मुझे दण्ड सुना दिया गया है और फाँसी का आदेश हुआ है। इन कोठारियों में मेरे अतिरिक्त फाँसी की प्रतीक्षा करने वाले बहुत-से अपराधी है। ये लोग यही प्रार्थना कर रहे हैं कि किसी तरह फाँसी से बच जाएँ, परन्तु उनके बीच शायद मैं ही एक ऐसा आदमी हूँ जो बड़ी बेताबी से उस दिन की प्रतीक्षा कर रहा हूँ जब मुझे अपने आदर्श के लिए फाँसी के फन्दे पर झूलने का सौभाग्य प्राप्त होगा। मैं खुशी के साथ फाँसी के तख्ते पर चढ़कर दुनिया को दिखा दूँगा कि क्रान्तिकारी अपने आदर्शों के लिए कितनी वीरता से बलिदान दे सकते हैं। मुझे फाँसी का दण्ड मिला है किन्तु तुम्हें आजीवन कारावास का दण्ड मिला है। तुम जीवित रहोगे और तुम्हें जीवित रहकर दुनिया को दिखाना है कि क्रान्तिकारी अपने आदर्शों के लिए मर ही नहीं सकते बल्कि जीवित रहकर हर मुसीबत का मुकाबला भी कर सकते हैं। मृत्यु सांसारिक कठिनाइयों से मुक्ति प्राप्त करने का साधन नहीं बननी चाहिए, बल्कि जो क्रान्तिकारी संयोगवश फाँसी के फंदे से बच गये हैं उन्हें जीवित रहकर दुनिया को यह दिखा देना चाहिए कि वे न केवल अपने आदर्शों के लिए फाँसी पर चढ़ सकते हैं, वरन् जेलों की अंधकारपूर्ण छोटी कोठरियों में भी घुल-घुलकर निकृष्टतम दरजे के अत्याचार को भी सहन कर सकते हैं। भगत सिंह ने उक्त विचार अपने उस पत्र में प्रकृट किये थे, जो उन्होंने नवम्बर 1930 में श्री बटुकेश्वर दत्त को लिखा था। श्री दत्त तब मुलतान जेल में थे।
भूमिका
सन् 1919 में जब मैं केवल सात वर्ष का था, तब मैंने गांधी जी की उँगली पकड़ी थी, आज तक पकडे हुए हूँ। इसका मतलब यह नहीं है कि मेरा उनकी कार्य-प्रणाली को लेकर मतभेद नहीं हुआ। मैंने उनको पत्र भी लिखे थे। दुर्भाग्य से दो पत्र कहीं खो गए हैं, तीसरा पत्र उनके मंत्री का लिखा हुआ है, वह आज भी मेरे पास सुरक्षित है।
फिर भी सभी जानते थे कि मैं गांधी जी की नीति का समर्थक हूँ। इसलिए जब मैंने सन् 1976 में हिंद पॉकेट बुक्स के लिए अमर शहीद भगतसिंह की जीवनी लिखी, तो गांधी नीति के उपासक मित्र बड़े नाराज हुए। लेकिन ऐसे भी व्यक्ति थे, जो बहुत प्रसन्न हुए। जेल से मुझे एक पत्र मिला था, जिसमें एक गांधी-भक्त युवक ने मुझे यह पुस्तक लिखने के लिए धन्यवाद दिया था। इस जीवनी में मैंने यह प्रमाणित करने के लिए कि क्रान्तिकारियों में भी कुछ ऐसे लोग थे, जिन्होंने भगतसिंह को बदनाम करने के लिए उन पर झूठे लांछन लगाए थे, उदाहरण के रूप में एक घटना का वर्णन किया था। उसे पढ़कर भगतसिंह के एक अंतरंग मित्र श्री जयदेव गुप्त बहुत नाराज हुए। संयोग ऐसा हुआ कि वह मेरे दूर के रिश्ते से रिश्तेदार भी निकले। उन्होंने मुझे कई पत्र लिखे, जिनमें उन्होंने विशेष रूप से उस बात पर बल दिया कि आपने ऐसा लिखा ही क्यों ? ऐसा लगता है कि कहीं-न-कहीं आप अपने मन में उस अपवाद की सच्चाई को स्वीकार करते हैं। श्रद्धेय दुर्गा भाभी भी नाराज हुई। मैंने अपनी बात समझाने की पूरी कोशिश की, पर वह इस बात पर अडिग रहे कि इस किताब को वापस लिया जाए।
मैंने किताब तो वापस नहीं ली, पर उनसे यह अवश्य कह दिया कि अगले संस्करण में मैं इस अंश को अवश्य निकाल दूँगा। और जब मेरी रचनाओं की ग्रंथावली प्रकाशित हुई तो मैंने शहीद भगतसिंह जी की जीवनी में से उस प्रसंग को निकाल दिया।
काकोरी काण्ड के सुप्रसिद्ध क्रान्तिकारी और साहित्यकार हमारे मित्र श्री मन्मथनाथ गुप्त भी कई कारणों से बहुत नाराज हुए। उनमें एक कारण चौरा-चौरी काण्ड को लेकर था। लेकिन मैंने उनसे स्पष्ट कह दिया था कि हममें इन घटनाओं को लेकर मतभेद है, वह स्वाभाविक है, लेकिन इस कारण मैं अपनी राय नहीं बदलूँगा।
एक और बात को लेकर बहुत ऊहापोह मचा। गांधी जी के विरोधी बराबर यह मानते रहे कि गांधी-इरविन समझौते के समय गांधी जी चाहते तो भगतसिंह को बचा सकते थे।
मैंने इस बात का स्पष्टीकरण करते हुए इस जीवनी में लिखा है कि गांधी जी ने उनको बचाने के लिए प्रयत्न किया था, लेकिन अपने निजी रूप में किया था। कांग्रेस ने उनको यह अधिकार नहीं दिया था। अपनी स्थापना के पक्ष में मैंने गांधी जी का पत्र उद्धृत किया था। वह पत्र गांधी वाङ्मय में भाग 45 में संकलित है। पाठक उस पत्र को इस संक्षिप्त जीवनी में पढ़ेंगे ही। यहाँ मैं उसके दो-तीन अंश देना चाहूँगा। 23 मार्च, 1931 के इस पत्र में उन्होंने लिखा था-’’ जनमत, वह सही हो या गलत, सजा में रियासत चाहता है। जब कोई सिद्धांत दाँव पर न हो, तो लोकमत का मान करना हमारा कर्तव्य हो जाता है।
‘‘प्रस्तुत मामले में स्थिति ऐसी होती है। यदि सजा हल्की हो जाती है तो बहुत संभव है कि आंतरिक शांति की स्थापना में सहायता मिले। यदि मौत की सजा दी गई तो निःसंदेह शांति खतरे में पड़ जाएगी।
‘‘चूँकि आप शांति स्थापना के लिए मेरे प्रभाव को, जैसे भी वह है, उपयोगी समझते प्रतीत होते हैं। इसलिए अकारण ही मेरी स्थिति को भविष्य के लिए और ज्यादा कठिन न बनाइए। यूँ ही वह कुछ सरल नहीं है।
‘‘मौत की सजा पर अमल हो जाने के बाद वह कदम वापस नहीं लिया जा सकता। यदि आप सोचते हैं कि फैसले में थोड़ी भी गुंजाइश है, तो मैं आपसे यह प्रार्थना करूँगा कि इस सजा को, जिसे फिर वापस लिया जा सकता, आगे और विचार करने के लिए स्थगित कर दें।
‘‘दया कभी निष्फल नहीं जाती।’’
इस संबंध में एक और बात पर भी विस्तार करना आवश्यक है। भगतसिंह स्वयं फाँसी के तख्ते पर चढ़ने का निश्चय कर चुके थे। 20 मार्च, 1931 को उन्होंने सरकार को जो पत्र लिखा था, उसने मुक्ति की आशा को अंतिम रूप से समाप्त कर दिया। उनके साथी क्रांतिकारी विजयकुमार सिन्हा ने लिखा है।-‘‘सारा देश तो सरदार को बचाने की चेष्टा कर रहा था, पर वह स्वयं बलिवेदी पर चढ़ना चाहते थे। उनका कहना था कि क्रांति की अधिक सेवा शहादत के द्वारा ही कर सकूँगा।’’1
इस सबकी विस्तृत चर्चा इस जीवनी में पढ़ने को मिलेगी। बहुत-से लोगों ने अपनी-अपनी दृष्टि से इस घटना पर विचार किया है। अधिकतर लोग गांधी जी को ही दोष देते हैं। लेकिन क्रांतिकारी श्री भगवानसिंह माहौर ने अपनी पुस्तक ‘आत्मालोचन’ में इस स्थिति का बड़ी गंभीरता और तटस्थता के साथ अवलोकन किया है। उन्होंने श्री शचीन्द्रनाथ सान्याल के ‘बंदी जीवन’ से उद्धरण देते हुए लिखा है-‘‘गांधी जी के नेतृत्व में इस असहयोग और अहिंसात्मक सत्याग्रह के आंदोलन से देश के कोने-कोने में, जन-जन में व्यापक राजनीतिक चेतना फैली और जन-जन उसमें भाग ले सका।
क्रांतिकारियों ने महा्त्मा गांधी और उनके इस अहिंसात्मक आंदोलन के प्रभाव की भूरि-भूरि सराहना की है। इससे राजनीतिक चेतना और स्वराज के लिए त्याग और बलिदान की भावना का जनता में व्यापक प्रसार हुआ, जिसके आधार पर जनक्रांति हो सकती है।’’2
का. शिव वर्मा भी इससे सहमत थे। माहौर और आगे लिखते हैं, ‘‘अंतिम परिणाम को देखते हुए वस्तुनिष्ठ दृष्टि से आज यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि महात्मा गांधी ने अन्य सभी की चालों का अंदाजा लगाकर जो अपनी चालें चलीं उनसे जनशक्ति का उत्तरोत्तर विकास हुआ और उन पर गांधी जी ने कारगर नियंत्रण रखा। ऐसा नियंत्रण कि जनशक्ति का कोई विस्फोट असमय ही न हो जाए, और उस प्रकार आततायी सरकार के दमन से वह पराजित व
विनष्ट न हो जाए। इसलिए ही गांधी जी समय-समय पर आंदोलनों को रोकते रहे, स्थगित करते रहे, और ब्रिटिश सरकार से समझौते भी करते रहे, और इन सबके लिए स्वयं अपने अनुयासियों और अन्य उग्र संघर्षवादी लोगों की आलोचनाओं को भी विचलित हुए बिना सुनते रहे। इस प्रकार विकसित और सुनियंत्रित जनशक्ति का उन्होंने यथा अवसर उपयोग किया और अन्ततः भारत को स्वतंत्र करवाया।’’1
वे क्रांग्रेस का इतिहास, भाग दो, पृष्ठ 156 पर दिए गए उनके वक्तव्य को उद्धृत करते हैं-‘‘मुक्ति के उत्सुक देशभक्त, यदि मैं उनका पथ-प्रदर्शन करता रहूँ, तो अहिंसात्मक तरीके से लड़ते रहेंगे, और यदि कहीं मैं अपने इस प्रयत्न में असफल रहा और अपनी आहुति दे बैठा तो वे हिंसात्मक उपायों से भी लड़ेंगे।’’
गांधी जी ने दूसरे लोगों से, जिनमें क्रांतिकारी भी थे, स्पष्ट कहा था-‘‘अवश्यक ही मैं तो मरूँगा, तब भी मेरी जुबान पर अहिंसा ही होगी। लेकिन मैं जिन मायनों में बँधा हुआ हूँ, आप नहीं बँधे। इसलिए आपको अधिकार है कि आप दूसरे कार्यक्रम बनाकर देश को आजाद करा लें।’’2
इस सबकी विस्तार से चर्चा करते हुए माहौर इस निर्णय पर पहुँचते हैं-‘‘इस प्रकार देखते हैं कि महात्मा गांधी की अहिंसा और क्रांतिकारियों के गुप्त सशस्त्र प्रयास भारतीय स्वातंत्र्य संघर्ष की कैंची के दो फलकों की तरह रहे हैं। इसमें संदेह नहीं कि कांग्रेस की ओर से स्वतंत्रता-प्राप्ति का सारा श्रेय स्वयं ही हड़प लेने का और क्रांतिकारियों की उपेक्षा का प्रयास हुआ, जो जनता को ग्राह्य नहीं हुआ। अतः इसका परिणाम न तो एक राजनीतिक दल के रूप में स्वयं कांग्रेस के हित में ही अच्छा हुआ, न समस्त देश की प्रगति के लिए ही.....यह बात अब धीरे-धीरे सभी की समझ में आ रही है और दिख रहा है कि अब क्रांतिकारी शहीदों की उपेक्षा करना कांग्रेस की नीति नहीं है। जनता के हृदय में तो महात्मा गांधी और क्रांतिकारी शहीदों के प्रति सदैव समान श्रद्धा और पुण्यभाव रहा है।’’4
माहौर के इस विश्लेषण से भी किसी का मतभेद हो सकता है, पर इसमें कोई संदेह नहीं कि जिस ईमानदारी से माहौर ने यह विश्लेषण किया है वह अनेक दृष्टियों से सराहनीय है। आरोप और प्रत्यारोपों से बचकर उन्होंने समस्या को देखने का जैसा प्रयत्न किया है, वैसा बहुत कम लोगों ने किया है। उन्होंने इस छोटी-सी पुस्तक में अपने और भी अनुभव लिखे हैं। वे भी इस समस्या को सुलझाने में सहायक हो सकते हैं।
क्रांतिकारियों की बहुत-सी बातों को लेकर बहुत मतभेद रहा है। इस संबंध में मैं अनेक क्रांतिकारियों से मिला, उनमें प्रमुख थे-श्री बटुकेश्वर दत्त, श्री मन्मथनाथ गुप्त, श्री भगवान सिंह माहौर, विजयकुमार सिन्हा, पंडित परमानंद, श्री यशपाल और उनका परिवार, आदि-आदि। शहीद सुखदेव के छोटे भाई मथरादास थापर से मेरा गहरा परिचय हुआ। उनसे बहुत जानकारी
1. आत्मालोचन, पृष्ठ 11
2. कांग्रेस का इतिहास, भाग दो, पृष्ठ 188
3. आत्मालोचन, पृष्ठ 14-15
मिली। उनके पास दुर्लभ दस्तावेज भी मैंने देखे। वे सब उन्होंने अरकाइज को दे दिए थे। उन्होंने अपने भाई की बहुत सुन्दर जीवनी भी लिखी थी। वही तो अपने भाई के पत्र लेकर गांधी जी के पास गए थे। लेकिन उनकी बातों को लेकर भी काफी मतभेद सामने आया, विशेषकर शहीद चंद्रशेखर की मृत्यु को लेकर। और भगतसिंह जी की माता जी कौन हैं, इस बात को लेकर भी मुझे कुछ लोगों ने अलग-अलग बातें बताईं। मुझे अभी तक पुष्ट प्रमाण नहीं मिल सका, इसलिए मैं निश्चित रूप से कुछ नहीं कह सकता। कुछ लोगों का मानना है कि भगतसिंह श्रीमती विद्यावती जी के पुत्र नहीं थे1, बल्कि उनसे पहले सरदार किशनसिंह जी की एक और पत्नी थी। उसके दो पुत्र और एक पुत्री उत्पन्न हुई। एक पुत्र की मृत्यु हो गई। भगतसिंह और उनकी बहन ये दोनों जिंदा रहे।
और भी ऐसी ही कुछ बातें हैं, उनको लेकर शिव दा से भी पत्र-व्यवहार हुआ और और कुछ बातें सुलझीं भी। उन्होंने 25-7-86 के पत्र में स्पष्ट किया था-‘‘आपका यह कहना सही है कि आजकल क्रांतिकारियों के बारे में बहुत कुछ लिखा जा रहा है और इसमें बहुत-सी बातें परस्पर विरोधी हैं। इनमें कुछ तो ऐसे लोग हैं, जिनका क्रांतिकारी आंदोलन से कभी कोई संबंध नहीं था और अगर था भी तो नाममात्र का। ये लोग अब अपने आपको आजाद या भगतसिंह का विश्वस्त पात्र बतलाकर अगली कतारों में होने का दावा करते हैं और उसे साबित करने के लिए कहानियाँ गढ़कर प्रसारित करते हैं। ऐसी कहानियों में परस्पर-विरोध तो होगा ही। दूसरी श्रेणी में हमारे कुछ क्रांतिकारी साथी हैं, जिनकी भूमिका तो थी लेकिन कम। इनमें जिसकी भूमिका जितनी कम थी, वह अपने रोल को उतना ही बढ़ा-चढ़ा कर लिख रहा है। नुकसान इन साथियों से ज्यादा हुआ है, क्योंकि वे साधिकार बोलने का दावा कर सकते हैं। काशीराम, नंदकिशोर निगम, सुखदेव राज, पूरनचंद्र सनक आदि ऐसे ही लेखक हैं। इनमें से किसी ने भी रिकार्ड्स देखने की तकलीफ जानबूझकर गवारा नहीं की। आजाद के लाहौर से निकलने के बारे में रिकार्ड पर तारीख, टिकट नंबर और किसके साथ कैसे निकले, सब मौजूद है। इसके अलावा पंडित किशोरीलाल, जो सुखदेव की माँ के साथ दिल्ली तक उन्हें पहुँचाने आए थे, जीवित हैं। उनसे पूछ सकते थे। लेकिन वैसा करने से तिलिस्मी कहानी बिगड़ जाती। भूमिगत जीवन के कुछ नियम होते हैं, जिनका उल्लंघन करने के मानी होते हैं, जानबूझकर मुसीबत मोल लेना। इन साथियों ने कहानियाँ गढ़ते समय उन नियमों को भी नजरअंदाज किया।
‘‘इन सभी बातों पर लिखने बैठूँ तो अलग से एक मोटा ग्रंथ बन जाएगा। यह काम शोधकर्ताओं का है। मेरी भी इच्छा है कि इन सब बातों पर लिखूँ। लेकिन इससे पहले लाइन में और कई किताबें खड़ी हैं। उनसे फुरसत मिली तो कोशिश करूँगा।’’
इस बात का कोई महत्त्व नहीं है कि असैम्बली में दोनों बम भगतसिंह ने फेंके थे, या एक उन्होंने और दूसरा बटुकेश्वर दत्त ने। पर इसको लेकर कुछ क्षेत्रों में मतभेद चलता रहा। मैं श्री बटुकेश्वर दत्त से कनखल में वहाँ के कांग्रेसी नेता पंडित रामचंद्र वैद्य जी के घर मिला था। वैद्य भगतसिंह के भाई श्री कुलतार सिंह से मालूम हुआ है कि सरदार भगतसिंह पहली पत्नी के नहीं, श्रीमती विद्यावती के पुत्र थे।
जी का देहांत हो चुका था, पर उनकी पत्नी उनकी देख-भाल कर रही थीं। ‘विश्ववाणी’ में वह लिखा करते थे, मैं भी लिखता था। मुझे आश्चर्य हुआ जब उन्होंने मिलते ही पूछा कि ‘‘क्या तुम वही विष्णु प्रभाकर हो जो विश्ववाणी में कहानियाँ, नाटक और लेख लिखते हैं ?’’
मैंने हँसकर उत्तर दिया, ‘‘ जी हाँ, मैं वहीं हूँ और आपके गद्य काव्य भी मैंने पढ़े है ?’’
तब अचानक मैंने उनसे पूछा था कि ‘‘क्या असैम्बली में दोनों बम भगतसिंह ने फेंके थे, या आप दोनों ने एक-एक बम फेंका था ?’’
वह हँस पड़े और बोले-‘‘लोग व्यर्थ की बातों में उलझे रहते हैं। क्या फर्क पड़ता है कि बम किसने फेंके, किसने नहीं। सच बात तो यह है कि दोनों बम भगतसिंह ने फेंके थे, मैं तो पर्चे फेंक रहा था।’’
सॉण्डर्स-वध के बाद ये सब लोग वहाँ से कैसे निकले, उस बात को लेकर भी स्वयं क्रांतिकारियों ने अलग-अलग बात कही है। चंद्रशेखर को किसी ने एक सण्ड-मुसण्ड साधु के रूप में यात्रा करते हुए दिखाया है, किसी ने खड़ताल बजाते हुए, भजन गाते हुए निकलने की बात कही है। रोचक कहानियाँ भी गढ़ी गई हैं। किसी ने कहा है कि सरदार को किशनसिंह की पत्नी विद्यावती निकालकर ले गई थीं। लेकिन जो सच बात है वह मैंने इस जीवनी में लिखी है। भगतसिंह के कलकत्ता जाने के पाँच दिन बात सुखदेव की माता श्रीमति रल्लीदेवी तथा बहन के साथ वे मथुरा1 गए। यह बात मुझे सुखदेव के छोटे भाई श्री मथुरादास थापर तथा श्री शिव वर्मा से मालूम हुई। बाद में सुप्रसिद्ध साहित्यकार के रूप में प्रख्यात होने वाले श्री यशपाल के बारे में भी बहुत-सी बातें कही जाती हैं। क्रांतिकारी मित्रों ने भी इन बातों की ओर ध्यान नहीं दिया। प्रथम दृष्टि में ये बातें बहुत साधारण मालूम होती हैं, लेकिन आगे चलकर ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत गलतफहमी पैदा हो सकती है।
जैसा मैंने कहा, मैं तो गांधी-नीति का समर्थक था और हूँ, पर क्रांतिकारियों की देशभक्ति और उनकी हँसते-हँसते प्राण देने की कामना का मैं सदा प्रशंसक रहा। जो मौत से नहीं डरता वह सचमुच मनुष्य है। गांधी जी और क्रांतिकारियों के मार्ग अलग-अलग थे, लेकिन क्रांतिकारियों की भावनाओं को कांग्रेस और गांधी जी ने भी समझा था, और कराची कांग्रेस में जो शोक-प्रस्ताव पारित किया गया उससे इस बात की पुष्टि होती है। राजनीतिक हिंसा का समर्थन न करते हुए भी क्रांतिकारियों के बलिदान और बहादुरी की प्रशंसा की गई थी।
यह सब मैंने इस संक्षिप्त जीवनी में लिपिबद्ध किया है, फिर भी बहुत-से लोगों ने गांधी जी के प्रति न जाने क्या-क्या कहा, पर इसमें संदेह नहीं कि मार्ग भिन्न होने पर भी गांधी जी ने उनकी देशभक्ति पर कभी शंका नहीं की।
ये और इस तरह की और भी बातें थीं, जिन पर ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करके उनका सही रुप सामने लाने का प्रयत्न किया जाना चाहिए था। इस उद्देश्य को लेकर मैंने भगतसिंह के युग के अनेक क्रांतिकारियों से बाते कीं। श्री शिव वर्मा ने इस ओर काफी प्रयत्न किया। विजय कुमार सिन्हा ने भी मुझसे कहा था कि मैं इन बातों के बारे में लिख रहा हूँ, लेकिन कहीं दिल्ली भी लिखा है.
उनका लिखा सामने नहीं आया। भगवानदास माहौर ने मेरी बातें बड़े ध्यान से सुनीं, फिर बोले, ‘‘विष्णु जी, अब इन बातों के बारे में चर्चा करने से क्या लाभ होगा ! बहुत-से लोगों ने अपना महत्त्व सिद्ध करने के लिए अधिकारपूर्वक बहुत-सी बातें कही हैं।’’
झाँसी के सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी पंडित परमानंद से दिल्ली में बहुत बार मिलना हुआ, वह मेरे घर भी आए, झाँसी भी उन्होंने बुलाया। वह गांधी जी के आश्रम में बहुत दिन रहे। मैं उनसे कहता, ‘‘पंडित जी, आप उस युग के संस्मरण क्यों नहीं लिखते ? गांधी जी के बारे में भी आप बहुत कुछ लिख सकते हैं।’’ वह अक्सर सस्ता साहित्य मण्डल में आते थे। यशपाल जैन और मैंने उनको कापी भी लाकर दी थी। पर वह नहीं लिख सके। हँस कर कह देते-‘‘मैं गांधी जी से कहा करता था कि गांधी जी, आप सत्याग्रही हैं और मैं हत्याग्रही। गांधी जी हँस पड़ते थे।’’
गांधी जी के आश्रम में बहुत-से क्रांतिकारी जाकर रहे हैं, लेकिन गांधी जी ने सरकार से स्पष्ट कह दिया था कि ‘‘मैं तुम्हारा मुखबिर नहीं हूँ। मेरे आश्रम में कौन-कौन आकर रहता है, यह मैं तुम्हें कभी नहीं बताऊँगा।’’
मैं जो चाहता था, वह नहीं हो सका। अंत में परमानंद जी ने मुझसे धीरे से कहा, ‘‘विष्णु जी, आप हमारा उद्धार कर सकते हैं।’’ पृथ्वीसिंह ने भी कुछ ऐसी ही बात कही थी। मैं उनका अर्थ समझ गया, परंतु मेरे पास इतना समय कहाँ रह गया था कि मैं उनकी आज्ञा का पालन कर सकता ! लेकिन मुझे इस बात की खुशी है कि श्री भगवानदास माहौर ने अपनी छोटी-सी पुस्तक ‘आत्मालोचन’ में संक्षिप्त रूप में ही सही, उस युग का विश्लेषण बहुत तटस्थ भाव से किया है। उनके और परमानंद जी के संबंधों का भी उसमें अच्छा वितरण मिलता है।
शिव वर्मा ने कानपुर में क्रांतिकारी आंदोलन के संबंध में जो शहीद-स्मारक बनाया है, उसमें जो बहुत बहुमूल्य सामग्री एकत्रित की है, उसका अध्ययन करके भी एक सीमा तक प्रामाणिक इतिहास प्रस्तुत किया जा सकता है। और रोचक प्रसंगों की तो कोई कमी ही नहीं है। उन प्रसंगों के पीछे क्रांतिकारी आंदोलन की रूपरेखा स्पष्ट दिखाई देती है, बस उसको आकार देना है, लेकिन उसके लिए पूर्वाग्रहों से मुक्त होना होगा और सहानुभूतिपूर्वक सब विचार-धाराओं का विश्लेषण करना होगा। दुर्भाग्य से इस देश में ऐसे व्यक्तियों की बहुत कमी है। सब अपना-अपना झण्डा उठाए, दूसरे के झण्डे को गिराने की चेष्टा में लगे रहते हैं; लेकिन सच यह है कि जो दूसरे की माँ को प्यार नहीं कर सकता, वह अपनी माँ को भी प्यार नहीं कर सकता। इस बात की सच्चाई को स्वीकार करने के बाद यदि हम कुछ कर सकें तो वह सचमुच करने योग्य होगा।
एक और बात है, जनतंत्र में सबको अपनी बात कहने का पूरा अधिकार है, लेकिन वह अधिकार किसी क्रांतिकारी को ‘आतंकवादी’ कहने की छूट नहीं देता, और अहिंसा के पथ पर चलने वालों को कायर। इतिहास साक्षी है कि अंहिसा के पथ पर चलते हुए, कितने शहीदों ने, पुरुषों ने और स्त्रियों ने, हँसते-हँसते मृत्यु का वरण किया है। जो हँसते-हँसते देश की मुक्ति के लिए या कमजोर की रक्षा के लिए किसी भी रूप में मृत्यु का वरण करता है, वह सचमुच मृत्युंजय है।
-विष्णु प्रभाकर
शहीद भगतसिंह
पूत के पाँव
हर क्षण असंख्य व्यक्ति जन्म लेते हैं, पर कुछ होते हैं कि उस क्षण को अमर कर देते हैं। अपने जन्म के क्षण को अमर कर देने वाला एक ऐसी ही बालक जिला लायलपुर (अब पाकिस्तान में) के एक गाँव, बंगा में पैदा हुआ उसके पैदा होते ही उसके चाचा सरदार अजीतसिंह का निर्वासन समाप्त होने की सूचना मिली। उसी दिन उसके पिता सरदार किशनसिंह और छोटे चाचा सरदार स्वर्णँसिंह जेल से मुक्त हुए।
सभी ने प्यार से उसे ‘भागोंवाला’ (भाग्यवान) कहकर पुकारा और दादी ने उसे नाम दिया ‘भगतसिंह’। और वह अमर होने वाला क्षण था आश्विन शुक्ल श्रयोदशी, संवत् 1964 विक्रमी तदनुसार 28 सिंतबर 1907, शनिवार, प्रातः लगभग 9 बजे का।
प्यार-दुलार में वह बड़ा हुआ। होगा कोई ढाई-तीन वर्ष का। पिता के साथ एक दिन जा पहुँचा खेत पर। पिताजी देख रहे थे आम के पौधों को, जो तभी रोपे जा रहे थे। पुत्र ने भी देखादेखी तिनके उठा-उठाकर रोपने शुरू कर दिए। प्यार से पिताजी ने पूछा, ‘‘क्या कर रहे हो, बेटा ?’’
उत्तर मिला, ‘‘बंदूकें बो रहा हूँ।’’
सुनने वाले सभी हँस पड़े थे, पर काल मन-ही-मन मुस्करा रहा था। देख रहा था कि जिसके जन्म पर परिजन मुक्त हुए हैं, वह सचमुच देश की मुक्ति का व्रत लेकर जन्मा है और उसके लिए वह मुक्ति बंदूक के माध्यम से होने वाली है। इन घटनाओं को संयोग कहकर टाला जा सकता है, पर कभी-कभी ये संयोग बड़े अर्थगर्भित होते हैं और आने वाली घटनाओं के सूचक भी।
ये दोनों घटनाएँ ऐसी ही थीं और मात्र भावना के कारण ही ऐसा नहीं थीं। जिस परिवार में भगतसिंह ने जन्म लिया था, जिस परिवेश में वे पनपे और पले, वे सब भी तो इसी धारणा को पुष्ट करते हैं। राष्ट्रीयता और देशभक्ति से ओत-प्रोत था उनका पूरा परिवार, उनका पूरा परिवेश, इसलिए तो पिता पर और चाचाओं पर तत्कालीन सरकार की कृपादृष्टि थी।
उनके दादा थे सरदार अर्जुनसिंह। निराला व्यक्तित्व था उनका। जन्म लिया सिख परिवार में और हो गए आर्यसमाजी। वह भी स्वयं आर्यसमाज प्रवर्तक स्वामी दयानंद सरस्वती से दीक्षा लेकर। मांस खाना छोड़ा, शराब छोड़ी, अन्धविश्वास छोड़े, अपना लिया बस हवनकुण्ड को और उसकी संस्कृति को। अपनाया भी ऐसे कि पहली पंक्ति में जा बैठे। खूब पढ़ा, खूब शास्त्रार्थ किए, खूब भाषण दिए। यह वह युग था जब आर्यसमाज पर सरकार की कोपदृष्टि थी। और सरकार थी कि ‘फूट डालो और राज्य करो’ के सिद्धांत को तन-मन से मानती थी।
सो पटियाला के आर्यसमाजियों पर एक मुकदमा चलाया गया। उन पर आरोप था कि वे सिखों के गुरुग्रंथ साहब का अपमान करते हैं। शासक सोचते हैं कि इस प्रकार इन दोनों में वैमनस्य पैदा हो जाएगा और राष्ट्रीयता की प्रज्वलित होती ज्योति बुझ जाएगी।
लेकिन देश जग चुका था। उसने उस चाल को भाँप लिया। एक बचाव कमेटी बनी। उसमें सबसे आगे थे सरदार अर्जुनसिंह। उन्होंने विद्वानों के साथ मिलकर, अनथक परिश्रम के बाद, ऐसे उदाहरणों का ढेर लगा दिया जो यह प्रमाणित करते थे कि वेद और गुरुग्तं साहब दोनों एक ही बात करते हैं। दोनों ही आदरणीय हैं। सरदारजी लिखते भी खूब थे। उनकी अनेक पुस्तकें ट्रैस्क रूप में बँटी। कुछ नष्ट भी हो गईं। उनमें एक थी ‘हमारे गुरु साहेबान वेदों के पैरोकार थे’।
वह कितने आचारवादी, उदार और दृढ़ थे, उसके कुछ उदाहरण देखे जा सकते हैं। बहुत वर्षों बाद क्रांतिकारी यशपाल ने एक संस्मरण लिखा था। उन दिनों सरदार किशनसिंह के बीमे की एजेंसी ले रखी थी। इसलिए एक दफ्तर भी था। उसी में क्रांतिकारी युवक आकर वैठते थे। सोते भी वहीं थे। वहाँ एक दिन यशपाल मेज के सामने बैठे कुछ लिख रहे थे। नीचे टीन की कोई वस्तु थी। अनजाने उसको पैर से बजाए जा रहे थे। उसमें से एक लय जो पैदा हो रही थी। तभी एक वृद्ध सज्जन वहाँ आए और एक कुरसी पर बैठ गए। यशपाल ने उधर ध्यान नहीं दिया। वे उसी तरह लिखते रहे और उस वस्तु को जूते से बजाते रहे कि सहसा गालियों से भरी करारी डाँट सुनाई दी :
‘‘गधा, उल्लू, नास्तिक, बदमाश, सिर तोड़ दूँगा...’’
चकित-विस्मित यशपाल ने देखा कि वे तेजस्वी वृद्ध सज्जन लाठी उठाए उन्हें मारने को तत्पर हैं-‘‘उल्लू, यही तेरी तमीज है ?’’
अब यशपाल ने नीचे झाँककर देखा। जिसे टीन की बेकार वस्तु समझा था, वह हवन-कुण्ड था और उसी में वे नियम से प्रतिदिन हवन करते थे। वे गुरुग्रंथ साहब के सामने मत्था नहीं टेकते थे, पर बहुमत का मान करके गाँव में गुरुद्वारा उन्होंने बनवा दिया था। छुआछूत से उन्हें शाब्दिक नफरत ही नहीं थी, घर पर हरिजन महिला को बुलाकर खाना भी बनवाया था उन्होंने। इस पर उनके घड़े कुएँ पर से हटवाने की आवाज उठी थी। तब उन्होंने क्या किया। उन दिनों गाँव में तालाब खुद रहा था। सभी श्रमदान कर रहे थे। भोजन का दायित्व था सरदार अर्जुनसिंह पर। एक दिन उन्होंने एक भंगी और दो चमारों को बुलाया, खाना उनके सिरों पर रखा और जा पहुँचे तालाब पर। लोग देख न सकें इसलिए उन्होंने कुछ पहले ही झाड़ियों की ओट में खाना रखवा दिया था।
जब सब खा-पी चुके तो वे बोले, ‘‘क्यों भाइयों ! खाने का स्वाद तो ठीक था ?’’
‘‘बहुत बढ़िया था।’’ सबने एक स्वर से कहा।
तो वे बोले, ‘‘इस बढ़िया खाने को लाने वाले चमार और भंगी थे।’’
एक बार तो साँस सूँघ सबको, पर परिणाम यह हुआ कि उस गाँव से छुआछूत सदा के लिए दूर हो गई। कौन गया किस-किसका घड़ा कुएँ से उठवाता !
ऐसी कहानियों का अंत नहीं है। वे उनके विद्रोही स्वभाव का प्रमाण है। जैसे एक बार उन्होंने अपने खेतों में तंबाकू बो दिया। उसमें लागत कम और लाभ अधिक होता है। लेकिन गाँव तो सिख का था और सिखों के लिए तंबाकू हराम है। उन्होंने इस बात को भी ध्यान में रखा था। बड़ा तूफान मचा। पर जब तक वह बिक न गया, वे टस-से-मस न हुए। जब धन घर में आ गया तो बोले, ‘‘मैंने अपवित्र वस्तु को छुआ ठीक है, पर अब तो यह निकल गई है। पैसा है। वह तुम ले लो। मैं प्रायश्चित कर लेता हूँ।’’
उनका काम धक्का पहुँचाना था, किसी को दुःखी करना नहीं। वे बहुत बड़े इंसान थे। क्रोध न आता तो ऐसा नहीं, पर वह उनका स्थायी भाव नहीं था।
आर्यसमाज के झंडे के नीचे उन्होंने विद्रोह करना सीखा था। जब गांधीजी ने विद्रोह का नारा बुलंद करके गुलामी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा की तो यहाँ भी सरदार अर्जुनसिंह आगे थे। अपने पुत्र को भी उन्होंने क्रांति की दीक्षा दी और देशभक्ति का पाठ पढ़ाया। उनकी छत्रच्छाया में उनके भतीजे हरिसिंह (वे कांग्रेस-आंदोलन में जेल जा चुके थे) ने बम भी बनाया था। पुलिस, को पता लगा, पर जहाँ अर्जुनसिंह हों वहाँ उनके विरुद्ध गवाही कौन दे ?
सरदारजी के तीन पुत्र थे-सरदार किशनसिंह, सरदार अजीतसिंह और सरदार स्वर्णसिंह। तीनों आर्यसमाज के परिवेश में पले, बड़े हुए। तीनों अंधविश्वास के कट्टर शत्रु, तीनों परम देशभक्त, तीनों निर्मम-निस्गृह। तीनों पुत्रों को ही नहीं, पौत्रों को भी उन्होंने क्रांति के पथ पर दृढ़-कदम बढ़ाते देखा। भगतसिंह को फाँसी पर चढ़ते भी देखा। एक बेटा जीवन-भर जेल और घर के बीच आँखमिचौली खेलता रहा, दूसरा जलावतन होकर विदेशों में स्वाधीनता का युद्ध लड़ता रहा और तीसरा जेल से तपेदिक लाया और भरी जवानी में शहीद हो गया।
सरदार अर्जुनसिंह की कहानी उसकी पत्नी सदारनी जयकौर के बिना कैसे पूरी हो ? वे आर्यसमाजी नहीं हो सकी थीं। सिख-धर्म में उनकी श्रद्धा अखण्ड थी। पर दोनों ने एक-दूसरे को कैसे सहा, कैसे सहयोग दिया, उसका एक ही उदाहरण पर्याप्त होगा। सरदारजी ने दोनों पोतों का यज्ञापवीत करवाया। वैदिक रीति से उनका मुण्डन होना अनिवार्य था। दादी विह्लल हो उठीं, बोली, ‘‘यज्ञोपवीत होने दो, पर केश मत कटवाओ।’’
एह क्षण वे झिझके होंगे, फिर बोले, ‘‘ठीक है, केश नहीं कटेंगे। असली वस्तु तो यज्ञोपवीत है।’’
और उन्होंने दोनों पोतों को कौली में भरकर घोषणा की, ‘‘मैं अपने दोनों पोतों को इस यज्ञवेदी के सामने देश के लिए समर्पित करता हूँ।’’
बड़ा पोता जगतसिंह अकाल में ही चल बसा था। छोटा था भगतसिंह। जैसा वह समर्पित हुआ, वैसे सबके लाल हों।
वे वकील के मुंशी थे। वे किसान थे। वे विद्रोही थे। वे हकीम भी थे. बहुतों को उन्होंने ठीक किया, पर जगतसिंह को न कर सके। उसे सन्निपात हो गया था। डॉक्टर की दवा चल रही थी। अपनी भी दे बैठे। तभी अचानक उसकी मृत्यु हो गई। उन्हें लगा जैसे उन्हीं की दवा से वह मरा है। बस, फिर हिकमत नहीं की।
दादी जयकौर कम साहसी नहीं थीं। क्रांतिकारियों के परिवार की रानी थीं। बड़ा दबदबा था उनका। उनका घर भी जब-तब धर्मशाला बना रहता था। कहाँ-कहाँ से क्रांतिकारी आकर ठहरते थे। सुप्रसिद्ध सूफी अम्बाप्रसाद तो अक्सर घर में रहते थे। एक बार पुलिस क्रांतिकारी साहित्य छापने के अपराध में सरदार अजीतसिंह और सूफी साहब को पकड़ने आई। अजीतसिंह घर में न थे, पर सूफी साहब थे।
अब क्या हो ? दादी जयकौर आगे बढ़ीं। पूछा, ‘‘क्या चाहते हो ?’’
पुलिस अफसर ने कहा, ‘‘घर की तलाशी लेनी है।’’
‘‘तो ले लो, पर हम ठहरे बहू-बेटी वाले कुलीन लोग। पहले उन्हें निकल जाने दो, तब अंदर जाना।’’
पुलिस अफसर ने कहा, ‘‘ठीक है।’’ चादरों में लिपटी नारियाँ एक के बाद एक बाहर चली गईं। उन्हीं में चल गए सूफी साहब। पुलिस को अपनी गलती स्वीकार करनी पड़ी। वह तीन ऊँटों पर लादकर साहित्य ले गईं, साहित्य-निर्माता अपने पथ पर आगे बढ़ गया।
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