाबा रामदेव ने भ्रष्टाचार और काले धन के खिलाफ अभियान चलाया था. देशके कुछ और नामी लोगों के साथ मिलकर उन्होंने बीजेपी की राजनीति की तरफ देश को मोड़ने की कोशिश भी की थी लेकिन कांग्रेस ने सब गुड गोबर कर दिया. पता चला है कि सर्वोच्च स्तर पर कांग्रेस ने तय कर लिया है कि बीजेपी की रामदेव रण नीति को फेल करना ज़रूरी है. जब आम तौर्र पर उलटे सीधे बयान देने के लिए विख्यात कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने बाबा की आमदनी के श्रोतों पर सवाल उठाया तो उनकी बात को गंभीरता से नहीं लिया गया लेकिन कई दिन हो चले हैं और कांग्रेस के किसी नेता ने दिग्विजय के बयानों का खंडन नहीं किया है. इस से लगता है कि रामदेव को एक्सपोज़ करने की रणनीति कांग्रेस ने राजनीतिक तौर पर लिया है. शायद इसीलिये पहले तीन दिन तक किसी भी जांच का सामना करने की शेखी बघारने के बाद बाबा बेचारे को औकात बोध हो गया है . शुरू में तो उन्हें उम्मीद थी कि जब उनके ऊपर राजनीतिक हमला होगा तो बीजेपी वाले संभाल लेगें लेकिन जब उन्हें बीजेपी की तरफ से कोई उत्साह वर्धक संकेत नहीं मिले तो वे घबडा गए हैं . और अब किसी तरह का बडबोला बयान नहीं दे रहे हैं. कांग्रेस ने कहा है कि “सरकार काले धन को लेकर गंभीर है और केंद्रीय वित्त मंत्री और प्रधानमंत्री इस मामले में कार्रवाई कर रहे हैं। बाबा रामदेव केवल कांग्रेस पर ही ध्यान लगाए हुए हैं। दूसरे दलों पर उनका ध्यान नहीं है। उन्हें विभिन्न स्रोतों से प्राप्त होने वाली दान-दक्षिणा को सत्यापित करना चाहिए।”
जब सरकार की तरफ से इतना साफ़ बयान आ जाये तो कोई भी पूंजीपति घबडा जाएगा. बाबा तो बेचारे पिछले १० साल से पैसा देख रहे हैं. घाघ पूंजीपतियों वाले हथकंडे उन्हें नहीं आते. नतीजा यह हुआ कि अब वकीलों से राय सलाह कर रहे हैं और किसी तरह से जान बचाने की रणनीति पर काम कर रहे हैं. जहां तक बाबा की संपत्ति का सवाल है ,उसके बारे में साफ़ तौर पर कहा जा सकता है कि वे दुनिया के सबसे संपन्न बाबाओं में से एक हैं .एक नज़र उनकी संपत्ति पर डाल लेना ठीक होगा.
बाबा की संपत्ति के अंतर्गत पतंजलि योगपीठ, स्कॉटलैंड में रिट्रीट लैंड, धार्मिक टीवी चैनल में ट्रस्ट की हिस्सेदारी, दिव्य योग मंदिर, दिव्य फॉर्मेसी, कृपालु बाग, दिव्य योग आश्रम, पतंजलि योग विश्वविद्यालय, पतंजलि हर्बल, हर्बल वाटिका व आयुर्वेदिक चिकित्सा और अनुसंधान संस्थान हैं। बाबा रामदेव के मुताबिक उनकी इस संपत्ति की कीमत एक हजार करोड़ रुपए के करीब है।
हाल ही में बाबा रामदेव ने टेलीविजन चैनलों को विशेष इंटरव्‍यू में दावा किया था कि उनके पास कई राजनेताओं के खिलाफ पुख्‍ता सबूत हैं। उनके पास नेताओं के खिलाफ किए गए स्टिंग ऑपरेशन के वीडियो हैं। आवाज़ की रिकॉर्डिंग हैं और ऐसे बहुत सारे सबूत हैं, जो भ्रष्‍ट नेताओं की पोल खोल सकते हैं। बाबा ने तब यह भी कहा था कि वो जल्‍द ही एक-एक कर खुलासे करेंगे। जहां तक देश की जनता का सवाल है उसे बाबा रामदेव के पिटारे के खुलने का इंतजार रहेगा लेकिन बाबा के ताज़ा रुख से लगता है कि वे औकात से ज्यादा बडबोलापन कर गए हैं और सत्ता का रथ उनको कुचल देने के लिए चल पड़ा है. ऐसी हालत में बीजेपी भी उनके साथ नहीं खडी होगी क्योंकि उसे पता नहीं है कि बाबा के आने से फायदा कितना होगा लेकिन अगर एक विवादित बाबा के साथ खड़े पाए गए तो नुकसान बहुत ज्यादा होगा.