Thursday, January 13, 2011

शहादत व्यर्थ नहीं जायेगी ……..मगर कैस......?


दर्जनों सुरक्षाबल समेत जांबाज पुलिस अधिकारी स्व.विनोद चौबे की शहादत पर सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ मर्माहत है। अफसोस कि शोक की इस घड़ी में प्रदेश अकेला है, देश के बाकी हिस्सों को इस बड़े हादसे से भी कोई सहानुभूति नजर नहीं आ रही, किसी भी राष्ट्रीय कहे जाने वाले मीडिया तक ने समलैंगिकता पर बॉबी डार्लिंग की चिंता जैसा भी महत्वपूर्ण इसे नहीं समझा। आस्ट्रेलिया में एक व्यक्ति की गिरफ्तारी पर नींद ना आने की शिकायत करने वाले प्रधानमंत्री का भी चैन-ओ-सुकून छीना हो इस घटना ने ऐसा कुछ भी अभी तक पता नहीं चला है। आदवासियों की लाश पर गोयनका पुरस्कार पाने वाले पत्रकारों की बात हो, या ”आर्ट ऑफ नॉट राइटिंग” लिख प्रदेश के पत्रकारों को गरियाने वाले उचक्कों की, इन लोगों से निपटना शायद ना अपने वश में है और न ही उस पर ऊर्जा खपाने की ज्‍यादा जरूरत। लेकिन सवाल यह है कि हमने अपने दुश्मन इन नक्सलियों को कुचलने के लिए आखिर किया क्या है!

”हम इस कायरना हरकत की निंदा करते हैं” ”अब नक्सलियों का समूल नाश होगा” ”शहीदों को विनम्र श्रदांजलि अर्पित करते हैं” या ”उनकी शहादत व्यर्थ नहीं जायगी” जैसे घिसे-पिटे बयान देकर ही क्या हमारे कर्तव्यों की इतिश्री हो जाती है, या हम पर यह बताने का दायित्व है कि आखिर स्व. चौबे जैसों की शहादत व्यर्थ ना जाने देने के लिए हम क्या कर पा रहे हैं।

”हम इस कायरना हरकत की निंदा करते हैं” ”अब नक्सलियों का समूल नाश होगा” ”शहीदों को विनम्र श्रदांजलि अर्पित करते हैं” या ”उनकी शहादत व्यर्थ नहीं जायगी” जैसे घिसे-पिटे बयान देकर ही क्या हमारे कर्तव्यों की इतिश्री हो जाती है, या हम पर यह बताने का दायित्व है कि आखिर स्व. चौबे जैसों की शहादत व्यर्थ ना जाने देने के लिए हम क्या कर पा रहे हैं। जबरदस्त जनसमर्थन एवं प्रचंड जनादेश पाने के बाद सरकार की यह प्राथमिकता होनी चाहिए कि अपने लोगों को आश्वस्त करे कि जवानों समेत अपने प्रदेशवासियों के खून के एक-एक कतरे का हिसाब लिया जायगा।

जबरदस्त जनसमर्थन एवं प्रचंड जनादेश पाने के बाद सरकार की यह प्राथमिकता होनी चाहिए कि अपने लोगों को आश्वस्त करे कि जवानों समेत अपने प्रदेशवासियों के खून के एक-एक कतरे का हिसाब लिया जायगा। नक्सलियों को मुख्यधारा में लाने या उनसे बातचीत करने जैसी घिसी-पिटी और वाहियात बातें नहीं, बल्कि सीधे-साधे प्रयास उनसे बदला लेने के किए जाएंगे। और ये बदला भी किसी अमूर्त संवैधानिक तरीकों से नहीं अपितु विशुद्ध गणितीय आंकड़ों के हिसाब से होगा कि हमारे कितने लोग मरे और उनसे कितने गुना नक्सलियों को हमने मार गिराया है। बेहतर तो यह होगा कि आगे से सरकार सालाना, त्रैमासिक या मासिक रिपोर्ट सार्वजनिक कर इस मामले में अपनी ”उपलब्धि” जनता को बताये। यदि राजनीतिक इच्छा शक्ति हो और केंद्र सौतेला व्यवहार नहीं करे तो यह कोई असंभव बात नहीं है। लालगढ़ के रूप में तो हालिया उदाहरण हमारे सामने है, जब वहां के चप्पे-चप्पे पर कुंडली जमा बैठने वाले माओवादी किस बिल में जाकर छुप गये, यह पता नहीं नहीं चला और सुरक्षा बलों ने कारगिल की चोटी की तरह शान से अपना तिरंगा वहां फहराया। या लिट्टे से यादा ताकतवर हो गये हैं ये मवाली ऐसी खबर तो नहीं है, लेकिन एक सशक्त राष्ट्रपति ने उनकी मांद में घुसकर कैसे सफाया किया अपने देश के आतंक का, इसे समझने के लिए इतिहास पढ़ने की जरूरत तो है नहीं।

जब भी कहीं युद्ध जैसी स्थिति होती है तो जाहिर है नुकसान बचाव पक्ष का भी होता है, मारे निर्दोष भी जाते हैं, बलि आम आदमी की भी चढ़ती है। हथियार के सौदागरों और अमानवधिकारवादियों की बल्ले-बल्ले होती है, अंगुली कटाकर शहीद कहलाने वाले विघ्नसंतोषी विनायक भी पैदा होते ही हैं। मीडिया का चोला धारण कर कुछ मीडियेटर किस्म के लोग भी बहती गंगा में हाथ धो ही लेते हैं। लेकिन एक सचमुच के कल्याणकारी राय को इन्हीं चुनौतियों से पार पाना होता है। और ऐसा पार पाना कठिन जरूर है, पर असंभव नहीं। अपने ही देश का एक राय पंजाब इसका बेहतरीन उदाहरण है जहाँ के मुख्यमंत्री बेअंत सिंह ने मांस के लोथड़े में खुद को बदलकर उपरोक्त चुनौतियों से पार पाते हुए सचमुच में स्थायी मानवधिकार की रक्षा की थी। जिन खेतों में बंदूकें उगती थीं वहां पर गेहूं की बालियां लहराना या जिन गलियों में बमों की आवाज गूंजती थीं वहां गुरूग्रंथ साहिब का पाठ शुरू हो जाना बेअंत के शहीदाना अंत के बाद ही संभव हो पाया था।

हालांकि हर प्रदेश या देश की अपनी परिस्थितियां होती हैं। छत्तीसगढ़ में भी कम से कम मुखिया की नीयत पर किसी को कोई संदेह नहीं है। लेकिन कहावत है न्याय न केवल होना चाहिए, बल्कि होते हुए दिखना भी चाहिए। और इसके लिए यह जरूरी है कि औपचारिक और घिसी पिटी बातों के बदले कुछ नये प्रतीकात्मक कदम भी उठाये जाएं। अव्वल तो यह कि जितने नक्सली मारे जाय वो तो ”उपलब्धि” होगी लेकिन यदि जब कोई जिंदा हार्डकोर पकड़ में आये तो उसका जुलूस सरे-बाजार निकाला जाय। गले में तख्ती टांगकर शहर मुहल्ले, गांव-गली में एक बलात्कारी की तरह उसे घुमाया जाय। इससे लोगों में उत्साह का संचार होगा और एक वैचारिकता का जामा जो इन लुटेरों ने पहना हुआ है उससे वह कृत्रिम आभामंडल ध्वस्त होगा। आतंक जो इनका एकमात्र वाद होता है उससे जनता को मुक्ति मिलेगी। इसके अलावा जैसा कि इस लिक्खार ने पहले भी कहा है कि किसी भी घटना के बाद जिम्मेदार राजनीतिक प्रमुख को घटनास्थल के पास कैम्प करना शुरू कर देना चाहिए और दैनिक रिपोर्ट वहीं से सार्वजनिक की जानी चाहिए कि आज मामले में क्या ”प्रगति” हुई। सीधी सी बात है कि ”मदनाबाड़ा” जैसी कार्रवाई करने के लिए जाहिर है सैकड़ों की संख्या में गुंडे एक साथ इकठ्ठा होते हैं। क्या इसे एक अवसर में नहीं बदला जा सकता कि अपनी सारी ताकत झोंककर पुलिस एवं अर्धसैनिक बल बड़ी संख्या में उन्हें घेरकर मार गिराये और अन्यत्र छिटकने का उन्हें अवसर नहीं दें। नक्सलियों के इकठ्ठा होने की खुफिया सूचना के बावजूद भी आजतक एक बार भी उनका सामूहिक संहार ना कर पाना, एक बार भी दर्जनों की संख्या में उनका वध न हो पाना हमारी असफलता नहीं तो और क्या है? हमें निश्चित ही लड़ाई के पुराने पुलिसिया तौर तरीके बदल छुपकर मार करने वाले इन छापामारों से इन्हीं की शैली में निपटना होगा। जैसाकि कांकेर के जंगल वारफेयर कॉलेज का मूलमंत्र है ”फाइट गुरिल्ला लाईक अ गुरिल्ला” हमें भी तेजी से गुरिल्ला युध्द सीखना होगा और विनम्रता से अपने जवानों से कहना होगा कि उनकी जान प्रदेश की सबसे बड़ी थाती है। भगवान के लिए कृपया विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में भी ”सैफ्टी मैजर” को नजरअंदाज ना करें। जैसा कि प्रशिक्षक बताते हैं, संवेदनशील इलाकों में वाहनों का यथासंभव इस्तेमाल न करें, झुंड में ना चलें, कतार में चलकर एवं लैंडमाइंस से बचने के लिए जरूरी उपायों का अनुसरण करते हुए यथासंभव अपने लक्ष्य की ओर बढ़ा जाय। और सबसे महत्वपूर्ण यह कि रूदालियां लाख दुष्प्रचार करें परंतु अपने मनोबल को कहीं कमजोर ना होने दें। लोकतंत्र की जड़ें अपने यहाँ बहुत गहरी हैं और चुनी हुई सरकार से यादा ताकतवर कोई गिरोह हो ही नहीं सकता। ऊपर दिये गये दृष्टांतों के अलावा ऐसे दर्जनों उदाहरण हैं जहाँ लोकतंत्र की जीत हुई है और इसके उलट आजाद भारत में कोई उदाहरण नहीं है।

यह वास्तविकता है कि दर्जनों सुरक्षाबलों के शहीद होने पर बिलों में घुस जाने वाले ”सियार” केवल एक नक्सली के जेल चले जाने या मारे जाने पर हुऑं-हुऑं करना शुरू करेंगे ही। राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर दुष्प्रचारों का दौर भी शुरू होगा। और चूंकि संघीय ढांचे में और वैश्वीकरण के इस जमाने में राय को बाहर अपनी छवि की चिंता करनी ही होती है अत: कुछ योग्य मीडिया पेशेवरों को देश-दुनिया को वस्तुस्थिति बताने की जिम्मेदारी देकर उधर से निश्चिंत हो अपनी पूरी ऊर्जा से छत्तीसगढ़ को आतंकमुक्त बनाने में प्राण-पण से जुट जाया जाए। सरकार को फिर से यह स्मरण कराना समीचीन होगा कि इसी दण्डकारण्य में राक्षसों द्वारा मारे गये ऋषियों की हड्डियों का पहाड़ देख भगवान राम ने पृथ्वी को राक्षसों से मुक्त करने का प्रण लिया था। रमन के पास भी यही अवसर है कि अपने शहीद जांबाजों के परिजनों पर टूट पड़े विपत्तियों का पहाड़ देख प्रदेश को नक्सल मुक्त करने का संकल्प लें। नियति ने उन्हें ही यह जिम्मेदारी दी है। इतिहास बड़ा ही एकतरफा तथा निष्ठुर होता है, भले ही नक्सल समस्या किसी राय विशेष की समस्या ना होकर एक राष्ट्रीय आतंक है लेकिन छत्तीसगढ़ के लोगों ने किसी सोनिया गांधी या मनमोहन सिंह के बदले डा. रमन पर भरोसा जताया है। स्व. विनोद चौबे की शहादत को वास्तविक अर्थों में व्यर्थ ना जाने देकर ही इस भरोसे की जीत संभव है।

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