Thursday, September 29, 2011

जिस के संगीत से डरती थी एफबीआई ..........

                            एफबीआई यानी दुनिया की सबसे ताक़तवर जांच एजेंसी. दुनियाभर के अपराधी इससे ख़ौफ खाते हैं. यह राजनीतिक उलटफेरों और जीत-हार के खेल में माहिर है. हालांकि एक ऐसा व़क्त भी था, जब एफबीआई को एक शख्स के संगीत से डर लगने लगा था. इतना डर कि वह उसकी हर हरक़त पर नज़र रखने लगी, आख़िर कौन था वह शख्स और क्यों डरती थी उससे एफबीआई........

                                                                           तारीख- जनवरी 10, 1971जगह- मिशिगन, अमेरिकामौका था एक विशाल रैली का, एक सोशल एक्टिविस्ट जॉन सिनक्लेयर की गिरफ़्तारी के विरोध में आयोजित इस रैली में कई बड़े नाम शामिल होने वाले थे. ड्रग ले जाने के आरोप में पकड़े गए जॉन सिनक्लेयर दरअसल एक जाने-माने उदारवादी कार्यकर्ता थे और कहा जा रहा था कि उन्हें ग़लत आरोप लगा कर गिरफ़्तार किया गया था. संगीत, राजनीति और सामाजिक अधिकारों से जुड़ी कई बड़ी हस्तियां इस रैली में मौज़ूद थीं.
हालांकि यह रैली केवल जॉन सिनक्लेयर या इसमें भाग लेने वालों के लिए ही अहम नहीं थी. इस रैली की हर गतिविधि पर नज़रें गड़ाई हुए थी, अमेरिकी संघीय जांच एजेंसी यानी एफबीआई, रैली में आए हर शख्स पर नज़र रखी जा रही थी लेकिन इन सारे मेहमानों में भी एक ख़ास व्यक्ति था…इतना ख़ास कि इसपर नज़र रखने के लिए स्पेशल एजेंट लगाया गया था. रैली ख़त्म होने पर इस ख़ास टारगेट पर नज़र रख रहे स्पेशल एजेंट ने अपनी रिपोर्ट दायर की. रिपोर्ट में कहा गया था कि अपनी पत्नी के साथ रैली में आए इस शख्स ने कई गीत गाए, इसका आख़िरी गाना जॉन सिन्क्लेयर ख़ास इसी मौैके के लिए लिखा गया था. रिपोर्ट में इस शख्स को विषय(सब्जेक्ट) कहा गया था. इसी रिपोर्ट में इस विषय की पहचान दी गई थी- जॉन लेनन, जो पहले बीटल्स नाम के एक ग्रुप के साथ जुड़ा रहा.
                                                                                             
                       जॉन लेनन का यह परिचय किसी आम आदमी के सामने रखा जाता तो शायद उसकी हंसी छूट जाती. इतिहास के सबसे ख्यात संगीतकारों में एक जॉन लेनन की पहचान महज़ गाना गाने वाले एक ऐसे विषय के तौर पर की गई थी जो किसी बीटल्स नाम के ग्रुप से जुड़ा था. जॉन लेनन और बीटल्स विश्व इतिहास संगीत के ऐसे नाम थे जिनका परिचय देने की ज़रूरत ही नहीं थी. हां, इतना बताना ज़रूरी था कि उस रैली के तीन दिन बाद ही सिनक्लेयर रिहा हो गए.सवाल यह है कि आख़िर इतने प्रसिद्ध संगीतकार और गायक के ऊपर क्यों नज़र रखी जा रही थी. क्यों एफबीआई की नज़रों में सबसे ख़तरनाक थे -जॉन लेनन.दरअसल जॉन लेनन की लोकप्रियता ही उनपर नज़र रखे जाने की वजह थी.जॉन का संगीत पूरी दुनिया में सुना जाता था और इसी वजह से एफबीआई को उनसे डर लगता था.दरअसल वह व़क्त अमेरिकी राजनीति में बहुत अहम था. वियतनाम के साथ युद्ध ज़ोर पकड़ चुका था और उसी के साथ युद्ध का विरोध करने वालों की संख्या भी बढ़ गई थी. राष्ट्रपति जॉनसन द्वारा शुरू किए गए युद्ध को नए राष्ट्रपति निक्सन ने भी जारी रखा था. अमेरिकी सैनिकों की भारी संख्या में मौत की ख़बरों के बीच उदारवादियों और समाजवादियों द्वारा विरोध भी बढ़ता जा रहा था. एफबीआई की सबसे ऊंची कुर्सी पर एडगर जे हूवर 40 से भी अधिक सालों से क़ाबिज़ थे. अमेरिका में पूंजीवाद का दबदबा था. उसे सबसे अधिक ख़तरा था-कम्यूनिज़्म से. जहां वियतनाम में भी इसी कम्यूनिज़्म से उसका मुक़ाबला चल रहा था, वहीं देश के अंदर भी पूंजीवाद और हिंसा के ख़िला़फ माहौल तैयार हो रहा था. हूवर को लगता था कि यह कम्यूनिज़्म को जन्म देगा और उसने इस नव-कम्यूनिज़्म से निपटने की तैयारी शुरू कर दी थी. ऐसे हर शख्स पर नज़र रखी जा रही थी जिस पर ज़रा सा भी शक़ हो. युद्ध के ख़िला़फ और उदारवाद के समर्थन में बोलने वाला हर आदमी इस घेरे में आ जाता था. तब के अधिकतर कलाकार और संगीतकार युद्ध का विरोध कर रहे थे.जॉन लेनन ने भी दो साल पहले युद्ध के ख़िला़फ एक गीत रिकार्ड किया था. यह गीत दूसरे वियतनाम मेमोरियल के दौरान लाखों लोगों ने गाया था. उनके गीत युद्ध विरोधी संघर्ष के दौरान महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा थे. सरकार और एफबीआई को लगा कि जॉन लेनन उनके लिए ख़तरनाक साबित हो सकते हैं. दरअसल निक्सन को लगता था कि लेनन द्वारा उनका विरोध और उनके विरोधी मैकगवर्न का समर्थन उनके दोबारा जीतने में रोड़ा बन सकता है. तभी से उन पर नज़र रखी जाने लगी. ऐसी बातें ढूंढी जाने लगीं जिससे उनपर सवाल खड़े किए जा सके. उन्हें फंसाया जा सके.
                        सिनक्लेयर की रैली तो बस एक उदाहरण थी. उनकी ज़िंदगी की हर एक बात पर नज़र रखी जा रही थी. आख़िरकार एफबीआई को मौका मिला. 1968 में लेनन मादक पदार्थ कैनाबिस के साथ पकड़े गए. अब निक्सन को सुझाया गया कि लेनन को देश से निकाला जा सकता है. दरअसल लेनन ब्रिटिश थे और उन्हें क़ानून तोड़ने के नाम पर बाहर किया जा सकता था. लेनन को बाहर निकालने के लिए कोशिशें शुरू हो गईं.

23 मार्च 1973 को उन्हें 60 दिन के भीतर देश छोड़ने को कह दिया, हालांकि उनकी पत्नी को रियायत मिल गई. इसके जवाब में लेनन ने एक नए देश न्यूटोपिया की स्थापना का दावा किया, जिसकी न तो कोई सीमा थी, न तो कोई क़ानून. ख़ुद को न्यूटोपिया का नागरिक बता उसका झंडा (दो सफेद रुमाल) लहराते हुए, उन्होंने अमेरिका से राजनीतिक शरण की मांग कर दी. हालांकि इस बीच निक्सन ख़ुद वाटरगेट कांड में फंस चुके थे और हूवर का निधन हो चुका था. 1975 में लेनन का देश निकाला ख़ारिज़ कर दिया गया.
लेनन की मौत के बाद उनकी बायोग्राफी लिखने वाले इतिहासकार जो सायनर ने सूचना के अधिकार के तहत एफबीआई से जॉन लेनन से जुड़ीं फाइलें मांगी. एफबीआई ने यह तो मान लिया कि उसके पास लेनन से जुड़ी 281 पन्नों की एक फाइल है, लेकिन उसने इसे सामने लाने से इस बिना पर इंकार कर दिया कि उसमें सुरक्षा से जुड़ीं कुछ बातें हैं. हालांकि बाद में एक लंबी क़ानूनी लड़ाई और बिल क्लिंटन के समय क़ानून बदलने से फाइलें आख़िरकार सामने आईं. इन फाइलों के आधार पर जो सायनर ने एक किताब-गिम्मी सम ट्रूथःद जॉन लेनन एफबीआई फाइल्स-लिखी. फाइलों को पढ़ने से यह साफ हो गया कि दुनिया की सबसे शक्तिशाली सरकार और उसकी ताक़तवर जांच एजेंसी-एफबीआई  इंग्लैंड के लीवरपूल में जन्मे एक शख्स जो किसी बीटल्स नाम के ग्रुप से जुड़ा हुआ था, से किस तरह डरती थी और किस तरह जॉन लेनन पर हर व़क्त से नज़र रखी गई थी.

भारत की पुलिस:इतिहास के आईने में

पश्चिमी देशों के विद्वानों का मत है कि लेटिन भाषा के शब्द पोलिटिया से पुलिस शब्द की उत्पत्ति हुई है। पोलिटिया का अर्थ है नागरिक शासन। पुलिस नागरिक शासन का एक महत्वपूर्ण अंग है। इस तरह लेटिन भाषा के इस शब्द से पुलिस की उत्पत्ति मानने वालों का विचार भी तर्कपूर्ण है किन्तु भारत के प्राचीन सम्राट अशोक ने पुन्निस शब्द का प्रयोग किया है। पालि भाषा में नगर रक्षक को पुन्निस कहते थे। पुर का अर्थ होता है नगर, पुर के निवासियों को पोर कहते थे। पुरूष शब्द का उपयोग अधिकारी के रूप् में किया गया है। इस प्रकार ईसा पूर्व तीसरी सदी में पुन्निस और पुलिस उपयोग अधिकारी के रूप में किया गया है। इस प्रकार ईसा पूर्व तीसरी सदी में पुन्निस और पुलिस शब्दों का प्रयोग पालि भाषा में मिलता है। इस आधार पर श्री परिपूर्णानन्द वर्मा जी का मत है कि पुलिस शब्द का प्रादुर्भाव भार में ही हुआ। यह विचार उन्होंने अपने ग्रन्थ भारतीय पुलिस में व्यक्त किया है। इसबसे स्पष्ट है कि भारत में पुलिस व्यवस्था अति प्राचीन है।


पुलिस का प्राचीन इतिहास
सम्राट अशोक के कार्यकाल में पुन्निस का कार्य था कि वह जनता को पाप करने से रोके। आज भी पुलिस का कार्य विधि (कानून) के प्राविधानों को लागू कराना है।
इस प्रकार भारतीय पुलिस की परम्परा अति प्राचीन है। समाज में पुलिस की आवश्यकता अपराध रोकने के लिए होती है। अर्थवेदन में भी अपराध शब्द आया है जिसका अर्थ है अपने लक्ष्य से च्युत होना अथवा गलत कार्य करना। उस समय भी अपराध की रोकथाम की व्यवस्था थी और इस कार्य में प्रयुक्त दल को पौरूस कहते थे जो बाद में पुलिस बना। अशोक के काल तक पौरूस आजकल के सचिव का कार्य करने लगा था और पुलिस अपराधों की रोकथाम का कार्य करती थी।
                            विश्व के अन्य प्राचीन देशों में भी प्राचीन काल में पुलिस व्यवस्था थी। ईरानी साम्राज्य में अलग एक पुलिस बल भी था। प्राचीन यूनानी नगर राज्य में भी ईसा पूर्व दूसरी सदी में पुलिस व्यवस्था होने का प्रमाण मिलता है। रोमन साम्राज्य में ईसा पूर्व पहली सदी में सम्राट आंगस्टन ने पुलिस व्यवस्था की थी। यूरोप के महान सम्राट शार्लमा ने 800 ई. में पवित्र रोमन साम्राज्य की स्थापना की। उसी ने फ्रांस में जेडामों की स्थापना की। आज भी फ्रांस में यह संगठन मौजूद है और वहां की पुलिस का महत्वपूर्ण अंग है।
                            भारत मौर्य काल में पुलिस की सम्यक व्यवस्था थी। उस समय गुप्तचर पुलिस भी थी। प्राचीन भार में भी ग्रामीण तथा नगर पुलिस अलग-अलग थी।सम्राट अशोक ने विकेन्द्रीकरण की नीति अपनाई थी। इस प्रकार ग्राम तथा नगरों को बहुत से अधिकार प्राप्त हो गये थे लेकिन ई. सन् 300 से 650 के बीच गुप्त वंश के राज्य में केन्द्र को सुदृढ़ बनाया गया । प्रथम बार गुप्त काल में केन्द्रीय पुलिस की स्थापना भारत में हुई । भारत की पुलिस को वेतन मिलता था।
                         ग्यारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में भारत पर मुसलमानों के आक्रमण शुरू हो गए। इसके बाद ग्रामीण तथा नगरीय पुलिस व्यवस्था जो सदियों से उत्तर भारत में प्रचलित थी, समाप्त हो गई और सेना की राज्य प्रधान अंग बन गई। लम्बे अरसे तक पुलिस का काम सेना के जिम्मे रहा।अलाउद्दीन खिलजी (1286-1316 ई.) ने पहली बार नियमित पुलिस व्यवस्था की। बाद में हर नगर में पुलिस कोतवाल नियुक्त किए गए। कोतवाल को जो वेतन मिलता था उसी में से उसे अधीनस्थ पुलिस की व्यवस्था करनी पड़ती थी।
                  शेरशाह सूरी ने पुलिस की बडी अच्छी व्यवस्था की । उसने प्राचीन भारतीय प्रणाली की स्थानीय पुलिस नियुक्त कर दी। हर गॉव में उसे मुकदम नियुक्त कर दिया। अगर गांव में चोरी हो जाए और माल की बरामदगी न हो सके तो माल की कीमत उस गांव के मुकदम को देनी पडती थी। हत्या के मामलें में यदि हत्यारा लापता रहा तो मुकदम को फॉसी पर चढा दिया जाता था।अकबर के समय भी प्राचीन पुलिस प्रणाली थोड़े परिवर्तन के साथ चलती रही। गांव वाले अपने चौकीदार, पहरेदार स्वयं रखते थे। शहर कोतवाल का पद शेरशाह सूरी के समय से चलता रहा। यह पद बाद में मराठों के द्वारा खत्म किया गया।
                 अंग्रेजी शासन काल में पुलिस की औपचारिक स्थापना लार्ड कार्नवालिस ने की। प्रति 400 मील पर एक थाना खोलने का आदेश हुआ वहॉ पर वैतनिक थानेदार नियुक्त किए गए जो जिला जज के नियंत्रण में रखें गए। किन्तु यह व्यवस्था सफल नहीं हुई जिला हुई। जिला जज ने थाने के काम पर ध्यान नहीं दिया तथा पुलिस कलेक्टर के अधीन कर दी गई। कलेक्टर को भी समय नहीं था कि वह अपराध रोकने का काम देखें। अन्त में बंगाल में कलकत्ता, ढाका, मुर्शिदाबाद और चौबीस परगना में पुलिस सुपरिंटेन्डेन्ट की नियुक्ति 1809 ई. में की गई। इनके अधिकार आज के पुलिस महानिदेशक के अधिकारों जैसे थे। बम्बई प्रान्त के कई इलाके में 1810 ई. में ही पुलिस सुपरिंटेन्डेन्ट नियुक्त किए गए। 1810 ई में ही पटना और बनारस में भी इन्हें नियुक्त किया गया। ये सभी यूरोपियन थे। लेकिन 1829 ई. में पुलिस सुपरिंटेन्डेन्ट के पद खर्च में कटौती करने के उद्देश्य से तोड दिया गया और पुलिस मजिस्ट्रेट के अधीन कर दी गई । यह व्यवस्था भी नहीं चल सकी। अन्त में 1859 में मद्रास प्रान्त में और 1870 में बम्बई प्रान्त में नियमित पुलिस सुपरिंटेन्डेन्ट की नियुक्ति की जा सकी।
                          सन 1859 के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के बाद 1860 ई. में पुलिस कमीशन बैठा जिसकी संस्तुति पर 1861 ई को पुलिस अधिनियम तैयार किया गया, जिसका मुख्य उद्देश्य जनता को दबाकर रखना था। खर्च कम हो इस उद्देश्य से हर थाने का प्रभारी अधिकारी हेड-कॉन्सटेबल को बदा दिया गया। इस समय कॉन्सटेबल की तीन श्रेणियां थीं और उनका वेतन 6, 7, 8 रू० प्रति माह था।कलकत्ते में काम कर रहे 1860 के पुलिस आयोग की संस्तुतियां प्राप्त होने के पूर्व 1860 ई में ही उत्तर प्रदेश की पुलिस का गठन कर दिया गया था। उत्तर प्रदेश का नाम उत्तरी पश्चिमी प्रान्त था। सातों मडंलों में एक-एक पुलिस अधीक्षक व जिले में सहायक पुलिस अधीक्षक नियुक्त किए गए। नवम्बर 1860 ई. में प्रान्त में पुलिस महानिरीक्षक की नियुक्ति की गई तथा छः उप महानिरीक्षक के पद सृजित हुए। उस समय 39 जिले थे। प्रत्येक 6 मील पर थाना खुलने का आदेश हुआ और एक हेड कॉन्सटेबल तथा छः कॉन्सटेबलों की नियुक्ति प्रत्येक थाने पर हो। उसके बाद पुलिस आयोग फिर गठित हुए। स्वतंत्रता की लडाई प्रारम्भ हो गई। लडाई के दौरान जनता में पुलिस की छवि गिर गई क्योंकि पुलिस का प्रयोग स्वतंत्रता सेनानियों के विरूद्ध किया गया ।
                     थोड़े-बहुत परिवर्तनों के साथ भारतीय पुलिस का शासन चलता रहा। सन् 1949 में स्वराज्य के बाद वास्तविक परिवर्तन का सूत्रपात हुआ और आज तक पुलिस प्रशासन में सुधार का क्रम जारी है।

सैयां भये कोतवाल तो डर काहे का!!!!

रसूखदार से रिश्तेदारी प्रकट करने के अर्थ में हिन्दी की प्रसिद्ध लोकोक्ति है-सैयां भये कोतवाल तो डर काहे का!!!! कोतवाल यानी एक रौबदार पुलिस अधिकारी। प्राचीनकाल से ही कोतवाल प्रशासनिक व्यवस्था का एक प्रमुख पद रहा है। मुगलों के ज़माने में कोतवाल की व्यवस्था काफी मज़बूत थी। ब्रिटिशकाल में इसका रुतबा कुछ और बढ़ा क्योंकि नियम-कायदों पर अमल कराने में अंग्रेज हाकिम बहुत सख्त थे। आज कोतवाल जैसा कोई पद तो सरकारी तौर पर नहीं होता है मगर आमतौर पर पुलिस अधीक्षक के रूप में इसका अर्थ लगाया जाता है। हर शहर के प्रमुख पुलिस स्टेशन को कोतवाली कहने का चलन आज भी है। फिरंगी दौर में कोतवाल, कोतवाली शब्दों का प्रयोग होता अंग्रेजी में भी होता रहा था। कोतवाल शब्द आज तो विजय तेंडुलकर लिखित बहुचर्चित नाटक घासीराम कोतवाल की वजह से भी जाना जाता है।
                            कोतवाल शब्द का प्रचलन मुगल दौर और ब्रिटिश काल में उर्दू-फारसी-अंग्रेजी में काफी होता रहा। यह शब्द भारोपीय यानी इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार का है और इसकी व्युत्पत्ति कोष्ठपाल या कोटपाल से मानी जाती है। कोष्ठ शब्द का संस्कृत में अर्थ होता है कक्ष, कमरा या बड़ा हॉल। संस्कृत की पा धातु में भरण-पोषण, संरक्षण और देखरेख का भाव है। पा से बना है पाल शब्द जिसका अर्थ होता है प्रभावशाली व्यक्ति। जाहिर है जिस पर लोगों का पोषण करने अथवा देखरेख का जिम्मा होगा वह निश्चित ही प्रभावशाली व्यक्ति ही होगा जो राजा भी हो सकता है और प्रमुख अधिकारी भी। प्राचीनकाल में राजाओं के नाम के साथ पाल शब्द भी जुड़ा रहता था। अभिभावक, माता-पिता के लिए हिन्दी में पालक, पालनकर्ता शब्द प्रचलित है जो इसी मूल के हैं। पालित का अर्थ हुआ जिसका भरण-पोषण किया जाए। कोष्ठ शब्द यूं तो समुच्चयवाची है और कुष् धातु से बना है मगर इसके मूल में कमरा या कक्ष का ही भाव है। व्यापक अर्थ में देखें तो विशाल घिरे हुए स्थान के तौर पर भी इस शब्द का प्रयोग किया जा सकता है। इस अर्थ में ही कोष्ठ+पाल अर्थात कोतवाल शब्द की व्युत्पत्ति बतौर क्षेत्राधिकारी कोष्ठपाल के रूप में स्वीकार की जा सकती है।
                              मेरे विचार में कोष्ठपाल से कोतवाल शब्द की व्युत्पत्ति भाषाविज्ञान के नज़रिये से तो सही है मगर तर्कसंगत दृष्टि से ठीक नहीं है। कोतवाल शब्द बना है कोटपाल से। संस्कृत में कोट का अर्थ होता है दुर्ग, किला या फोर्ट। प्राचीनकाल में किसी भी राज्य का प्रमुख सामरिक-प्रशासनिक केंद्र पहाडी टीले पर ऊंची दीवारों से घिरे स्थान पर होता था। अमूमन यह स्थान राजधानी के भीतर या बाहर होता था। मुख्य आबादी की बसाहट इसके आसपास होती थी। इस किले के प्रभारी अधिकारी के लिए कोटपाल शब्द प्रचिलित हुआ फारसी में इसके समकक्ष किलेदार शब्द है। कोटपाल के जिम्मे किले की रक्षा के साथ-साथ वहां रहनेवाले सरकारी अमले और अन्य लोगों देखरेख का काम भी होता था। संस्कृत का कोट शब्द बना है कुट् धातु से जिसमें छप्पर, घिरा हुआ स्थान जैसे भाव हैं। कुट् धातु का विकास ही  कुटिया, कुटीर, कुटीरम्, कोट जैसे प्रचलित आश्रयस्थलों के रूप में सामने आया। कुट् में निहित घिरे हुए स्थान का भाव ही कोट में स्पष्ट हो रहा है। आमतौर पर किला शब्द में ऊंचाई का भाव निहित है पर पहाडियों की तुलना में समतल स्थानों पर किले ज्यादा हैं। इसलिए कोट विशेषता ऊंचाई नहीं बल्कि स्थान का घिरा होना प्रमुख है। चहारदीवारी के लिए परकोटा शब्द भी इसी मूल का है जो कोट में परि उपसर्ग लगाने से बना है। परि का अर्थ होता है चारों ओर से। इस तरह अर्थ भी घिरा हुआ या सुरक्षित स्थान हुआ।
                                                                             
                       सर राल्फ एल टर्नर के शब्दकोश में भी कोटपाल (कोतवाल) शब्द का अर्थ किलेदार यानी commander of a fort  ही बताया गया है। कोटपाल का प्राकृत रूप कोट्टवाल हुआ जिससे कोटवार और कोतवाल जैसे रूप बने। बदलते वक्त में जब किलों की आबादी घटती गई और प्रशासनिक केंद्र के तौर पर किले की बस्ती का विस्तार परकोटे से बाहर तक फैलने लगा तब कोतवाल शब्द से किलेदार की अर्थवत्ता का लोप हो गया और इस पद के प्रभामंडल में भी अभिवृद्धि हुई। किसी ज़माने में कोतवाल के पास पुलिस के साथ साथ मजिस्ट्रेट के अधिकार भी होते थे। दिलचस्प बात यह है कि एक ही मूल से बने कोतवाल और कोटवार जैसे शब्दों में कोटपाल से कोतवाल बनने के बावजूद इस नाम के साथ रसूख बना रहा जबकि कोटवार की इतनी अवनति हुई कि यह पुलिस-प्रशासनिक व्यवस्था के सबसे निचले पायदान का कर्मचारी बनकर रह गया। मध्यभारत में आज भी कोटवार व्यवस्था लागू है। मध्यप्रदेश पुलिस रेगुलेशन एक्ट के मुताबिक कोटवार दरअसल गांव के चौकीदार की भूमिका में है। बमुश्किल-तमाम दो हजार रुपए मासिक वेतन पानेवाला कर्मचारी अलबत्ता यह ग्रामीण क्षेत्र में पुलिस के सूचनातंत्र की अहमतरीन कड़ी है।
ग्रामीण क्षेत्र में वनवासी क्षत्रिय जातियों में पुश्तैनी रूप से ग्रामरक्षा की जिम्मेदारी संभालने के चलते कोटवार पद अब कोटवार जाति में तब्दील हो गया है। उधर कोतवाल की जगह कोतवाली का अस्तित्व तो अब भी कायम है मगर कोतवाल पद, पुलिस अधीक्षक के भारीभरकम ओहदे में बदल गया है। महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में भी ब्राह्मण वर्ग में कोतवाल उपनाम होता है। पहले यह शासकों द्वारा दी जानेवाली उपाधि थी जो बाद में उनकी पहचान बन गई। कोतवाल शब्द अपने संस्कृत मूल से उठ कर फारसी में भी दाखिल हुआ। हॉब्सन-जॉब्सन कोश के मुताबिक बुखारा के अमीर (शासक) की तमाम इमारतों का प्रभारी या अधीक्षक कोतवाल कहलाता था। तुर्की भाषा में भी यह शब्द गया जिसका अर्थ था सुरक्षा प्रभारी (chef de la garnison). अलायड चैम्बर्स के ट्रान्सलिट्रेटेड हिन्दी-इंग्लिश कोश के एंग्लों-इंडियन ग्लासरी में कोतवाल(cotwal) के दुर्गाधिपति, दुर्गपाल जैसे अर्थ ही दिए हैं। इसके साथ ही उसे पुलिस अधीक्षक, नगर दंडाधिकारी और किलेदार भी बताया गया है।

इस तरह कोतवाल बन गया पुलिस अधीक्षक------

मुगलकाल और ब्रिटिशकाल में जो शहर कोतवाल होता था उसे अब पुलिस अधीक्षक कहा जाता है। भारतीय पुलिस सेवा के महत्वपूर्ण पदों में से एक। कोतवाल के पास जितनी ताकत पहले थी, उतनी ही अब भी है। बदलते वक्त में शायद ज्यादा ही है। आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था के लिए अब दुनियाभर में पुलिस शब्द का ही प्रचलन है। हिन्दी में भी करीब दो सदियों से पुलिस शब्द प्रचलित हो गया है। अब इसका कोई विकल्प भी नहीं है और इसकी ज़रूरत भी महसूस नहीं होती। कोतवाल के लिए अंग्रेजी में पुलिस सुपरिन्टेन्डेन्ट शब्द ब्रिटिश काल में चलता था, वही  आजादी के बाद भी  चल रहा है। सुपरिन्टेन्डेन्ट का हिन्दी अनुवाद अधीक्षक किया गया। इस तरह कोतवाल बन गया पुलिस अधीक्षक।
                                    पुलिस शब्द बहुत व्यापक अर्थवत्ता वाला शब्द है। मगर इसका अर्थवैविध्य जितना यूरोपीय भाषाओं में दिखता है उतना भारतीय भाषाओं में नहीं। प्राचीन भारोपीय भाषा परिवार में इसके लिए pel धातु खोजी गई है जिसमें घिरे हुए स्थान का भाव है या परकोटे का भाव है। ग्रीक में पॉलिस polis शब्द है जिसका अर्थ होता है शहर या राज्य। प्राचीन ग्रीस में इसी नाम का एक शहर भी था। गौरतलब है कि संस्कृत के पुर, पुरम् जैसे शब्द भी इसी मूल से उपजे हैं जिनमें नगर, आवास, बस्ती, आगार जैसे भाव हैं। लैटिन का पॉलिशिया ग्रीक मूल के इसी उच्चारण वाले शब्द की देन है जिसमें राज्य, नागरिक, प्रशासन और नागरिकता जैसे अर्थ भी समाहित थे। प्राचीनकाल ग्रीको-रोमनकाल में जब प्रशासन तंत्र को सुदृढ़ता प्रदान करनेवाली ऐसी व्यवस्था बनाने की आवश्यकता हुई जो कानूनों पर अमल कराए, तो उसे भी पोलिस polic नाम दिया गया। स्थापित राजतंत्र की ओर से स्थापित पॉलिस नाम के समूह या समिति में कई गणमान्य लोग होते थे जो तयशुदा कानूनों के तहत लोगों के आचरण पर ध्यान देते थे, नियमों का पालन करवाते थे। गणमान्य लोगों की समिति पुलिस फोर्स बन गई जिसे भारत में पुलिस कहते हैं।
गौरतलब है कि सुपरिन्टेन्डेन्ट से झांक रहे सुपर शब्द की रिश्तेदारी प्रोटो इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार के अपर से है जिसमें ऊपर, आगे, वरिष्ठ जैसे भाव है। इसकी प्राचीन भारोपीय धातु है upper जिसकी संस्कृत शब्द उपरि से साम्यता गौरतलब है। अवेस्ता में इसका रूप उपारी मिलता है। हिन्दी-उर्दू में प्रचलित ऊपर शब्द यहीं से जन्मा है। इसी कड़ी से जुड़े हैं यूरोपीय भाषाओं के कुछ अन्य शब्द जैसे ग्रीक का हाईपर hyper, ओल्ड इंग्लिश का ओफेर, गोथिक का उफेरो और आईरिश का फोर आदि। इन सबमें उच्चता, वरिष्ठता, ऊपर का, आगे का जैसे भाव समाहित हैं। भारोपीय भाषाओं में स और ह ध्वनियां आपस में बदलती हैं जैसे अग्रेजी का सर्पेंट और ग्रीक का हर्पेंटम जिसमें रेंगने, सरकने का भाव है। संस्कृत का सर्प भी इसी मूल का है। इसी तरह ग्रीक हाईपर ही अंग्रेजी में सुपर में तब्दील होता है।
                                     हिन्दी से कोतवाल शब्द तो लुप्त हुआ ही इसकी एवज में बना पुलिस अधीक्षक शब्द सिर्फ उल्लेख भर के लिए प्रयुक्त होता है। बोलचाल में इसका इस्तेमाल नहीं के बराबर है। इसी तरह सुपरिन्टेन्डेन्ट ऑफ पुलिस शब्द का इस्तेमाल भी बहुत कम होता है। इसकी जगह अंग्रेजी के संक्षिप्त रूप एसपी का प्रचलन सर्वाधिक है। बोलचाल में इसके आगे ‘साहब’ लगा लिया जाता है। समाचार माध्यमों में यदाकदा पुलिस कप्तान शब्द का प्रयोग भी देखने में आता है। कभी-कभी लेखनी में वैविध्य लाने के लिए कुछ पत्रकार शहर-कोतवाल जैसा प्रयोग भी कर लेते हैं। अंग्रेजी का सुपरिन्टेन्डेन्ट दो शब्दों के मेल से बना है। मूल रूप से यह प्रोटो इंडो यूरोपीय भाषा परिवार का ही है और इसकी रिश्तेदारी हिन्दी-संस्कृत के कई शब्दों से है। किसी ज़माने में सुपरिन्टेन्डेन्ट ब्रिटेन में बिशप के बराबर का पद होता था और यह शासन का मंत्री होता था जिसके पास एक क्षेत्र विशेष के चर्चों के प्रबंध की जिम्मेदारी थी। यह बना है लैटिन के सुपरिन्टेन्डेन्डेन्टेम superintendentem से जो सुपर+(इन)टेन्डेयर (super+intendere) से हुई है। गौरतलब है कि सुपर और टेन्डेयर दोनों शब्द भारोपीय भाषा परिवार के हैं।
                                  सुपर का अर्थ होता है उच्च, वरिष्ट, के ऊपर, आगे, श्रेष्ट, ऊंचा आदि। (इन)टेन्डेयर शब्द में सीधी निगाहबीनी, नज़र रखना, निर्देशित करना जैसे भाव है। इस तरह सुपरिन्टेन्डेन्ट शब्द में निरीक्षणकर्ता, उच्चाधिकारी, "सुपरिन्टेन्डेन्ट के लिए हिन्दी में अधीक्षक शब्द बनाया गया है। यह शब्द संस्कृत शब्दकोशो में नहीं मिलता। सुपरिन्टेन्डेन्ट में निहित भावों को स्पष्ट करने के लिए अधि+ईक्षणम् की संधि से इसका निर्माण हुआ। सुपरिन्डेन्डेन्ट की तरह ही सुपर+(इन)टेन्डेयर की तरह संस्कृत के अधि उपसर्ग में ऊपर, ऊर्ध्व, अधिकता के साथ, प्रमुख, प्रधान जैसे भाव हैं। ."
                                                                                   
प्रभारी जैसे भाव हैं। टेन्डेयर शब्द "सुपरिन्टेन्डेन्ट के लिए हिन्दी में अधीक्षक शब्द बनाया गया है। यह शब्द संस्कृत शब्दकोशो में नहीं मिलता। सुपरिन्टेन्डेन्ट में निहित भावों को स्पष्ट करने के लिए अधि+ईक्षणम् की संधि से इसका निर्माण हुआ। सुपरिन्डेन्डेन्ट की तरह ही सुपर+(इन)टेन्डेयर की तरह संस्कृत के अधि उपसर्ग में ऊपर, ऊर्ध्व, अधिकता के साथ, प्रमुख, प्रधान जैसे भाव हैं। ."
प्रोटो इंडो-यूरोपीय धातु टेन ten से बना है जिसका अर्थ है खिंचाव। संस्कृत की तन् धातु इसके समकक्ष है। शरीद को तन इसलिए कहते हैं कि वह बढ़ता है, खिंचता है, विकसित होता है। तन्त्र भी इस मूल का एक अन्य प्रमुख शब्द है जिसका मतलब होता है तार, जाल, संजाल, तरीका, व्यवस्था आदि। इसी तरह टेन्डेयर का अर्थ हुआ बढ़ाना, तानना, खींचना, किसी चीज़ को विस्तार देना। यहां इसका मतलब है योजना बनाना। योजना के प्रस्ताव के अर्थ में अंग्रेजी का टेन्डर शब्द इसी कड़ी का हिस्सा है। हिन्दी का तनाव, तानना जैसे शब्द इसी मूल से बने हैं। तनाव के अर्थ में अंग्रेजी का टैन्शन इसी मूल का है। ध्यानाकर्षण के अर्थ में अटैन्शन शब्द भी इससे ही निकला है। गौर करें आकर्षण का अर्थ खिंचाव ही होता है। इस तरह टेन्डेयर में अटैन्शन, व्यवस्था, योजना बनाने का भाव निहित है। कुल मिलाकर सुरिन्टेन्डेन्ट शब्द में सर्वाधिकार सम्पन्न क्षेत्राधिकारी होता है जिसके जिम्मे अपने हलके पर पैनी नज़र रखने, व्यवस्था बनाए रखने और उचित फैसले लेने का काम होता है। पुलिस सुपरिन्टेन्डेन्ट यानी पुलिस अधीक्षक यही सब करता है। भारत के कई विभागों में विभागीय प्रमुख को सुपरिन्टेन्डेन्ट कहा जाता है।
सुपरिन्टेन्डेन्ट के लिए हिन्दी में अधीक्षक शब्द बनाया गया है। यह शब्द संस्कृत शब्दकोशो में नहीं मिलता। सुपरिन्टेन्डेन्ट में निहित भावों को स्पष्ट करने के लिए अधि+ईक्षणम् की संधि से इसका निर्माण हुआ। सुपरिन्डेन्डेन्ट (सुपर+(इन)टेन्डेयर) की तरह अधि+ईक्षणम् के अधि उपसर्ग में ऊपर, ऊर्ध्व, अधिकता के साथ, प्रमुख, प्रधान जैसे भाव हैं। इससे ही अधिकार, अधिसंख्य, अधिक, अधिकरण जैसे कई शब्द बने हैं जिनमें श्रेष्टता, अधिकता और उच्चता के भाव हैं। ईक्ष का अर्थ होता है देखना, ताकना, आलोचना करना, खयाल रखना, सावधान-सचेत रहना। इस तरह अधि+ईक्षणम् से बनी क्रिया अधीक्षण का अर्थ हुआ सत्ताधिकार, देखभाल करना, प्रभुत्व, विशेषकार्य की जिम्मेदारी आदि। इससे ही बनाया है अधीक्षक जिसमें ये सारे कर्तव्य निहित हैं। अधीक्षण/अधीक्षक के लिए हिन्दी में कार्यपालन/कार्यपालक जैसे शब्द भी प्रचलित हैं मगर पुलिस के संदर्भ में अधीक्षक शब्द ही प्रचलित है। उप पुलिस अधीक्षक को डिप्टी सुपरिन्टेन्डेन्ट ऑफ पुलिस अर्थात डीएसपी कहते हैं। दो दशक पहले तक मध्यप्रदेश में डीएसपी के स्थान पर डीवाय एसपी कहने का चलन था। इसकी वजह थी डिप्टी सुपरिन्टेन्डेन्ट ऑफ पुलिस का संक्षिप्त रूप Dy SP लिखना। [

भारतीय पुलिस का इतिहास-----

                  हिंदू काल में इतिहास में दंडधारी शब्द का उल्लेख आता है। भारतवर्ष में पुलिस शासन के विकासक्रम  में उस काल के दंडधारी को वर्तमान काल के पुलिस जन के समकक्ष माना जा सकता है। प्राचीन भारत का स्थानीय शासन मुख्यत: ग्रामीण पंचायतों पर आधारित था। गाँव के न्याय एवं शासन संबंधी कार्य ग्रामिक नामी एक अधिकारी द्वारा संचलित किए जाते थ। इसकी सहायता और निर्देशन ग्राम के वयोवृद्ध करते थे। यह ग्रामिक राज्य के वेतनभोगी अधिकारी नहीं होते थे वरन् इन्हें ग्राम के व्यक्ति अपने में से चुन लेते थे। ग्रामिकों के ऊपर 5-10 गाँवों की व्यवस्था के लिए "गोप" एवं लगभग एक चौथाई जनपद की व्यवस्था करने के लिए "गोप" एवं लगभग एक चौथाई जनपद की व्यवस्था करने के लिए "स्थानिक" नामक अधिकारी होते थे। प्राचीन यूनानी इतिहासवेतताओं ने लिखा है कि इन निर्वाचित ग्रामीण अधिकारियों द्वारा अपराधों की रोकथाम का कार्य सुचारु रूप से होता था और उनके संरक्षण में जनता अपने व्यापार उद्योग-निर्भय होकर करती थी।
                                                                                
सल्तनत और मुगल काल में भी ग्राम पंचायतों और ग्राम के स्थानीय अधिकारियों की परंपरा अक्षुण्ण रही। मुगल काल में ग्राम के मुखिया मालगुजारी एकत्र करने, झगड़ों का निपटारा आदि करने का महत्वपूर्ण कार्य करते थे और निर्माण चौकीदारों की सहायता से ग्राम में शांति की व्यवस्था स्थापित रखे थे। चौकीदार दो श्रेणी में विभक्त थे- (1) उच्च, (2) साधारण। उच्च श्रेणी के चौकीदार अपराध और अपराधियों के संबंध में सूचनाएँ प्राप्त करते थे और ग्राम में व्यवस्था रखने में सहायता देते थे। उनका यह भी कर्तव्य था कि एक ग्राम से दूसरे ग्राम तक यात्रियों को सुरक्षापूर्वक पहुँचा दें। साधारण कोटि के चौकीदारों द्वारा फसल की रक्षा और उनकी नापजोख का कार्य करता जाता था। गाँव का मुखिया न केवल अपने गाँव में अपराध शासन का कार्य करता था वरन् समीपस्थ ग्रामों के मुखियों को उनके क्षेत्र में भी अपराधों के विरोध में सहायता प्रदान करता था। शासन की ओर से ग्रामीण क्षेत्रों की देखभाल फौजदार और नागरिक क्षेत्रों की देखभाल कोतवाल के द्वारा की जाती थी।

मुगलों के पतन के उपरांत भी ग्रामीण शासन की परंपरा चलती रही। यह अवश्य हुआ कि शासन की ओर से नियुक्त अधिकारियों की शक्ति क्रमश: लुप्तप्राय होती गई। सन् 1765 में जब अंग्रेजों ने बंगाल की दीवानी हथिया ली तब जनता का दायित्व उनपर आया। वारेन हेस्टिंग्ज़ ने सन् 1781 तक फौजदारों और ग्रामीण पुलिस की सहायता से पुलिस शासन की रूपरेखा बनाने के प्रयोग किए और अंत में उन्हें सफल पाया। लार्ड कार्नवालिस का यह विश्वास था कि अपराधियों की रोकथाम के निमित्त एक वेतन भोगी एवं स्थायी पुलिस दल की स्थापना आवश्यक है। इसके निमित्त जनपदीय मजिस्ट्रेटों को आदेश दिया गया कि प्रत्येक जनपद को अनेक पुलिसक्षेत्रों में विभक्त किया जाए और प्रत्येक पुलिसक्षेत्र दारोगा नामक अधिकारी के निरीक्षण में सौंपा जाय। इस प्रकार दारोगा का उद्भव हुआ। बाद में ग्रामीण चौकीदारों को भी दारोगा के अधिकार में दे दिया गया।

इस प्रकार मूलत: वर्तमान पुलिस शासन की रूपरेखा का जन्मदाता लार्ड कार्नवालिस था। वर्तमान काल में हमारे देश में अपराधनिरोध संबंधी कार्य की इकाई, जिसका दायित्व पुलिस पर है, थाना अथवा पुलिस स्टेशन है। थाने में नियुक्त अधिकारी एवं कर्मचारियों द्वारा इन दायित्वों का पालन होता है। सन् 1861 के पुलिस ऐक्ट के आधार पर पुलिस शासन प्रत्येक प्रदेश में स्थापित है। इसके अंतर्गत प्रदेश में महानिरीक्षक की अध्यक्षता में और उपमहानिरीक्षकों के निरीक्षण में जनपदीय पुलिस शासन स्थापित है। प्रत्येक जनपद में सुपरिटेंडेंट पुलिस के संचालन में पुलिस कार्य करती है। सन् 1861 के ऐक्ट के अनुसार जिलाधीश को जनपद के अपराध संबंधी शासन का प्रमुख और उस रूप में जनपदीय पुलिस के कार्यों का निर्देशक माना गया है।

Monday, September 26, 2011

दुनिया के बड़े भूकंप--

दुनिया भर में पिछले पच्चीस सालों में कई बड़े भूकंप आए हैं और इनमें से कई तो दक्षिण एशिया में रहे हैं.--
30 सितंबर 1993- महाराष्ट्र के लातूर में 6.4 की तीव्रता के भूकंप में कम से कम दस हज़ार लोगों की मौत हुई.
17 जनवरी 1995- जापान में आए सबसे भंयकर भूकंपों में एक जो रिक्टर पैमाने पर 7.2 मापा गया. जापान का आधा हिस्सा हिल गया और छह हज़ार से अधिक लोग मारे गए.
                                              
4 फरवरी 1998- अफ़गानिस्तान के तखार प्रांत में आए भूंकप में साढ़े हज़ार मौतें हुई जबकि दो महीने बाद मई में फिर आए भूकंप में चार हज़ार लोग मारे गए.
17 अगस्त 1999- तुर्की में7.4 की तीव्रता का भूकंप जिसमें मरने वाले लोगों की संख्या थी 17 हज़ार 800 से अधिक.
26 जनवरी 2001 - भारत के गुज़रात राज्य में इस भीषण भूकंप में क़रीब 20 हज़ार लोग मारे गए और इसका असर पाकिस्तान तक महसूस किया गया.
26 दिसंबर 2003 - ईरान के ऐतिहासिक बाम शहर में 6.8 की तीव्रता के झटके महसूस किए गए जिसमें 31 हज़ार से अधिक लोग मारे गए.
26 दिसंबर 2004 - पूरे एशियाई महाद्वीप में सूनामी के बाद आए इस भूकंप में मरने वालों की संख्या दो लाख से ऊपर मानी जाती है. इस भूंकप ने भारत, श्रीलंका, इंडोनेशिया, थाईलैंड और मालदीव को प्रभावित किया था.
8 अक्तूबर 2005 - पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर—तीव्रता 7.6 जिसमें मारे गए कम से कम 75 हज़ार लोग. इसी घटना में भारत प्रशासित कश्मीर में 1200 मौतें हुईं
12 मई 2008 - चीन का सिचुआन प्रांत जहां 7.8 की तीव्रता का भूकंप जिसमें 70 हज़ार लोगों की मौत हुई

क्या संभव है भूकंप की भविष्यवाणी-

            हर भूकंप की तरह इस बार भी लोग सोच रहे हैं कि क्या कोई ऐसा तरीका नहीं है जिससे भूकंप को आने से रोका जा सके? और यदि इस प्राकृतिक आपदा को रोका नहीं जा सकता है, तो साइंटिस्टों के पास क्या कोई ऐसा तरीका नहीं है जिससे इसके आने की भविष्यवाणी की जा सके, ताकि विनाश को कम किया जा सके? हालांकि साइंटिस्ट भूकंप को पहले से जान लेने की कोशिशें करते रहे हैं। पर दो साल पहले इटली में वैज्ञानिकों ने जिस रोज ला-अकिला के नागरिकों को आश्वस्त किया था कि फिलहाल वहां भूकंप का कोई ऐसा खतरा नहीं है कि पूरे इलाके को खाली कराया जाए, वहां उसके अगले ही दिन 6.3 की ताकत वाला बड़ा भूकंप आ गया, जिसमें 300 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई। इससे वहां की सरकार इतनी खफा हुई कि उसने सही भविष्यवाणी करने में नाकाम रहने पर छह साइंटिस्टों और एक सरकारी अधिकारी के खिलाफ हत्या का मुकदमा दर्ज करा दिया।
                                                  

          भूकंप का पहले से अनुमान लगाने के मकसद से वैज्ञानिक पृथ्वी की भीतरी और बाहरी संरचना को समझने का प्रयास करते रहे हैं। अनुमान है कि सदियों पहले धरती पर भूकंप नहीं आते होंगे क्योंकि इसके सभी महाद्वीप आपस में जुड़े हुए थे। पर करीब साढे़ 22 करोड़ साल पहले धरती में ऐसी टूटफूट शुरू हुई जिससे पैन्जया (जुड़ी हुई धरती के इकलौते टुकड़े) के तीन हिस्से हो गए। पहला हिस्सा लौरेशिया था जिसमें उत्तरी अमेरिका, यूरोप और एशिया बने। दूसरा हिस्सा गोंडवाना कहलाया। इसमें से दक्षिण अमेरिका, अफ्रीका व भारत का निर्माण हुआ। अंटार्कटिका और आस्ट्रेलिया आदि का जन्म तीसरे बचे हिस्से में हुआ। करोड़ों साल के अंतराल में भारतीय खंड दक्षिण अमेरिका व अफ्रीका से अलग होकर एशियाई खंड से आ टकराया, जिससे हिमालय पर्वतश्रृंखला बनी। इसके बाद भी चूंकि धरती के अंदर प्लेटों का खिसकना जारी है, इसलिए जमीनी हलचलों के कारण पैदा होने वाले भूकंपों, सूनामी लहरों, ज्वालामुखी विस्फोटों का सिलसिला भी नहीं रुका है।धरती के भीतर की भारी-भरकम प्लेटें हर साल कुछ सेंटीमीटर खिसकती रहती हैं, पर साथ ही इन प्लेटों के जुड़ने, जमीन से अलग होने और टूटने-चटकने के कारण भूमिगत ताप, दाब और रासायनिक क्रियाओं का जन्म होता है, जिससे किसी एक स्थान पर ऊर्जा का बड़ा भंडार जमा हो जाता है। यही जमी हुई ऊर्जा जिस स्थान से धरती फोड़कर बाहर निकलती है, वही स्थान भूकंप का केंद अथवा एपीसेंटर कहलाता है। प्राय: एपीसेंटर से जो ऊर्जा निकलती है, वह किसी परमाणु बम से अधिक शक्तिशाली होती है। अगर यह ऊर्जा ज्वालामुखी विस्फोटों आदि से बाहर नहीं निकल पाती है, तो वह धरती की परतें फाड़ती है और इसी से भूकंप पैदा होता है।
प्रश्न उठता है कि जब साइंटिस्ट यह जानते हैं कि धरती के अंदर क्या चल रहा है तो वे ऐसे प्रबंध क्यों नहीं करते जिनसे भूकंप का सटीक अंदाजा लगाया जा सके? वैसे इस मामले में वैज्ञानिक हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठे हैं। सच तो यह है कि अनेक साइंटिस्ट कई विधियों से धरती के अंदर चल रही हलचलों की टोह लेने की कोशिश कर रहे हैं। सीस्मोलॉजिस्ट धरती की भीतरी चट्टानी प्लेटों की चाल, अंदरूनी फॉल्ट लाइनों और ज्वालामुखियों से निकल रही गैसों के दबाव पर नजर रख कर भूकंप की चाल का अंदाजा लेने की कोशिश करते हैं। जापान और कैलिफोनिर्या में जमीन के अंदर चट्टानों में ऐसे संेसर लगाए गए हैं, जो बड़ा भूकंप आने से ठीक 30 सेकेंड पहले इसकी चेतावनी जारी कर देते हैं। ऐसे आंकड़ों का विश्लेषण कर भूकंप की भविष्यवाणी करने के मकसद से 2005 में अमेरिका के जूलॉजिकल सर्वे विभाग ने एक वेबसाइट भी बनाई। इसमें स्थान विशेष के धरातल में हो रहे बदलावों पर नजर रखकर हर घंटे भूकंप की आशंका वाले क्षेत्रों का अनुमान लगाकर वे स्थान नक्शे में चिह्नित किए जाते हैं। इस विभाग ने इन जानकारियों और गणनाओं के लिए एक बड़ा नेटवर्क बना रखा है।
बीबीसी के अनुसार, इस साल के अंत तक अमेरिका एक सैटेलाइट भी छोड़ने वाला है जिसका मकसद भूकंप का पता लगाना ही है। असल में कुछ साइंटिस्ट मानते हैं कि वायुमंडल के सुदूर हिस्सों में होने वाली विद्युतीय प्रक्रियाओं और जमीन के नीचे होने वाली हलचलों में कोई रिश्ता है। यह सैटेलाइट इन्हीं हलचलों को पढ़ने में साइंटिस्टों की मदद करेगा। वैसे दुनिया में भूकंप का पहले से अंदाजा लगाने के कुछ अपारंपरिक तौर-तरीके भी प्रचलित हैं। जैसे, माना जाता है कि कई जीव-जंतु अपनी छठी इंदिय से जान जाते हैं कि जलजला आने वाला है। ब्रिटेन के जर्नल ऑफ जूलॉजी में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार 2009 को इटली के ला-अकिला में आए भूकंप से तीन दिन पहले टोड अपने प्रजनन स्थल छोड़कर दूर चले गए थे।
                कुछ ज्योतिषी भी अपनी गणनाओं से सटीक भविष्यवाणी का दावा करते रहे हैं। उन्नीसवीं सदी में हुए इटली के राफेले बेनदांदी को इस मामले में काफी प्रतिष्ठा हासिल है। उन्होंने नवंबर, 1923 को घोषणा की थी कि दो जनवरी,1924 को इटली के प्रांत ले-माचेर् में भूकंप आ सकता है। घोषित तारीख के ठीक दो दिन बाद वहां ताकतवर भूकंप आया था। बेनदांदी की गणनाओं के आधार पर इस साल 11 मई को रोम में भूकंप आने की आशंका के मद्देनजर अनेक लोग रोम से बाहर चले गए थे, हालांकि इस तारीख को वहां भूकंप नहीं आया। न्यू जीलैंड में एक जादूगर केन रिंग को भी ऐसी ख्याति हासिल रही है। साइंटिस्ट कहते हैं कि धरती के भीतर चल रही भूगर्भीय प्रक्रियाओं की वजह से हर साल दस करोड़ छोटे-मोटे भूकंप दुनिया में आते हैं। हर सेकेंड लगभग तीन भूकंप ग्लोब के किसी न किसी कोने पर सीस्मोग्रॉफ के जरिए अनुभव किए जाते हैं। पर शुक्र है कि इनमें से 98 फीसदी सागर तलों में आते हैं। और जो दो प्रतिशत जलजले सतह पर महसूस होते हैं, उनमें से भी करीब सौ भूकंप ही हर साल रिक्टर पैमाने पर दर्ज किए जाते हैं। इन्हीं कुछ दर्जन भूकंपों में बड़ा भारी विनाश छिपा रहता है।
जापान और इंडोनेशिया जैसे भूकंप की सर्वाधिक आशंका वाले क्षेत्रों में भूकंप की भविष्यवाणी करना थोड़ा आसान है लेकिन बाकी स्थानों पर ऐसा कोई दावा करने का मतलब अंधेरे में तीर चलाने जैसा है। यह विडंबना ही है कि इन तमाम प्रयासों के बावजूद कोई भी यह पक्के तौर पर नहीं कह सकता कि कब, किस जगह पर कितना बड़ा भूकंप आएगा। शायद कुछ चीजें अभी भी प्रकृति ने अपने हाथ में ही रखी हुई हैं।

भूकंप----

भूकंप----
भूकंप आज भी ऐसा प्रलय माना जाता है जिसे रोकने या काफी समय पहले सूचना देने की कोई प्रणाली वैग्यानिकों के पास नहीं है। प्रकृति के इस तांडव के आगे सभी बेबश हो जाते हैं। सामने होता है तो बस तबाही का ऐसा मंजर जिससे उबरना आसान नहीं होता है।
कारण तो पता है मगर रोकना नामुमकिन------------
वैज्ञानिकों ने धरती की सतह के काफ़ी भीतर आने वाले भूंकपों की ही तरह नकली भूकंप प्रयोगशाला में पैदा करने में सफलता पाई है.ऐसे भूकंप आमतौर पर धरती की सतह से सैंकड़ों किलोमीटर अंदर होते हैं, और वैज्ञानिकों की तो यह राय है कि ऐसे भूकंप वास्तव में होते नहीं हैं.वैज्ञानिकों ने इन कथित भूकंपों को प्रयोगशाला में इसलिए पैदा किया कि इसके ज़रिए धरती की अबूझ पहेलियों को समझा जा सके.ताज़ा प्रयोगों से धरती पर आए भीषणतम भूकंपो में से कुछ के बारे में विस्तृत जानकारी मिल सकेगी.अधिकांश भूकंपों की उत्पत्ति धरती की सतह से 30 से 100 किलोमीटर अंदर होती है.i सतह के नीचे धरती की परत ठंडी होने और कम दबाव के कारण भंगुर होती है. ऐसी स्थिति में जब अचानक चट्टानें गिरती हैं तो भूकंप आता है.एक अन्य प्रकार के भूकंप सतह से 100 से 650 किलोमीटर नीचे होते हैं.इतनी गहराई में धरती इतनी गर्म होती है कि सिद्धांतत: चट्टानें द्रव रूप में होनी चाहिए, यानि किसी झटके या टक्कर की कोई संभावना नहीं होनी चाहिए.लेकिन ये चट्टानें भारी दबाव के माहौल में होती हैं.इसलिए यदि इतनी गहराई में भूकंप आए तो निश्चय ही भारी ऊर्जा बाहर निकलेगी। धरती की सतह से काफ़ी गहराई में उत्पन्न अब तक का सबसे बड़ा भूकंप 1994 में बोलीविया में रिकॉर्ड किया गया. सतह से 600 किलोमीटर दर्ज इस भूकंप की तीव्रता रिक्टर पैमाने पर 8.3 मापी गई थी.हालाँकि वैज्ञानिक समुदाय का अब भी मानना है कि इतनी गहराई में भूकंप नहीं आने चाहिए क्योंकि चट्टान द्रव रूप में होते हैं.वैज्ञानिकों का मानना है कि विभिन्न रासायनिकों क्रियाओं के कारण ये भूकंप आते होंगे.अत्यंत गहराई में आने वाले भूकंपों के बारे में ताज़ा अध्ययन यूनवर्सिटी कॉलेज, लंदन के मिनरल आइस एंड रॉक फिज़िक्स लैबोरेटरी में किया गया है.
                                                                 
जानवरों को मालूम हो जाता है भूकंप-------------------------
बचपन में बड़े बुजुर्गों से सुना था कि जब भूकंप आने को होता है तो पशु-पक्षी कुछ अजीब हरकतें करने लगते हैं। चूहे अपनी बिलों से बाहर आ जाते हैं। अगर यह सही है तो वैग्यानिक पशु-पक्षियों की इस अद्भुत क्षमता को भूकंप की पूर्व सूचना प्रणाली में क्यों नहीं बदल सकते। अगर ऐसा संभव हो जाए तो प्रकृति की इस तबाही पर विजय पा सकेगा मानव। हालांकि प्रयोगशालाओं में इस पर शोध कर रहे हैं वैग्यानिक। चूहे भूकंप आने का संकेत दे सकते हैं। जापान के शोधकर्ताओं का कुछ यही मानना है। उन्होंने पाया है कि भूकंप आने से पहले जिस तरह के विद्युत और चुंबकीय क्षेत्र बनते है अगर चूहों को उन क्षेत्रों में रखा जाए तो वे अजीबोगरीब हरकते करते हैं। ओसाका यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर ताकेशी यागी का कहना है कि चूहों का अजीब व्यवाहर उन्होंने आठ साल पहले कोबे में आए भूकंप से एक दिन पहले अपनी प्रयोगशाला में देखा था.इस तरह के व्यवाहर से भूकंप के आने का कुछ अंदेशा लगाया जा सकता है. हालाँकि जीववैज्ञानिकों का मानना है कि इस तरह की हरकतें एक समान नहीं रहती इसलिए पक्की भविष्यवाणी करना कठिन हो जाता है.
अगल-अगल कहानियाँ----------------
दुनिया भर में ऐसी कई कहानियाँ हैं कि जानवर भूकंप से पहले अदभुत तरह से बर्ताव करने लगते हैं. जैसे चीन में कैट नाम की मछली पानी से बाहर कूदने लगती है, मैक्सिको में साँप अपने बिलों से बाहर आ जाते हैं. अमरीका में भूगर्भ सर्वेक्षण के एक कार्यकर्ता मानते है कि भूकंप से पहले अख़बारों में गुम हुए पालतू जानवरों के इश्तिहार भी ज़्यादा हो जाते है. प्रोफेसर यागी के परीक्षण में चूहों को दो हफ़्तो के लिए एक स्थिर पर्यावरण में रखा गया और उनकी हरकतों पर नज़र रखी गई. फिर उन्हें 30 मिनट के लिए विद्युत और चुंबकीय क्षेत्र में रखा गया. प्रोफेसर का कहना है कि ऐसा करने से उनका चूहा बेचैन होने लगा था. हालाँकि वे मानते हैं कि इन नतीजों को पक्का करने के लिए कुछ और परीक्षण करने होंगे।
तीन फ़रवरी, 2008 == कॉंगो और रवांडा में ज़बरदस्त भूकंप आया. इसमें 45 लोग मारे गए.
छह मार्च, 2007 == इंडोनेशिया के सुमात्रा द्वीप में 6.3 तीव्रता का भूकंप, 70 लोगों की मौत
27 मई, 2006 == इंडोनेशिया के योगजकार्ता में आए भूकंप में छह हज़ार लोग मारे गए और 15 लाख बेघर हो गए.
आठ अक्तूबर, 2005 == पाकिस्तान में 7.6 तीव्रता वाला भीषण भूकंप आया जिसमें करीब 75 हज़ार लोग मारे गए. करीब 35 लाख लोग बेघर हुए.
28 मार्च, 2005: == इंडोनेशिया में आए भूकंप में लगभग 1300 लोग मारे गए. रिक्टर स्केल में यह 8.7 मापा गया था.
22 फ़रवरी, 2005: == ईरान के केरमान प्रांत में लगभग 6.4 तीव्रता के आए भूकंप में लगभग 100 लोग मारे गए थे.
26 दिसंबर,2004: == भूकंप के कारण उत्पन्न सूनामी लहरों ने एशिया में हज़ारों लोगों की जान ले ली थी. इस भूकंप की तीव्रता 8.9 मापी गई थी.
24 फ़रवरी, 2004: == मोरक्को के तटीय इलाक़े में आए भूकंप ने 500 लोगों की जान ले ली थी.
26 दिसंबर, 2003: == दक्षिणी ईरान में आए भूकंप में 26 हज़ार से अधिक लोगों की मौत हो गई थी.
21 मई 2003: == अल्जीरिया में बड़ा भूकंप आया. इसमें दो हज़ार लोगों की मौत हो गई थी और आठ हज़ार से अधिक लोग घायल हुए थे.
1 मई 2003: == तुर्की के दक्षिण-पूर्वी हिस्से में आए भूकंप में 160 से अधिक लोगों की मौत हो गई जिसमें 83 स्कूली बच्चे शामिल थे.
24 फरवरी 2003: == पश्चिमी चीन में आए भूकंप में 260 लोग मारे गए और 10 हज़ार से अधिक लोग बेघर हो गए.
21 नवंबर 2002: == पाकिस्तान के उत्तरी दियामीर ज़िले में भूकंप में 20 लोगों की मौत.
31 अक्टूबर, 2002: == इटली में आए भूकंप से एक स्कूल की इमारत गिर गई जिससे एक क्लास के सभी बच्चे मारे गए.
12 अप्रैल 2002: == उत्तरी अफ़ग़ानिस्तान में दो महीनों में ये तीसरा भूकंप का झटका था. इसमें अनेक लोग मारे गए.
25 मार्च 2002: == अफ़ग़ानिस्तान के उत्तरी इलाक़े में भूकंप मे 800 से ज़्यादा लोग मरे. भूकंप की तीव्रता रिक्टर पैमाने पर 6 थी.
3 मार्च 2002: == अफ़ग़ानिस्तान में एक अन्य भूकंप ने 150 को मौत की नींद सुलाया. इस भूकंप की तीव्रता 7.2 मापी गई थी.
3 फ़रवरी 2002: == -पश्चिमी तुर्की में भूकंप में 43 मरे. हज़ारों लोग बेघर.
24 जून 2001: == दक्षिणी पेरू में भूकंप में 47 लोग मरे. भूकंप के 7.9 तीव्रता वाले झटके एक मिनट तक महसूस किए जाते रहे.
13 फ़रवरी 2001: == अल साल्वाडोर में दूसरे बड़े भूकंप की वजह से कम से कम 300 लोग मारे गए. इस भूकंप को रिक्टर स्केल पर 6.6 मापा गया.
26 जनवरी 2001: == भारत के गुजरात राज्य में रिक्टर स्केल पर 7.9 तीव्रता का एक शक्तिशाली भूकंप आया. इसमें कम से कम तीस हज़ार लोग मारे गए और क़रीब 10 लाख लोग बेघर हो गए. भुज और अहमदाबाद पर भूकंप का सबसे अधिक असर पड़ा.
13 जनवरी 2001: == अल साल्वाडोर में 7.6 तीव्रता का भूकंप आया. 700 से भी अधिक लोग मारे गए.
6 अक्टूबर 2000: == जापान में रिक्टर स्केल पर 7.1 तीव्रता का एक भूकंप आया. इसमें 30 लोग घायल हुए और क़रीब 200 मकानों को नुकसान पहुंचा.
21 सितंबर 1999: == ताईवान में 7.6 तीव्रता का एक भूकंप आया. इसमें ढाई हज़ार लोग मारे गए और इस द्वीप के हर मकान को नुकसान पहुंचा.
17 अगस्त 1999: == तुर्की के इमिट और इंस्ताबूल शहरों में रिक्टर स्केल पर 7.4 तीव्रता का भूकंप आया. इस भूकंप की वजह से सतरह हज़ार से अधिक लोग मारे गए और हज़ारों अन्य घायल हुए.
29 मार्च 1999: == भारत के उत्तरप्रदेश राज्य के उत्तरकाशी और चमोली में दो भूकंप आए और इनमें 100 से अधिक लोग मारे गए.
25 जनवरी 1999: == कोलंबिया के आर्मेनिया शहर में 6.0 तीव्रता का भूकंप आया. इसमें क़रीब एक हज़ार लोग मारे गए.
17 जुलाई 1998: == -न्यू पापुआ गिनी के उत्तरी-पश्चिमी तट पर समुद्र के अंदर आए भूकंप से बनी लहरों ने तबाही मचा दी. इसमें एक हज़ार से भी अधिक लोग मारे गए.
26 जून 1998: == -तुर्की के दक्षिण-पश्चिम में अदना में 6.3 तीव्रता का भूकंप आया जिसमें 144 लोग मारे गए. एक हफ़्ते बाद इसी इलाक़े में दो शक्तिशाली भूकंप आए जिनमें एक हज़ार से अधिक लोग घायल हो गए.
30 मई 1998: == उत्तरी अफ़ग़ानिस्तान में एक बड़ा भूकंप आया. इसमें चार हज़ार लोग मारे गए.
फ़रवरी 1997: == -उत्तर-पश्चिमी ईरान में रिक्टर स्केल पर 5.5 तीव्रता का एक भूकंप आया जिसकी वजह से एक हज़ार लोग मारे गए. तीन महीने बाद 7.1 तीव्रता का भूकंप आया जिसकी वजह से पश्चिमी ईरान में डेढ़ हज़ार से अधिक लोग मारे गए.
27 मई 1995: == रूस के सुदूर पूर्वी द्वीप सखालीन में 7.5 तीव्रता का एक शक्तिशाली भूकंप आया जिसकी वजह से क़रीब दो हज़ार लोगों की मृत्यु हो गई.
17 जनवरी 1995: == जापान के कोबे शहर में शक्तिशाली भूकंप में छह हज़ार चार सौ तीस लोग मारे गए.
6 जून 1994: == -कोलंबिया में आए भूकंप में क़रीब एक हज़ार लोग मारे गए.
30 सितंबर 1993: == -भारत के पश्चिमी और दक्षिणी हिस्सों में आए भूकंपों में क़रीब दस हज़ार ग्रामीणों की मृत्यु हो गई.
21 जून 1990: == ईरान के उत्तरी राज्य गिलान में आए एक भूकंप ने चालीस हज़ार से भी अधिक लोगों की जान ले ली.
17 अक्टूबर 1989: == -कैलिफ़ोर्निया में आए भूकंप में 68 लोग मारे गए.
7 दिसंबर 1988: == -उत्तर-पश्चिमी आर्मेनिया में रिक्टर स्केल पर 6.9 तीव्रता के एक भूकंप ने पच्चीस हज़ार लोगों की जान ले ली.
19 सितंबर 1985: == -मैक्सिको शहर एक शक्तिशाली भूकंप से बुरी तरह से हिल गया. इसमें बड़ी इमारतें तबाह हो गईं और दस हज़ार से अधिक लोग मारे गए.
23 नवंबर 1980: == -इटली के दक्षिणी हिस्से में आए भूकंप की वजह से सैंकड़ों लोग मारे गए.
28 जुलाई 1976: == -चीन का तांगशान शहर भूकंप की वजह से मिट्टी में मिल गया. इसमें पांच लाख से अधिक लोग मारे गए.
27 मार्च 1964 == -रिक्टर स्केल पर 9.2 तीव्रता के एक भूकंप ने अलास्का में 25 लोगों की जान ले ली और बाद के झटकों की वजह से 110 और लोग मारे गए.
22 मार्च 1960: == -दुनिया में अब तक का सबसे शक्तिशाली भूकंप चिली में आया. इसकी तीव्रता रिक्टर स्केल पर 9.5 दर्ज की गई. कई गांव के गांव तबाह हो गए और सैंकड़ों मील दूर हवाई में 61 लोग मारे गए.
28 जून 1948: == -पश्चिमी जापान में पूर्वी चीनी समुद्र को केंद्र बनाकर भूकंप आया जिसमें तीन हज़ार से ज़्यादा लोग मारे गए.
31 मई, 1935 == -क्वेटा और उसके आसपास के इलाक़ों में आए ज़बरदस्त भूकंप में लगभग 35 हज़ार लोगों की जानें गईं.
1935: == -ताईवान में रिक्टर स्केल पर 7.4 तीव्रता का एक भूकंप आया जिसकी वजह से तीन हज़ार दो सौ लोग मारे गए.
1 सितंबर 1923: == -जापान की राजधानी टोक्यो में आया ग्रेट कांटो भूकंप. इसकी वजह से 142,800 लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा.
18 अप्रैल 1906: == -सैन फ़्रांसिस्को में कई मिनट तक भूकंप के झटके आते रहे. इमारतें गिरने और उनमें आग लगने की वजह से सात सौ से तीन हज़ार के बीच लोग मारे गए.

महागौरी - माँ दुर्गाजी-----

महागौरी - माँ दुर्गाजी-----
हिन्दू धर्म में शक्ति की देवीदुर्गा के नौ रूप बताये गए हैं।
1- देवी दुर्गा के नौ रूप होते हैं। दुर्गाजी पहले स्वरूप में 'शैलपुत्री' के नाम से जानी जाती हैं।ये ही नवदुर्गाओं में प्रथम दुर्गा हैं। पर्वतराज हिमालय के घर पुत्री रूप में उत्पन्न होने के कारण इनका नाम 'शैलपुत्री' पड़ा। नवरात्र-पूजन में प्रथम दिवस इन्हीं की पूजा और उपासना की जाती है।
2-ब्रह्मचारिणी----नवरात्र पर्व के दूसरे दिन माँ ब्रह्मचारिणी की पूजा-अर्चना की जाती है। साधक इस दिन अपने मन को माँ के चरणों में लगाते हैं। ब्रह्म का अर्थ है तपस्या और चारिणी यानी आचरण करने वाली। इस प्रकार ब्रह्मचारिणी का अर्थ हुआ तप का आचरण करने वाली।
                                             
3--चंद्रघंटा----माँ दुर्गाजी की तीसरी शक्ति का नाम चंद्रघंटा है। नवरात्रि उपासना में तीसरे दिन की पूजा का अत्यधिक महत्व है और इस दिन इन्हीं के विग्रह का पूजन-आराधन किया जाता है। इस दिन साधक का मन 'मणिपूर' चक्र में प्रविष्ट होता है।
4---कूष्माण्डा----नवरात्र-पूजन के चौथे दिन कूष्माण्डा देवी के स्वरूप की ही उपासना की जाती है। इस दिन साधक का मन 'अदाहत' चक्र में अवस्थित होता है।
5----स्कंदमाता----नवरात्रि का पाँचवाँ दिन स्कंदमाता की उपासना का दिन होता है। मोक्ष के द्वार खोलने वाली माता परम सुखदायी हैं। माँ अपने भक्तों की समस्त इच्छाओं की पूर्ति करती हैं।
6----कात्यायनी-----माँ दुर्गा के छठे स्वरूप का नाम कात्यायनी है। उस दिन साधक का मन 'आज्ञा' चक्र में स्थित होता है। योगसाधना में इस आज्ञा चक्र का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है।
7---कालरात्रि----माँ दुर्गाजी की सातवीं शक्ति कालरात्रि के नाम से जानी जाती हैं। दुर्गापूजा के सातवें दिन माँ कालरात्रि की उपासना का विधान है। इस दिन साधक का मन 'सहस्रार' चक्र में स्थित रहता है। इसके लिए ब्रह्मांड की समस्त सिद्धियों का द्वार खुलने लगता है।
8----महागौरी------माँ दुर्गाजी की आठवीं शक्ति का नाम महागौरी है। दुर्गापूजा के आठवें दिन महागौरी की उपासना का विधान है। इनकी शक्ति अमोघ और सद्यः फलदायिनी है। इनकी उपासना से भक्तों को सभी कल्मष धुल जाते हैं, पूर्वसंचित पाप भी विनष्ट हो जाते हैं।
9---सिद्धिदात्री-----माँ दुर्गाजी की नौवीं शक्ति का नाम सिद्धिदात्री हैं। ये सभी प्रकार की सिद्धियों को देने वाली हैं। नवरात्र-पूजन के नौवें दिन इनकी उपासना की जाती है।
इस दिन शास्त्रीय विधि-विधान और पूर्ण निष्ठा के साथ साधना करने वाले साधक को सभी सिद्धियों की प्राप्ति हो जाती है।

पीएम की सहमति से हुआ फैसला और राजा कर सके 1.76 लाख करोड़ का घोटाला------

पीएम की सहमति से हुआ फैसला और राजा कर सके 1.76 लाख करोड़ का घोटाला------
2जी स्पेक्ट्रम आवंटन मामले में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने मंत्रियों के समूह (जीओएम) के टर्म्स ऑफ रिफरेंस (टीओआर अथवा कार्यवाही के बिंदु) को बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनकी सहमति से ही स्पेक्ट्रम की कीमतें तय करने का हक जीओएम से लेकर टेलीकॉम मंत्री को दे दिया गया। इसी वजह से तत्कालीन टेलीकॉम मंत्री ए राजा जनवरी 2007 में घोटाला कर पाए, जिससे देश को 1.76 लाख करोड़ का नुकसान हुआ। सामाजिक कार्यकर्ता विवेक गर्ग ने सूचना का अधिकार (आरटीआई) के तहत गोपनीय दस्तावेज हासिल किए हैं, जिनसे यह खुलासा हुआ। इस बीच, वॉशिंगटन में भारतीय पत्रकारों से बातचीत में प्रणब मुखर्जी ने 2 जी स्पेक्ट्रम विवाद पर पूछे गए सवाल का जवाब देने से इनकार करते हुए कहा है कि वह इस मुद्दे पर भारत लौटने के बाद ही बोलेंगे। वहीं, बीजेपी ने अब प्रधानमंत्री पर निशाना साधते हुए कहा है कि डॉ. मनमोहन सिंह को इस मुद्दे पर देश को जवाब देना चाहिए। पार्टी के प्रवक्ता प्रकाश जावड़ेकर ने शनिवार की सुबह कहा, ‘यह मामला सिर्फ चुपचाप दर्शक बने रहने का नहीं बल्कि मिलीभगत का है।’
2जी घोटाले में पहले पी चिदंबरम, फिर प्रणब मुखर्जी और अब खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की भूमिका को लेकर हो रहे खुलासे के बीच प्रणब मुखर्जी अमेरिका में प्रधानमंत्री से आपात बैठक करने वाले हैं।
                                                                   
मनमोहन से मिले मारन: जनवरी 2006 में प्रधानमंत्री ने दूरसंचार कंपनियों के लिए रक्षा मंत्रालय से अतिरिक्त स्पेक्ट्रम खाली करवाने के मामले में जीओएम के गठन को मंजूरी दी थी। जीओएम के सामने सिफारिशों पर विचार करने के विषय विस्तृत थे। इसमें दुर्लभ 2जी स्पेक्ट्रम की कीमतों के निर्धारण पर भी चर्चा होनी थी। एक फरवरी 2006 को तत्कालीन दूरसंचार मंत्री दयानिधि मारन ने प्रधानमंत्री से मुलाकात की। इसके बाद उन्होंने प्रधानमंत्री को पत्र लिखा।
मेरी इच्छा के हों टीओआर : 28 फरवरी 2006 को तत्कालीन दूरसंचार मंत्री और द्रमुक नेता दयानिधि मारन ने प्रधानमंत्री को अर्धशासकीय पत्र (डीओ नंबर एल-14047/01/06-एनटीजी) लिखा। मारन ने ‘गोपनीय’ पत्र में लिखा, ‘आपको याद ही होगा कि एक फरवरी 2006 की मुलाकात में हमने रक्षा मंत्रालय द्वारा स्पेक्ट्रम खाली करने के मुद्दे पर गठित जीओएम पर चर्चा की थी। आपने मुझे आश्वस्त किया था कि जीओएम के टीओआर हमारी इच्छानुसार तैयार होंगे। यह जानकर आश्चर्य हुआ कि जीओएम के सामने जो विषय रखे गए हैं, वे बहुत व्यापक हैं। ऐसे मामलों का परीक्षण किया जा रहा है, जो मेरे अनुसार मंत्रालय स्तर पर किए जाने वाले कार्यो में अतिक्रमण है। विचार के इन बिंदुओं में हमारी सिफारिशों के आधार पर बदलाव किया जाए।’मारन ने बनाए जीओएम की कार्यवाही के बिंदु: मारन ने पत्र के साथ जीओएम के लिए कार्यवाही के बिंदुओं का नया प्रस्ताव भी भेजा। पहले जीओएम को छह बिंदुओं पर चर्चा के लिए कहा गया था। इनमें स्पेक्ट्रम का मूल्य निर्धारण शामिल था। मारन ने प्रस्तावित एजेंडे में से उसे हटा दिया। सिर्फ चार विषयों को ही प्रस्तावित कार्यवाही के बिंदुओं में शामिल किया। यह सभी रक्षा मंत्रालय से अतिरिक्त स्पेक्ट्रम खाली कराने से जुड़े थे। प्रधानमंत्री ने जवाबी पत्र में मारन का पत्र मिलने की पुष्टि की।
चार बड़ी वजहें जो उन्हें संदेह के घेरे में लाती हैं
१ - कार्यवाही के बिंदु कैसे बदले
कार्यवाही के बिंदुओं (टर्म्स ऑफ रिफरेंस) की जानकारी केवल तीन किरदारों के पास थी। खुद टेलीकॉम मंत्री दयानिधि मारन, दूसरे प्रणब की अध्यक्षता वाले मंत्रियों का समूह और तीसरे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह। या तो दयानिधि मारन ने बिंदु बदले (लेकिन यह इनके अधिकार क्षेत्र से बाहर था। यह उनके लिए असंभव था।) या मंत्रियों का समूह ने ऐसा किया (अपनी ही कार्यवाही के बिंदु वे बदलकर हलके क्यों करेंगे।) फिर मारन प्रधानमंत्री से मिले। इसके बाद ही कार्यवाही के बिंदु बदल गए।
२ - नोटिफिकेशन पर आपत्ति क्यों नहीं उठाई गई
चूंकि केबिनेट सचिवालय न तो संचार मंत्री को रिपोर्ट करता है और न मंत्रियों के समूह को। वह सीधे प्रधानमंत्री को रिपोर्ट करता है।
प्रधानमंत्री की सहमति के बाद ही केबिनेट सचिवालय से नोटिफिकेशन जारी हो सकता है।
३ - मंत्रियों का समूह चुप क्यों रहा
आठ प्रभावशाली मंत्रियों वाले इस समूह ने कार्यवाही के बिंदु बदले जाने पर आपत्ति क्यों नहीं उठाई? तीन ही बातें हो सकती हैं
1. या तो बिंदु बदलने से उनका कुछ लेना देना नहीं था
2. या उन्हें जानकारी नहीं थी। ये दोनों बातें असंभव है।
3. या यह प्रधानमंत्री का आदेश था, जिसकी वे अवहेलना नहीं कर सकते थे।
4 - वित्तमंत्री को क्यों किया नजरअंदाज
सरकारी कामकाज के नियम-1961 के मुताबिक ऐसे किसी भी फैसले को लेने से पहले जिसमें पैसों का मामला हो, वित्तमंत्रालय से सलाह मशविरा जरूरी है। लेकिन इस मामले में तत्कालीन वित्तमंत्री की पूरी तरह अनदेखी की गई। यह तभी संभव था
जब प्रधानमंत्री ने खुद आदेश दिए हों। मारन के इस पत्र से स्पष्ट हुआ कि मंत्री समूह के कार्यवाही के बिंदु बदलने में प्रधानमंत्री की सहमति थी।
राजा भी यही कहते थे
राजा ने 25 जुलाई 2011 को सीबीआई की विशेष अदालत में दलील दी थी कि मैंने जो भी किया उसके पीछे मनमोहन और चिदंबरम की मंजूरी थी।
जनलोकपाल होता तो ये सब जेल में होते
देश में आज जन लोकपाल कानून होता तो चिदंबरम और भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने वाले बाकी नेता भी जेल में होते। चिदंबरम ने मुझे जेल भेजा था। देखिए, आज वे खुद जेल जाने की कगार पर हैं। -अन्ना

तय हुई नई परिभाषाः जेब में 32 रु. हैं तो अब आप गरीब नहीं-----

तय हुई नई परिभाषाः जेब में 32 रु. हैं तो अब आप गरीब नहीं-----
-----------------------------------------------------------------------------------------------
योजना आयोग ने सुप्रीम कोर्ट को बताया है कि खानपान पर शहरों में 965 रुपए और गावों में 781 रुपए प्रति महीना खर्च करने वाले शख्स को गरीब नहीं माना जा सकता है। गरीबी रेखा की नई परिभाषा तय करते हुए योजना आयोग ने कहा कि इस तरह शहर में 32 रुपए और गांव में हर रोज 26 रुपए खर्च करने वला शख्स बीपीएल परिवारों को मिलने वाली सुविधा को पाने का हकदार नहीं है। अपनी यह रिपोर्ट योजना आयोग ने सुप्रीम कोर्ट को हलफनामे के तौर पर दी है। इस रिपोर्ट पर खुद प्रधानमंत्री ने हस्ताक्षर किए हैं। इस हास्यास्पद परिभाषा पर हो-हल्ला मचना शुरू हो चुका है।
योजना आयोग की मानें तो हेल्थ सर्विसेस पर 39.70 रुपए/महीना खर्च करके आप स्वस्थ रह सकते हैं। शिक्षा पर 99 पैसे प्रतिदिन खर्च करते हैं तो आपको शिक्षा के संबंध में कतई गरीब नहीं माना जा सकता है। यदि आप 61.30 रुपए महीनेवार, 9.6 रुपए चप्पल और 28.80 रुपए बाकी पर्सनल सामान पर खर्च कर सकते हैं तो आप आयोग की नजर में बिल्कुल भी गरीब नहीं कहे जा सकते। आयोग ने यह डाटा बनाते समय 2010-11 के इंडस्टियल वर्कर्स के कंज्यूमर प्राइस इंडेक्स और तेंडुलकर कमेटी की 2004-05 की कीमतों के आधार पर खर्च का हिसाब-किताब दिखाने वाली रिपोर्ट पर गौर किया है। हालांकि, रिपोर्ट में अंत में कहा गया है कि गरीबी रेखा पर अंतिम रिपोर्ट एनएसएसओ सर्वेक्षण 2011-12 के बाद पेश की जाएगी।
                                                
सरकार के अनुसार गरीब नहीं होने की डाइट
खाद्य पदार्थ - लागत ----- बाजार भाव --------- मात्रा
अनाज ------- 5.5 रु -- 15 रु. किलो (आटा)- 266 ग्राम
दाल -------- 1.02 रु -- 58 रु किलो (तुअर) - 18 ग्राम
दूध -------- 2.33 रुपए - 30 रु/लीटर ----- 78 मिली
तेल ------- 1.55 रुपए -- 70 रु/लीटर ---- 22.14 मिली
सब्जी ------ 1.95 रुपए - 30 रु किलो ----- 65 ग्राम
फल ------ 44 पैसे ----- 30 रु दर्जन (केला) - एक केला भी नहीं
शकर ------ 70 पैसे ----- 30 रुपए किलो -- 23 ग्राम
ईंधन ------ 3.75 रुपए -- 452 रुपए/सिलेंडर -- 4 महीने/सिलेंडर
(सरकार के अनुसार हर महीने पढाई-लिखाई के लिए 99 पैसे, कपड़े-लत्ते के लिए 61.30 रुपए, जूते-चप्पल के लिए 9.60 रुपए, साज-सिंगार के लिए 28.80 रुपए काफी हैं।)
और विशेषज्ञ के अनुसार एक स्वस्थ व्यक्ति की डाइट
खाद्य पदार्थ - मात्रा ---- बाजार भाव ------- लागत
अनाज ----- 200 ग्राम -- 15 रु. किलो (आटा) - 3.00 रुपए
दाल ------ 40 ग्राम --- 58 रु किलो (तुअर) -- 2.30 रुपए
दूध ------ 300 मिली -- 30 रु/लीटर ------- 9 रुपए
तेल ------ 20 मिली -- 70 रु/लीटर ------- 1.40 रुपए
सब्जी ---- 300 ग्राम -- 30 रु किलो -------- 9 रुपए
फल ----- 400 ग्राम -- 30 रु दर्जन (केला) -- दो केले
शकर ---- 7-100 ग्राम - 30 रुपए किलो ----- 30 पैसे
ईंधन ---- ---- ---- 452 रुपए/सिलेंडर --------

गरीब की नई परिभाषा---

गरीब की नई परिभाषा---
------------------------------------------------------------------------------------------------
गरीबी: सभ्य समाज के इस सबसे बड़े अभिशाप को राष्ट्रपिता गांधी जी ने हिंसा का सबसे खराब रूप कहा। करेला उस पर नीम चढ़ा कि स्थिति यह कि गरीबों को 'गरीब' न मानना। हमारे हुक्मरानों ने गरीबों की नई परिभाषा गढ़ी है। अगर आप शहर में रहकर 32 रुपये और गांव में रहकर 26 रुपये प्रतिदिन से अधिक खर्च कर रहे हैं तो आप गरीब नहीं है। खुद को गरीब मानते रहिए। कोई सुनने वाला नहीं है। गरीबों के कल्याण के लिए चलाई जाने वाली सरकारी योजनाओं के लाभ के दायरे से बाहर हो चुके हैं आप।
गुजारा: इस मसले पर चौतरफा दबाव झेल रही अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह की सरकार भले ही गरीबी निर्धारण की सीमारेखा में अब सुधार की बात कह रही हो, लेकिन गरीबों के प्रति उसकी संवेदनहीनता उजागर हो चुकी है। 'सरकार का हाथ गरीबों के साथ' की कलई खुल चुकी है।
कुछ विश्लेषक सरकार के इस कदम को गरीबों की संख्या कम दिखाकर उनके कल्याण के लिए चलाई जा रही योजनाओं पर खर्च में कटौती करना बता रहे हैं। सरकार की मंशा कुछ भी हो, लेकिन आसमान छूती महंगाई के इस दौर में 965 रुपये और 781 रुपये मासिक खर्च में अपना गुजर-बसर शायद ही कोई गरीब कर पाए। सरकार द्वारा 'गरीब' को गरीब न मानना बड़ा मुद्दा है।
आयोग की साख का सवाल------ योजना आयोग द्वारा दी गई गरीबी की नई परिभाषा न केवल गैरजिम्मेदाराना सोच का उदाहरण है बल्कि योजना भवन में जनकल्याण के लिए बैठे लोगों की अफसरशाही और टेक्नोक्रेटिक दिमाग का भी यह परिचायक है। प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली यह संस्था गरीबी और भुखमरी से पीड़ित लोगों की बढ़ती संख्या के बावजूद आंकड़ों में उनकी संख्या कम दिखाने पर आमादा है। दरअसल योजना आयोग जनता से कटा हुआ एक ऐसा कार्यालय बन चुका है जहां रिटायर नौकरशाह और विशेषज्ञों का जमावड़ा है। महलनवीस की समाजवादी वैश्विक दृष्टि के बजाय योजना आयोग वैश्विक मध्यवर्ग संस्कृति को प्रतिबिंबित कर रहा है। योजना और विकास की इस कारपोरेट विश्व दृष्टि में गरीब वास्तव में जीवन की बुनियादी चीजों से 'असहाय' और 'वंचित' हो गया है। योजना आयोग ने अपने हलफनामे में शर्मनाक तरीके से यह तर्क भी पेश किया कि यदि सही तरीके से गरीबों की पहचान कर विशेष कल्याणकारी योजनाएं उन तक पहुंचाई जा सके तो वह गुजारा कर सकते हैं। योजना आयोग के रणनीतिकार यह समझने में नाकामयाब रहे हैं कि गरीबी का आशय कम आय नहीं हैं, बल्कि 'कई चीजों को न कर पाने की बाध्यता' है। सतही तौर पर भी यदि देखा जाए तो करोड़ों गरीब लोगों की पहचान करना कोई मुश्किल काम नहीं है। इन गरीबों के बारे में महात्मा गांधी का कहना था कि 'उनकी आंखों में कोई रोशनी नहीं हैं। इनका एकमात्र देवता रोटी है।' इसके उलट योजना आयोग के अधिकारी और विशेषज्ञ गरीबों की पहचान के लिए नई किस्म की परिभाषा गढ़ रहे हैं। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि योजना आयोग ग्रामीण क्षेत्रों में बढ़ती भुखमरी, घटती कृषि आय, कृषि क्षेत्र में घटता निवेश और गांवों से शहरों की ओर पलायन से शायद चिंतित न होता हो। इससे भी बदतर यह कि जो आदिवासी, दलित और अल्पसंख्यक इसके विरोध में आवाज उठाते हैं, उनको 'विद्रोही' और 'राष्ट्रविरोधी' घोषित कर दिया जाता है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो गरीब भौतिक वंचना का शिकार होने के साथ-साथ शासन के 'सैद्धांतिक पूर्वाग्रह' का भी शिकार हैं। तभी तो गरीबों की संख्या का आकलन करने के लिए बनाई गई कमेटियों के अलग-अलग नतीजे हैं। मसलन योजना आयोग के अनुसार 27 प्रतिशत, एनसी सक्सेना कमेटी के अनुसार 50 प्रतिशत, तेंदुलकर कमेटी के अनुसार 37 प्रतिशत और अर्जुन सेन गुप्ता कमेटी के अनुसार 77 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन कर रहे हैं। 1990 के दशक से शुरू उदार अर्थनीति के सकारात्मक नतीजे और नेशनल सैंपल सर्वे की नई पद्धति को आधार बनाकर योजना आयोग देश में गरीबी घटने की बात कहता है। इसलिए गरीबों की स्थिति सुधरने के संबंध में इसका सुप्रीम कोर्ट में पेश हलफनामा जानबूझकर किया गया प्रयास लगता है। योजना आयोग की जनता के प्रति कोई प्रतिबद्धता नहीं हैं और न ही संसद में इसकी कार्यप्रणाली की समीक्षा की जाती है। 1952 में इसकी स्थापना के बाद से ही यह ऐसा संविधानेत्तर निकाय बना हुआ है, जिसके विशेषज्ञों ने लोकतांत्रिक राजनीति के बुनियादी सिद्धांतों से जानबूझकर खुद को अलग कर रखा है। यह दरअसल औपनिवेशिक युग के बाद विकास योजनाओं के नेहरू-महलनवीस मॉडल की असफलता का परिणाम है।
राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की बढ़ती विश्वसनीयता और वैधता ने योजना आयोग के अस्तित्व पर सवाल खड़े किए हैं। आरटीआइ, मनरेगा की सफलता और एनएसी द्वारा प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा बिल स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि योजना आयोग ने न सिर्फ 'भारत के विचार' को धोखा दिया है बल्कि यह तेजी से अप्रासंगिक भी होता जा रहा है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो योजना आयोग के अंत का वास्तविक समय आ गया है। मुझे दृढ़ विश्वास है कि गरीब इसकी विदाई की शिकायत नहीं करेगा।
रहिमन आह गरीब की कभी न खाली जाए-----------
जब से मनमोहन सरकार के गरीबी को परिभाषित करने वाले आंकड़े सामने आए हैं, तब से कम से कम हमें यह महसूस होने लगा है कि इस सरकार का हाल फिलहाल 'विनाशकाले विपरीत बुद्धि' वाला हो गया है। बिना अनावश्यक विस्तार के यह बात साफ की जा सकती है कि हाल में कोई भी फैसला हमारे शासकों ने ऐसा नहीं लिया जिसे जनहितकारी कहा जा सकता हो। सत्ता मद में बौराए और जनता से कटे हुए मोटे बिलौटे नेता इस तरह बयान देते हैं जैसे भारत नामक बपौती पर अनंत काल तक राज करने वाले हैं। आज आटे-दाल का भाव आसमान छू रहा है। छटांक-दो छटांक दाल उबाल पानी जैसी पतली परोस पूरा परिवार जैसे-तैसे दो रोटी हलक के नीचे उतार रहा है। इसी भोजन की कीमत उसे 30 रुपये प्रति व्यक्ति से कहीं अधिक चुकानी पड़ रही है, तो कैसे कोई इस बात को स्वीकार कर सकता है कि 32 रुपये प्रतिदिन से अधिक खर्च करने वाला व्यक्ति गरीब नहीं समझा जा सकता। घोर अचरज की बात तो यह है कि यह सरकार न केवल दरिद्रतम भारतीय को सिर्फ अमानवीय जानवरों जैसा जीवन जीने लायक समझती है बल्कि तथाकथित निम्न मध्यवर्ग और मध्यवर्ग के उन पढ़े-लिखे असंतुष्ट नागरिकों को भी बज्र मूर्ख समझती है जो महंगाई के लिए शासकों के भ्रष्टाचार को जिम्मेदार समझते हैं।
इस बात को रेखांकित करना जरूरी है कि प्रतिदिन प्रति व्यक्ति शहर के लिए 32 रुपये और गांव के लिए 26 रुपये वाला आंकड़ा सिर्फ खाद्यान्न के लिए नहीं है। ईंधन, यात्रा व्यय, मकान किराया तथा तन ढकने को जरूरी न्यूनतम कपड़े आदि का खर्च भी इसमें शामिल है। शहरों में झुग्गी का जो किराया दिहाड़ी मजदूर भी अदा करते हैं, वह हजार रुपये तक पहुंच चुका है। यह रकम प्रति परिवार तीस रूपये प्रतिदिन के ऊपर है। यदि इसे चार व्यक्तियों के परिवार में बांटा जाए तब भी प्रति व्यक्ति हिस्सा साढ़े सात रुपये से ज्यादा बैठता है। अब यह बात दीगर है कि हमारी सरकार शायद यह सोचती है कि गरीब आदमी को सपरिवार जिंदगी फुटपाथ पर ही बितानी चाहिए।
इन आंकड़ों को लेकर किसी भी बहस को शुरू करना अपने उन जख्मों को कुरेदना है जिन पर योजना आयोग ने तबियत से नींबू-नमक छिड़का है। गांधी जी का प्रिय भजन तो सभी ने सुना होगा। 'वैष्णव जन तो तेने कहिए जे पीर पराई जाणी रे!' जो लोग आज सरकार में मंत्री है या योजना आयोग में बैठे हैं, वह वास्तव में धर्मनिरपेक्ष हैं। ये वैष्णव शब्द को देशद्रोही गाली समझने वाले लगते हैं। जिन खाए-पिए लोगों के पैरों में कभी बिवाई पड़ी ही न हो वह दूसरे का दुख-दर्द समझ भी कैसे सकते हैं। गरीबी का नया पैमाना यही झलकाता है कि उदीयमान भारत में नारायण मूर्ति की जगह हो सकती है दरिद्र नारायण की नहीं। उसके प्रति कर्तव्य पालन की जवाबदेही से बचने का सबसे अच्छा तरीका यही है कि गरीबों को गिनने का ऐसा तरीका ईजाद कर लिया जाए कि कोई गरीब ही न बचे! हम बड़ी विनम्रता से अपने हुक्मरानों को याद दिलाना चाहेंगे कि एक और देसी दोहा है जिससे अनजान रहना उनके लिए निकट भविष्य में ही बेहद खतरनाक साबित हो सकता है- 'रहिमन आह गरीब की कभी न खाली जाए'!
महंगाई की मार
खाद्य वस्तु औसत मूल्य औसत मूल्य
जून 2010 सितंबर 2011
चना दाल/किग्रा 34 37 9'
दूध/लीटर 23 29 26'
सरसों तेल/लीटर 66 81 23'
चाय/किग्रा 149 152 2'
प्याज/किग्रा 11 22 100'
योजना आयोग द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दिए गए हलफनामे के अनुसार शहरी क्षेत्र में प्रतिदिन 32 रुपये से अधिक और ग्रामीण इलाके में रोजाना 26 रुपये से अधिक खर्च करने वाला व्यक्ति गरीब नहीं है। वह न केवल स्वस्थ है बल्कि खुशहाल भी है। आइए, जानते हैं कि रोजाना की इस तय खर्च राशि में से क्या-क्या खरीदा जा सकता है-
32 रुपये रोजाना खर्च
--------------
49.10 रुपये- मकान किराया* [व्यावहारिक नहीं]
29.60 रुपये- शिक्षा* [2 कापी और 2 पेन]
112 रुपये- कुकिंग गैस व अन्य ईधन* [1.6 किग्रा एलपीजी]
5.50 रुपये- अनाज [200 ग्राम चावल या 300 ग्राम आटा]
1.02 रुपये- दाल [10 ग्राम]
2.33 रुपये- दूध [80 ग्राम]
1.55 रुपये- खाद्य तेल [20 ग्राम]
0.44 रुपये- फल [सबे 5.5 ग्राम]
1.95 रुपये- सब्जियां [90 ग्राम]
0.70 रुपये- चीनी [20 ग्राम]
8.88 रुपये- अन्य [कपड़े, बेल्ट, महिला सौंदर्य समान, पर्स आदि]
------------------
* मासिक
------------------
सरकार ग्रामीण क्षेत्र में किसी व्यक्ति द्वारा अपने जीवनयापन पर 26 रुपये से अधिक खर्च करने वाले को गरीब मानती है। कानपुर के रामा डेंटल कॉलेज के प्रधानाचार्य डा एनपी श्रोत्रिय के अनुसार अगर उक्त पैसे को केवल एक दिन के भोजन के मद में खर्च किया जाए, तो भी आदमी संतुलित खुराक नहीं ग्रहण कर सकता-
एक दिन की संतुलित खुराक कुल लागत 27.47 रुपये
----------------------------
2.80 रुपये- तेल व वसा [40 ग्राम]
1.40 रुपये- चीनी [50 ग्राम]
3.99 रुपये- गेहूं [285 ग्राम]
7.13 रुपये- चावल [285 ग्राम]
1.25 रुपये- दाल [50 ग्राम]
1.00 रुपये- पत्तेदार सब्जियां [50 ग्राम]
2.00 रुपये- अन्य सब्जियां [100 ग्राम]
0.90 रुपये- कंद एवं मूल [60 ग्राम]
7.00 रुपये- दूध [200 ग्राम]

Sunday, September 18, 2011

कान्हा राष्ट्रीय उद्यान-------

यह भारत का एक प्रमुख राष्ट्रीय उद्यान हैं। मध्य प्रदेश अपने राष्ट्रीय पार्को और जंगलों के लिए प्रसिद्ध है। यहां की प्राकृतिक सुन्दरता और वास्तुकला के लिए विख्यात कान्हा पर्यटकों के बीच हमेशा ही आकर्षण का केन्द्र रहा है। कान्हा शब्द कनहार से बना है जिसका स्थानीय भाषा में अर्थ चिकनी मिट्टी है। यहां पाई जाने वाली मिट्टी के नाम से ही इस स्थान का नाम कान्हा पड़ा। इसके अलावा एक स्थानीय मान्यता यह रही है कि जंगल के समीप गांव में एक सिद्ध पुरुष रहते थे। जिनका नाम कान्वा था। कहा जाता है कि उन्‍हीं के नाम पर कान्हा नाम पड़ा।कान्हा जीव जन्तुओं के संरक्षण के लिए विख्यात है। यह अलग-अलग प्रजातियों के पशुओं का घर है। जीव जन्तुओं का यह पार्क 1945 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैला हुआ है। रूडयार्ड किपलिंग की प्रसिद्ध किताब और धारावाहिक जंगल बुक की भी प्रेरणा इसी स्‍थान से ली गई थी। पुस्तक में वर्णित यह स्थान मोगली, बगीरा, शेरखान आदि पात्रों का निवास स्थल है।
स्थिति ------ यह राष्ट्रीय पार्क 1945 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है। यह क्षेत्र घोड़े के पैरों के आकार का है और यह हरित क्षेत्र सतपुड़ा की पहाड़ियों से घिरा हुआ है। इन पहाड़ियों की ऊंचाई 450 से 900 मीटर तक है। इसके अन्तर्गत बंजर और हेलन की घाटियां आती हैं जिन्हें पहले मध्य भारत का प्रिन्सेस क्षेत्र कहा जाता था। 1879-1910 ईसवी तक यह क्षेत्र अंग्रजों के शिकार का स्थल था। कान्हा को 1933 में अभ्यारण्य के तौर पर स्थापित कर दिया गया और इसे 1955 में राष्ट्रीय पार्क घोषित कर दिया गया। यहां अनेक पशु पक्षियों को संरक्षित किया गया है। लगभग विलुप्‍त हो चुकी बारहसिंहा की प्रजातियां यहां के वातावरण में देखने को मिल जाती है।कान्हा एशिया के सबसे सुरम्य और खूबसूरत वन्यजीव रिजर्वो में एक है। टाइगरों का यह देश परभक्षी और शिकार दोनों के लिए आदर्श जगह है। यहां की सबसे बड़ी विशेषता खुले घास का मैदान हैं जहां काला हिरन, बारहसिंहा, सांभर और चीतल को एक साथ देखा जा सकता है। बांस और टीक के वृक्ष इसकी सुन्दरता को और बढा देते हैं।
आकर्षण------बारहसिंहा----- यह प्रजाति कान्हा का प्रतिनिधित्व करती है और यहां बहुत प्रसिद्ध है। कठिन जमीनी परिस्थितियों में रहने वाला यह अद्वितीय जानवर टीक और बांसों से घिरे हुए विशाल घास के मैदानों के बीच बसे हुए हैं। बीस साल पहल से बारहसिंहा विलुप्त होने की कगार पर थे। लेकिन कुछ उपायों को अपनाकर उन्हें विलुप्त होने से बचा लिया गया। दिसम्बर माह के अंत से जनवरी के मध्य तक बारहसिंहों का प्रजनन काल रहता है। इस अवधि में इन्हें बेहतर और नजदीक से देखा जा सकता है। बारहसिंहा पाए जाने वाला यह भारत का एकमात्र स्थान है।
जीप सफारी-----जीप सफारी सुबह और दोपहर को प्रदान की जाती है। जीप मध्य प्रदेश पर्यटन विकास कार्यालय से किराए पर ली जा सकती है। कैम्प में रूकने वालों को अपना वाहन और गाइड ले जाने की अनुमति है। सफारी का समय सुबह 6 से दोपहर 12 बजे और 3 बजे से 5:30 तक निर्धारित किया गया है।
बाघ दृश्य----                                                
                                                                 
                                               
बाघों को नजदीक से देखने के लिए पर्यटकों को हाथी की सवारी की सुविधा दी गई है। इसके लिए सीट की बुकिंग करनी होती है। इनकी सेवाएं सुबह के समय प्राप्त की जा सकती हैं। इसके लिए भारतीयों से 100 रूपये और विदेशियों से 600 रूपये का शुल्क लिया जाता है।
पक्षी------यहां पर पक्षि‍यों के मिलन स्‍थल का विहंगम दुश्‍य भी देख सकते है। यहां लगभग 300 पक्षियों की प्रजातियां हैं। पक्षियों की इन प्रजातियों में स्थानीय पक्षियों के अतिरिक्त सर्दियों में आने प्रवासी पक्षी भी शामिल हैं। यहां पाए जाने वाले प्रमुख पक्षियों में सारस, छोटी बत्तख, पिन्टेल, तालाबी बगुला, मोर-मोरनी, मुर्गा-मुर्गी, तीतर, बटेर, हर कबूतर, पहाड़ी कबूतर, पपीहा, उल्लू, पीलक, किंगफिशर, कठफोडवा, धब्बेदार पेराकीट्स आदि हैं।
कान्हा संग्रहालय-------इस संग्रहालय में कान्हा का प्राकृतिक इतिहास संचित है। यह संग्रहालय यहां के शानदार टाइगर रिजर्व का दृश्य प्रस्तुत करता है। इसके अलावा यह संग्रहालय कान्हा की रूपरेखा, क्षेत्र का वर्णन और यहां के वन्यजीवों में पाई जाने वाली विविधताओं के विषय में जानकारी प्रदान करता है।
बामनी दादर------यह पार्क का सबसे खूबसूरत स्थान है। यहां का मनमोहक सूर्यास्त पर्यटकों को बरबस अपनी ओर खींच लेता है। घने और चारों तरफ फैले कान्हा के जंगल का विहंगम नजारा यहां से देखा जा सकता है। इस स्थान के चारों ओर हिरण, गौर, सांभर और चौसिंहा को देखा जा सकता है।
दुर्लभ जन्तु------कान्हा में ऐसे अनेक जीव जन्तु मिल जाएंगे जो दुर्लभ हैं। पार्क के पूर्व कोने में पाए जाने वाला भेड़िया, चिन्कारा, भारतीय पेंगोलिन, समतल मैदानों में रहने वाला भारतीय ऊदबिलाव और भारत में पाई जाने वाली लघु बिल्ली जैसी दुर्लभ पशुओं की प्रजातियों को यहां देखा जा सकता है।
राजा और रानी------आगन्तुकों के केन्द्र के नजदीक साल के पेड़ों के दो विशाल ठूठों को देखा जा सकता है। इन ठूठों की प्रतिदिन जंगल में पूजा की जाती है। इन्हें राजा-रानी नाम से जाना जाता है। राजा रानी नाम का यह पेड़ 2000 के बाद ठूठ में तब्दील हो गया था।
मौसम------पार्क 1 अक्टूबर से 30 जून तक खुला रहता है। मॉनसून के दौरान यह पार्क बन्द रहता है। यहां का अधिकतम तापमान लगभग 39 डिग्री सेल्सियस और न्यूनतम 2 डिग्री सेल्सियस तक हो जाता है। सर्दियों में यह इलाका बेहद ठंडा रहता है। सर्दियों में गर्म और ऊनी कपड़ों की आवश्यकता होगी। नवम्बर से मार्च की अवधि सबसे सुविधाजनक मानी जाती है। दिसम्बर और जनवरी में बारहसिंहा को नजदीक से देखा जा सकता है।
आवागमन------कान्हा राष्ट्रीय पार्क वायु, रेल और सड़क मार्ग से जुड़ा हुआ है। अपनी सुविधा के अनुसार आप कान्हा पहुंचने के लिए इन मार्गो का प्रयोग कर सकते है।
वायु मार्ग-------कान्हा से 266 किलोमीटर दूर स्थित नागपुर में निकटतम एयरपोर्ट है। यह इंडियन एयरलाइन्स की नियमित उड़ानों से जुड़ा हुआ है। यहां से बस या टैक्सी के माध्यम से कान्हा पहुंचा जा सकता है।
रेल मार्ग-------जबलपुर रेलवे स्टेशन कान्हा पहुंचने के लिए सबसे नजदीकी स्‍टेशन है। जबलपुर कान्हा से 175 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहां से राज्य परिवहन निगम की बसों या टैक्सी से कान्हा पहुंचा जा सकता है।
सड़क मार्ग-------कान्हा राष्ट्रीय पार्क जबलपुर, खजुराहो, नागपुर, मुक्की और रायपुर से सड़क के माध्यम से सीधा जुड़ा हुआ है। दिल्ली से राष्ट्रीय राजमार्ग 2 से आगरा, राष्ट्रीय राजमार्ग 3 से बियवरा, राष्ट्रीय राजमार्ग 12 से भोपाल के रास्ते जबलपुर पहुंचा जा सकता है। राष्ट्रीय राजमार्ग 12अ से मांडला जिला रोड़ से कान्हा पहुंचा जा सकता है।

मध्‍य प्रदेश परिचय-------

          मध्‍य प्रदेश संभवतया उप महाद्वीप का संभतया सबसे पुराना स्‍थान है जिसे गोंडवाना कहते हैं अर्थात गोंड समुदाय का घर। भोपाल के पास भीमबेटका की पूर्व ऐतिहासिक गुफाएं हैं, जहां पेलियोलि‍थिक युग से बनी हुई कुछ मनमोहक तस्‍वीरें संरक्षित की गई है। मध्‍य प्रदेश चित्रित गुफा आवासों के संदर्भ में देश का सबसे अधिक समृद्ध राज्‍य है, जिनमें से अधिकांश गुफाएं सीहोर, भोपाल, रायसेन, होशंगा बाद और सागर जिलों में पाई गई हैं।  सुसंरक्षित मध्‍य कालीन शहरों, तरोताजा कर देने वाले वन्‍य जीवन अभयारण्‍यों और कुछ पवित्र और श्रद्धापूर्ण धार्मिक केन्‍द्रों के साथ यह प्रदेश पर्यटन का आनंदायक अनुभव प्रदान करता है। पचमणि की मनमोहक सुंदरता, भेड़ाघाट में धोंधार जनप्रपात की गरजती आवाज और संगमरमर की चट्टानों की भव्‍यता, कान्‍हा नेशनल पार्क अपने अनोखे बारसिंघा के साथ बांधव गढ़ के नेशनल पार्क में पूर्व ऐतिहासिक समय की गुफाएं एवं वन्‍य जीवन इस राज्‍य के कुछ प्रमुख आकर्षण है। ग्‍वालियर, मांडु, दतिया, चंदेरी, जबलपुर, ओरछा, रायसेन, सांची, विदिशा, उदयगिरी, भीमबेटका, इंदौर और भोपाल अपने ऐतिहासिक स्‍मारकों के लिए कुछ जाने माने स्‍थान है। महेश्‍वर, ओमकारेश्‍वर, उज्‍जैन, चित्रकूट और अमरकंटक कुछ प्रमुख धार्मिक केन्‍द्र हैं। यहां स्थित खजुराहो के अनोखे मंदिर दुनिया भर में प्रसिद्ध हैं। ओरछा, भोजपुर और उदय पुर के मंदिर भी पर्यटकों के साथ बड़ी संख्‍या में श्रद्धालुओं को भी आकर्षित करते हैं।
                  सतना, सांची, विदिशा, ग्‍वालियर, इंदौर, मंदसौर, उज्‍जैन, राजगढ़, भोपाल, जबलपुर, रीवा में स्थित संग्रहालयों में पुरातात्‍विक खजाने संरक्षित किए गए हैं। ओमकारेश्‍वर, महेश्‍वर और अमरकंटक को समेकित विकास के लिए उनके धार्मिक महत्‍व को बनाए रखने के‍ लिए पवित्र शहर घोषित किया गया है। बुरहान पुर को एक नए पर्यटक गंतव्‍य के रूप में विकसित किया जा रहा है।पर्वतीय स्‍थल पचमढ़ी-----------पचमढ़ी भारत के मध्‍य राज्‍य का मनमोहक पर्वतीय स्‍थल है। पचमढ़ी शहर की भीड़ भाड़ से दूरदराज स्थित स्‍थान है। प्रकृति की गोद में छुट्टियां बिताने के‍ लिए यह एक आदर्श स्‍थान है। इस पर्वतीय स्‍थल का नाम पांच पांडवों द्वारा बनाई गई गुफाओं के आधार पर रखा गया है। पचमढ़ी पर्वतीय स्‍थल 1100 मीटर की ऊंचाई पर सतपुड़ा पर्वत श्रृंखला पर बसा हुआ है। पचमढ़ी में घने जंगलों के साथ गहरे तालाब और लावे से बनी पहाडियां है। लाल सेंड स्टोन से बनी घाटियां, रेवाइन और पचमढ़ी की गलियां यहां का आकर्षण हैं।
वन्‍य जीवन अभयारण्‍य-बांधवगढ़ नेशनल पार्क-------- यह एक नेशनल छोटा पार्क है जो सुगठित होने के साथ खेलों से भरा हुआ है। बांधव गढ़ में बाघों की संख्‍या भारत में सबसे अधिक है। इस नेशनल पार्क के महत्‍व और संभाव्‍यता को देखते हुए इसे 1993 में प्रोजेक्‍ट टाइगर नेटवर्क में जोड़ा गया था। इस आरक्षित वन का नाम इसके मध्‍य में स्थित बांधवगढ़ पहाड़ी (807) मीटर के नाम पर रखा गया है जो विंध्‍य पर्वत श्रृंखला और सतपुड़ा पर्वत श्रृंखला के पूर्वी सिरे के बीच स्थित है और यह मध्‍य प्रदेश के शहडोल और जबलपुर जिलों में है। यहां 22 से स्‍तनधारियों की प्रजातियां तथा 250 पक्षी प्रजातियां पाई जाती है। यहां सामान्‍य लंगूर और रिसस बंदर प्राइमेट समूह का प्रति‍निधित्‍व करते हैं। यहां पाए जाने वाले मांसभक्षियों में एशियाई भेडियां, बंगली लोमड़ी, स्‍लॉथ बीयर, रेटल, भूरे मंगूस, पट्टी दार हाइना, जंगली बिल्‍ली, चीते और बाघ, यहां पाए जाने वाले अन्‍य जंतु है जंगली सुअर, चित्तीदार हिरण, सांभर, चौसिंघा, नील गाय, चिंकारा और गौर। यहां पाए जाने वाले स्‍तनधारी है डोल, छोटी भारतीय सीवेट, पाम गिलहरी और छोटे बेंडीकूट चूहे कभी कभार देखे जा सकते हैं। शाकाहारियों में केवल गौर नामक जंतु पाया जाता है जो चारा खाता है। नदियों और दलदली स्‍थानों की वनस्‍ति के साथ अनेक प्रकार के पक्षी पाए जाते हैं। इनमें से कुछ सामान्‍य है ग्रेब, अगरेट, लेसर एडजुटेंट, सारस, क्रेन, ब्‍लैक आइबिस, लैसर विसलिंग टीज, सफेद आंखों वाले बजार्ड, ब्‍लैक काइट, क्रेस्‍टेड सर्पेंट इंगल, काला गीध, इजिप्‍शन गीध, सामान्‍य पी फाउल, लाल जंगली फाउल, डव, पाराकिट, किंगफिशर और इंडियन रोलर। यहां पाए जाने वाले सरीसृप हैं कोबरा, क्रेट, वाइपर, रेट स्‍नैक, पाइथन, कछुएं और वारानस सहित कई प्रकार की छिपकलियां।
कान्‍हा नेशनल पार्क-------------------
                  कान्‍हा टाइगर रिजर्व के मध्‍य प्रदेश में भाग मध्‍य प्रदेश के मंडला और बालाघाट जिलों में है और ये सतपुड़ा की मयकल पहाडियों में स्थित है। यह स्‍थान अपनी समृद्ध वनस्‍पति और जीव जंतु के कारण अंतरराष्‍ट्रीय ख्‍याति प्राप्‍त कर चुका है। कान्‍हा के साल वृक्ष और बांस के जंगल, लंबे लंबे घास के मैदानऔरलहराती नदियां लगभग 940 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्रफल में फैली हैं जो प्रोजेक्‍ट टाइगर के तहत 1974 में बनाए गए कान्‍हा टाइगर रिजर्व का केन्‍द्र बनाती है और यह एक मनमोहक प्राकृतिक दृश्‍य है। यह पार्क दुर्लभ बारा सींघा (सर्वस डूआसेली ब्रेंडेरी) का एक मात्र अधिवास है। कान्‍हा में स्‍तनधारियों की लगभग 22 प्रजातियां पाई जाती है। इन्‍हें बड़ी आसानी से देखा जा सकता है और ये हैं पट्टीदार पाम गिलहरी, आम लंगूर, भेडिए, जंगली सुअर, चीतल या चित्तीदार हिरण, बारासिंघा या स्‍वाम्‍प बीयर, सांभर और ब्‍लैक बक। यहां कुछ कम सामान्‍य प्रजातियां हैं बाघ,

भारतीय खरगोश, ढोल, या भारतीय जंगली कुत्ता, बार्किंग डीयर, भारतीय भैंसा या गौर। यहां आने वाले दर्शक धैर्य रख कर इन जंतुओं का नजारा भी ले सकते हैं : भारतीय लोमड़ी, स्‍लॉथ बीयर, पट्टीदार हाइना, जंगली बिल्‍ली, चीता, माउस डीयर, चौसिंघा या चार सींग वाला एंटीलॉप, नील गाय, रेटल और साही। यह आरक्षित वन गोंडवाना वाले भाग पर बनाया गया है जहां पारम्‍परिक रूप से और मुख्‍यत: गोंड तथा बैगा जनजातियां निवास करती हैं। बैगा जनजातियां आम तौर पर ऊपरी घाटी में सीमित रहती हैं और मुख्‍य माइकल श्रृंखला के पास दादर पाए जाते हैं।
माधव नेशनल पार्क-------- माधव (शिवपुरी) नेशनल पार्क 156 वर्ग किलो मीटर क्षेत्रफल में फैला हुआ एक पार्क है जो पूरे वर्ष खुला रहता है। इस पार्क में संरक्षण पर बल दिया जाता है जो एक समय ऐसा क्षेत्र था जिसे ग्‍वालियर के महाराजा का निजी क्षेत्र माना जाता था और यहां वे शूटिंग किया करते थे। शिवपुरी नेशनल पार्क की स्‍थापना 1958 में मध्‍य प्रदेश राज्‍य बनने के साथ ही की गई थी। इसे 1972 के वन्‍य जीवन संरक्षण अधिनियम के तहत और भी अधिक सुरक्षित बनाया गया है। यहां की ऊंचाई 360-480 मीटर के आस पास है। यहां कई प्रकार की पहाडियां, सूखे, मिश्रित और पतझड़ी वन और घास के बड़े मैदान झील के आस पास हैं जो अनेक प्रकार के वन्‍य जीवों का दृश्‍य उपलब्‍ध कराते हैं। इस पार्क में पाई जाने वाली प्रमुख प्रजातियां हिरण की हैं, जिसमें से अधिकांश जानवरों को बड़े आराम से घूमते देखा जा सकता है जैसे छोटे चिंकारा, भारतीय गेजल और चीतल। इस पार्क में पाई जाने वाली अन्‍य प्रजातियां हैं नील गाय, सांभर, चौंसिंघा या चार सींग वाला एंटीलॉप, ब्‍लैक बक, स्‍लॉथ बीयर, चीते और सभी जगह पाए जाने वाले लंगूर। यहां कभी कभार पेंथेरा ट्राइग्रिस, चीतें, पेंथेरा पारडस, पट्टीदार हाइना, भेडिए (केनिस ओरियस) जंगली बिल्‍ली (फेलिस चौस) चीतल (एक्‍सिस एक्सिस), सांभर (सर्वस यूनिकलर), नील गाय, बोसेलेफस, ट्रेगोकेमेलस, चार सींग वाला एंटीलॉप, टेट्रासेरस क्‍वाड्रीकोर्निस, जंगली सुअर, सुस स्‍क्रोफा, चिंकारा (पर्वतीय गजेल), गजेला, घडियाल और अन्‍य।
पन्‍ना नेशनल पार्क------------------- यह मध्‍य प्रदेश राज्‍य के लगभग मध्‍य में खजुराहो से 57 किलो मीटर की दूरी पर स्थित है। यह क्षेत्र हीरों के लिए विख्‍यात है और यहां भारत की कुछ सर्वोत्तम वन्‍य जीवन प्रजातियां पाई जाती हैं और यह देश का एक बेहतरीन टाइगर रिजर्व है। इस पार्क में जंगली बिल्लियों के अलावा बाघ और हिरण तथा एंटीलॉप भी पाए जाते हैं। भारत के एक जाने माने पर्यटन आकर्षण केन्‍द्र, खजुराहो के समीप होने के कारण इस पार्क में एक बड़ा पर्यटन आकर्षण बनने की संभाव्‍यता निहित है। टाइगर (पेंथेरा टाइग्रिस) जो जंगल का राजा माना जाता है, यहां इस सुरक्षित वन में मुक्‍त भाव से घूमता है, जबकि इसके साथ ही भी यहां पाए जाते हैं - चीता (पेंथेरा पारडस), जंगली कुत्ते (क्‍यूऑन एल्‍पीनस), भूरा भेडिया (केनिस ल्‍यूपस), हाइना (फेलस केरा केल) और छोटी बिल्लियां यहां आप बड़ी आसानी से नील गाय और चिंकारा को घास के खुले मैदानों में घूमते हुए देख सकते हैं, विशेष रूप से किनारे की ओर। यहा कई प्रकार के सांपों के साथ अजगर और अन्‍य सरीसृप जंतु पाए जाते हैं। यहां 200 से अधिक पक्षियों की प्रजातियां पाई जाती है जिसमें अनेक प्रवासी पक्षी शमिल है। यहां सफेद गर्दन वाले स्‍टॉर्क, बार हेडिड बोज़, हनी बजार्ड, गिध, ब्‍लास्‍म हेडिड पाराकिट, पैराडाइज़ फ्लाइकेचर, स्‍नेटी हेडिड सिमीटार बैबलर आदि कुछ नाम हैं जो पाए जाते है।
करेरा पक्षी अभयारण्‍य-------------------- करेरा पक्षी अभयारण्‍य भारत के मध्‍य में स्थित मध्‍य प्रदेश राज्‍य में है। यहां की वनस्‍पति मिश्रित पतझड़ी वनों के साथ नमी युक्‍त है। यहां बेर की झाडियां और अन्‍य वन्‍य पादपों की संख्‍या काफी अधिक है। इस पूरे वन में बबूल के अलावा कोई अन्‍य वृक्ष नहीं पाए जाते। करेरा अभयारण्‍य के कांटे दार खुले वनों में विशाल आकार के ग्रेट इंडियन बर्स्‍टड पाए जाते हैं और साथ ही मनमोहक ब्‍लैक बक भी यहां देखे जा सकते हैं। यहां कई प्रकार के पक्षियों और जंतुओं में अपना अधिवास बनाया है। ब्‍लैक बक और भारतीय गजेल यहां पाई जाने वाली कुछ प्रमुख प्रजातियां हैं। मौसम के दौरान अनेक प्रवासी पक्षी यहां अपना घर बनाते हैं। ये हैं पिनटेल्‍स, टील्‍स और गेडवॉल्‍स जो सूर्य की धूप से बच कर या कीचड़ में बैठ कर समय बिताते हैं। यहां ऐसे अनेक जलीय पक्षी भी हैं जो नदी में तैरते हुए पाए जाते हैं जैसे अग्रे और स्‍पॉनबिल्‍स। यहां पाए जाने वाले अन्‍य पक्षी हैं हेरॉन्‍स, इंडियन रॉबिन्‍स और साथ ही ड्रेगन फ्लाई, डेम्‍स फ्लाई तथा तितलियां भी पाई जाती है।
बोरी वन्‍य जीवन अभयारण्‍य---------------------बोरी वन्‍य जीवन अभयारण्‍यों मध्‍य प्रदेश के होशंगाबाद जिले में स्थित है। यह 518 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्रफल में फैले सबसे पुराने आरक्षित वनों में से एक है। यह वन्‍य जीवन अभयारण्‍य सतपुड़ा रेज के उत्तरी सिरे पर स्थित है। इस अभयारण्‍य में अधिकाशंत: सूखे पतझड़ी वन पाए जाते हैं, जिसमें टीक, धाओरा, बांस, तेंदु मुख्‍य रूप से पाए जाते हैं यहां ऐसी अनेक झाडियां और लताएं हैं जिन्‍होंने इस आरक्षित वन की सुंदरता को बढ़ा दिया है। इस अभयारण्‍य के विभिन्‍न पेड़ पौधे अनेक जीव जंतुओं का आश्रय है जैसे बाघ, चीता, हाइना, भेडिए, जंगली कुत्ते और भारतीय लोमड़ी, चीतल एक्सिस, सांभर, नील गाय, चिंकारा, गेज़ल, जंगली बिल्‍ली और चार सींग वाले एंटीलॉप, इन सभी को प्राकृतिक अधिवास में घूमते हुए देखा जा सकता है।

कान्हा राष्ट्रीय उद्यान

   मै मुकेश वाहने मध्यप्रदेश के बालाघाट जिले से हू, मै ऑरकुट और फेसबुक के सभी दोस्तों को बालाघाट में आमंत्रित करता हू कान्हा नेशनल पार्क बालाघाट जिले से ही लगा बहुत ही सुन्दर पार्क है , कान्हा राष्ट्रीय पार्क वायु, रेल और सड़क मार्ग से जुड़ा हुआ है। 
                                           कान्हा राष्ट्रीय उद्यान
                                  IUCN श्रेणी २(राष्ट्रीय उद्यान)
                                  स्थिति-    मध्य प्रदेश, भारत
                                 निकटतम शहर-    मांडला
                   निर्देशांक    22°20′0″N 80°38′0″Eनिर्देशांक: 22°20′0″N 80°38′0″E
                                 क्षेत्रफ़ल -   940 km²
                                 स्थापित  -  1955
                                 पर्यटक -   1,000 (in 1989)
                                 प्रशासन-    वन विभाग, मध्य प्रदेश सरकार
                                                             
                     मध्यप्रदेश के दक्षिण-पूर्व में स्थित आदिवासी बाहुल्य प्रकृति के वन एवं खनिज सम्पदा का अपार भण्डार अपने सीने में छुपाने वाला बालाघाट जिले के दक्षिण क्षेत्र में स्थित विश्व विख्यात एवं अंतर्राष्ट्रीय मानचित्र पर जिले को पहुंचाने वाले प्रदेश के विभिन्न चर्चित पार्क में से एक कान्हा नेशनल पार्क पर्यटकों के लिए ऐसा केन्द्र है, जहां जाकर पर्यटन का आनंद लेने की इच्छा हर किसी की होती है। रायपुर से 330 किलोमीटर, नागपुर से 270, जबलपुर से 169 किलोमीटर और मंउला जिले से 65 किलोमीटर दूरी पर स्थित अंतर्राष्ट्रीय कान्हा नेशनल पार्क का क्षेत्रफल 940 वर्ग किलोमीटर है।सन 1999-2000 में पर्यटन मंत्रालय भारत सरकार द्वारा इस उद्यान को देश का बेस्ट मेन्टनेन्ड टूरिस्ट केण्डली नेशनल पार्क घोषित किया गया। इसका इतिहास भी बहुत ही रोचक है: 1972 में सरकार द्वारा प्रोजेक्ट टाईगर के अंतर्गत के शामिल किये गये। यहां के अधिकांश वन दक्षिण उष्ण कटिबंधीय, नम मिश्रित पर्णपाती वन हैं। पार्क के 24 प्रतिशत भाग में साल वन, 66 प्रतिशत भाग में मिश्रित वन तथा 9 प्रतिशत भाग में घास के मैदान है। कान्हा पार्क में वन्य प्राणी संरक्षण का रोचक इतिहास है। यहां अनेक दुर्लभ प्रजाति के वन्य जीव पाये जाते हैं। उद्यान में बंजर एवं हालोन नामक दो घाटियां है। वर्ष 1933 में बंजर एवं 1935 में हालोन को वन्य जीव अभ्यारण्य सरकार द्वारा घोषित किया गया। सन 1955 में बंजर अभ्यारण्य राष्ट्रीय उद्यान घोषित हुआ।
            अधिसूचना के समय इसका क्षेत्रफल 253 वर्ग किलोमीटर जो 1964 एवं 1970 में बढ़कर 446 वर्ग किलोमीटर हो गया। 1976 में हालोन अभ्यारण्य को इसमें शामिल करने से इसका क्षेत्रफल 940 वर्ग किलोमीटर किलोमीटर पहुंच गया। उद्यान के चारों तरफ फैले 1005 वर्ग किलोमीटर को बफर जोन कहा जाता है। यदि इसे भी शामिल कर लिया जाये तो इसका क्षेत्रफल 1045 वर्ग किलोमीटर हो जायेगा। सन 1982 में उद्यान के मुख्य भाग के पूर्वी क्षेत्र को 1011 वर्ग किलोमीटर के सेटेलाईट कोर एरिया को फेन अभ्यारण्य के रूप में स्थापित किया।कान्हा पार्क तक पहुंचने के लिए सीधे रेल सेवा तो नही है, पर सड़क मार्ग की अनेक सुविधाएं यंहा पर उपलब्ध है। यहंा पाये जाने वाले वन्य जीव समृद्ध है। यहां 43 प्रजातियों के स्तनपायी 18 प्रजातियों के सरीसृप और 300 प्रजाति के पक्षी पाये जाते हैं। पार्क का मुख्य आर्कषण वन्य जीव बारहसिंगा है, जिसे मध्यप्रदेश सरकार ने राज्य प्राणी घोषित किया है। परन्तु वर्तमान समय एक संकटग्रस्त प्रजाति यह माना जाता है। पार्क में 130 के आसपास बाघों की संख्या बतायी जाती है। स्पष्ट आकंड़े उपलब्ध नही है। पहाड़ों पर स्थित चारागाहों का विशिष्ट स्थान है। इन्हे स्थानीय भाषा में दादर कहा जाता है। कुछ दादर तो 12 वर्ग किलोमीटर में फैले हुए हैं।इसके अतिरिक्त यहां पर बाघ, गुलबाघ, जंगली कुत्ता, भेड़िया, सियार, लोमड़ी, बाईसन, सांभर, नीलगाय, चीतल, भेड़की, जंगली सुअर, भालू जैसे वन्य प्राणी भी देखे जा सकते हैं। कान्हा राष्ट्रीय उद्यान में अनेक दर्शनीय स्थल हैं, जहां से प्रकृति दर्शन का आनंद लिया जा सकता है। उद्यान में किसली मैदान डिगडोला राक कान्हा मैदान, कान्हा एनीकट, चुहरी, श्रवणताल, माचादादर, बम्हनी दादर, बिसनपुर, सोंडर और सोंडर तालाब, घोरेला, लक्सीकबर, शंकरघाटी, पोंगापानी, जानमाड़ा, गुफा, रौंदा, भिलवानी, सूपखार, बम्हनी, मटटा और दरबारी पत्थर प्रमुख दर्शनीय स्थल है। प्रतिवर्ष 1 अक्टूबर से 30 जून तक पर्यटकों के दर्शनार्थ और भ्रमण हेतु खुलने वाले इस पार्क में अनुमानित तौर पर 50 से 60 हजार देशी विदेशी पर्यटक हर साल यहां आकर पर्यटन का आनंद उठाते हैं। पार्क के आसपास मध्यप्रदेश पर्यटन विभाग, वन विभाग के विश्राम गृह के साथ प्राईवेट होटलों की भरमार हैं, जहां पर सभी प्रकार की आधुनिकतम सुख सुविधा उपलब्ध है।
हालांकि इस क्षेत्र के महत्व को देखते हुए पार्क से 35 किलोमीटर दूर बैहर में नवीन हवाई पटटे का निर्माण किया गया है। यहां जैसे विमानों का आवागमन विधिवत रूप से प्रारंभ होगा, इससे पार्क भ्रमण करने वाले विदेशी पर्यटकों की संख्या में वृद्धि होगी। सतपुड़ा पर्वत के मैकल श्रेणियों की उत्तरी ढ़ आने से वन्य जीव के बहने के साथ नक्सलियों के द्वारा पार्क में आग लगाकर क्षति पहुंचाने की घटना जो घटित हो चुकी है। इन विषमताओं के पश्चात भी कान्हा पार्क अपनी लोकप्रियता को बनाये रखने एवं पर्यटकों को आकर्षित करने में कहीं भी पीछे नही है।

MUKESH WAHANE KI FOTOS