Monday, August 15, 2011

क्या हम आजाद है ?

क्या हम आजाद है ? क्या हमे सच कहने -बोलने का अधिकार है ? मै समझता हू आज हमारी स्तिथि १९४७ के पहले से भी बेकार और बद्दतर हो चूकी है , भारत की आज़ादी केवल कहने मात्र को है , जिस देश में सच कह सकने तक का अधिकार नहीं हो , आम आदमी को सच कहने से तक रोका जा सकता है तब बाकि आज़ादी के बारे में क्या कहा जा सकता है .....१९४७ से पहले हम गोरे अंग्रेजो के गुलाम थे ,और हम १९४७ के बाद अपने ही देश में देश के काले अंग्रेजो की गुलामी झेल रहें है .....आज अन्ना की गिरफ्तारी ने ये बता दिया है की हम कहने मात्र को ही आजाद है .......भारत माता की जय ....

तो उठो और अन्ना हजारे के साथ चल पड़ो......जय हिंद ......जय भारत .........


आख़िरकार इस देश के काले अंग्रेजो ने अन्ना हजारे को आन्दोलन से पहले हिरासत में ले ही लिया , आख़िरकार कब तक होता रहेगा ये दमन ......? क्या आज की जरुरत नहीं है की इस सरकार को जड़ से उखाड़ फेके .......? तो उठो और अन्ना हजारे के साथ चल पड़ो......जय हिंद ......जय भारत .........   

बोलने की आजादी पर सरकारी ताला डालने की कोशिश---


बोलने की आजादी पर सरकारी ताला डालने की कोशिश---
भ्रष्टाचार पर नकेल डालने के लिए मजबूत जन लोकपाल की वकालत करने वाले समाजसेवी अन्ना के अनशन को फेल करने में पूरा सरकारी तंत्र जुटा है। कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी ने जिन तल्ख तेवरों और तीखी शब्दावली का प्रयोग अन्ना के खिलाफ किया है वो किसी स्वस्थ लोकतांत्रिक व्यवस्था का लक्षण नहीं है। सरकार जिस तरह अन्ना के अनशन को जाति तौर पर लेकर जिस प्रकार हमालवर रूख अपना रही है उससे ये अहसास नहीं होता है कि हम लोकतांत्रिक देश के नागरिक हैं। अनशन, आंदोलन, धरना और प्रदर्षन तो स्वस्थ लोकतंत्र की निशानी होते हैं। लेकिन लोकतंत्र का ढिंढोरा पीटने वाली सरकार अपने खिलाफ उठने वाली आवाज से इतनी घबराई और बौखलाई हुई है कि वो अन्ना के अनशन को फेल करने के लिए हर हथकंडा अपना रही है।
21 जून को लोकपाल बिल के संयुक्त समिति की अंतिम बैठक के असफल रहने पर अन्ना ने 16 अगस्त से अनशन करने का ऐलान किया था। सरकार ने सिविल सोसायटी की मांगों और सुझावों पर कोई आम सहमति बनाने की बजाय आनन-फानन में बिल के सरकारी ड्राफ्ट को संसद में पेश कर दिया। सरकारी बिल से असहमत और नाराज अन्ना को सरकार ने जंतर मंतर पर अनशन करने की अनुमति नहीं दी। स्थिति बिगड़ती देख दिल्ली पुलिस ने अन्ना को जेपी पार्क में तीन दिन के अनशन की सशर्त इजाजत अन्ना को दी है। जिस सिविल सोसायटी का समर्थन आज देश का बड़ा तबका कर रहा है सरकार उस सोसायटी की बात पर तवज्जो देने की बजाय अन्ना ओर उनकी टीम को बदनाम करने और कीचड़ उछाला रही है। लोकशाही में अपनी बात रखने और बोलने की आजादी हर नागरिक को है। लेकिन सरकार अपनी विरूद्व उठने वाली अन्ना की आवाज को दबाने में एड़ी चोटी का जोर लगा रही है। अन्ना के अनशन में रोड़े अटकाना लोकतंत्र का गला घोंटने की बेशर्म और बेहूदा कार्यवाही है। बोलने का अधिकार हमें हमारा संविधान प्रदान करता है ऐसे में अन्ना की आवाज को दबाना संविधान का अपमान और अवहेलना भी है।
भ्रष्टाचार, जन लोकपाल बिल और विदेशों में जमा काला धन वापिस लाने की मुहिम को धार देने वाले अन्ना हजारे और बाबा रामदेव की आवाज दबाने के लिए सरकारी अमला हर हथकंडा अपना रहा है। 4-5 जून की रात को दिल्ली के रामलीला मैदान में बाबा रामदेव और हजारों अन्य अहिंसक प्रदर्षनकारियों पर पुलिस ने लाठी-डंडे बरसाकर इमरजंेसी की याद ताजा करा दी। रामदेव और उनके निकट सहयोगी बालकृष्ण को घेरने और बदनाम करने के लिए सरकारी तंत्र पूरी गंभीरता से लगा है। सरकार ने अपने कर्मों का हिसाब किसी को नहीं दिया उलटे उसकी पोल खोलने वाले रामदेव की जन्म कंुडली उसने जरूर खोल दी। रामदेव और अन्ना के आंदोलन से घबराई और बौखलाई सरकार अपने खिलाफ उठने वाली आवाज को दबाने के लिए अन्ना और रामदेव पर कीचड़ उछालकर ये साबित करने में जुटी है कि केवल हम ही नहीं बल्कि हम पर उंगुली उठाने वाले भी भ्रष्ट और दागी हैं। सरकार ने अन्ना पर कीचड़ उछालकर एक तरह से खुद ये मान लिया है कि उसका चरित्र दागदार है।
पिछले एक दशक में भ्रष्टाचार के जिन्न ने पूरे देश का जीना दुश्वार कर रखा है। हालात इतने बदतर हो चुके हैं कि छोटे से छोटा काम भी बिना लिये दिये बिना नहीं हो पाता है। सरकारी बाबू से अफसर तक रिश्वत लेना अपना जन्मसिद्व अधिकार समझते हैं। जनता के चुने हुये प्रतिनिधि कानों में तेल डाले बैठे हैं। जनता जीये या मरे उनकी बला से। अगले चुनाव तक उन्हें चिन्ता और फिक्र करने की कोई जरूरत नहीं है। आम आदमी के हक और विकास का पैसा भ्रष्टाचार के कुंभकर्णी पेट में समा रहा है। तेजी से पांव पसारते भ्रष्टाचार के कारण देश की अर्थव्यस्था तो गड़बड़ा ही रही है वहीं मंहगाई, बेरोजगारी और विकास को भी उसका दंश झेलना पड़ रहा है। विदेशी बैंकों में अकूत कालाधान भरा पड़ा है लेकिन उसे वापिस लाने के लिए सरकार पूरी तरह से अगंभीर रवैया अपनाए है। मंहगाई, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, विकास के झूठे वायदों से परेशान जनता आखिरकर किस तरीके से अपनी आवाज दिल्ली दरबार तक पहुंचाए। बरसों से सो रही सरकार को जगाने के लिए जब कोई अन्ना या रामदेव अलख जगाते हैं तो सरकार अपनी कमियों, दोषों और गुनाहों का हिसाब देने की बजाय अलख जगाने वाले के पीछे हाथ धोकर पड़ जाती है कि आखिरकर एक अदने से आदमी की क्या मजाल जो वो सरकार से सवाल-जवाब करे।
आजादी के बाद कुछ सालों तक राजनीति का स्वस्थ रूप देखने का मिलता था। लेकिन 70 के दशक तक आते-आते राजनीतिक माहौल और आचरण में गंदगी घुलने लगी थी। पिछले दो तीन दशकों में देश में जात-पात और क्षेत्रीय राजनीति ने अपने पांव देशभर में पसार लिये हैं। अपराधी और गुण्डे तत्वों के राजनीति में प्रवेश करने से राजनीति का पूरा तालाब ही गंदा हुआ है। विधायिका के भ्रष्ट रूप और आचरण के फलस्वरूप लोकतंत्र की स्वस्थ, सशक्त और सुंदर परंपराओं को ग्रहण लग गया है। हर कांड, घोटालों और अपराध के पीछे कहीं न कहीं राजनीति और नेता खड़े दिखाई देते हैं। देश की कमान उन तथाकथित नेताओं के हाथ में है जिन्हें लोकतंत्र के सहीं मायने पता ही नहीं है। वो डंडे के दम पर हकूमत चलाना चाहते हैं। आम आदमी की आवाज और सवाल-जवाब उन्हें तीर की भांति चुभते हैं। और वो अपने खिलाफ उठने वाली हर आवाज को डंडे और कानून के दम पर चुप कराने की ओछी राजनीति पर उतर आते हैं। यूपी की मुख्यमंत्री मायावती ने सूबे में धरने और प्रदर्शन के लिए कानून बना डाला है। ताकि सूबे का आम आदमी और विपक्षी दल उनके खिलाफ मुंह खोल ही न पाये। यूपी सरकार कानून की आड़ में लोकतंत्र का गला घोंटने का घिनौना कृत्य कर रही है। इसी कड़ी में केन्द्र सरकार अन्ना के अनशन को दबाने के लिए कानून की आड़ लेकर असल में आम आदमी की आवाज को दबा रही है। सच्चाई यह है कि सरकार में अपनी आलोचना सुनने का माद्दा ही नहीं है तभी तो वो अपने खिलाफ उठने वाली आवाज को सुनने की बजाय बंद कराने पर उतारू है। आज अन्ना को देश और विदेश में बसे लाखों भारतीयों का समर्थन प्राप्त है ऐसे में अन्ना को अनशन के लिए रोकना अप्रत्यक्ष तौर पर आम आदमी को धरने, प्रदर्शन और अनशन से रोकना है।
लोकशाही में लोक की आवाज दबाने की प्रवृत्ति धीरे धीरे चारों ओर फैल रही है। यूपी की तर्ज पर दूसरे राज्य भी धरना, प्रदर्शन नियमावली बनाकर कानून की आड़ में आम आदमी की आवाज को दबाने की साजिश को रच सकते हैं। आज कांग्रेस नीत संप्रग सरकार अन्ना के अनशन को असफल बनाने के लिए जो हथकंडे अपना रही है उसे सारा देश देख रहा है। कांग्रेस के साथ लगभग सभीे विपक्षी दल प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर खड़े दिखाई दे रहे हैं। जो जनता आज अन्ना पर जुल्म और जबरदस्ती होते देख रही है उसी जनता को कल वोट की पावर से सरकार भी चुननी है। आज बब्बर शेर नेता चुनाव के समय मेमने की तरह जब आम आदमी के सामने हाथ जोड़े खड़े होंगे तब जनता उनसे हिसाब बराबर करेगी। लोकतंत्र में बोलने की आजादी पर तालाबंदी की बढ़ती कुप्रवृति की जितनी निंदा और आलोचना की जाए वो कम है।


Sunday, August 14, 2011

जो शहीद हुए हैं उनकी! ज़रा याद करो क़ुरबानी...


जो शहीद हुए हैं उनकी! ज़रा याद करो क़ुरबानी...
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ऐ मेरे वतन के लोगो!
तुम खूब लगा लो नारा !
ये शुभदिन है हम सबका!
लहरा लो तिरंगा प्यारा
पर मत भूलो सीमा पर!
वीरों ने है प्राण गँवाए!
कुछ याद उन्हें भी कर लो
जो लौट के घर न आए,
ऐ मेरे वतन के लोगो!
ज़रा आँख में भरलो पानी!
जो शहीद हुए हैं उनकी!
ज़रा याद करो क़ुरबानी...
जब घायल हुआ हिमालय!
खतरे में पड़ी आज़ादी!
जब तक थी साँस लड़े वो!
फिर अपनी लाश बिछा दी
संगीन पे धर कर माथा!
सो गये अमर बलिदानी!
जो शहीद हुए हैं उनकी!
ज़रा याद करो क़ुरबानी...
जब देश में थी दीवाली!
वो खेल रहे थे होली!
जब हम बैठे थे घरों में!
वो झेल रहे थे गोली
थे धन्य जवान वो अपने!
थी धन्य वो उनकी जवानी!
जो शहीद हुए हैं उनकी!
ज़रा याद करो क़ुरबानी...
कोई सिख कोई जाट मराठा
कोई गुरखा कोई मदरासी
सरहद पे मरनेवाला!
हर वीर था भारतवासी
जो ख़ून गिरा पर्वत पर!
वो ख़ून था हिंदुस्तानी!
जो शहीद हुए हैं उनकी!
ज़रा याद करो क़ुरबानी...
थी खून से लथपथ काया!
फिर भी बन्दूक उठाके!
दस-दस को एक ने मारा!
फिर गिर गये होश गँवा के
जब अन्त समय आया तो!
कह गये के अब मरते हैं!
ख़ुश रहना देश के प्यारो
अब हम तो सफ़र करते हैं
क्या लोग थे वो दीवाने!
क्या लोग थे वो अभिमानी!
जो शहीद हुए हैं उनकी!
ज़रा याद करो क़ुरबानी...
तुम भूल न जाओ उनको!
इसलिये कही ये कहानी!
जो शहीद हुए हैं उनकी!
ज़रा याद करो क़ुरबानी...
जय हिन्द। जय हिन्द की सेना,
जय हिन्द, जय हिन्द, जय हिन्द...
सी रामचंद्र के संगीतबद्ध इस गीत को पहली बार लता मंगेशकर ने 26 जनवरी 1963 को दिल्ली के रामलीला मैदान पर गाया था तो तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू समेत सभी की आंखों से गंगा-जमुना की तरह आंसुओं की धारा बह उठी थी...इस गाने से जुड़े किसी भी व्यक्ति ने एक पैसा भी फीस नहीं ली थी...कवि प्रदीप ने गाने की रायल्टी से मिलने वाली सारी रकम वार विडोज़ फंड को देने का ऐलान किया था...

मेरे यहाँ आज राज ठीक १२ बजे ब्रम्ह कमल का फुल खिला है ---------


                                मै अपना सौभाग्य मानता हू की मेरे यहाँ आज राज ठीक १२ बजे ब्रम्ह कमल का फुल खिला है , ये हमारा सौभाग्य है की विगत १२ वर्षो से इस वक्त का हम इंतजार कर राहे थे , इतने वर्षो की हमारी तपस्या का परिणाम आज हमे मिला ऐसा मै मानता हु , मैंने भारत देश हमारा प्यारा देश खुशहाल बने ,सारे लोगो में देश भक्ति की भावना जागे , इस देश में सत्य की जीत हो , और हमारा भारत देश विश्व विजेता बने ,ऐशी कामना की है, मेरे सारे भारतवासी ,मेरे सारे दोस्त ,भाई ,बहन सभी की कुशलता की कामना की है ......




                        .ब्रम्ह कमल के बारे में कहा जाता है की ----ब्रम्हकमल जो सिर्फ़ शरद पूर्णिमा को खिलते है .  ब्रम्हकमल एक ऐसा पुष्प है जो सभी देवी देवताओं को अत्यन्त प्रिय है इसीलिए इसका बैदिक महत्त्व है .  केवल एक रात को ही खिलने वाला यह पुष्प शायद इन्ही गुणों के कारण दुर्लभ है . शरद पूर्णिमा को ब्रम्हकमल के पुष्प से लक्ष्मी जी की पूजा करने से श्री लक्ष्मी की विशेष कृपा प्राप्त होती है . कहा जाता है कि जब राम रावण का युद्ध चल रहा था और युद्ध काफी लंबा खिचने से श्री राम काफी दुखी हो गए . रीछ जामबंत ने श्री राम को जगतजननी का अनुष्ठान करने की सलाह दी . भगवान प्रभु श्री राम ने प्रत्येक आहुति में समिधा के रूप में एक ब्रम्हकमल पुष्प अर्पित किया . जब अन्तिम ब्रम्हकमल बचता है तो जगतजननी उसे स्वयं उठा लेती है . प्रभु श्रीराम जब अन्तिम पुष्प नही पाते है तो अनुष्ठान भंग होने की आशंका से उनका मन खिन्न हो जाता है . तभी भगवान श्रीराम को याद आता है कि उन्हें उनकी माँ राजीवलोचन कहकर संबोधित करती है . भगवान श्री राम ने ब्रम्हकमल के स्थान पर अपने नेत्र अर्पित करने के लिए जब कटार उठाते है तभी माँ जगतजननी वहां प्रगट हो जाती है और श्री राम को विजयी भावः का आशीर्वाद देती है . शरद पूर्णिमा के रात्रि को इस दुर्लभ पुष्प को देखकर कई लोग सारी रात काट देते है .
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Wednesday, August 10, 2011

चंद्रशेखर आज़ाद---------------

पूरा नाम पंडित चंद्रशेखर तिवारी
अन्य नाम आज़ाद
जन्म 23 जुलाई, 1906
जन्म भूमि भावरा, मध्य प्रदेश
मृत्यु 27 फ़रवरी, 1931
मृत्यु स्थान इलाहाबाद
अविभावक पंडित सीताराम तिवारी
धर्म हिन्दू
आंदोलन भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम
प्रमुख संगठन नौज़वान भारत सभा, कीर्ति किसान पार्टी एवं हिन्दुस्तान समाजवादी गणतंत्र संघ
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पंडित चंद्रशेखर आज़ाद का जन्म एक आदिवासी ग्राम भावरा में 23 जुलाई, 1906 को हुआ था। उनके पिता पंडित सीताराम तिवारी उत्तर प्रदेश के उन्नाव ज़िले के बदर गाँव के रहने वाले थे। भीषण अकाल पड़ने के कारण वे अपने एक रिश्तेदार का सहारा लेकर 'अलीराजपुर रियासत' के ग्राम भावरा में जा बसे थे।
इस समय भावरा मध्य प्रदेश के झाबुआ ज़िले का एक गाँव है। चन्द्रशेखर जब बड़े हुए तो वह अपने माता–पिता को छोड़कर भाग गये और बनारस जा पहुँचा। उनके फूफा जी पंडित शिवविनायक मिश्र बनारस में ही रहते थे। कुछ उनका सहारा लिया और कुछ खुद भी जुगाड़ बिठाया तथा 'संस्कृत विद्यापीठ' में भरती होकर संस्कृत का अध्ययन करने लगे। उन दिनों बनारस में असहयोग आंदोलन की लहर चल रही थी। विदेशी माल न बेचा जाए, इसके लिए लोग दुकानों के सामने लेटकर धरना देते थे।
1919 में हुए जलियाँवाला बाग़ नरसंहार ने उन्हें काफ़ी व्यथित किया 1921 में जब महात्‍मा गाँधी के असहयोग आन्दोलन प्रारंभ किया तो उन्होंने उसमे सक्रिय योगदान किया। चन्द्रशेखर भी एक दिन धरना देते हुए पकड़े गये। उन्हें पारसी मजिस्ट्रेट मि0 खरेघाट के अदालत में पेश किया गया। मि0 खरेघाट बहुत कड़ी सजाएँ देते थे। उन्होंने बालक चन्द्रशेखर से उसकी व्यक्तिगत जानकारियों के बारे में पूछना शुरू किया -

"तुम्हारा नाम क्या है?"
"मेरा नाम आज़ाद है।"
"तुम्हारे पिता का क्या नाम है?"
"मेरे पिता का नाम स्वाधीन है।"
"तुम्हारा घर कहाँ पर है?"
"मेरा घर जेलखाना है।"

मजिस्ट्रेट मि0 खरेघाट इन उत्तरों से चिढ़ गए। उन्होंने चन्द्रशेखर को पन्द्रह बेंतों की सज़ा सुना दी। उस समय चन्द्रशेखर की उम्र केवल चौदह वर्ष की थी। जल्लाद ने अपनी पूरी शक्ति के साथ बालक चन्द्रशेखर की निर्वसन देह पर बेंतों के प्रहार किए। प्रत्येक बेंत के साथ कुछ खाल उधड़कर बाहर आ जाती थी। पीड़ा सहन कर लेने का अभ्यास चन्द्रशेखर को बचपन से ही था। वह हर बेंत के साथ "महात्मा गांधी की जय" या "भारत माता की जय" बोलते जाते था। जब पूरे बेंत लगाए जा चुके तो जेल के नियमानुसार जेलर ने उसकी हथेली पर तीन आने पैसे रख दिए। बालक चन्द्रशेखर ने वे पैसे जेलर के मुँह पर दे मारे और भागकर जेल के बाहर हो गया। इस पहली अग्नि परीक्षा में सम्मानरहित उत्तीर्ण होने के फलस्वरूप बालक चन्द्रशेखर का बनारस के ज्ञानवापी मोहल्ले में नागरिक अभिनन्दन किया गया। अब वह चन्द्रशेखर आज़ाद कहलाने लगा।
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चंद्र शेखर आज़ाद की जीवनी कि किस तरह एक छोटी से घटना से चंद्रशेखर का खून खौल गया और अंग्रेजी हुकूमत को ऐसा सबक सिखाया कि हथियारों से लैस अंग्रेज अधिकारी उनके मृत पड़े शरीर के पास जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाए थे।

पण्डित चन्द्रशेखर 'आज़ाद' (२३ जुलाई, १९०६ - २७ फरवरी, १९३१) ऐतिहासिक दृष्टि से भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के अत्यन्त सम्मानित और लोकप्रिय स्वतंत्रता सेनानी थे। वे पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल व सरदार भगत सिंह सरीखे महान क्रान्तिकारियों के अनन्यतम साथियों में से थे। सन् १९२२ में गाँधीजी द्वारा असहयोग आन्दोलन को अचानक बन्द कर देने के कारण उनकी विचारधारा में बदलाव आया और वे क्रान्तिकारी गतिविधियों से जुड़ कर हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशनके सक्रिय सदस्य बन गये। इस संस्था के माध्यम से उन्होंने राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में पहले ९ अगस्त १९२५ को काकोरी काण्ड किया और फरार हो गये। इसके पश्चात् सन् १९२७ में 'बिस्मिल' के साथ ४ प्रमुख साथियों के बलिदान के बाद उन्होंने उत्तर भारत की सभी क्रान्तिकारी पार्टियों को मिलाकर एक करते हुए हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन ऐसोसियेशन का गठन किया तथा भगत सिंह के साथ लाहौर में लाला लाजपत राय की मौत का बदला सॉण्डर्स का वध करके लिया दिल्ली पहुँच कर असेम्बली बम काण्ड को अंजाम दिया।

चन्द्रशेखर आज़ाद ने अपने स्वभाव के बहुत से गुण अपने पिता पं. सीताराम तिवारी से प्राप्त किये। तिवारी जी साहसी, स्वाभिमानी, हठी और वचन के पक्के थे। वे न दूसरों पर जुल्म कर सकते थे और न स्वयं जुल्म सहन कर सकते थे। भाँवरा में उन्हें एक सरकारी बगीचे में चौकीदारी का काम मिला हुआ था। भूखे भले ही बैठे रहें पर बगीचे से एक भी फल तोड़कर न तो स्वयं खाते थे और न ही किसी और को खाने देते थे। एक बार तहसीलदार ने बगीचे से फल तुड़वाना चाहे तो तिवारी जी बिना पैसे दिये फल तुड़वाने पर तहसीलदार से झगड़ा करने को तैयार हो गये। इसी जिद में उन्होंने वह नौकरी भी छोड़ दी। एक बार तिवारी जी की पत्नी पडोसी के यहाँ से नमक माँग लायीं इस पर तिवारी जी ने उन्हें बहुत डाँटा और इसकी सामूहिक सजा स्वरूप चार दिन तक परिवार में सबने बिना नमक के भोजन किया। ईमानदारी और स्वाभिमान के ये गुण बालक चन्द्रशेखर ने अपने पिता से विरासत में सीखे थे।

क्रांतिकारियों कीजीवनी लिखने के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर देने वाले महान लेखक श्रीकृष्ण सरल ने अपनी पुस्तक ''क्रान्तिकथायें'' में चंद्रशेखर आज़ाद के बारे में लिखा है-

१९१९ में हुए अमृतसर के जलियाँवाला बाग नरसंहार ने देश के नवयुवकों को उद्वेलित कर दिया। चन्द्रशेखर उस समय पढाई कर रहे थे। तभी से उनके मन में एक आग धधक रही थी। जब गाँधी जी ने सन् १९२१ में असहयोग आन्दोलन फरमान जारी किया तो वह आग ज्वालामुखी बनकर फट पडी और तमाम अन्य छात्रों की भाँति चन्द्रशेखर भी सडकों पर उतर आये। अपने विद्यालय के छात्रों के जत्थे के साथ इस आन्दोलन में भाग लेने पर वे पहली बार गिरफ़्तार हुए और उन्हें १५ बेतों की सज़ा मिली। इस घटना का उल्लेख पं. जवाहरलाल नेहरू ने कायदा तोडने वाले एक छोटे से लड़के की कहानी के रूप में किया है-

"ऐसे ही कायदे (कानून) तोडने के लिये एक छोटे से लड़के को, जिसकी उम्र १५ या १६ साल की थी और जो अपने को 'आज़ाद' कहता था, बेंत की सजा दी गयी। वह नंगा किया गया और बेंत की टिकटी से बाँध दिया गया। जैसे-जैसे बेंत उस पर पडते थे और उसकी चमड़ी उधेड़ डालते थे, वह 'महात्मा गाँधी की जय!' चिल्लाता था। हर बेंत के साथ वह लड़का तब तक यही नारा लगाता रहा, जब तक वह बेहोश न हो गया। बाद में वही लड़का उत्तर भारत के आतंकवादी कार्यों के दल का एक बडा नेता बना।" {{मदनलाल वर्मा 'क्रान्त' की पुस्तक स्वाधीनता संग्राम के क्रान्तिकारी साहित्य का इतिहास (भाग-दो) पृष्ठ ४७४ से
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क्रान्तिकारी संगठन
असहयोग आन्दोलन के दौरान जब फरवरी १९२२ में चौरी चौरा की घटना के पश्चात् बिना किसे से पूछे गाँधीजी ने आन्दोलन वापस ले लिया तो देश के तमाम नवयुवकों की तरह आज़ाद का भी काँग्रेस से मोह भंग हो गया और पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल,शचीन्द्रनाथ सान्याल योगेशचन्द्र चटर्जी ने १९२४ में उत्तर भारत के क्रान्तिकारियों को लेकर एक दल हिन्दुस्तानी प्रजातान्त्रिक संघ (एच० आर० ए०) का गठन किया । चन्द्रशेखर आज़ाद भी इस दल में शामिल हो गये। इस संगठन ने जब गाँव के अमीर घरों में डकैतियाँ डालीं, ताकि दल के लिए धन जुटाने की व्यवस्था हो सके तो यह तय किया गया कि किसी भी औरत के उपर हाथ नहीं उठाया जाएगा। एक गाँव में राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में डाली गई डकैती में जब एक औरत ने आज़ाद का पिस्तौल छीन लिया तो अपने बलशाली शरीर के बावजूद आज़ाद ने अपने उसूलों के कारण उस पर हाथ नहीं उठाया। इस डकैती में क्रान्तिकारी दल के आठ सदस्यों पर, जिसमें आज़ाद और बिस्मिल भी शामिल थे, पूरे गाँव ने हमला कर दिया। बिस्मिल ने मकान के अन्दर घुसकर उस औरत के कसकर चाँटा मारा, पिस्तौल वापस छीनी और आज़ाद को डाँटते हुए खींचकर बाहर लाये। इसके बाद दल ने केवल सरकारी प्रतिष्ठानों को ही लूटने का फैसला किया। १ जनवरी १९२५ को दल ने समूचे हिन्दुस्तान में अपना बहुचर्चित पर्चा द रिवोल्यूशनरी(क्रान्तिकारी) बाँटा जिसमें दल की नीतियों का खुलासा किया गया था। इस पैम्फलेट में सशस्त्र क्रान्ति की चर्चा की गयी थी। इश्तहार के लेखक के रूप में विजयसिंह का छद्म नाम दिया गया था। शचीन्द्रनाथ सान्याल इस पर्चे को बंगाल में पोस्ट करने जा रहे थे तभी पुलिस ने उन्हें बाँकुरा में गिरफ्तार करके जेल भेज दिया। " एच.आर.ए." के गठन के अवसर से ही इन तीनों प्रमुख नेताओं- बिस्मिल, सान्याल और चटर्जी में इस संगठन के उद्देश्यों को लेकर मतभेद था ।

इस संघ की नीतियों के अनुसार ९ अगस्त १९२५ को काकोरी काण्ड को अंजाम दिया गया । लेकिन इससे पहले ही अशफाक उल्ला खाँ ने ऐसी घटनाओं का विरोध किया था क्योंकि उन्हें डर था कि इससे प्रशासन उनके दल को जड़ से उखाड़ने पर तुल जायेगा और ऐसा ही हुआ भी। अंग्रेज़ चन्द्रशेखर आज़ाद को तो पकड़ नहीं सके पर अन्य सर्वोच्च कार्यकर्ताओं - पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खाँ, रोशन सिंह को १९ दिसम्बर १९२७ तथा उससे २ दिन पूर्व राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी को १७ दिसम्बर १९२७ को फाँसी पर चढ़ाकर मार दिया गया । सभी प्रमुख कार्यकर्ताओं के पकडे जाने से इस मुकदमे के दौरान दल पाय: निष्क्रिय ही रहा। एकाध बार बिस्मिल तथा योगेश चटर्जी आदि क्रान्तिकारियों को छुड़ाने की योजना भी बनी जिसमें आज़ाद के अलावा भगत सिंह भी शामिल थे लेकिन किसी कारण वश यह योजना पूरी न हो सकी।

४ क्रान्तिकारियों को फाँसी और १६ को कड़ी कैद की सजा के बाद चन्द्रशेखर आज़ाद ने उत्तर भारत के सभी कान्तिकारियों को एकत्र कर ८ सितम्बर १९२८ को दिल्ली के फीरोजशाह कोटला मैदान में एक गुप्त सभा का आयोजन किया। इसी सभा में भगत सिंह को भी दल का प्रचार-प्रमुख बनाया गया। इसी सभा में तय किया गया कि सभी क्रान्तिकारी दलों को अपने-अपने उद्देश्य इस सभा में केन्द्रित कर लेने चाहिये। पर्याप्त विचार-विमर्श के पश्चात् एकमत से समाजवाद को भी दल के प्रमुख उद्देश्यों में शामिल घोषित करते हुए " हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसियेशन " का नाम बदलकर " हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसियेशन " रखा गया। चन्द्रशेखर आज़ाद ने सेना-प्रमुख (कमाण्डर-इन-चीफ) का दायित्व सम्हाला। इस दल के गठन के पश्चात् एक नया लक्ष्य निर्धारित किया गया- "हमारी लडाई आखिरी फैसला होने तक की लडाई है और वह फैसला है जीत या मौत ।"

आज़ाद के प्रशंसकों में पण्डित मोतीलाल नेहरू, पुरुषोत्तमदास टंडन का नाम शुमार था। जवाहरलाल नेहरू से आज़ाद की भेंट आनन्द भवन में हुई थी उसका ज़िक्र नेहरू ने अपनी आत्मकथा में 'फासीवादी मनोवृत्ति' के रूप में किया है। इसकी कठोर आलोचना मन्मथनाथ गुप्त ने अपने लेखन में की है। कुछ लोगों का ऐसा भी कहना है कि नेहरू ने आज़ाद को दल के सदस्यों को समाजवाद के प्रशिक्षण हेतु रूस भेजने के लिये एक हजार रुपये दिये थे जिनमें से ४४८ रूपये आज़ाद की शहादत के वक़्त उनके वस्त्रों में मिले थे। सम्भवतः सुरेन्द्रनाथ पाण्डेय तथा यशपाल का रूस जाना तय हुआ था पर १९२८-३१ के बीच शहादत का ऐसा सिलसिला चला कि दल लगभग बिखर सा गया। जबकि यह बात सच नहीं है। चन्द्रशेखर आज़ाद की इच्छा के विरुद्ध जब भगत सिंह एसेम्बली में बम फेंकने गये तो आज़ाद पर दल की पूरी जिम्मेवारी आ गयी। साण्डर्स वध में भी उन्होंने भगत सिंह का साथ दिया और बाद में उन्हें छुड़ाने की पूरी कोशिश भी की। आज़ाद की सलाह के खिलाफ जाकर यशपालने २३ दिसम्बर १९२९ को दिल्ली के नज़दीक वायसराय की गाड़ी पर बम फेंका तो इससे आज़ाद क्षुब्ध थे क्योंकि इसमें वायसराय तो बच गया था पर कुछ और कर्मचारी मारे गए थे। आज़ाद को २८ मई १९३० को भगवतीचरण वोहरा की बम-परीक्षण में हुई शहादत से भी गहरा आघात लगा था । इसके कारण भगत सिंह को जेल से छुड़ाने की योजना भी खटाई में पड़ गयी थी। भगत सिंह, सुखदेव तथा राजगुरु की फाँसी रुकवाने के लिए आज़ाद ने दुर्गा भाभी को गाँधीजी के पास भेजा जहाँ से उन्हें कोरा जवाब दे दिया गया था। आज़ाद ने अपने बलबूते पर झाँसी और कानपुर में अपने अड्डे बना लिये थे। झाँसी में मास्टर रुद्र नारायण, सदाशिव मलकापुरकर,भगवानदास माहौर तथा विश्वनाथ वैशम्पायन थे जबकि कानपुर में पण्डित शालिग्राम शुक्ल सक्रिय थे। शालिग्राम शुक्ल को १ दिसम्बर १९३० को पुलिस ने आज़ाद से एक पार्क में मिलने जाते वक्त शहीद कर दिया था।

बिस्मिल के सच्चे उत्तराधिकारी चन्द्रशेखर आज़ाद के मृत शरीर को निहारते लोग व अंग्रेज अधिकारी, उनकी साइकिल पेड़ के पीछे खड़ी है।

एच.एस.आर.ए. द्वारा किये गये साण्डर्स-वध और दिल्ली एसेम्बली बम काण्ड में फाँसी की सजा पाये तीन अभियुक्तों- भगत सिंह, राजगुरु व सुखदेव ने अपील करने से साफ मना कर ही दिया था। अन्य सजायाफ्ता अभियुक्तों में से सिर्फ ३ ने ही प्रिवी कौन्सिल में अपील की। ११ फरवरी १९३१ को लन्दन की प्रिवी कौन्सिल में अपील की सुनवाई हुई। इन अभियुक्तों की ओर से एडवोकेट प्रिन्ट ने बहस की अनुमति माँगी थी किन्तु उन्हें अनुमति नहीं मिली और बहस सुने बिना ही अपील खारिज कर दी गयी। चन्द्रशेखर आज़ाद ने मृत्यु दण्ड पाये तीनों प्रमुख क्रान्तिकारियों की सजा कम कराने का काफी प्रयास किया। वे उत्तर प्रदेश की सीतापुर जेल में जाकरगणेशशंकर विद्यार्थी से मिले। विद्यार्थी से परामर्श कर वे इलाहाबाद गये और जवाहरलाल नेहरू से उनके निवासआनन्द भवन में भेंट की। आज़ाद ने पण्डित नेहरू से यह आग्रह किया कि वे गांधी जी पर लॉर्ड इरविन से इन तीनों की फाँसी को उम्र- कैद में बदलवाने के लिये जोर डालें। नेहरू जी ने जब आज़ाद की बात नहीं मानी तो आज़ाद ने उनसे काफी देर तक बहस भी की। इस पर नेहरू जी ने क्रोधित होकर आज़ाद को तत्काल वहाँ से चले जाने को कहा तो वे अपने तकियाकलाम 'स्साला' के साथ भुनभुनाते हुए ड्राइँग रूम से बाहर आये और अपनी साइकिल पर बैठकर अल्फ्रेड पार्क की ओर चले गये। अल्फ्रेड पार्क मंभ अपने एक मित्र सुखदेव राज से मन्त्रणा कर ही रहे थे तभी सी०आई०डी० का एस०एस०पी० नॉट बाबर जीप से वहाँ आ पहुँचा। उसके पीछे-पीछे भारी संख्या में कर्नलगंज थाने से पुलिस भी आ गयी। दोनों ओर से हुई भयंकर गोलीबारी में आज़ाद को वीरगति प्राप्त हुई। यह दुखद घटना २७ फरवरी १९३१ के दिन घटित हुई और हमेशा के लिये इतिहास में दर्ज हो गयी।

पुलिस ने बिना किसी को इसकी सूचना दिये चन्द्रशेखर आज़ाद का अन्तिम संस्कार कर दिया था। जैसे ही आज़ाद की शहादत की खबर जनता को लगी सारा इलाहाबाद अलफ्रेड पार्क में उमड पडा। जिस वृक्ष के नीचे आज़ाद शहीद हुए थे लोग उस वृक्ष की पूजा करने लगे। वृक्ष के तने के इर्द-गिर्द झण्डियाँ बाँध दी गयीं। लोग उस स्थान की माटी को कपडों में शीशियों में भरकर ले जाने लगे। समूचे शहर में आज़ाद की शहादत की खबर से जबरिदस्त तनाव हो गया। शाम होते-होते सरकारी प्रतिष्ठानों परी हमले होने लगे। लोग सडकों पर आ गये।

आज़ाद के शहादत की खबर जवाहरलाल नेहरू की पत्नी कमला नेहरू को मिली तो उन्होंने तमाम काँग्रेसी नेताओं व अन्य देशभक्तों को इसकी सूचना दी। । बाद में शाम के वक्त लोगों का हुजूम पुरुषोत्तम दास टंडन के नेतृत्व में इलाहाबाद के रसूलाबाद शमशान घाट पर कमला नेहरू को साथ लेकर पहुँचा। अगले दिन आज़ाद की अस्थियाँ चुनकर युवकों का एक जुलूस निकाला गया। इस जुलूस में इतनी ज्यादा भीड थी कि इलाहाबाद की मुख्य सडकों पर जाम लग गया। ऐसा लग रहा था जैसेइलाहाबाद की जनता के रूप में सारा हिन्दुस्तान अपने इस सपूत को अंतिम विदाई देने उमड पडा हो। जुलूस के बाद सभा हुई। सभा को शचीन्द्रनाथ सान्याल की पत्नी प्रतिभा सान्याल ने सम्बोधित करते हुए कहा कि जैसे बंगाल में खुदीराम बोस की शहादत के बाद उनकी राख को लोगों ने घर में रखकर सम्मानित किया वैसे ही आज़ाद को भी सम्मान मिलेगा। सभा को कमला नेहरू तथा पुरुषोत्तम दास टंडन ने भी सम्बोधित किया। इससे कुछ ही दिन पूर्व ६ फरवरी १९२७ को पण्डितमोतीलाल नेहरू के देहान्त के बाद आज़ाद भेष बदलकर उनकी शवयात्रा में शामिल हुए थे पर उन्हें क्या पता था कि इलाहाबाद की इसी धरा पर कुछ दिनों बाद उनका भी बलिदान होगा!


ऐतिहासिक तथ्यों के मुताबिक 27 फरवरी 1931 को इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में अंग्रेजों के साथ मुठभेड़ में शहीद होने वाले चंद्रशेखर आज़ाद ने उनपर पहली गोली चलाने वाले अंग्रेज अधिकारी नाटबाबर को भी गोली मारकर घायल कर दिया था।

इस हमले में आज़ाद अनेक अंग्रेज अधिकारियों और जवानों के साथ घिर गए थे और गोली लगने के कारण उनकी सक्रियता भी कम होती जा रही थी। इस स्थिति में उन्होंने अपनी पिस्तौल की एक एक गोली का सदुपयोग दुश्मनों के खिलाफ किया और अंत में बची गोली अपने ऊपर ही दागकर शहीद हो गए। 27 फरवरी 1931 को आज़ाद ने अपने साथी सुखदेव को बर्मा जाने की योजना के बारे विचार-विमर्श करने के लिए अल्फ्रेड पार्क बुलाया था। इसी बीच एक गद्दार की सूचना पर अंग्रेज पुलिस वहां पहुँच गई और इसी दिन आज़ाद शहीद हो गए।

व्यक्तिगत जीवन
आज़ाद प्रखर देशभक्त थे। काकोरी काण्ड में फरार होने के बाद से ही उन्होंने छिपने के लिए साधु का वेश बनाना बखूबी सीख लिया था और इसका उपयोग उन्होंने कई बार किया। एक बार वे दल के लिये धन जुटाने हेतु गाज़ीपुर के एक मरणासन्न साधु के पास चेला बनकर भी रहे ताकि उसके मरने के बाद मठ की सम्पत्ति उनके हाथ लग जाये। परन्तु वहाँ जाकर जब उन्हें पता चला कि साधु उनके पहुँचने के पश्चात् मरणासन्न नहीं रहा अपितु और अधिक हट्टा-कट्टा होने लगा तो वे वापस आ गये। प्राय: सभी क्रान्तिकारी उन दिनों रूस की क्रान्तिकारी कहानियों से अत्यधिक प्रभावित थे आज़ाद भी थे लेकिन वे खुद पढ़ने के बजाय दूसरों से सुनने में ज्यादा आनन्दित होते थे। एक बार दल के गठन के लिये बम्बई गये तो वहाँ उन्होंने कई फिल्में भी देखीं। उस समय मूक फिल्मों का ही प्रचलन था अत: वे फिल्मो के प्रति विशेष आकर्षित नहीं हुए।

एक बा‍र आज़ाद कानपुर के मशहूर व्यवसायी सेठ प्यारेलाल के निवास पर एक समारोह में आये हुये थे। प्यारेलाल प्रखर देशभक्त थे और प्राय: क्रातिकारियों की आथि॑क मदद भी किया करपते थे। आज़ाद और सेठ जी बातें कर ही रहे थे तभी सूचना मिली कि पुलिस ने हवेली को घेर लिया है। प्यारेलाल घबरा गये फिर भी उन्होंने आज़ाद से कहा कि वे अपनी जान दे देंगे पर उनको कुछ नहीं होने देंगे। आज़ाद हँसते हुए बोले-"आप चिंन्ता न करें, मैं कानपुर के लोगों को मिठाई खिलाये बिना जाने वाला नहीं।" फिर वे सेठानी से बोले- "आओ भाभी जी! बाहरग चलकर मिठाई बाँट आयें।" आज़ाद ने गमछा सिर पर बाँधा, मिठाई का टो़करा उठाया और सेठानी के साथ चल दिये। दोनों मिठाई बाँटते हुए हवेली से बाहर आ गये। बाहर खडी पुलिस को भी मिठाई खिलायी। पुलिस की आँखों के सामने से आज़ाद मिठाई-वाला बनकर निकल गये और पुलिस सोच भी नही पायी कि जिसे पकडने आयी थी वह परिन्दा तो कब का उड चुका है। ऐसे थे आज़ाद!

चन्द्रशेखर आज़ाद हमेशा सत्य बोलते थे। एक बार की घटना है आज़ाद पुलिस से छिपकर जंगल में साधु के भेष में रह रहे थे तभी वहाँ एक दिन पुलिस आ गयी। दैवयोग से पुलिस उन्हीं के पास पहुँच भी गयी। पुलिस ने साधु वेश धारी आज़ाद से पूछा-"बाबा!आपने आज़ाद को देखा है क्या?" साधु भेषधारी आज़ाद तपाक से बोले- "बच्चा आज़ाद को क्या देखना, हम तो हमेशा आज़ाद रहते‌ हें हम भी तो आज़ाद हैं।" पुलिस समझी बाबा सच बोल रहा है, वह शायद गलत जगह आ गयी है अत: हाथ जोड़कर माफी माँगी और उलटे पैरों वापस लौट गयी।

चन्द्रशेखर आज़ाद ने वीरता की नई परिभाषा लिखी थी। उनके बलिदान के बाद उनके द्वारा प्रारम्भ किया गया आन्दोलन और तेज हो गया, उनसे प्रेरणा लेकर हजारों युवक स्वदतन्त्रता आन्दोलन में कूद पड़े। आज़ाद की शहादत के सोलह वर्षों बाद १५ अगस्त सन् १९४७ को हिन्दुस्तान की आजादी का उनका सपना पूरा तो हुआ किन्तु वे उसे जीते जी देख न सके। आज़ाद अपने दल के सभी क्रान्तिकारियों में बडे आदर की दृष्टि से देखे जाते थे। सभी उन्हें पण्डितजी ही कहकर सम्बोधित किया करते थे। वे सच्चे अर्थों में पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल के वास्तविक उत्तराधिकारी जो थे।

Tuesday, August 9, 2011

असमानता की आजादी का जश्‍न.....................!

                                     15 अगस्त, 2011 को हम आजादी की 65वीं सालगिरह मनाने जा रहे भारत में कौन कितना-कितना और किस-किस बात के लिये आजाद है? यह बात अब आम व्यक्ति भी समझने लगा है| इसके बावजूद भी हम बड़े फक्र से देशभर में आजादी का जश्‍न मनाते हैं| हर वर्ष आजादी के जश्‍न पर करोड़ों रुपये फूंकते आये हैं| कॉंग्रेस द्वारा भारत के राष्ट्रपिता घोषित किये गये मोहन दास कर्मचन्द गॉंधी के नेतृत्व में हम हजारों लाखों अनाम शहीदों को नमन करते हैं और अंग्रेजों की दासता से मिली मुक्ति को याद करके खुश होते हैं| लेकिन देश की जमीनी हकीकत कुछ और ही कहानी बयॉं करती है|

संविधान निर्माता एवं भारत रत्न डॉ. भीमराव अम्बेड़कर ने कहा था कि यदि मोहनदास कर्मचन्द गॉंधी के वंशजों को भारत की सत्ता सौंपी गयी तो इस देश के दबे-कुचले दमित, पिछड़े, दलित, आदिवासी और स्त्रियॉं ब्रिटिश गुलामी से आजादी मिलने के बाद भी मोहन दास कर्मचन्द गॉंधी के वंशजों के गुलाम ही बने रहेंगे| डॉ. अम्बेड़कर के चिन्तन को पढने से पता चलता है कि उनका मोहनदास कर्मचन्द गॉंधी के वंशजों या कॉंग्रेस का सीधे विरोध करना मन्तव्य कतई भी नहीं था, अपितु उनका तात्पर्य तत्कालीन सामन्ती एवं वर्गभेद करने वाली मानसिकता का विरोध करना था, जिसे डॉ. अम्बेडकर के अनुसार गॉंधी का खुला समर्थन था, या यों कहा जाये कि ये ही ताकतें उस समय गॉंधी को धन उपलब्ध करवाती थी| दुर्भाग्य से उस समय डॉ. अम्बेड़कर की इस टिप्पणी को केवल दलितों के समर्थन में समझकर गॉंधीवादी मीडिया ने कोई महत्व नहीं दिया था, बल्कि इस मॉंग का पुरजोर विरोध भी किया था| जबकि डॉ. अम्बेड़कर ने इस देश के बहुसंख्यक दबे-कुचले लोगों की आवाज को ब्रिटिश सत्ता के समक्ष उठाने का साहसिक प्रयास किया था| जिसे अन्तत: तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमन्त्री और मोहम्मद अली जिन्ना के समर्थन के बावजूद मोहन दास कर्मचन्द गॉंधी के विरोध के कारण स्वीकार नहीं किया जा सका|

आज डॉ. अम्बेड़कर की उक्त बात हर क्षेत्र में सच सिद्ध हो रही है| इस देश पर काले अंग्रेजों तथा कुछेक मठाधीशों का कब्जा हो चुका है, जबकि आम जनता बुरी तरह से कराह रही है| मात्र मंहगाई ही नहीं, बल्कि भ्रष्टाचार, कालाबाजारी, मिलावट, कमीशनखोरी, भेदभाव, वर्गभेद, गैर-बराबरी, अत्याचार, शोषण, उत्पीड़न, बलात्कार, लूट, डकैती आदि अपराध लगातार बढ रहे हैं| जनता को बहुत जरूरी (मूलभूत) सुविधाओं का मिलना तो दूर उसके राशन कार्ड, ड्राईविंग लाईसेंस, मूल निवास एवं जाति प्रमाण-पत्र जैसे जरूरी दस्तावेज भी बिना रिश्‍वत दिये नहीं बनते हैं| आम लोगों को पीने को नल का या कुए का पानी उपलब्ध नहीं है, जबकि राजनेताओं एवं जनता के नौकरों (लोक सेवक-जिन्हें सरकारी अफसर कहा जाता है) के लिये 12 रुपये लीटर का बोतलबन्द पानी उपलब्ध है| रेलवे स्टेशन पर यात्रियों को बीड़ी-सिगरेट पीने के जुर्म में दण्डित किया जाता है, जबकि वातानुकूलित कक्षों में बैठकर सिगरेट तथा शराब पीने वाले रेल अफसरों के विरुद्ध कोई कार्यवाही करने वाला कोई नहीं है|

अफसरों द्वारा कोई अपराध किया जाता है तो सबसे पहले तो उसे (अपराध को) उनके ही साथी वरिष्ठ अफसरों द्वारा दबाने का भरसक प्रयास किया जाता है और यदि मीडिया या समाज सेवी संगठनों का अधिक दबाव पड़ता है तो अधिक से अधिक छोटी-मोटी अनुशासनिक कार्यवाही करके मामले को रफा-दफा कर दिया जाता है, जबकि उसी प्रकृति के मामले में कोई आम व्यक्ति भूलवश भी फंस जाये तो उसे कई बरस के लिये जेल में डाल दिया जाता है| यह मनमानी तो तब चल रही है, जबकि हमारे संविधान में साफ शब्दों में लिखा हुआ है कि इस देश में सभी लोगों को कानून के समक्ष एक समान समझा जायेगा और सभी लोगों को कानून का एक समान संरक्षण प्रदान किया जायेगा| क्या हम इसी असमानता की आजादी का जश्‍न मनाने जा रहे हैं?

महान सेनानी सुभाष चन्द्र बोस.....................

महान स्वतंत्रता सेनानी नेताजी सेनानी सुभाष चन्द्र बोस तेजस्वी नेता ,प्रखर वक्ता , वीर क्रन्तिकारी और कुशल नेत्रत्व्कर्ता थे ! उन्होंने भारत को स्वतंत्र कराने के लिए देश और विदेश में हर संभव प्रयास किया और अंत में अपने प्राणों का बलिदान कर दिया पर बहुत दुःख की बात है की उन्हें जो सम्मान मिलना चाहिए था वह नहीं मिला यहाँ तक की उनकी म्रत्यु का रहस्य आज भी एक रहस्य ही है ! हमारी केंद्र सरकार के लिए यह कितने शर्म की बात है वह जानबूझकर नेताजी जैसे अमर शहीद की रहस्मय म्रत्यु पर पर्दा डाले हुए है ताकि दूसरे देशों से उसके सम्बन्ध ख़राब न हों !
                                                           शुरूआती जीवन ----
 
सुभाष जी का जन्म 23- जनवरी-1897 को कटक (उडीसा ) में एक संपन्न बंगाली कायस्थ परिवार में हुआ था !उनके पिता जानकीनाथ बोस प्रतिष्ठित वकील थे और उनकी माँ प्रभावती देवी सात्विक महिला थीं ! वह अपने 14 भाई-बहनों में 9 वीं संतान थे !
बचपन से ही उन पर स्वामी विवेकानंद के विचारों का भी बहुत प्रभाव पड़ा था और उनका हृदय अंग्रेजों के अन्याय व मानवता की दुर्दशा से द्रवित हो उठता था ! जब एक दिन किशोर सुभाष ने अखबार में पढ़ा की जाजपुर में हैजे का भीषण प्रकोप फेला है तो वह तुरंत जाजपुर जाकर रोगियों की सेवा करने में लग गए और कई महीनों तक पीड़ितों की सेवा में लगे रहे !
उन्होंने छठी कक्षा तक की शिक्षा कटक के ही अंग्लो स्कूल (अब स्टीवर्ट स्कूल) और उसके बाद की शिक्षा रेवनशा कालेजिएट स्कूल ( Ravenshaw Collegiate School ) से प्राप्त की ! इसके बाद आगे की शिक्षा के लिए उन्होंने कलकत्ता के प्रतिष्ठित प्रेसिडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया ! उनमें शुरू से ही राष्ट्रप्रेम की भावना कूट-कूट कर भरी थी इसीलिए जब कॉलेज में प्रो.ओटन (Professor Oaten) ने भारत-विरोधी टीका-टिप्पणी की तो सुभाष ने उस पर हमला कर दिया पर इसके दंड स्वरुप उन्हें कॉलेज से निकाल दिया गया ! सुभाष राष्ट्र-प्रेमी होने के साथ-साथ तीव्र बुद्धि के भी थे और उन्होंने 1911 में मेट्रिक परीक्षा में पूरे कलकत्ता प्रान्त में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया ! 1918 में उन्होंने प्रसिद्ध स्कोटिश चर्च कॉलेज (Scottish Church College) से दर्शन-शास्त्र में बी.ए. किया !
उन्होंने लन्दन जाकर सिविल सेवा परीक्षा दी जिसमें उनका चोथा स्थान प्राप्त किया ! इसमें उनके उच्च अंकों के आधार पर उन्हें सिविल सेवा में स्वतः नियुक्ति मिल गयी पर तब उन्होंने यह कहते हुए आइ.सी.एस. ( Indian civil services) से त्यागपत्र दे दिया की " किसी शासन का अंत करने का सबसे अच्छा तरीका है की उससे अलग हो जाओ !" और एक बार फिर अपने देशप्रेम का परिचय दिया !
इस समय भारत में सभी राष्ट्रवादी लोग जलियांवाला काण्ड(1919) और दमनात्मक रोलेक्ट एक्ट (1919) से स्तब्ध और उग्र थे ! स्वदेश वापस आकर सुभाष ने "स्वराज समाचारपत्र " में लेख लिखे व देशबंधु चितरंजन दास और महात्मा गाँधी की प्रेरणा से वह भारतीय राष्ट्रिय कांग्रेस में शामिल हो गए और " बंगाल प्रांतीय कांग्रेस कमेटी " के प्रचार का भार अपने ऊपर ले लिया ! जब महात्मा गाँधी ने देश में असहयोग आन्दोलन की शुरुआत की तब सुभाष जी ने भी उसमें पूरा भाग लिया ! भारत में उनके राजनीतिक गुरु चितरंजन दास थे ! जब सी.आर. दास कलकत्ता के मेयर चुने गए तब भी सुभाष ने उनके साथ कार्य किया ! सुभाष को देशबंधु ने राष्ट्रिय स्वयं सेवक दल का सेनापति बना दिया !उनकी संगठन क्षमता व कोशल से अंग्रेज सरकार घबरा गयी और उसने संगठन को गेर-कानूनी करार कर दिया और दल के कई युवकों को जेल में डाल दिया ! सुभाष को भी पकड़कर अलीपुर जेल में डाल दिया गया और उन्हें 6 महीनों की सजा हुई ! यह उनकी पहली जेल-यात्रा थी और फिर तो वह कई बार जेल गए ! 1925 में भी जब राष्ट्रवादियों की धर-पकड़ हुई तब सुभाष को भी गिरफ्तार किया गया और मांडले( म्यांमार) जेल में कैद कर दिया गया , जहां उन्हें टी.बी. रोग का संक्रमण हो गया !

                                             राष्ट्रीय राजनीति में प्रवेश --------

      जेल में दो साल बिताने के बाद बोस बाहर आ गए ! वह कांग्रस पार्टी के जनरल सेक्रेटरी चुने गए और जवाहरलाल नेहरु ,आदि के साथ स्वतंत्रता आन्दोलन में लग गए ! पर इस बार फिर अंग्रेज सरकार ने सुभाष को नागरिक अवज्ञा (civil disobedience) के जुर्म में गिरफ्तार कर लिया ! पर अंग्रेज सरकार का दमन उनके जोश और जनता में उनकी लोकप्रियता को कम नहीं कर सका और 1930 में वह कलकत्ता के मेयर चुने गए ! 1933 में सुभाष यूरोप की यात्रा पर गए और 1935 में वापस आये ! उन्होंने भारतीय छात्रों और यूरोपीय राजनेताओं , जिनमें मुसोलोनी भी था, से मुलाक़ात की !उन्होंने पार्टी संगठन का ध्यान से अवलोकन किया और साम्यवाद व फासीवाद की कार्रवाई को देखा ! उन्होंने पाया की विश्व युद्ध की चर्चा सर्वत्र है !
                                       कांग्रेस का अध्यक्ष चुना जाना गांधीजी से मतभेद और फॉरवर्ड ब्लोक की स्थापना -
1938 तक वह राष्ट्रीय स्तर के नेता बन चुके थे ! इसी वर्ष वह कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए अपना नाम देने हो गए और 1938 में कांग्रेस के के अधिवेशन में वह कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए ! उनका लक्ष्य था -> बिनाशर्त पूर्ण स्वराज , जिसमें अंग्रेज सरकार के प्रति बल प्रयोग की भी बात थी ! यह बात महात्मा गाँधी की सोच से मेल नहीं खाती थी और महात्मा गाँधी ने सुभाष जी के 1939 में अध्यक्ष पद हेतु दोबारा नामांकन का भी विरोध किया पर सुभाष 1939 के त्रिपुरी अधिवेशन में दूसरी बार भी अध्यक्ष चुने गए , बोस स्ट्रेचर पर कांग्रेस की मीटिंग में भाग लेने गए ! गांधीजी पट्टाभि सीतारामैय्या का समर्थन कर रहे थे और उनके हारने पर गांधीजी ने कहा की पट्टाभि सीतारामैय्या की हार उनकी हार है ! इस मतभेद से कांग्रेस पार्टी में फूट पड गयी ! सुभाष ने पार्टी में एकता बनाए रखने का प्रयास किया लेकिन गांधीजी नहीं माने और उन्होंने सुभाष को अपनी कार्यकारणी खुद ही बना लेने को कहा ! इस मतभेद से उनके और नेहरु के बीच भी दरार पड गयी !
1939 के त्रिपुरी अधिवेशन में उन्होंने अपने अध्यक्षीय भाषण में सुझाव दिया की - ' स्वाधीनता की राष्ट्रिय मांग एक निश्चित समय के अंदर पूरी करने के लिए ब्रिटिश सरकार के सामने रखी जाए और उस समय-सीमा में मांग पूरी न होने पर हमें सविनय अवज्ञा आन्दोलन और सत्याग्रह शुरू कर देना चाहिए ! ' पर कांग्रेस वर्किंग कोम्मित्ती के गाँधी -वादी धड़े के निरंतर व्यवधान और विरोध के कारण आखिरकार सुभाष को अप्रैल-1939 को कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा !
कांग्रेस से अलग होकर उन्होंने 22-जून-1939 को forward bloc की स्थापना की जिसका प्रमुख उद्देश्य था वाम पंथ (लेफ्ट ) को मजबूत बनाना !
सुभाष का मानना था की जब अंग्रेज द्वितीय विश्व-युद्ध में फंसे हैं तभी हमें उनकी राजनितिक अस्थिरता का फायदा उठाना चाहिए और स्वतंत्रता के लिए प्रयास करना चाहिए न की यह इंतज़ार करना चाहिए की युद्ध की समाप्ति पर अंग्रेज हमें स्वतंत्रता दे दें !( जो की गांधीजी , नेहरु ,आदि की सोच थी !)
द्वितीय-विश्व युद्ध के शुरू होने पर उन्होंने इस बात का व्यापक विरोध किया की वायसराय लिनलिथगो ने बिना कांग्रस नेतृत्व से सलाह किये भारत को भी युद्ध में कैसे शामिल कर लिया ! पर जब वह गांधीजी को सहमत नहीं कर पाए तो उन्होंने स्वयं ही जन - विरोध का आयोजन किया और ब्लैक-होल घटना की याद में अंग्रेजों द्वारा बनाये गए " होल्वेल स्मारक चिह्न " को मिटा देने का आह्वाहन किया ! अंग्रेजों ने उन्हें पकड़ कर जेल में डाल दिया पर सुभाष द्वारा 7 दिनों तक भूख-हड़ताल करने और जेल के बाहर जनता द्वारा भरी आन्दोलन करने के बाद सरकार को उन्हें मजबूरन छोड़ देना पड़ा पर अब उन्हें घर में ही (सी.बी.आई. द्वारा) नजरबन्द कर दिया गया !
गांधीजी और उनके विचारों का अंतर इसी से पता चलता है की उनका मानना था की " अगर कोई तुम्हें एक थप्पड़ मरे तो तुम उसे दो थप्पड़ मारो ! "
                                            नजरबंदी से जर्मनी तक -------------
इस नजरबंदी से भी उन्हें लाभ ही हुआ ! सुभाष जानते थे की चूंकि उन पर अभी दो केस विचाराधीन हैं इसीलिए युद्ध ख़त्म होने तक ब्रिटिश सरकार उन्हें देश से बाहर नहीं जाने देगी ! इस स्थिति ने उनके जर्मनी जाने का मार्ग बनाया ! abwehr ( जर्मनी की सैन्य गुप्तचार सेवा ) के सहयोग से वह अफगानिस्तान और रूस होते हुए जर्मनी पहुंचे ! 19-जनवरी-1941 को अंग्रेज सरकार की कठोर निगरानी के बीच( अपने भतीजे शिशिर बोस के साथ) घर से निकले ! उन्होंने पश्तून इंश्योरेंस एजेंट पठान "जियाउद्दीन" का वेश बनाया और कलकत्ता से वह पेशावर पहुँच गए ! वहाँ उनकी भेंट अकबर शाह , मोहम्मद शाह और भगत राम तलवार से हुई ! अपने सहियोगियों की मदद से वह काबुल होते हुए रूस पहुंचे ! उनका मानना था की अंग्रेज सरकार से पारंपरिक शत्रुता होने के कारण सोवियत रूस भारत में अंग्रेजों के खिलाफ बड़े विद्रोह का समर्थन करेगा पर मोस्को पहुँचने पर उन्हें रूस की प्रतिक्रिया बहुत निराशाजनक लगी ! उन्हें तुरंत ही मोस्को में जर्मन राजदूत को सौंप दिया गया ! जर्मन राजदूत ने उन्हें विशेष कोरिअर विमान से बर्लिन भेज दिया ! मोस्को से वह इटली के कुलीन काउंट ओरलांडो मोजाता (Count Orlando Mazzotta) के पासपोर्ट पर रोम होते हुए बर्लिन पहुंचे !

1941 में , जब अंग्रेजों को पता चला की बोस धुरी-राष्ट्रों से सहयोग की अपेक्षा कर रहे हैं तो उसने अपने एजेंटों को आदेश दिया की वह उन्हें जर्मनी पहुँचने से पहले ही रास्ते में ही उनकी हत्या कर दें !
नेताजी 2 -अप्रैल-1941 को बर्लिन पहुंचे जहां उनका भरपूर स्वागत हुआ ! जर्मन सरकार के पर-राष्ट्र विभाग ने उन्हें " फ्यूहरर ऑफ़ इण्डिया" की उपाधि दी ! जर्मनी की जनता ने ही उन्हें "नेताजी" नाम से संबोधित किया !वहाँ पहुंचकर वह अपने मिशन में लग गए ! उन्होंने धुरी-राष्ट्रों की सैनिक शक्तियों की मदद से भारत की स्वतंत्रता का प्रयास शुरू कर दिया ! उन्होंने युद्ध का मोर्चा देखा और युद्ध-विद्या की ट्रेनिंग ली तथा फील्ड मार्शल बन गए ! बर्लिन में उन्होंने "फ्री इंडिया सेण्टर " ,"आजाद हिंद रेडियो" की स्थापना की और 4500 भारतीय युद्ध-बंदियों को मिलाकर "भारतीय सेना" (Indian Legion) का गठन किया ! यह वह युद्ध-बंदी थे जिन्होंने दक्षिण अफ्रीका में अंग्रेज सेना की ओर से युद्ध किया था ओर धुरी-राष्ट्रों द्वारा बंदी बना लिए गए थे !इसके सदस्यों ने हिटलर और बोस के सामने वफादारी की शपथ ली ! सुभाष ने बर्लिन रेडियो से अंग्रेज विरोधी और भारत समर्थक जोशीला भाषण दिया !
7-दिस.-1941 को जापान , जर्मनी के साथ विश्व युद्ध में शामिल हो गया और 16-फर.-1942 को जापान ने अंग्रेजों के विश्व प्रसिद्ध समुद्री गढ़ सिंगापूर पर कब्ज़ा कर लिया ! इसके बाद जापान ने मलय से म्यांमार तक का पूरा प्रदेश जीत लिया !
नेताजी ने अपना ध्यान दक्षिण-पूर्व एशिया की ओर केन्द्रित किया जहां बड़ी संख्या में भारतीय बसे थे इसीलिए यहाँ अंग्रेजी-राज के खिलाफ ओप्निवेशिक शासन विरोधी शक्ति की स्थापना की अच्छी संभावना थी !
                               आई.एन.ऐ का नेतृत्व और "अस्थायी सरकार " की स्थापना---------------------
इन दिनों भारत के पुराने और प्रसिद्ध क्रन्तिकारी रास बिहारी बोस जापान में थे ! इन्हीं रास बिहारी बोस की अध्यक्षता में बेंकाक में 14-जून से 23-जून-1942 के बीच एक सम्मलेन हुआ ,जिसे "बेंकाक सम्मलेन" के नाम से जाना जाता है ! इसमें जापान से लेकर म्यांमार तक के देशों में रहने वाले असंख्य भारतीय शामिल हुए !इस सम्मलेन में " भारतीय स्वतंत्रता लीग " की विधिवत घोषणा की गयी और सुभाष को वहाँ आने का निमंत्रण दिया गया !
इस निमंत्रण को स्वीकार कर सुभाष 8-फ़रवरी-1943 को जर्मनी से चले और जर्मनी से वह उत्तमाषा अन्तेरीप (cape of good hope) होते हुए , जर्मनी और जापानी पनडुब्बियों द्वारा ,तीन महीनों की यात्रा के बाद मई-1943 को टोक्यो पहुंचे !जापान के प्रधानमन्त्री तोजो ने उनका स्वागत किया !उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया की उनका एकमात्र लक्ष्य - भारत की स्वतंत्रता है ! उन्होंने जापान की यह मांग स्वीकार कर ली की युद्ध के दोरान भारत जापान का सहयोगी रहेगा ! सुभाष ने टोक्यो रेडियो से अंग्रेजों के खिलाफ और भारत की आजादी के लिए अपना प्रथम सन्देश दिया ! इसके बाद जापान ने उन्हें सिंगापूर में अपनी सेना बनाने में मदद की !
इस समय , सितम्बर-1942 तक कैप्टन मोहन सिंह के नेतृत्व में सिंगापुर में " आजाद हिंद फ़ौज " का गठन भी हो चुका था (जापान द्वारा सुदूर पूर्व में पकडे गए अंग्रेज सेना के भारतीय युद्ध-बंदियों को मिलाकर), जिसका उद्देश्य था-जापान की मदद से भारत को अंग्रेज राज से स्वतंत्रता कराना ! 2- जुलाई-1943 को सुभाष सिंगापुर पहुंचे जहां 5-जुलाई-1943 को हुए सम्मलेन में रास बिहारी बोस ने संगठन की अध्यक्षता सौंप दी और स्वयं आई.एन.ऐ. के परामर्शदाता बन गए ! सुभाष में शुरू से ही अद्भुत संगठन कोशल और नेतृत्व शमता थी उन्होंने एन.आई.ऐ. को दोबारा संगठित किया और दक्षिण-पूर्व एशिया में रहने वाली असंख्य प्रवासी भारतीय जनसँख्या के बीच उसे भारी लोकप्रियता दिलाई ! इन प्रवासी भारतीयों ने सुभाष के आह्वाहन पर न केवल आर्थिक मदद की बल्कि भारी संख्या में वह आई.ऍन. ऐ. में भर्ती भी हुए !इस समय इसमें लगभग 40,000 सैनिक थी और इसमें " झाँसी की रानी " नाम की एक महिला रेजिमेंट भी थी जिसकी नेता कैप्टन लक्ष्मी स्वामीनाथन सहगल थीं ! यह एशिया में अपनी तरह की पहली रेजिमेंट थी ! इससे स्पष्ट हो जाता है की उस समय भारतीयों में सुभाष किस तरह लोकप्रिय थे की उनके एक इशारे पर हजारों भारतीय पुरुषों के साथ-साथ महिलाएं भी अपने प्राणों की आहुति देने को तत्पर थीं !
21-अक्टूबर-1943 को सुभाष ने आजाद हिंद फ़ौज के सर्वोच्च सेनापति की हैसियत से सिंगापुरमें " स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार " ( अर्जी हुकूमत-ए-आजाद हिंद / Provisional Government of Free India ) की स्थापना की व 23- अक्टूबर-1943 को अस्थायी सरकार ने "मित्र राष्ट्रों " के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी ! !वह स्वयं इस अस्थायी सरकार के प्रधानमन्त्री और सर्वोच्च सेनापति बने और अपने पद की शपथ इन शब्दों में ली ,
" मैं सुभाष चन्द्र बोस ईश्वर की पवित्र सौगंध खाकर कहता हूँ की मैं भारत और उसके ३ करोड़ वासियों की स्वतंत्रता के लिए अपनी अंतिम सांस तक युद्ध करता रहूँगा !"
इस सरकार की स्थिति का अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं की इटली, आयरलैंड , जापान , चीन , जर्मनी ,जैसे संसार के 9 देशों ने इस अस्थायी सरकार को मान्यता दी थी और हाल की रिसर्चों के आधार पर पता चला है की इसे सोवियत रूस ने भी मान्यता दी थी ! इस अस्थायी सरकार ने 5-6 नवम्बर-1943 को टोक्यो में हुए " ग्रेटर ईस्ट एशिया कोंफ्रेंस " ( या टोक्यो कोंफ्रेंस ) में ओब्जर्वेर की हेसियत से भाग लिया !
7-जनवरी-1944 को नेताजी ने अस्थायी सरकार का मुख्यालय रंगून स्थानांतरित कर दिया !5-अप्रैल-1944 को " आजाद हिंद बैंक " का उदघाटन रंगून में हुआ ! इस अस्थायी सरकार की अपनी मुद्रा ,पोस्टेज स्टाम्प ,कोर्ट और सिविल कोड भी था !
जापान द्वारा अंडमान -निकोबार द्वीपों पर अधिकार करने के एक वर्ष पश्चात जापान ने 8-नवम्बर-1943 को अंदमान और निकोबार द्वीप समूहों को नेताजी की इस अस्थायी सरकार को सौंप दिया ! ले. कर्नल ऐ.डी. लोंगानाथन को यहाँ का आजाद हिंद गवर्नर बनाया गया !मेजर जर्नल लोंगानाथन प्रथम विश्व युद्ध के दोरान ब्रिटिश भारतीय सेना में भारतीय डॉक्टर थे ! द्वितीय विश्व युद्ध के दोरान सिंगापूर के पतन के पश्चात वह सुभाष चन्द्र बोस के नेतृत्व में आई.एन.ऐ में भर्ती हो गए थे !1943 के अंत में नेताजी स्वयं इन द्वीपों में आये ! अंडमान द्वीप का नाम " शहीद द्वीप " और निकोबार द्वीप का नाम " स्वराज द्वीप" रखा गया तथा स्वतंत्र भारत का झंडा यहाँ फेहराया गया !
फिर भी , इन द्वीपों के प्रशासन पर जापानी नोसेना का महत्वपूर्ण नियंत्रण बना रहा और नेताजी की इन द्वीपों की एकमात्र यात्रा के दोरान जापानी अधिकारीयों द्वारा उन्हें स्थानीय जनता से दूर रखा गया ! द्वीपवासियों ने उन्हें अपनी पीड़ा बताने की बहुत कोशिश की पर वे सफल न हो सके ! इस अधूरे प्रशासनिक नियंत्रण से क्रुद्ध होकर ले. कर्नल लोंगानाथन ने अपना पद त्याग दिया और रंगून में स्थित सरकार के हेड क्वार्टर में वापस पहुँच गए !
आई.एन.ऐ. की प्रथम जिम्मेदारी थी पूर्वोत्तर भारत में मणिपुर सीमा पर जापानी अभियान में साथ देना ! आई.एन.ऐ. की स्पेशल फोर्सिस ने , आंग सन ( म्यांमार की नेता "अंग-सान-सू-की" के पिता )और बा माव द्वारा संगठित " बर्मीज नॅशनल आर्मी " के साथ अराकान और कोहिमा व इम्फाल में शत्रु -सेना के विरुद्ध अभियान में बड़े पैमाने पर योगदान दिया ! उत्तर-पूर्व में मणिपुर के मोइरंग क्षेत्र में , भारतीय मुख्य-भूमि पर, भारतीय-तिरंगा पहली बार फेहराया गया!
इस सेना ने तामू,कोहिया ,पालेल,आदि स्थानों पर कब्ज़ा कर लिया और इम्फाल को घेर लिया पर वर्षा शुरू हो जाने से जापान की हवाई सहायता बंद हो गयी अत: सेना को पीछे लौटना पड़ा और उसे भारी नुक्सान हुआ ! जापान, बर्मा और आई.एन.ऐ की गाँधी और नेहरु ब्रिगेड ने ओपरेशन U-GO के अधीन कोहिमा और इम्फाल के नगरों की घेराबंदी की पर कोमन्वेल्थ शक्तियों से उन्हें जीत नहीं सके ! 12- अक्टूबर -1944 तक जापानियों और को भारत से पूरी तरह हट जाना पड़ा ! जापान की इस हार के साथ ही अस्थायी सरकार का भारत की मुख्य भूमि पर बेस बनाने का सपना भी टूट गया !
नेताजी को उम्मीद थी की जब ब्रिटिश भारतीय सेना के भारतीय सैनिकों को यह पता चलेगा की आई.एन.ऐ के सैनिक ब्रिटिश भारत पर बाहर से हमला कर रहे हैं , तो वह भी बड़ी संख्या में ब्रिटिश सेना को छोड़ देंगे ! पर दुर्भाग्य से , पर्याप्त पैमाने पर ऐसा नहीं हो सका ! इसके बजाय जब युद्ध में जापान की स्थिति बदतर हुई तो आई.एन.ऐ के सैनिकों ने उससे अलग होना शुरू कर दिया ! इसी समय सेना को दी जाने वाली जापान की आर्थिक मदद भी घट गयी !
आई.एन.ऐ को जापानी सेना के साथ पीछे लौटना पड़ा परन्तु बर्मा के तहत बर्मा की सुरक्षा के प्रति भी प्रतिबद्ध थी बर्मा समरभूमि में ब्रिटिश भारतीय सेना से निर्णायक युद्ध लड़ने पड़े ! रंगून के हाथ से निकलने से अस्थायी सरकार को बहुत बड़ा धक्का लगा और अस्थायी सरकार भंग हो गयी ! ले. कर्नल ऐ.डी. लोंगानाथन के नेतृत्व में आई.एन.ऐ के बहुत बड़े हिस्से ने ब्रिटिश भारतीय सेना के सामने आत्मसमर्पण कर दिया था ऐसे में बची हुई सेना बोस के साथ मलय की ओर प्रस्थान किया !
अनेक कठिनाइयों को झेलते हुए उन्होंने सेना का मनोबल बनाये रखा ! 4-जुलाई-1944 को बर्मा में आई.एन.ऐ. की रैली को संबोधित करते हुए नेताजी ने अपना सुप्रसिद्ध और जोशीला नारा दिया " तुम मुझे खून दो मैं तुन्हें आजादी दूंगा !" और भारत की जनता से अपील की की वह ब्रिटिश राज को ख़त्म करने में उनकी मदद करे !
6-जुलाई- 1944 को सिंगापूर में आजाद हिंद रेडियो से दिए गए अपने सन्देश में नेताजी ने ही महात्मा गाँधी को पहली बार " राष्ट्र पिता " कहा था ! उनके अन्य प्रसिद्ध नारे थे " दिल्ली चलो " और " जय हिंद " !
7-मई-1945 को जर्मनी ने आत्मसमर्पण कर दिया और 6 व 9 अगस्त-1945 को हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बमों का हमला होने के साथ ही जापान ने भी हार मान ली !
नेताजी को जापान की हार का अंदेशा था अत: उन्होंने जापान द्वारा रूस से सम्बन्ध स्थापित करना चाहा परन्तु जापानियों ने उनकी मदद नहीं की ! उनका मानना था की दिल्ली का रास्ता टोक्यो होकर नहीं मोस्को होकर जाता है !

                                       कथित म्रत्यु-------------
कहा जाता है की जब नेताजी टोक्यो जा रहे थे तब 18 -अगस्त-1945 में ताइपेइ (ताइवान की राजधानी ) में , वह जिस जापानी विमान से जा रहे थे वह दुर्घटनाग्रस्त हो गया और इस हादसे में नेताजी बुरी तरह घायल हुए और एक स्थानीय अस्पताल में 4 घंटे बाद उनकी म्रत्यु हो गयी ! वहीँ उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया ! इस घटना का आधार कैप्टन योशिदा तेनेयोशी (Captain Yoshida Taneyoshi) की गवाही मानी जाती है , जो की एक ब्रिटिश जासूस ( एजेंट 1189) था !
शव न मिलने के कारण उनके जीवित होने को लेकर कई तरह के अनुमान लगाये जाते हैं !
एक अनुमान के मुताबिक नेताजी की म्रत्यु विमान हादसे में न होकर , बाद में साइबेरिया में रूसी कैद के दोरान हुई !

                                      भारत सरकार की संदेहास्पद उदासीनता --------------------
इस मामले की जांच के लिए भारत सरकार द्वारा कई कमेटियां बनायीं गयीं ! मई-1946 को भारत सरकार ने नेताजी की कथित म्रत्यु की जांच करने के लिए चार सदस्यीय " शाह नवाज कमिटी " को जापान भेजा गया ! परन्तु , तब भारत सरकार ने , ताइवान सरकार से अपने राजनेतिक संबंधों के अभाव का हवाला देते हुए , ताइवान सरकार से जांच में सहयोग नहीं लिया !
परन्तु , इसके बाद 1999 में जस्टिस मुखर्जी की अध्यक्षता में बनाये गए "मुखर्जी आयोग " ने इस मामले की 1999 से 2005 तक जांच की ! आयोग ने ताइवान सरकार से संपर्क किया और एक महत्वपूर्ण खुलासा करते हुए बताया की 18 -अगस्त-1945 को नेताजी को ले जाने वाला विमान ताइपेइ में दुर्घटनाग्रस्त नहीं हुआ था , यहाँ तक की उस दिन तो ताइपेइ में कोई भी विमान दुर्घटना नहीं हुई थी !ताइवान सरकार के इस दावे की पुष्टि मुखर्जी आयोग को मिली " U.S. Department of State" की रिपोर्ट भी करती है !

पर यह कितनी बड़ी शर्म और संदेह की बात है की जब 8-नवम्बर- 2005 को आयोग ने अपनी रिपोर्ट केंद्र सरकार को सौंपी और 17-मई- 2006 को जाकर यह सदन में रखी गयी , इसमें कहा गया था की नेताजी की म्रत्यु विमान हादसे में नहीं हुई है और इस आधार पर टोक्यो (जापान) के रंकोजी मंदिर में रखी गयी अस्थियाँ भी उनकी नहीं हैं ! पर तत्कालीन यू.पी.ऐ. सरकार ने बिना कोई कारण बताये मुखर्जी आयोग की रिपोर्ट को अस्वीकृत (reject) कर दिया !

केंद्र सरकार के पास ऐसे अनेक दस्तावेज हैं जो नेताजी की रहस्यमय म्रत्यु और उनके लापता होने के राज से पर्दा उठा सकते हैं पर केंद्र सरकार उनका खुलासा नहीं करना चाहती क्योंकि उसका कहना है की ऐसा करने से भारत के अन्य देशों के साथ सम्बन्ध ख़राब हो सकते हैं !

इसी तरह 1992 में नेताजी को मरणोपरांत दिया गया सम्मान " भारत रत्न " भी सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर वापस ले लिया गया ! यह निर्णय ने सुप्रीम कोर्ट एक जनहित याचिका के सम्बन्ध में दिया था !
हाँ, सरकार ने इतना जरूर किया है की संसद भवन में उनकी एक तस्वीर टांगी गयी है , पश्चिम बंगाल की विधान सभा के सामने उनकी मूर्ती लगाईं है और दम-दम एयरपोर्ट (कलकत्ता ) का नाम नेताजी सुभाष चन्द्र बोस इंटर्नेशनल एयरपोर्ट कर दिया !

                                                                 गुमनामी बाबा ----------------
कई लोगों का मानना है की 1985 तक फैजाबाद (यू.पी.) के राम भवन में रहने वाले हिन्दू सन्यासी " भगवानजी " या " गुमनामी बाबा" वास्तव में सुभाष चन्द्र बोस ही थे ! लगभग चार अवसरों पर उन्होंने स्वयं यह कहा था की वह नेताजी ही हैं ! उनकी म्रत्यु के पश्चात कोर्ट के आदेश पर उनकी चीजों को कस्टडी में ले लिया गया ! बाद में ,मुखर्जी आयोग ने इनकी जांच की परन्तु किसी पक्के सबूत के अभाव में इस दावे को ख़ारिज कर दिया ! हालांकि , " हिन्दुस्तान टाइम्स " द्वारा की गयी स्वतंत्र जांच में यह संभावना व्यक्त की गयी की संभवत: वह नेताजी ही थे ! कुछ लोगों का मानना है की गुमनामी बाबा की म्रत्यु 16-सितम्बर-1985 को हुई थी पर कुछ ऐसा नहीं मानते हैं !
गुमनामी बाबा की कहानी उनकी म्रत्यु के बाद सामने आई थी ! कहा जाता है की उनका अंतिम संस्कार सरयू नदी के किनारे , रात के अँधेरे में केवल एक मोटरसायकल की हेडलाईट की रोशनी में , कर दिया गया था और उनकी पहचान छुपाने के लिए तेज़ाब डालकर उनका चेहरा भी ख़राब कर दिया गया था ! उनके अंतिम संस्कार के स्थान पर एक स्मारक बना है जहां फैजाबाद के बंगाली लोग आज भी उनके जन्मदिन पर श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं ! हालाँकि " भगवानजी " का जीवन और कार्य आज भी रहस्य ही हैं !

                                                 जस्टिस मुखर्जी का मत ------------------
जस्टिस मनोज कुमार मुखर्जी ने अपनी रिपोर्ट में इस सवाल पर की ' फैजाबाद के गुमनामी बाबा नेताजी थे या नहीं ' जवाब दिया था की ' जवाब देना जरूरी नहीं है !' क्योंकि कोई पक्के सबूत नहीं थे लेकिन एक डाक्यूमेन्टरी निर्माण के दोरान उन्होंने माना की उनके अनुसार भगवानजी ही " गुमनामी बाबा " थे ! इस रहस्योद्घाटन से इस सच्चाई को बल मिलता है की नेताजी 1945 के विमान हादसे में नहीं मारे गए थे बल्कि भारत में ही थे !
इतने सबूतों के बाद भी भारत सरकार की चुप्पी पर क्या कहा जा सकता है ?

                                         व्यक्तिगत जीवन -----------------
नेताजी ने अपनी ऑस्ट्रियन सेक्रेटरी एमिली से 1937 में विवाह किया था और उन दोनों की एक पुत्री हुई - अनीता बोस , जो की औग्स्बर्ग विश्वविध्यालय में अर्थशास्त्री हैं !
नेताजी का मानना था अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध में भगवद गीता प्रेरणा का महान स्त्रोत है! वह स्वयं को समाजवादी कहते थे और उनका मानना था की भारत में समाजवाद का जन्म स्वामी विवेकानंद जी के विचारों से ही हुआ है !
23-अगस्त-2007 को जापानी प्रधानमंत्री शिंजो आबे अपनी भारत यात्रा के दोरान सुभाष चन्द्र बोस मेमोरिअल हॉल (कलकत्ता) गए और उन्होंने नेताजी के परिवार से कहा , " जापानी बोस जी की ब्रिटिश राज के दोरान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व करने की अदम्य इच्छा से अत्यधिक द्रवित हैं और जापान में नेताजी बहुत ही सम्मानित नाम हैं !"

                                                       लाल किले पर नेताजी की कुर्सी ------------------
5-अप्रैल-1944 को रंगून में " आजाद हिंद बैंक " के उदघाटन के अवसर पर नेताजी ने जिस कुर्सी का प्रयोग किया था वही आज हम लाल किले पर रखी देखते हैं ! उदघाटन के बाद यह कुर्सी नेताजी के निवास स्थान (51, University Avenue, Rangoon) पर रख दी गयी ,जहाँ आजाद हिंद का ओफिस भी था !बाद में अंग्रेजों द्वारा रंगून पर कब्ज़ा कर लिया गया ! रंगून छोड़ते वक्त अंग्रेजों ने यह कुर्सी रंगून के मशहूर व्यवसायी ऐ.टी.आहूजा को सौंप दी ! भारत सरकार को आधिकारिक रूप से यह कुर्सी जनवरी-1979 को मिली ! 7-जुलाई-1981 को इसे लाल किले पर स्थापित कर दिया गया !

Friday, August 5, 2011

1947 के पूर्व की स्थिति-----------

 
1950 से 2006 तक के प्रस्ताव यहाँ समाविष्ट है। पहले के क्यों नहीं? संघ की स्थापना तो 1925 में हुई थी ? ऐसे प्रश्न किसी के मन में आ सकते हैं। उसका सरल कारण यह है कि, 1950 के पहले प्रस्ताव पारित नहीं होते थे। उस कालखण्ड में, स्वतंत्रता प्राप्त करना यही एक मात्र लक्ष्य था। और संघ की कार्यरचना उसी लक्ष्य को सामने रखकर की गयी थी। उस समय, जो प्रतिज्ञा स्वयंसेवक लेते थे, उसमें और आज की प्रतिज्ञा में थोड़ा अन्तर है। ''हिन्दु राष्ट्र को स्वतंत्र करने के लिये मैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का घटक बना हूँ'' - इस प्रकार की शब्दावली थी। अब उसके स्थान पर ''हिन्दु राष्ट्र की सर्वांगीण उन्नति करने के लिये मैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का घटक बना हूँ''- ऐसी शब्दावली है। इस शब्दावली से ही संघ के सामने का तत्कालिक लक्ष्य क्या था ? इसका पता चलता है। यह भी सब लोग भलीभांति जानते हैं कि संघ के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार बाल्यकाल से ही क्रांतिकारक प्रवृत्ति के धनी थे। डॉक्टरी पढ़ने के लिये जब वे कलकत्ता गये, तब क्रांतिकारियों के साथ उनका और घनिष्ठ सम्बन्ध आया। वे अनुशीलन समिति के अंतरंग सदस्य भी थे। क्रांतिकारियों की सब गतिविधियों का ज्ञान और तंत्र सीख कर वे नागपुर लौटे। किन्तु उनके जब यह ध्यान में आया कि जब तक क्रांतिकार्य के लिये समाज की सहानुभूति प्राप्त नहीं होगी और जब तक सामान्य जनमानस में स्वातंत्र्य की आकंक्षा उदित नहीं होगी तब तक क्रांतिकारियों का बलिदान और हौतात्म्य सफल नहीं होगा। तब उन्होंने अपने को राष्ट्रीय काँग्रेस के कार्य में स्वयं झोंक दिया। वहाँ अग्रेसर होकर कार्य करते समय, यह भी उनके ध्यान में आया कि केवल स्वतंत्रता की आकांक्षा सामान्य जनमानस में उत्पन्न होने से काम नहीं चलेगा। उस लक्ष्य को लेकर अग्रगामी कार्यकर्ताओं के एक संगठित गुट की भी आवश्यकता रहेगी। रेलगाड़ी का इंजिन जो काम करता है, वैसा काम यह नेतृत्व करेगा। इसी हेतु, उन्होंने हर शहर में तीन प्रतिशत और गांवों में एक प्रतिशत गणवेशधारी सदा सन्नद्ध तरुण स्वयंसेवक तैयार करने का लक्ष्य सामने रखा। अत: अपने कार्य का बहुत अधिक गाजावाजा वे नहीं चाहते थे। कार्य हो, उसके साथ जनता का परिचय हो, और कार्य के लक्ष्य के साथ समाज भावना जुड़ जाये, इसी हेतु से सारी रचना थी। एक घण्टे की पूर्व सूचना मिलते ही स्वयंसेवकों का एकत्रीकरण हो इसका अभ्यास भी उन्होंने शुरु किया था, जो 1947 तक कार्य का एक आवश्यक भाग था। इसके कारण संघ एक गुप्त संगठन है, ऐसा प्रचार भी होता था। संघ के विरोधी बीच-बीच में इस प्रकार के अपप्रचार की रट लगाते थे। महात्मा जी की 30 जनवरी को हत्या हुई, उसके एक दिन बाद तुरंत 31 जनवरी को, नागपुर की शाखा की ओर से उनको श्रद्धांजलि अर्पण करने हेतु, जो प्रात:काल में स्वयंसेवकों का एकत्रीकरण हुआ, उससे लोग चकित हुए थे और दुर्भावना से ग्रस्त लोगों ने यह भी प्रचार किया कि गांधीजी की हत्या संघ की साजिश है और यह बात संघ को ज्ञात होगी ही तभी तो इतनी सुबह हजारों का एकत्रीकरण हो सका। जिनको घण्टे-दो घण्टो की सूचना पर एकत्र आने का अभ्यास था, उनको कई घण्टे पहले सूचना मिलने पर एकत्र आना कौन सी कठिन बात थी। संघ की कार्यपद्धति से अनभिज्ञ लोग ही इस प्रकार के दुष्प्रचार से प्रभावित हुये थे। 1949 में, संघ का लिखित संविधान जब भारत सरकार को दिया गया, तब वहाँ की आजीवन प्रतिज्ञा का प्रावधान पढ़कर भारत सरकार के सचिव ने प.पू. गुरुजी को पत्र में लिखा था, कि आजीवन प्रतिज्ञा यह किसी गुप्त संगठन की विशेषता हो सकती है। इस आपत्ति को श्री गुरुजी ने करारा जवाब देकर गृह मन्त्रालय की इस टिप्पणी को खारिज किया, यह बात अलग है। किन्तु संघ के बारे में कुछ लोगों में यह धारणा थी, यह सत्य है। अत: समाज जीवन के अन्य विषयों के सम्बन्ध में कोई प्रस्ताव पारित होने का उस काल में सम्भव ही नहीं था।
15 अगस्त 1947 के बाद परिस्थिति में अन्तर आया। इस नयी परिस्थिति के परिप्रेक्ष्य में संपूर्ण समाज के संगठन के रूप में- न कि समाज के अन्दर एक संगठित टोली के रूप में- संघ का प्रस्तुतीकरण हुआ। अत: धीरे-धीरे इन सभी क्षेत्रों में संघ के कार्यकर्ता गये। साथ ही समाज के विभिन्न क्षेत्रों के सम्बन्ध में संघ की राय क्या है, यह बताना भी आवश्यक हो गया।
मैंने यहाँ पर संघ यह संपूर्ण समाज का संगठन है यह बात कही। इसकी पुनरुक्ति आवश्यक है। ''संपूर्ण समाज का संगठन''। समाज का ही राष्ट्र बनता है। People Are The NationA अंग्रेजी में अनेकों बार Nation के पर्याय के रूप में People शब्द आता है। संघ की प्रारंभ से ही यह मौलिक धारणा रही है कि यहाँ का हिन्दु समाज ही राष्ट्र है। वह समाज ही राष्ट्रीय है। हिन्दु शब्द का प्रयोग संघ में कभी भी विशिष्ट उपासना, पंथ या संप्रदाय के अर्थ में नहीं किया गया है। वह प्रत्येक व्यक्ति की अलग-अलग विशेषता हो सकती है। और संघ सभी विशेषताओं को मानता है, उनका आदर करता है। ऐसे अनेक संप्रदायों, पंथों तथा विश्वासों के लिये हिन्दु राष्ट्र में स्थान है। क्योंकि हिन्दु, विविधता का सम्मान करने वाला है। संघ ने 'राष्ट्रीय' अर्थ में ही 'हिन्दु' को प्रस्तुत किया है। उस का धयेय हिन्दुओं का संगठन करने का है। लेकिन उसका नामाभिधन 'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ' है। संघ के लिये 'हिन्दु' और 'राष्ट्रीय' समकक्ष है।
मुख्य और आनुषंगिक
समाज जीवन के अनेक क्षेत्र होते हैं। अनेक विधायें होती हैं। राजनीति, धर्म, अर्थ, शिक्षा, किसान, मजदूर, विद्यार्थी, शिक्षक, महिलाएं, वनवासी, कितने ही क्षेत्र गिनायें जा सकते हैं। संपूर्ण समाज का संगठन यानि इन सभी क्षेत्रों का संगठन और संगठन का अर्थ है एक समान राष्ट्रीय विचार से प्रत्येक क्षेत्र का अनुप्राणित होना और उस क्षेत्र के कार्यकर्ता चरित्र संपन्न होना। संगठन शब्द में जो 'सम' यह उपसर्ग है, उसका अर्थ ही केवल एकत्रीकरण नहीं, तो संस्कारयुक्त लोगों का एकत्रीकरण। चारित्र्य की शिक्षा और तद्नुसार आचरण को प्रेरित करने वाले संस्कारों की व्यवस्था वाला एकत्रीकरण हैं। संगठन केवल गठन नहीं, सम्यक् गठन होता है। सम्यक् गठन के लिये चारित्र्य युक्त लोगों का एकत्रीकरण अनिवार्य है। इस का और एक अर्थ यह होता है कि 'राष्ट्र' सर्वोपरि है, सर्वश्रेष्ठ है, बाकी क्षेत्र, कितने भी महत्त्व के हो, वे सारे राष्ट्र के सम्बन्ध में आनुषंगिक है। अत: संघ की दोनों अधिकारिणीयों द्वारा पारित प्रस्ताव, राष्ट्रजीवन को प्रभावित करने वाले, समाज जीवन के सभी क्षेत्रों के सम्बन्ध में है। कुछ लोगों का कहना है कि संघ अपने आप को सांस्कृतिक संगठन मानता है, वैसा बताता है फिर भी राजनीतिक विषयों पर प्रस्ताव पारित करता है यह कैसे ? इन लोगों की राष्ट्र और राज्य की संकल्पनाओं के अर्थछटाओं से अनभिज्ञता हो इस प्रश्न के मूल में है। राजनीतिक विषयों पर संघ के वही प्रस्ताव है, जो राष्ट्र जीवन पर, राष्ट्रीय मुख्य धारा पर प्रभाव डालते हैं।
राष्ट्र को खतरे
संघ का मूलभूत विचार यह है कि यह राष्ट्र एक है, इसकी संस्कृति एक है और जनता एक है। ''एक देश, एक जन, एक संस्कृति, एक राष्ट्र''- यह संघ की आरम्भ से ही आधारभूत भूमिका रही है। अत: देश की अखण्डता को जब-जब भी खतरे उत्पन्न हुये, संघ ने उनकी चेतावनी देने के लिये प्रस्ताव परित किये। 15 अगस्त 1947 को जब देश का विभाजन हुआ, तब, संघ के उस समय के सरसंघचालक श्री गुरुजी ने, अपने अनेक भाषणों में, उसका कड़ा विरोध किया। विभाजन के बाद, संघ, पाकिस्तान से आये अपने हिन्दु शरणार्थियों की सेवा में, उनके पुनर्वसन में जुट गया किन्तु, पाकिस्तान बनने मात्र से देश की अखण्डता को संभाव्य खतरे कम नहीं हुये। उत्तर-पूर्व में भारत को तोड़ने के षड्यंत्र चले। इसमें ईसाई मिशनरी संस्थाओं की अहम् भूमिका रहीं। नागालैण्ड टूटते-टूटते बच गया। मिजोरम, असम राज्य का एक छोटा सा जिला आज उसकी आबादी केवल सात लाख है, जब मिजोरम को स्वतंत्र राज्य के रूप में प्रस्थापित करने का हिंसक आंदोलन प्रारंभ हुआ, तब उसकी जनसंख्या तीन लाख भी नहीं थी। मिजो नेशनल फ्रंट का निर्माण हुआ। शासन ने कठोरता से उस उग्र आंदोलन को समाप्त तो किया, लेकिन उसका अलग से एक राज्य भी बना दिया। इसके द्वारा प्रोत्साहित होकर अन्य प्रदेशों में भी हिंसक आंदोलन चले। आज भी त्रिपुरा और मणिपुर में चल रहे हैं। जनजातियों में से विशिष्ट समूहों को ईसाई बनाकर उनको बगावत के लिये प्रोत्साहित किया जाता है। इस खतरे की ओर शासन और जनता का ध्यान आकर्षित करने हेतु, संघ के अनेक प्रस्ताव हैं।
मुसलमानों को पाकिस्तान का स्वतंत्र, स्वायत्त राज्य मिलने से भी उनका समाधान नहीं हुआ। पश्चिम पाकिस्तान की हिन्दु प्रजा को, पाकिस्तान से निकालने के लिये, उसी समय घोर अत्याचार किये गये। पाकिस्तान में हिन्दु आबादी का 18 प्रतिशत था। आज केवल 1 प्रतिशत है। पूर्व में जो पाकिस्तान का हिस्सा था, वहाँ से भी हिन्दुओं को भगाने का कार्यक्रम शुरू हुआ। अब वह हिस्सा पाकिस्तान का भाग नहीं है। बांगलादेश बन गया है। यह आजादी, उसको भारत की सहायता से प्राप्त हुई है। किन्तु बांगलादेश की सरकार कृतज्ञता भाव से शून्य है। वहाँ से भी हिंदुओं को भगाना चालू है। इतना ही नहीं तो उसकी जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा भारत में अवैध रूप से गत पचास वर्षों में घुसपैठ कर रहा है। यह सब वहाँ की सरकार की शह पर हो रहा है। असम और पश्चिम बंगाल के कई जिले मुस्लिम बहुल हो गये हैं, और कुछ होने की कगार पर है। जहाँ हिंदू अल्पसंख्यक हो जाता है, वह हिस्सा भारत से टूटने का खतरा पैदा होता है। राष्ट्र की अखण्डता को संभाव्य इस खतरे की ओर ध्यान खींचने वाले प्रस्ताव यहाँ है।
पंजाब और कश्मीर
पाकिस्तान 1971 में टूटा। इसका अमरिका स्थित कुछ षक्ति केंद्रों को बड़ा सदमा हुआ। मानो अमरिका ही टूटा। उन्होंने बदले की भावना से अभिभूत होकर पाकिस्तान के कंधो पर बंदूक रखकर भारत को तोड़ने का बीड़ा उठाया। प्रथम पंजाब को तोड़ने के प्रयास हुए और बाद में कश्मीर को। पंजाब में तो सफलता नहीं मिली। किन्तु कश्मीर अभी भी धाधाक रहा है। आतंकवाद अभी भी वहाँ कायम है। इन दोनों विषयों पर संघ के प्रस्ताव हैं। पंजाब के बारे में प्रस्ताव व तद्नुसार व्यवहार के कारण पंजाब का आतंकवाद समाप्त हुआ। गलत रास्ते पर जाने वाले सिक्खों के कारण हिन्दु मानस चिढ़कर अपने ही सिक्ख बंधुओं के खिलाफ खड़ा नहीं हुआ। आतंकवादी भी सिक्ख समाज की सहानुभूति निरन्तर प्राप्त नहीं कर सकें। पंजाब बच गया। संघ के सबसे अधिक प्रस्ताव कश्मीर के बारे में हैं। धारा 370, कश्मीर को भारत तोड़ने की धारा हैं। अलगाववाद की जननी है, भ्रष्टाचार को पोषित करने वाली है, अत: उसको समाप्त करना चाहिये, यह राष्ट्रहित की बात कई प्रस्तावों द्वारा नि:संदिग्ध शब्दों में बतायी गई है। किन्तु वह धारा अभी भी कायम है। संघ का सबसे नूतन प्रस्ताव 2002 में पारित हुआ, जिसमें जम्मू-कश्मीर राज्य की पुनर्रचना की मांग का समर्थन किया गया है।
राष्ट्र की एकरसता के लिये
अपना स्वतंत्र राष्ट्र है। उसके शासन की सार्वभौमता अबाधित रहे इस हेतु अमरिका के साथ संभाव्य आणविक समझौते के खिलाफ चेतावनी दी गयी है। अपना राष्ट्र 'एकात्म और एकरस रहे, इस हेतु जो वर्ग सचमुच पिछड़े हैं, या छुआछूत जैसी बुरी रूढ़ि के शिकार हुये थे, उनको समान बिन्दु पर लाने के लिये आरक्षण की सुविधा शासन द्वारा दी गयी है। उसके खिलाफ कही-कही पर जन-आंदोलन भी हुये थे। संघ ने आरक्षण का समर्थन करने वाला प्रस्ताव 1981 में ही पारित किया था, जो आज भी सार्थक है। मुसलमान हो या ईसाई, उनको अपनी उपासना के लिये स्वतंत्रता रहे इसका संघ ने हमेशा समर्थन किया है। किन्तु व्यक्तिधर्म की स्वतंत्रता होते हुए भी समान समाजधर्म और राष्ट्रधर्म के पालन की आवश्यकता को भी संघ ने अधोरेखित किया है। समान नागरी संहिता का संघ पक्षधर है, यह बताने वाला एक प्रस्ताव है। मुसलमान और ईसाई अपने अनुयायियों की संख्या बढ़ाने पर लगे हैं। संविधान की धारा 24 में, सभी मजहबों, सम्प्रदायों, पंथों, विश्वासों को आचरण और प्रसार का मौलिक अधिकार दिया गया है। किन्तु मुसलमान और ईसाई इस प्रावधान का दुरुपयोग कर, अपनी संख्या बढ़ाने के लिये प्रलोभन और आतंक का सहारा लेते हैं। स्वयं गलत काम करते हैं। उसके खिलाफ जनता में प्रतिक्रिया प्रकट हुई तो बिना छानबीन के संघ पर निरर्गल आरोप मढ़ देते हैं। इस अहितकारी गतिविधियों का निषेध करने वाले प्रस्ताव हैं। इस साजिश को रोकने के लिये, 1979 में श्री ओम प्रकाश त्यागी जी ने एक प्रस्ताव संसद में रखा था। वह उनको वापस लेना पड़ा। किन्तु अब कई राज्यों की सरकारों को यह महसूस हुआ है कि धारा 24 का दुरूपयोग ईसाई मिशनरी कर रहें हैं। इन राज्यों ने 'धर्म स्वातंत्र्य' के गलत उपयोग के खिलाफ कानून किये हैं। मध्य-प्रदेश और उड़ीसा की कांग्रेस सरकारों ने इसके बारे में पहले से ही कानून किये हुये थे। उस सूचि में अब गुजरात, छत्तीसगढ़ और हिमाचल प्रदेश भी अंतर्भूत हो गये हैं। तमिलनाडु में भी यह कानून पारित हुआ था। किन्तु संकुचित राजनीतिक स्वार्थ के कारण उसी सरकार ने उसको निरस्त किया। इसमें विशेष उल्लेखनीय बात यह है कि सन् 2004 में हिमाचल प्रदेश की कांग्रेस सरकार ने भी यह कानून अभी-अभी पारित किया है। किन्तु आवश्यकता तो केन्द्र शासन में यह प्रस्ताव पारित करने की है, तथा उन्हीं पंथो, संप्रदायों और मजहबों को प्रचार और प्रसार की छूट रहे, जो अन्य पंथों, संप्रदायों, तथा विश्वासों के अस्तित्व को मान्यता देते हैं। इस हेतु संविधान में संशोधन की भी आवश्यकता है।
अपने देश को समृद्ध बनाने के लिये, तथा ग्रामीण जनता के विकास के लिये गोरक्षा आवश्यक है। पूरे देश में यह कानून होना चाहिये, इस संघ के आग्रह को प्रकट करनेवाले भी प्रस्ताव हैं। आर्थिक क्षेत्र में अपना देश आत्मनिर्भर रहे, इस हेतु स्वदेशी का आग्रह संघ द्वारा अनेकों बार प्रकट किया हुआ है। उसके सम्बन्ध में भी प्रस्ताव हैं।
मान बिन्दुओं की पुन: प्रतिष्ठा
प्रत्येक राष्ट्र का एक इतिहास होता है। भारत का भी गौरवपूर्ण प्राचीन इतिहास है। इस प्रदीर्घ इतिहास में, राष्ट्र के कुछ मानबिन्दु निश्चित हुए हैं। मानव जीवन के उदात्त मूल्य प्रस्थापित करने के लिये, अपने स्वार्थ के बलिदान द्वारा कीमत चुकाने वाले महापुरुष हुए हैं। ये सारे हमारे सांस्कृतिक आदर्श हैं। उनकी उपासना के लिये उनके मंदिर भी खड़े किये हैं। ये सारे मंदिर पवित्रता के प्रतीक हैं। शत्रु इन्हें नष्ट, भ्रष्ट करने पर तुले रहते हैं। पराजितों को और अपमानित करना यही उनका लक्ष्य रहता है। आठवी शताब्दी से पश्चिम की ओर से, इस्लाम के अनुयायी राष्ट्रों ने भारत पर जो आक्रमण किया, वे यहाँ के मानबिन्दुओं पर आघात करने से नहीं चूके। बाबर, औरंगजेब आदि अनेक मुस्लिम शासकों ने हिन्दुओं की भावनाओं पर चोट पहुँचाने के लिए ही, इन मानबिन्दुओं पर आघात किये। अयोध्या, काशी और मथुरा, ये भगवान् श्रीराम, भगवान् शिव और भगवान् श्रीकृष्ण की प्रतिमाओं से मंडित पवित्र स्थान हैं। दुष्ट आक्रान्ताओं ने उन पर आक्रमण कर उन्हें भ्रष्ट करने का जी तोड़ प्रयास किया। इनमें उनको सफलता भी मिली। उनके आक्रमण के और राष्ट्र के अपमान के प्रतीक अभी भी खड़े है। कोई भी स्वाभिमानी राष्ट्र ऐसे अपमान के प्रतीकों को बर्दाश्त नहीं करता। उनको उखाड़ कर फेंक देता है। किन्तु लज्जा की बात यह है कि भारत में ये अपमान के स्मारक अभी खड़े हैं। समाज के धुरंधर नेताओं को यह अपमान के प्रतीक चुभते नहीं, यह और भी शर्मनाक बात हैं। इन सब पवित्रतम् स्थानों के अपमान का कलंक धो डालने हेतु अनेक संस्थाए खड़ी हुई हैं। उनके शांतिपूर्ण आंदोलन भी चले हैं। अपने ही लोग इन आंदोलनों की उनको सांप्रदायिक कहकर निंदा करते हैं। रा.स्व.संघ, इन स्थानों की पुन: प्रतिष्ठा का पक्षधर है। रामजन्मभूमि को मुक्त करने के आंदोलन का वह प्रखर पक्षधर हैं। काशी और मथुरा की मुक्ति भी वह चाहता है। इन मानबिन्दुओं के अपमान चिन्हों को नष्ट कर उन्हें पुन: गौरवान्वित करने की उस की चाह को आविष्कृत करने वाले प्रस्ताव भी यहाँ है।
सभी विषयों का परामर्श तो प्रस्तावना में नहीं लिया जा सकता, न ही उसकी आवश्यकता है। संक्षेप में इतना ही बताया जा सकता है कि ये सारे प्रस्ताव राष्ट्र की आत्मा की वेदना उसकी चाह तथा उसका स्वाभिमान प्रकट करने वाली सच्ची राष्ट्रभक्ति की जो भावना होती है, उसका आविष्कार करते हैं। संघ को समझना यानि राष्ट्रभक्ति की भावना को समझना है। इस हेतु इन प्रस्तावों का वाचन, अध्ययन और मनन सभी के लिये उपयुक्त रहेगा, ऐसा मेरा विश्वास है।

'१५ अगस्त का ऐतिहासिक महत्व'----------


१५ अगस्त कैलंडर(२०११) ग्रेगोरी कैलंडर के अनुसार वर्ष का २२७वॉ (लीप वर्ष मे २२८ वॉ) दिन है। साल मे अभी और १३८ दिन बाकी है।
१५ अगस्त का ऐतिहासिक महत्व को प्रदर्शित करने वाली कुछ प्रमुख घटनाएँ निम्नलिखित हैं---
(१) सन् १९४५- जापान का आत्म समर्पण, मित्र राष्ट्रों में खुशी की लहर
(२) सन् १९४७-भारतीय स्वतंत्रता दिवस। सन् १९४७ ईसवी को वर्षो तक ब्रिटिश साम्राज्यवाद के पिरुद्ध संघर्ष करने के पश्चात भारत की जनता इस देश को स्वतंत्र कराने में सफल हुई। १६वीं शताब्दी में अंग्रेज़ों ने भारत में अपना प्रभाव बनाना आरंभ कर दिया था। और १७वीं शताब्दी में ब्रिटेन ने भारत में अपने योरोपीय प्रतिद्वन्द्वी फ़्रांस और इसी प्रकार तैमूरी मुग़लों को पराजित करके इस देश पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया। भारतीय जनता ने अंग्रेज़ों के विरुद्ध कई बार आंदोलन छेड़ा किंतु अंग्रेज़ों ने उसे कुचल दिया। सन् १८९५ में भारतीय नेशनल कॉग्रेस का गठन हुआ और फिर जनता के आंदोलन संगठित होने लगे। स्वतंत्रता आंदोलन से महात्मा गांधी के जुड़ने और उनके नेतृत्व में सत्याग्रह और असहयोग आंदोलनों के कारण ब्रिटेन को सन् १९४७ में अपने सबसे बड़े उपनिवेश से हाथ धोना पड़ा।
(३) सन् १९४७- बलुचिस्तान पाकिस्तान में मिल गया।
(४) सन् १९४७- हैदराबाद के निजाम ने भारत में विलय से इनकार कर स्वतंत्र रहने की घोषणा की।
(५) सन् १९४८- कोरिया प्रायद्वीप के विभाजन के पश्चात दक्षिणी केरिया नामक एक स्वाधीन देश अस्त्तिव में आया। बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में कोरिया प्रायद्वीप को चीन व जापान जैसे क्षेत्र के बड़े देशों के अतिक्रमण और अतिग्रहण का सामना करना पड़ा। सन् १९०५ में जापान ने कोरिया पर अधिकार कर लिया। परंतु द्वितीय विश्व युद्ध में जापान की पराजय के बाद सोवियत संघ ने इसके उत्तरी भाग पर और अमरीका ने दक्षिणी भाग पर अधिकार कर लिया। चूंकि उत्तरी कोरिया में सोवियत संघ और कम्यूनिज्म की और दक्षिण में पश्चिमी देशों की पक्षधर की पक्षधर सरकार थी इस लिए कोरिया प्रायद्वीप दो अलग देशैं में विभाजित हो गया।
(६) सन् १९६०- कॉगो गणराज्य में फ़्रांस से स्वतंत्रता मिली। अतीत में कॉगो पश्चिमी अफ़्रीक़ा का एक भाग था जिसमें वर्तमान अंगोला और कॉगों डेमोक्रेटिक भी शामिल थे। पुर्तग़ालियों ने १५वीं शताब्दी में इसक्षेत्र की खोज की परंतु यह देश वर्षों तक फ़्रांस का उपनिवेश रहा।
(७) सन् १९७५- बंग्लादेश के तत्कालीन राष्ट्रपति शेख मुजिबुर रहमान, बांगलादेश के राष्ट्राध्यक्ष की एक सैनिक विद्रोह में हत्या कर दी गयी। वे बंग्लादेश की स्वाधीनता के संस्थापकों में थे ।
(८) सन् १९९०- रुस के तत्कालीन राष्ट्रपति मीखाईल गोरबाचोफ ने इस देश के नोबल पुरुस्कार विजेता लेखक एलैग्ज़न्डर सोलहेनित्सिन को दोबारा रुस की नाग़रिकता दी। उन्हें सन् १९७४ में भयावह उपन्यास लिखने के कारण देश से निकाल दिया गया था।
१५ अगस्त को निम्नलिखित कुछ प्रसिद्द व्यक्तियों के जन्मदिन हैं:-
(१) सन् १००१ - डंकन पहिला, स्कॉटलैण्ड का राजा.
(२) सन् १७६९ - नेपोलियन बोनापार्ट, फ्रांस का सम्राट.
(३) सन् १८१३ - जुल्स ग्रेव्ही, फ्रांस के राष्ट्राध्यक्ष
(४) सन् १८७२ - श्री अरविंद, भारतीय तत्त्वज्ञानी
(५) सन् १८८६ - बिल व्हिटली, ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट खिळाडी
(६) सन् १९२२- लुकज़ फ़ॉस, जर्मन संगीतकार (निधन-सन् 2009)
(७) सन् १९२७ - एडी लेडबीटर, अँग्रेज क्रिकेट खिळाडी
(८) सन् १९४५ - बेगम खालिदा जिया, बांगलादेश की प्रधानमंत्री
(९) सन् १९४७ - राखी गुलझार, भारतीय अभिनेत्री.
(१०) सन् १९५१ - जॉन चाइल्ड्स, अँग्रेज़ क्रिकेट खिळाडी
(११) सन् १९५१ - रंजन गुणतिलके, श्रीलंकाई क्रिकेट खिळाडी
(१२) सन् १९६३ - जॅक रसेल, अँग्रेज क्रिकेट खिळाडी
(१३) सन् १९६८ - डेब्रा मेसिंग, अमेरिकन अभिनेत्री.
(१४) सन् १९७२ - बेन ऍफ्लेक, अमेरिकन अभिनेता.
(१५) सन् १९७५ - विजय भारद्वाज, भारतीय क्रिकेट खिळाडी
१५ अगस्त को निम्नलिखित कुछ प्रसिद्द व्यक्तियों का निधन हुआ:-
(१) सन् १०३८ - स्टीवन पहिला, हंगरी का राजा.
(२) सन् १०४० - डंकन पहिला, स्कॉटलंड का राजा.
(३) सन् १०५७ - मॅकबेथ, स्कॉटलंड का राजा
(४) सन् १११८ - ऍलेक्सियस पहिला कॉम्नेनस, बायझेन्टाई सम्राट.
(५) सन् १९३५ - विल रॉजर्स, अमेरिकी अभिनेता.
(६) सन् १९७५ - शेख मुजिबुर रहमान, बांगलादेश के राष्ट्राध्यक्ष
(७) सन् २००४ - अमरसिंह चौधरी, गुजरात के मुख्यमंत्री
इतिहास की संपूर्णता असाध्य सी है, फिर भी यदि हमारा अनुभव और ज्ञान प्रचुर हो, ऐतिहासिक सामग्री की जाँच-पड़ताल को हमारी कला तर्कप्रतिष्ठत हो तथा कल्पना संयत और विकसित हो तो अतीत का हमारा चित्र अधिक मानवीय और प्रामाणिक हो सकता है। सारांश यह है कि इतिहास की रचना में पर्याप्त सामग्री, वैज्ञानिक ढंग से उसकी जाँच, उससे प्राप्त ज्ञान का महत्व समझने के विवेक के साथ ही साथ ऐतिहासक कल्पना की शक्ति तथा सजीव चित्रण की क्षमता की आवश्यकता है । स्मरण रखना चाहिए कि इतिहास न तो साधारण परिभाषा के अनुसार विज्ञान है और न केवल काल्पनिक दर्शन अथवा साहित्यिक रचना है । इन सबके यथोचित संमिश्रण से इतिहास का स्वरूप रचा जाता है ।

'क्रांति के नायक नेताजी सुभाषचन्द्र बोस'--------


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नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के जीवन के कुछ महत्वपूर्ण क्षण-----
सन्‌ १८९७, २३ जनवरी - कटक उड़ीसा में सुभाष चन्द्र बोस का जन्म |सन्‌ १९०२ - पाँच वर्ष की आयु में बालक सुभाष का अक्षरारंभ संस्कार संपन्न हुआ ।
सन्‌ १९०८ - ग्यारह वर्ष की आयु में उन्होने आर. कालेजियट स्कूल में प्रवेश लिया और यहीं उनका अपने शिष्य बेनी प्रसाद जी से परिचय हुआ ।
सन्‌ १९१६ - अंग्रेज प्रोफेसर ओटन द्वारा भारतीयों के लिए अपशब्द प्रयोग करना सहन नहीं हुआ और उन्होंने उस प्रोफ़ेसर की पिटाई कर दी |
सन्‌ १९२० - आई. सी. एस. से त्यागपत्र । सन्‌ १९२४ - गिरफ्तारी मांडले जेल में प्रवास ।
सन्‌ १९२७ - काँग्रेस आन्दोलन के मंच से सीधी कार्यवाही का प्रयास ।सन्‌ १९३३ - यूरोप में भारतीय पक्ष का प्रचार ।सन्‌ १९३७ - सुभाषचन्द्र बोस ने उत्तर भारत की अपनी धर्मयात्रा को आधार बनाते हुए अपनी आत्मकथा 'An Indian Pilgrim' लिखी |
सन्‌ १९४१ - ग्रेट एस्केप ।
सन्‌ १९४३ -आजाद हिन्द फौज व अन्तिम सरकार का गठन ।
सन्‌ १९४५ - भारत को मुक्‍त कराने के लिए आक्रमण, चलो दिल्ली चलो का आह्‌वान |
सन्‌ १९४५, १९ दिसम्बर - मन्चूरिया रेडियों से अंतिम सन्देश |
श्री जानकी नाथ बोस व श्रीमती प्रभा देवी की जी के बड़े परिवार में २३ जनवरी सन्‌१८९७ को उड़ीसा के कटक में उन्होंने जन्म लिया | प्रारम्भ से ही राजनीतिक परिवेश में पलेबढे सुभाष के घर का वातावरण कुलीन था | मेधावी सुभाष के विचारों पर स्वामी विवेकानंद का गहन प्रभाव था तथा उनको आध्यात्मिक गुरु मानते थे | स्वामी विवेकानंद के साहित्य से सुभाष का लगाव प्रभावी रूप में है | सुभाष लगभग 5 वर्ष के थे तब विवेकानंद का देहावसान हुआ था | सुभाष के लिए विवेकानंद गुजरे ज़माने के दार्शनिक नहीं थे बल्कि कीर्तिमान भारतीय थे | स्वामी विवेकानंद को पढ़कर सुभाष की धार्मिक जिज्ञासा प्रबल हुई थी|
सन्‌ १९०२ में पाँच वर्ष की आयु में बालक सुभाष का अक्षरारंभ संस्कार संपन्न हुआ । वे कटक के मिशनरी स्कूल मे पढते थे । सन्‌ १९०८ में ग्यारह वर्ष की आयु में उन्होने आर. कालेजियट स्कूल में प्रवेश लिया । यहीं उनका अपने शिष्य बेनी प्रसाद जी से परिचय हुआ । इनके राष्ट्रीय विचारों और व देशभक्ति से ओत-प्रोत व्यक्तित्व का सुभाष पर गहरा प्रभाव पडा । सन्‌ १९१५ में सुभाष ने प्रेसीडेन्सी कॉलेज में प्रवेश लिया और दर्शन शास्त्र को अपना प्रिय विषय चुना ।अपनी भारत माँ को पराधीनता से मुक्त करने के उनके अभियान का प्रारम्भ उस घटना से हुआ, जब सन्‌ १९१६ में विद्यार्थी जीवन काल में अंग्रेज प्रोफेसर ओटन द्वारा भारतीयों के लिए अपशब्द प्रयोग करना उनसे सहन नहीं हुआ और उन्होंने उस प्रोफ़ेसर ओटन को थप्पड मार दिया और उसकी पिटाई कर दी | परिणाम स्वरूप विख्यात प्रेसिडेंसी कालेज से उनको निकाल दिया गया । सन्‌ १९१७ में श्री श्यामाप्रसाद मुखर्जी के पिता आशुतोष मुखर्जी प्रयास से उनका निष्कासन रद्द हुआ । अब उनकी गणना विद्रोहियों में होने लगी | इसके पश्चात प्रिंस ऑफ़ वेल्स के आगमन पर सन्‌ १९२१ में उनको बंदी बनाया गया क्योंकि वह उनके स्वागत में आयोजित कार्यक्रम का बहिष्कार कर रहे थे|
राय बहादुर की उपाधि से विभूषित उनके पिता पाश्चात्य सभ्यता के रंग में रंगे थे और उनको सिविल सेवाओं में देखना चाहते थे,परन्तु सिविल सेवाओं की परीक्षा-परिणाम की रेंकिंग में चतुर्थ स्थान प्राप्त करने वाले सुभाष को अंग्रेजों की जी हजूरी कर अपने भाइयों पर अत्याचार करना पसंद नहीं था, कुछ समय उन्होंने विचार किया और हमारे देश के महान सपूत मह्रिषी अरविन्द घोष जिन्होंने स्वयं सिविल सेवाओं का मोह छोड़ देश की आजादी के संघर्ष को अपना धर्म माना था के आदर्श को शिरोधार्य कर अपना ध्येय अपनी भारतमाता की मुक्ति को बनाया और भारत लौट आये |
भारत में वह देशबंधु चितरंजन दास के साथ देश की आजादी के लिए बिगुल बजाना चाहते थे, उनको वह अपना राजनीतिक गुरु मानते थे, परन्तु रविन्द्रनाथ टेगोर ने उनको पहले महात्मा गांधी से मिलने का परामर्श दिया | सुभाष गांधीजी से भेंट करने गए,विचार-विमर्श किया |
भारतीय स्वतंत्रता के लिए अपने सर्वस्व का त्याग करने वाले क्रांति के नायक नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के सन्दर्भ में स्वतंत्र भारत की लोकतान्त्रिक सरकार की निम्न निंदनीय गतिविधियाँ हम सभी जागरूक भारतीयों के लिए विचारणीय हैं------
(१) नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के चित्रों को सरकारी कार्यालय आदि स्थानों पर लगाये जाने पर पाबन्दी क्यों लगाई गयी? यह पाबन्दी भारत सरकार की सहमति पर बम्बई सरकार ने ११ फरवरी सन्‌ १९४९ को गुप्त आदेश संख्या नं० 155211 के अनुसार प्रधान कार्यालय बम्बई उप-क्षेत्र कुलाबा-६ द्वारा लगाई गई ।
(२) नेताजी को अन्तर्राष्ट्रीय युद्ध अपराधी भारतीय नेताओं ने क्यों स्वीकार किया? अन्तर्राष्ट्रीय अपराधी गुप्त फाईल नं० 10(INA) क्रमांक २७९ के अनुसार नेताजी को सन्‌ १९९९ तक युद्ध अपराधी घोषित किया गया था, जिस फाईल पर आज़ाद भारत के तत्कालीन प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के हस्ताक्षर हैं । परन्तु 3-12-1968 में यू.एन.ओ. परिषद के प्रस्ताव नं० 2391/ xx3 के अनुसार सन्‌ १९९९ की बजाय आजीवन युद्ध अपराधी घोषित किया जिस पर आज़ाद भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरागांधी के हस्ताक्षर हैं ।
अगस्त सन्‌ २००२ में भारत सरकार द्वारा गठित मुखर्जी आयोग के सदस्यों को तब करारा झटका लगा, जब ब्रिटिश सरकारसे नेताजी सुभाष चन्द्र बोस जी से सम्बंधित गोपनीयदस्तावेजों की माँग की तथा ब्रिटिश सरकार ने मुखर्जी आयोग के सदस्यों को सुरक्षा कारणों का हवाला देते हुए वापिस लौटा दिया तथा सन्‌२०२१ से पहले अपने अभिलेखागार से कोई भी महत्वपूर्ण दस्तावेज जो नेताजी से सम्बंधित है,उनको देने से इन्कार कर दिया एवं मुखर्जी आयोग के सदस्य १३ अगस्त सन्‌ २००१ को लाल कृष्ण आडवाणी,तत्कालीन गृहमंत्री, भारत सरकार से मिले थे तथा आयोग के सदस्यों ने गृहमंत्री भारत सरकार से आग्रह किया था कि भारत सरकार लंदन में उनके लिए दस्तावेजों की उपयोगी सामग्री दिलाने के लिए समुचित कदम उठाए एवं आयोग के सदस्यों ने गृहमंत्री भारत सरकार से यह भी कहा था कि रूस के लिए भी सरकारी रूप से पत्र लिखें जिससे रूस भी ब्रिटिश सरकार पर दबाव डाले और आयोग के सदस्यों को दस्तावेज मिल सकें।यदि उस समय श्री अटल बिहारी वाजपेयी, तत्कालीन प्रधानमंत्री, भारत सरकार, सरकारी तौर पर ब्रिटेन पर दबाब डालते तो गोपनीयता समझौतों के दस्तावेज प्राप्त किये जा सकते थे । इसलिए तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी तथा तत्कालीन गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी का मौन रहना भी कोई राज की बात है तथा नेताजी के विरूद्ध हुए समझौतों को स्वीकृति देना है ।
नेताजी के विषय में भ्रमित भारतीयों के प्रश्नों के उत्तर भी भ्रम को दूर कर सकने में असमर्थ ही रहे हैं ----
अनेक प्रमाणों से अब जबकि सिद्ध हो चुका है कि नेताजी की मृत्यु वायुयान दुर्घटना में नहीं हुई थी और न ही आज सरकार के पास नेताजी के मृत्यु की कोई निश्‍चित तारीख है । इसके साथ ही खण्डित भारत सरकार शाहनवाज जांच कमेटी तथा खोसला आयोग द्वारा भी नेताजी की वायुयान दुर्घटना में मृत्यु सिद्ध नहीं कर पाई।उपरोक्‍त दोनों जांच समितियों की रिपोर्ट से भारत के लोगों को नेताजी के विषय में गुमराह करने का षड्‍यंत्र रचा । इस षड्‍यन्त्र से भारतीय लोगों के दिमाग में तरह-तरह के सवाल उठना जरूरी है । कुछ ऐसे प्रश्नों के उत्तर सुभाषवादी जनता (बरेली) की सन्‌ १९८२ में प्रकाशित एक “नेताजी प्रशस्तिका” में दिए गए हैं ।अब यह ज्वलंत प्रश्न है कि आज जो देश की हालत है उसे देखकर क्या नेताजी चुप रह सकते थे?अब यह एक और ज्वलंत प्रश्न है कि क्या नेताजी जैसा देशभक्‍त इतने लम्बे समय तक छिपकर बैठ सकता था ?इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि कौन सा ऐसा महान क्रान्तिकारी है जो छुप कर न रहा हो ? यथा--
(१) जरा सोचो रामचंद्र जी को अवतार माना जाता है, फिर उन्होंने छिपकर बाली को बाण क्यों मारा ?
(२) क्या पाण्डव छिपकर जंगलों में नहीं रहे थे ?
(३) क्या अर्जुन ने स्वयं को बचाने के लिए स्त्री का रूप धारण नहीं किया था ?
(४) क्या हजरत मौहम्मद साहब जिहाद में अपनी जान बचाने के लिए छिपकर मक्‍का छोड़कर मदीना नहीं चले गये थे ?
(५) क्या छत्रपति शिवाजी कायर थे, जो औरंगजेब की कैद से मिठाई की टोकरी में छिपकर निकले थे ?
(६) क्या चन्द्रशेखर आजाद और भगतसिंह समय-समय पर भूमिगत नहीं हुये थे ?
(७) क्या चे गोवेरा तथा मार्शल टीटो जैसे विश्‍व के महान क्रान्तिकारी अपनी जिन्दगी में अनेक बार भूमिगत नही हुये थे?क्या उपरोक्‍त सभी महान क्रान्तिकारी कायर थे ?
यह सभी क्रान्तिकारी बहुत साहसी थे और वे केवल अपने उद्देश्यों के लिये भूमिगत हुए थे । जबकि नेताजी इन क्रान्तिकारियों के गुरू भी हैं तथा नेताजी की लड़ाई तो पूरे विश्‍व में साम्राज्य के खिलाफ है । इसलिये नेताजी किसी भय से नहीं अपितु अपने महान उद्देश्य को पूरा करने के लिये भूमिगत हुए ।
जब नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने गृहत्याग किया, तब उनके परिवार वाले रोये और बिलखे | उस समय परिवार में बच्चों की संख्या अधिक होती थी, लेकिन इससे उनकी महत्ता कम नहीं होती थी | सुभाषचन्द्र बोस ने उत्तर भारत की अपनी धर्मयात्रा को आधार बनाते हुए अपनी आत्मकथा सन्‌ १९३७ में 'An Indian Pilgrim' के नाम से लिखी, इस तरह की यात्रायें और गोपनीयता,सर्वस्व का त्याग और अबूझ की तलाश सुभाष के जीवन यात्रा की अनिवार्यता बन गयी थी | देश की स्वतन्त्रता के लिए सुभाषचन्द्र बोस कुछ भी कर सकते थे. यह कुछ भी कर सकना कामयाब हुआ क्योंकि अंग्रेजी सरकार की फ़ौज में क्रांति की भावना स्थायी तौर पर घर कर गयी | आज़ाद हिंद फ़ौज के बाद रायल इन्डियन नेवल म्युटिनी ने अंग्रेजी सरकार को कंपा दिया था | ब्रिटिश फ़ौज का अब आखिरी सहारा भी भरोसे का नहीं रहा था | माउन्टबेटन को जल्दबाजी में वायसराय बना कर लाया गया ताकि भारत को आज़ादी दे कर ब्रिटिश यहाँ से प्रतिष्ठापूर्वक निकल सकें | साम्राज्य को सांघातिक चोट पहुचाने का कार्य सुभाष चन्द्र बोस ने किया था |
यह बहुत कम व्यक्ति जानते हैं कि नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने एक कविता सन्‌ १९३० में लिखी थी---
"जीवन धाराजितना अधिक त्याग करेंगे,
हम जीवन काउतने ही वेग से प्रवाहित होगी,
जीवनधाराजीवन चलेगा तब अंतहीन,
बहुत कुछ है कहने के लिएऔर....
जीवन-शक्ति है भरपूर मुझ में,
बहुत सी खुशियाँ हैं यहाँ,
बहुत सी हैं अभिलाषाएं,
इन सब से परिपूर्ण मात्र हैजीवनधारा...."
यह याद रहे कि व्यक्‍ति जितना महान होता है, उसका उद्देश्य भी उतना ही महान होता है ।प्रश्न यह है कि नेताजी का क्या उद्देश्य है ? प्रश्न यह है कि यदि नेताजी जीवित हैं तो क्यों नहीं आते ?इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने सन्‌ १९३१ में कहा था “इस समय हमारा एक ही लक्ष्य है- “भारत की स्वाधीनता” | नेताजी भारत के विभाजन के विरूद्ध थे । उन्होंने यह भी कहा था कि “हमारा युद्ध केवल ब्रिटिश साम्राज्य से नहीं बल्कि संसार के साम्राज्यवाद के विरूद्ध है । अतः हम केवल भारत के लिये ही नहीं बल्कि मनुष्य मात्र के हितों के लिये भी लड़ रहे हैं । भारत की पूर्ण स्वतंत्रता का अर्थ है- समस्त मानव जाति का भय मुक्‍त हो जाना । "भारतीय स्वाधीनता संग्राम के महत्वपूर्ण स्वर्णिम अध्याय को लिखते हुए ” आज़ाद हिंद फौज” का ७००० सैनिकों के साथ गठन किया | इसके बाद ही उनको” नेता जी ” का नाम मिला. “तुम मुझे खून दो मै तुम्हे आज़ादी दूंगा ” ‘ का नारा देने वाले सुभाष ने दिया “दिल्ली चलो ” का जोशीला नारा और आज़ाद हिंद फौज ने जापानी सेना की सहायता से अंडमान निकोबार पहुँच कर देश को अंग्रेजी दासता से मुक्त कराने का प्रथम चरण पूरा किया और इन द्वीपों को “शहीद” तथा “स्वराज” नाम प्रदान किये..कोहिमा और इम्फाल को आज़ाद कराने के प्रयास में सफल न होने पर भी हार नहीं मानी सुभाष ने,तथा आज़ाद हिंद फौज कीमहिला टुकड़ी “झांसी की रानी” रेजिमेंट के साथ आगे बढ़ते रहे | आज़ाद हिंद फौज का कार्यालय रंगून स्थानांतरित किया गया | उनके अनुयायी दिनप्रतिदिन बढ़ते ही जा रहे थे और ये खतरे की घंटी न जाने किस किस के लिए थी |नेताजी ने सिंगापूर में स्वाधीन भारत की अंतरिम सरकार का गठन किया और उसको नौ देशों ने मान्यता प्रदान की | जापान की सेना का भरपुर सहयोग उनको मिल ही रहा था,परन्तु वह चाहते थे अधिकाधिक भारतीयों की भागीदारी इसमें हो, धुरी राष्ट्रों की हार के कारण नेताजी को अपने सपने बिखरते लगे और उन्होंने रूस की ओर अपनी गति बढ़ायी थी | नेताजी मंचूरिया जाते समय लापता हो गए और शेष सब रहस्य बन गया और अनंत में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस खो गए | आज तक यह रहस्य रहस्य ही बना हुआ है |
"किस भाँति जीना चाहिए, किस भाँति मरना चाहिए ।
लो सब हमें निज पूर्वजों से सीख लेना चाहिए ।।"
(साभार-राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त)
जहाँ तक हम भारतवासियों के विश्‍वास का प्रश्न है, तो हम यही मानते हैं कि नेताजी सुभाषचन्द्र बोस अभी भी जीवित हैं और अब भारत के लोगों के विवेक व सोच पर निर्भर करता है । लेकिन वे कब प्रकट होंगे इस प्रश्न का समुचित उत्तर नेताजी के अनुसार तृतीय विश्‍व युद्ध की चरम सीमा पर प्रकट होना है । जैसा कि उन्होंने १९ दिसम्बर सन्‌ १९४५ को मन्चूरिया रेडियों से अपने अन्तिम सन्देश में कहा था । नेताजी जानते थे कि द्वितीय विश्‍वयुद्ध के बाद भी एक और महायुद्ध अवश्य होगा, जिसकी सम्भावना उन्होंने २६ जून सन्‌ १९४५ को आजाद हिन्द रेडियो (सिंगापुर) से प्रसारित अपने एक भाषण में व्यक्‍त कर दी थी । धीरे-धीरे संसार तृतीय महायुद्ध के निकट पहुँच रहा है । इसी महायुद्ध में भारत पुनः अखण्ड होगा तथा नेताजी का प्रकटीकरण होगा ।
भारत के धूर्त राजनीतिज्ञों से नेताजी का कोई समझौता नहीं होगा । नेताजी किसी भी व्यक्‍ति या देश के बल पर नहीं, अपनी ही शक्‍ति के बल पर प्रकट होंगे । उनके प्रकट होने से पहले उनके नेताजी होने के बारे में सन्देह के बादल छँट चुके होंगे । जैसे अर्जुन का अज्ञातवास पूरा होने पर गाण्डीव धनुष की टंकार ने पाण्डवों के होने के सन्देह के बादल छांट दिये थे ।हमें सुभाष चन्द्र बोस की ये गीत 'खूनी हस्‍ताक्षर' याद दिलाता है---
वह खून कहो किस मतलब का, जिसमें उबाल का नाम नहीं ।
वह खून कहो किस मतलब का, आ सके देश के काम नहीं ।
वह खून कहो किस मतलब का, जिसमें जीवन, न रवानी है !
जो परवश होकर बहता है, वह खून नहीं, पानी है !
उस दिन लोगों ने सही-सही, खून की कीमत पहचानी थी ।
जिस दिन सुभाष ने बर्मा में, मॉंगी उनसे कुरबानी थी ।
बोले, स्‍वतंत्रता की खातिर, बलिदान तुम्‍हें करना होगा ।
तुम बहुत जी चुके जग में, लेकिन आगे मरना होगा ।
आज़ादी के चरणें में जो, जयमाल चढ़ाई जाएगी ।
वह सुनो, तुम्‍हारे शीशों के, फूलों से गूँथी जाएगी ।
आजादी का संग्राम कहीं, पैसे पर खेला जाता है ?
यह शीश कटाने का सौदा, नंगे सर झेला जाता है”
यूँ कहते-कहते वक्‍ता की, ऑंखें में खून उतर आया !
मुख रक्‍त-वर्ण हो दमक उठा, दमकी उनकी रक्तिम काया !
आजानु-बाहु ऊँची करके, वे बोले,”रक्‍त मुझे देना ।
इसके बदले भारत की, आज़ादी तुम मुझसे लेना ।”
हो गई उथल-पुथल, सीने में दिल न समाते थे ।
स्‍वर इनकलाब के नारों के, कोसों तक छाए जाते थे ।
“हम देंगे-देंगे खून”, शब्‍द बस यही सुनाई देते थे ।
रण में जाने को युवक खड़े, तैयार दिखाई देते थे ।
बोले सुभाष,” इस तरह नहीं, बातों से मतलब सरता है ।
लो, यह कागज़, है कौन यहॉं, आकर हस्‍ताक्षर करता है ?
इसको भरनेवाले जन को, सर्वस्‍व-समर्पण काना है।
अपना तन-मन-धन-जन-जीवन, माता को अर्पण करना है ।
पर यह साधारण पत्र नहीं, आज़ादी का परवाना है ।
इस पर तुमको अपने तन का, कुछ उज्‍जवल रक्‍त गिराना है !
वह आगे आए जिसके तन में, भारतीय ख़ूँ बहता हो।
वह आगे आए जो अपने को, हिंदुस्‍तानी कहता हो !
वह आगे आए, जो इस पर, खूनी हस्‍ताक्षर करता हो !
मैं कफ़न बढ़ाता हूँ, आए, जो इसको हँसकर लेता हो !
सारी जनता हुंकार उठी- हम आते हैं, हम आते हैं !
माता के चरणों में यह लो, हम अपना रक्‍त चढ़ाते हैं !
साहस से बढ़े युबक उस दिन, देखा, बढ़ते ही आते थे !
चाकू-छुरी कटारियों से, वे अपना रक्‍त गिराते थे !
फिर उस रक्‍त की स्‍याही में, वे अपनी कलम डुबाते थे !
आज़ादी के परवाने पर, हस्‍ताक्षर करते जाते थे |
उस दिन तारों ना देखा था, हिंदुस्‍तानी विश्‍वास नया।
जब लिखा था महा रणवीरों ने, ख़ूँ से अपना इतिहास नया ||