Tuesday, December 27, 2011

ईंटें ढोता है शहीद ऊधम सिंह का पोता----------


                               जिन शहीदों की कुर्बानियों से देश आजाद हुआ अब उनके वारिसों पर क्या बीत रही है, इससे देश के मौजूदा कर्णधार अनजान हो गए लगते हैं। ऐसा ही एक मामला प्रकाश में आया है, शहीदे आजम उधम सिंह के पोते के परिवार का। इस परिवार के सदस्य सिर पर ईंटें ढोकर दैनिक मजदूरी करके पेट पाल रहे हैं।

 उल्लेखनीय है कि उधम सिंह ने जलियांवाला बाग में हजारों निहत्थे स्वतंत्रता सेनानियों के नरसंहार का बदला लेने के लिए लंदन में जरनल डायर को मार डाला था। आज उसी उधम सिंह के पोते जीत सिंह का परिवार सुनाम में बदहाली में है। यह जानकारी मिलने पर हरियाणा से राज्यसभा सांसद रामप्रकाश ने इन्हें सुनाम पंजाब से बुलवाकर शनिवार को शहीदे आजम उधम सिंह के 71वें शहीदी दिवस पर जिला यमुनानगर के रादौर कस्बे में आर्थिक मदद देकर इनकी मदद करने की पहल की।
                                                                                   
 सांसद रामप्रकाश ने शनिवार को कुरुक्षेत्र के पिपली पैराकीट व रादौर में आयोजित हुए शहीद सम्मान समारोह में कहा कि शहीदों ने जो रास्ता चुना था, उसी कारण आज उनके वंशजों को तंगी में जिंदगी बितानी पड़ रही है। इनकी सुध लेने के लिए सभी को आगे आना होगा। शहीदों के गुमनाम वारिसों पर फिल्म बना रहे शिवानंद झा ने कहा कि देश के लिए अपना सब कुछ न्योछावर करने वाले शहीदों के गुमनाम वारिसों के लिए हमें कुछ करना होगा। मेरा पूरा प्रयास होगा कि ऐसे गुमनाम वारिसों को देश की जनता के सामने लाए जाए।

 शहीद ऊधम सिंह के वंशज जीत सिंह को कांबोज धर्मशाला रादौर की ओर से 1 लाख 41 हजार रुपये की सहायता राशि भेंट की गई। वहीं शिवनाथ झा व उसकी पत्नी मीना झा को जय भगवान शर्मा ने 2 लाख रुपये की नकद राशि दी। जीत सिंह के साथ उनका बेटा जग्ग सिंह भी आया था। इस अवसर पर रामप्रकाश ने रादौर में निर्माणधीन शहीदेआजम उधम सिंह कांबोज धर्मशाला के लिए सात लाख रुपये देने की घोषणा की

शहीद उधम सिंह के घर की हालत देखकर आंसू आते है..............

जहा आज वो लोग सत्ताओ का सुख भोग रहे है...जिन्होंने कोई कुबानी नहीं दी,..........वही ऐसे वीर शहीद जिन्होंने भारत माता के अपमान का बदला लेने के लिए अपनी संकल्प की अग्नि को २० साल तक दबाये रखा और....जलियावाला कांड का बदला लिया....ऐसे ही पंजाब के वीर शहीद उधम सिंह को हम नमन करते है..............
तथाकथित देशभक्त जिनके वंशज आज सत्ताओ के शीर्ष पर में है.......उनका द्वारा लूटा हुआ धन स्विस बांको में पड़ा है, देश के ८४ करोड़ लोग भूखे मर रहे है...........
आइये आपको दिखाते है, शहीद उधम सिंह का संगरूर , सुनाम स्थित घर , जिसको देखकर कोई यह नहीं कह सकता की यह किसी महान क्रिन्तिकारी का घर है...
आज तक सचे क्रन्तिकारी का इस देश के गदारो ने जिन्होंने ६५न सालो तक साशन किया कोई स्मारक नहीं बनाया,,,..लेकिन यहाँ पर एक परिवार की और से ४०० से अधिक योजनाये चल रही है,,,........
शहीद उधम सिंह का स्मारक देखकर आंसू आते है..........
आज तक नेताजी का कोई स्मारक , पंडित बिस्मिल का, चंदेर्शेखर आजाद का, राजिंदर लाहिड़ी, ठाकुर रोशन सिंह का कोई भी स्मारक नहीं है, (अगर कोई है तो वह सरकार का नहीं बल्कि देशभक्त लोगो का बनवाया हुआ है).............
भारत के महान क्रांतिकारियों में ऊधम सिंह का विशेष स्थान है। उन्होंने जलियांवाला बाग नरसंहार के दोषी माइकल ओडायर को गोली से उड़ा दिया था। पंजाब में संगरूर जिले के सुनाम गांव में 26 दिसंबर 1899 में जन्मे ऊधम सिंह ने जलियांवाला बाग में अंग्रेजों द्वारा किए गए कत्लेआम का बदला लेने की प्रतिज्ञा की थी जिसे उन्होंने गोरों की मांद में घुसकर 21 साल बाद पूरा कर दिखाया। पंजाब के तत्कालीन गवर्नर माइकल ओडायर के आदेश पर ब्रिगेडियर जनरल रेजीनल्ड डायर ने अमृतसर के जलियांवाला बाग में शांति के साथ सभा कर रहे सैकड़ों भारतीयों को अंधाधुंध फायरिंग करा मौत के घाट उतार दिया था। क्रांतिकारियों पर कई पुस्तकें लिख चुके जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर चमन लाल के अनुसार जलियांवाला बाग की इस घटना ने ऊधम सिंह के मन पर गहरा असर डाला था और इसीलिए उन्होंने इसका बदला लेने की ठान ली थी। ऊधम सिंह अनाथ थे और अनाथालय में रहते थे, लेकिन फिर भी जीवन की प्रतिकूलताएं उनके इरादों से उन्हें डिगा नहीं पाई। उन्होंने 1919 में अनाथालय छोड़ दिया और क्रांतिकारियों के साथ मिलकर जंग-ए-आजादी के मैदान में कूद पड़े।
जाने माने नेताओं डॉ. सत्यपाल और सैफुद्दीन किचलू की गिरफ्तारी के विरोध में लोगों ने जलियांवाला बाग में 13 अप्रैल 1919 को बैसाखी के दिन एक सभा रखी थी, जिसमें ऊधम सिंह पानी पिलाने का काम कर रहे थे। पंजाब का तत्कालीन गवर्नर माइकल ओडायर किसी कीमत पर इस सभा को नहीं होने देना चाहता था और उसकी सहमति से ब्रिगेडियर जनरल रेजीनल्ड डायर ने जलियांवाला बाग को घेरकर अंधाधुंध फायरिंग करा दी। अचानक हुई गोलीबारी से बाग में भगदड़ मच गई। बहुत से लोग जहां गोलियों से मारे गए, वहीं बहुतों की जान भगदड़ ने ले ली। जान बचाने की कोशिश में बहुत से लोगों ने पार्क में मौजूद कुएं में छलांग लगा दी। बाग में लगी पट्टिका के अनुसार 120 शव तो कुएं से ही बरामद हुए। सरकारी आंकड़ों में मरने वालों की संख्या 379 बताई गई, जबकि पंडित मदन मोहन मालवीय के अनुसार कम से कम 1300 लोगों की इस घटना में जान चली गई। स्वामी श्रद्धानंद के मुताबिक मृतकों की संख्या 1500 से अधिक थी। अमृतसर के तत्कालीन सिविल सर्जन डॉ. स्मिथ के अनुसार मरने वालों की संख्या 1800 से ज्यादा थी। ऊधम सिंह के मन पर इस घटना ने इतना गहरा प्रभाव डाला था कि उन्होंने बाग की मिट्टी हाथ में लेकर ओडायर को मारने की सौगंध खाई थी। अपनी इसी प्रतिज्ञा को पूरा करने के मकसद से वह 1934 में लंदन पहुंच गए और सही वक्त का इंतजार करने लगे। ऊधम को जिस वक्त का इंतजार था वह उन्हें 13 मार्च 1940 को उस समय मिला जब माइकल ओडायर लंदन के कॉक्सटन हाल में एक सेमिनार में शामिल होने गया। भारत के इस सपूत ने एक मोटी किताब के पन्नों को रिवॉल्वर के आकार के रूप में काटा और उसमें अपनी रिवॉल्वर छिपाकर हाल के भीतर घुसने में कामयाब हो गए। चमन लाल के अनुसार मोर्चा संभालकर बैठे ऊधम सिंह ने सभा के अंत में ओडायर की ओर गोलियां दागनी शुरू कर दीं। सैकड़ों भारतीयों के कत्ल के गुनाहगार इस गोरे को दो गोलियां लगीं और वह वहीं ढेर हो गया। अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने के बाद इस महान क्रांतिकारी ने समर्पण कर दिया। उन पर मुकदमा चला और उन्हें मौत की सजा सुनाई गई। 31 जुलाई 1940 को पेंटविले जेल में यह वीर हंसते हंसते फांसी के फंदे पर झूल गया।

शहीद ऊधम ने माइकल को मारकर लिया था बदला-----------


शहीद-ए-आजम ऊधम सिंह ऐसे महान क्रांतिकारी थे जिन्होंने जलियांवाला बाग हत्याकांड का बदला लेने के लिए लंदन में माइकल आ॓ड्वायर को गोली से उड़ाकर बदला लिया।
तेरह अप्रैल 1919 को अमृतसर में बैसाखी के दिन हुए नरसंहार के समय आ॓ड्वायर ही पंजाब प्रांत का गवर्नर था। उसी के आदेश पर ब्रिगेडियर जनरल रेजीनाल्ड डायर ने जलियांवाला बाग में सभा कर रहे निर्दोष लोगों पर अंधाधुंध गोलियां बरसाईं थीं।
                                                                                     
26 दिसंबर 1899 को पंजाब के संगरूर जिले के सुनाम गांव में जन्मे ऊधम सिंह ने जलियांवाला बाग में हुए नरसंहार का बदला लेने की प्रतिज्ञा की थी। उन्होंने अपने सैकड़ों देशवासियों की सामूहिक हत्या के 21 साल बाद अंग्रेजों के घर जाकर पूरा किया।1901 में ऊधम सिंह की मां और 1907 में उनके पिता का निधन हो गया। इस घटना के चलते उन्हें अपने बड़े भाई के साथ अमृतसर के एक अनाथालय में शरण लेनी पड़ी।

ऊधम सिंह के बचपन का नाम शेर सिंह और उनके भाई का नाम मुक्ता सिंह था, जिन्हें अनाथालय में क्रमश: ऊधम सिंह और साधु सिंह के रूप में नए नाम मिले।1917 में उनके बड़े भाई का भी देहांत हो गया और 1919 में उन्होंने अनाथालय छोड़ क्रांतिकारियों के साथ मिलकर आजादी की लड़ाई में शामिल हो गए।डा. सत्यपाल और सैफुद्दीन किचलू की गिरफ्तारी तथा रोलट एक्ट के विरोध में अमृतसर के जलियांवाला बाग में लोगों ने 13 अप्रैल 1919 को बैसाखी के दिन एक सभा रखी जिसमें ऊधम सिंह लोगों को पानी पिलाने का काम कर रहे थे।

इस सभा से तिलमिलाए पंजाब के तत्कालीन गवर्नर माइकल आ॓ड्वायर ने ब्रिगेडियर जनरल रेजीनल्ड डायर को आदेश दिया कि वह भारतीयों को सबक सिखा दे।इस पर जनरल डायर ने 90 सैनिकों को लेकर जलियांवाला बाग को घेर लिया और मशीनगनों से अंधाधुंध गोलीबारी कर दी,जिसमें सैकड़ों भारतीय मारे गए।जान बचाने के लिए बहुत से लोगों ने पार्क में मौजूद कुएं में छलांग लगा दी। पंडित मदन मोहन मालवीय के अनुसार कम से कम 1300 लोग मारे गए थे।
इस घटना से वीर ऊधम सिंह विचलित हो उठे और उन्होंने जलियांवाला बाग की मिट्टी हाथ में लेकर माइकल आ॓ड्वायर को सबक सिखाने की शपथ ली।

ऊधम सिंह अपने काम को अंजाम देने के उद्देश्य से 1934 में लंदन पहुंचे। वहां उन्होंने एक कार और एक रिवाल्वर खरीदी तथा उचित समय का इंतजार करने लगे।13 मार्च 1940 को जब माइकल आ॓ड्वायर लंदन के काक्सटन हाल में एक सभा में शामिल होने के लिए गया।ऊधम सिंह ने एक मोटी किताब के पन्नों को रिवाल्वर के आकार में काटा और उनमें रिवाल्वर छिपाकर हाल के भीतर घुसने में कामयाब हो गए।सभा के अंत में मोर्चा संभालकर उन्होंने आ॓ड्वायर को निशाना बनाकर गोलियां दागनी शुरू कर दीं और वह वहीं ढेर हो गया। इस मामले में 31 जुलाई 1940 को पेंटविले जेल में ऊधम सिंह को फांसी पर चढ़ा दिया गया जिसे उन्होंने हंसते-हंसते स्वीकार कर लिया। 31 जुलाई 1974 को ब्रिटेन ने उनके अवशेष भारत को सौंप दिए।

शहीद ऊधम सिंह-------------

जन्म दिवस........... शहीद ऊधम सिंह (26 दिसम्बर) ---------------

महान क्रान्तिकारी शहीद ऊधम सिंह----------“मैं परवाह नहीं करता, मर जाना कोई बुरी बात नहीं है। क्या फायदा है यदि मौत का इंतजार करते हुए हम बूढ़े हो जाएँ? ऐसा करना कोई अच्छी बात नहीं है। यदि हम मरना चाहते हैं तो युवावस्था में मरें। यही अच्छा है और यही मैं कर रहा हूँ।

“मैं अपने देश के लिए मर रहा हूँ।”


(‘I don’t care, I don’t mind dying. What Is the use of waiting till you get old? This Is no good. You want to die when you are young. That is good, that Is what I am doing’.

‘I am dying for my country’.)

उपरोक्त शब्द अमर शहीद ऊधम सिंह के अन्तिम शब्द थे।

देश को अंग्रेजों के अत्याचार तथा गुलामी से स्वतन्त्र कराने के लिए अनगिनत देशभक्त क्रान्तिकारियों ने हँसते-अपने प्राणों की आहुति दी है। उन्हीं शूरवीरों में अमर शहीद ऊधम सिंह का नाम आदर व श्रद्धा से लिया जाता है।

13 अप्रैल 1919 को बैसाखी का दिन था। उस दिन डा. सत्यपाल और सैफुद्दीन किचलू की गिरफ्तारी तथा रोलट एक्ट के विरोध में अमृतसर के जलियाँवाला बाग में एक सभा का आयोजन किया गया था। देशप्रेम की भावना से ओतप्रोत लगभग 10,000 से भी अधिक लोग उस सभा में उपस्थित थे। ऊधम सिंह वहाँ पर प्यासे लोगों को पानी पिलाने के पुनीत कार्य में लीन थे।

अंग्रेज सरकार से भारतीयों का देशप्रेम देखा नहीं गया। अत्याचारी अंग्रेज अधिकारी जनरल ओ’डायर के सैनिकों ने पूरे बाग को घेर लिया और निहत्थे आबालवृद्ध लोगों पर मशीनगनों से अंधाधुंध गोलीबारी करनी शुरू दी। हजारों भारतीय मारे गए। पंडित मदन मोहन मालवीय के अनुसार कम से कम 1300 लोग मारे गए थे।

इस घटना ने वीर ऊधम सिंह को विचलित करके रख दिया। तत्काल ही उन्होंने ओ’डायर को सबक सिखाने के लिए शपथ ले लिया। ऊधम सिंह ने बहुत प्रयास किया किन्तु ओ’डायर के भारत में रहते तक उन्हे अपने शपथ को पूरा करने का मौका नहीं मिला। ओ’डायर वापस इंगलैंड चला गया। ओ’डायर के वापस चले जाने पर भी ऊधम सिंह अपना शपथ नहीं भूले। प्रतिशोध लेने के लिए उन्होंने 20 मार्च 1933 के दिन लाहौर में अपना पासपोर्ट बनवाया और इंगलैंड चले गए। अपना उद्देश्य पूर्ण करने के लिए उन्हें वहाँ लगभग सात साल और इंतजार करना पड़ा।

अन्ततः इंतजार की घड़ियाँ खत्म हुईं। 13 मार्च 1940 को ओ’डायर लंदन के काक्सटन हाल में एक सभा में शामिल होने के लिए गया। ऊधम सिंह ओ’डायर का वध करने के लिए 45 स्मिथ एण्ड वेसन रिवाल्वर पहले ही खरीद चुके थे। एक मोटी किताब के पन्नों को बीच से काटकर तथा किताब के भीतर अपने रिवाल्वर को छिपाकर ऊधम सिंह भी उस सभा में पहुँच गए। मौका मिलते ही उन्होंने मंच पर उपस्थित ओ’डायर को लक्ष्य करके 6 राउंड गोलियाँ दाग दीं। ओ’डायर को दो गोलियाँ लगीं और उसके प्राण पखेरू उड़ गए।

प्रतिशोध के पूर्ण हो जाने पर ऊधम सिंह कायरतापूर्वक भागे नहीं बल्कि उन्होंने वीरतापूर्वक स्वयं गिरफ्तार करवा दिया। उन्होंने कहा “मेरी उससे शत्रुता थी इसीलिए मैंने उसे मारा। वह इसी लायक था। ऐसा मैंने किसी अन्य या किसी संस्था के कहने से नहीं किया है वरन् ऐसा करना मेरा अपना फैसला था।” (“I did it because I had a grudge against him, he deserved it. I don’t belong to any society or anything else.)

ऊधम सिंह का जन्म 26 दिसंबर 1899 को पंजाब के संगरूर जिले के सुनाम गांव में हुआ था। 1901 में उनकी मां और 1907 में उनके पिता का निधन हो गया और उन्हें अपने बड़े भाई के साथ अमृतसर के एक अनाथालय में शरण लेनी पड़ी। ऊधम सिंह के बचपन का नाम शेर सिंह और उनके भाई का नाम मुक्ता सिंह था, जिन्हें अनाथालय में क्रमश: ऊधम सिंह और साधु सिंह के रूप में नए नाम दिए गए। 1917 में उनके बड़े भाई का भी स्वर्गवास हो गया। 1919 में वे अनाथालय छोड़ क्रांतिकारियों के साथ मिलकर आजादी की लड़ाई में शामिल हो गए।

मेट्रोपोलिटन पोलिस रिपोर्ट फाइल क्र. MEPO 3/1743, दिनांक 16 मार्च 1940 के में लिखा है “हमें उसके जीवन के विषय में सूचना मिली है कि वह एक बेहद सक्रिय, अनेक स्थानों की यात्रा किया हुआ, राजनीति से प्रेरित, धर्मनिरपेक्ष विचारधारा वाला युवक था तथा उसके पास अपने जीवन का महान उद्देश्य था। वह साम्यवाद का समर्थक था और भारत में ब्रिटश शासन के प्रति उसके हृदय में प्रबल घृणा थी।” (we find information concerning his life, which reveals him to be a highly active, well-travelled, politically motivated, secular-minded young man with some great purpose in his life, a supporter of Bolshevism and driven by an ardent hatred of British rule in India.)

दुःख का विषय है कि हमें बताए जाने वाले इतिहास में देशभक्तो के विषय में नहीं के बराबर ही सामग्री पाई जाती है।

Wednesday, November 23, 2011

मत बांटिए मन और मुल्क को....................!


राजनीति को सुनिश्चित करना है कि देश में लोगों का मन न बंटे. पहले मन फटता है, तब धरती-भूगोल पर विभाजन होता है.हर कौम, हर धर्म, हर जाति का पढ़ा-लिखा इनसान 21वीं सदी की दहलीज पर ऐसी मांगों के खिलाफ वैचारिक लड़ाई लड़े. इस आधुनिक दुनिया, मजबूत देश-राज्य की अवधारणा के बीच जाति-धर्म के आधार पर राज्य की मांग हतप्रभ करनेवाली है. यह वैसी ही बात है, जैसे आज कोई सती प्रथा की बात करे. मनुष्य की उन्नति के इतिहास में, अतीत की वे सीढ़ियां जो बेड़ी बन गयी थीं, पुन उनका स्मरण, प्रतिगामी सोच है. आधुनिक राष्ट्र-राज्य में हम नया इनसान गढ़ें.
                                                                                           
यह प्रसंग पिछले सप्ताह पढ़ा. देश के सबसे बडे अंगरेजी अखबार में. एक आइएएस स्तंभकार ने छोटे राज्यों के संदर्भ में लिखा था. उसमें यह सूचना थी.‘तामब्रह्म प्रदेशम्’, अलग राज्य की मांग होनेवाली है. यह समान धर्मा-समान विचार वाले तमिलनाडु के अय्यर ब्राह्मणों (खासकर वदमा उपजाति) की मांग है. अय्यर ब्राह्मणों के लिए अलग राज्य की मांग करनेवालों ने आह्वान किया है कि हम एक अगस्त से (सरकार की अनुमति मिले या नहीं?) उपवास शुरू कर रहे हैं. दिल्ली जंतर-मंतर पर. सभी अय्यर ब्राह्मणों से एकजुटता के लिए अपील की गयी है, ताकि दक्षिण के राज्यों में सरकारें अय्यर ब्राह्मणों के साथ जो भेदभाव या पक्षपात करती रही हैं, उनका प्रतिकार हो सके. इस मांग के तहत खाका है कि उत्तरी तमिलनाडु, दक्षिणी आंध्र प्रदेश और पूर्वी कर्नाटक को मिला कर अलग राज्य ‘तामब्रह्म प्रदेशम्’ बने.नहीं पता राष्ट्रीय दल (हर पार्टी) या क्षेत्रीय पार्टियां (हर दल) ऐसी खबरों पर अब कैसे रिएक्ट (प्रतिक्रिया) करती हैं ? आमतौर से वे चुप रहती हैं, क्योंकि सत्ता की राजनीति, साफ बात नहीं करने देती. सत्ता चाहनेवालों को किसी कीमत पर सत्ता चाहिए. वह राजनीति, जो दूर की सोचे, देश की सोचे, फिलहाल नहीं है. बहुसंख्यक, अल्पसंख्यक, जाति, धर्म, समुदाय से वोट बैंक बनते हैं, तो हर हाल में वोट बैंक ही चाहिए, आज के दलों को. चाहे वे क्षेत्रीय हों या राष्ट्रीय. इस दौर में वैसे दूरदर्शी नेता या स्टेट्समैन (जो भविष्य देखें ) भी नहीं, जो अपना राजनीतिक भविष्य, दावं पर लगा कर सच बोलें. जैसे 50 और 60 के दशकों में कश्मीर के सवाल, नगालैंड के सवाल पर जेपी ने मुख्यधारा से अलग स्टैंड लिया. तब पूरे देश में कितनी आलोचना हुई उनकी.

जेपी के बाद की पीढ़ी में कांग्रेस में रहते हुए 74 आंदोलन या बाद में इंदिरा जी की हत्या के समय पंजाब पर जो स्टैंड (मुख्यधारा से हट कर) चंद्रशेखर ने लिया, वैसे नेता हैं कहां ?जाति और धर्म की राजनीति कहां पहुंचाती है ? इसी स्तंभ में लगभग एक माह पूर्व मौलाना आजाद की कही बातें छपी थीं. उन्होंने पाकिस्तान बनने के ठीक पहले एक इंटरव्यू दिया था. वह इंटरव्यू पढ़ कर लगता है कि मौलाना आजाद साफ-साफ भविष्य देख रहे थे. आज पाकिस्तान में जो कुछ हो रहा है, उसका पूरा दृश्य उन्होंने 45-46 में आंक लिया था. तब मुसलमानों के बीच उनका स्टैंड अलोकप्रिय माना गया. पर धर्म की बुनियाद पर बन रहे देश के भविष्य को उन्होंने साफ-साफ बता दिया था. तब भारत से पाकिस्तान गये मुहाजिर मुसलमानों की आज वहां क्या स्थिति है? खासतौर से बिहार, उत्तरप्रदेश से गये मुसलमान आज किस हाल में हैं, वहां? और भी अनेक संकटों से घिरे पाकिस्तान में समाज की क्या स्थिति है ?यही हालात, जाति या समुदाय आधारित राज्य बन जायें, तो वहां होंगे. आज की दुनिया में जाति-धर्म या समुदाय विशेष के लिए राज्य या देश बनें, तो वे चल नहीं सकते. विकास, बिजनेस या आर्थिक भाषा में वे ‘ वायबुल’ (व्यावहारिक नहीं) नहीं होनेवाले. फर्ज कीजिए एक जाति आधारित राज्य या जिला हो जाये, तो अंतत उसका रूप क्या होगा? उस जाति या समुदाय के जो दबंग, अपराधी या वर्चस्व वाले होंगे, उनका राज्य होगा. उसी जाति के अमन-चैन या शांति से रहनेवालों की जिदंगी ऐसी दबंग ताकतों के हाथ गिरवी होगी. फिर उस जाति में भी उपजाति, कुल, गोत्र वगैरह के आधार पर खेमेबंदी होगी. जैसे पाकिस्तान में मूल बाशिंदे, पंजाबी या भारत से गये मुसलमानों के बीच हुआ. किस हद तक बंटेगा इनसान ? ऐसे राज्यों में संस्थाओं, राज्य के आर्थिक संसाधनों, पदों पर वर्चस्ववाले काबिज होंगे, रसूखवाले. पारिवारिक हैसियत से पद मिलेंगे. व्यवस्था में चेक और बैलेंस नहीं होगा. आरंभ में ऐसी भावात्मक अपीलों से लोगों को एक छतरी में ला सकते हैं, पर जब जाति का उन्माद उतरेगा, तो स्थिति साफ होगी. पाकिस्तान में क्या हुआ ? पाकिस्तान बना लेने के बाद, जिन्ना के अंतिम दिनों की बातें पढ़ें. उनके सपने क्या थे? पर हकीकत क्या हुई ? वह कैसा पाकिस्तान चाहते थे, पर पाकिस्तान बना कैसा ? आज जब लोकतंत्र है, तब तो नेता अपने नालायक बेटों को उत्तराधिकारी बनाने से मान नहीं रहे, जब एक ही धर्म, जाति, समुदाय के आधार पर जिला, राज्य या देश बनेंगे, तो क्या होगा? ताकतवर परिवारों की राजशाही लौटेगी. केरल में कांग्रेस ने एक मुसलिम बहुल क्षेत्र को जिला बना दिया, पता कीजिए क्या हालात हैं, वहां के ?अलग झारखंड बना. आज दुमका इलाके के लोगों से बात करिए, वे कहते हैं हमारी उपेक्षा हो रही है, हमें अलग पहचान चाहिए. यही हाल चाईबासा इलाके का है. पलामू के एक सज्जन ने तो केंद्र शासित क्षेत्र बनाने की मांग से एक मसविदा तैयार किया था. झारखंड के सबसे पुराने बाशिंदे होने का दावा करनेवाले (बिरजिया, पहाड़िया, असुर, बिरहोर आदि) अलग राज्य बनने से भी असंतुष्ट हैं. उनका तर्क है कि अधिक संख्यावाले समुदाय हावी हैं. हमें न्याय नहीं मिल रहा. तेलंगाना, विदर्भ , पूर्वाचल, मिथिलांचल, गोरखालैंड समेत न जाने कितने राज्यों की मांग उठ रही है. सत्ताधारी दल अपनी कुरसी-गद्दी बचाते हुए सब समझौते कर रहे हैं. ऐसे नाजुक सवालों पर कोई साफ-साफ नहीं बोलता है ? क्या मुल्क ऐसे चलता है ? याद रखिए इस देश में सरदार वल्लभ भाई पटेल जैसे लोग हुए, जिन्होंने डेढ़ हजार वर्षो बाद हमें एक भौगोलिक आकार दिया. यह एकता भी. भविष्य के सपने भी. बड़ी कुरबानी के बाद हम यहां पहुंचे, जहां आज हैं. कोई भी बात, जो आगे चल कर हमारी एकता को कमजोर करे, वे असह्य होनी चाहिए, राजनीति के लिए.पर असह्य होने से पहले राजनीति को उदार होना चाहिए.

1935 से 1937 के दौर में उत्तरप्रदेश में मुसलिम लीग ने कांग्रेस से अंतरिम सरकार में हिस्सा मांगा. कांग्रेस ने बिना सोचे खारिज कर दी, वह मांग. वह बात सुलगी, तो फिर आग में बदल गयी. इसलिए राजनीति करनेवालों का दायित्व है कि वे सुनिश्चित करें कि कोई भी तबका उपेक्षित महसूस न करे. चाहे उसकी संख्या कम हो या अधिक. दक्षिण के अय्यर ब्राह्मण यह कहते हैं कि राज्य उनके साथ भेदभाव कर रहा है या उनके बच्चों का 98-99 फीसदी अंक पाने पर भी श्रेष्ठ कॉलेजों- संस्थानों में एडमिशन नहीं होता, तो यह दूर होना चाहिए. कोई वर्ग या समुदाय मामूली चीजों के लिए घर में उपेक्षित महसूस न करे. वरना यह मामूली असंतोष विस्फ़ोटक हो सकता है. यह राजनीति का दायित्व है. राजनीति को सुनिश्चित करना है कि देश में लोगों का मन न बंटे. पहले मन फटता है, तब धरती-भूगोल पर विभाजन होता है.हर कौम, हर धर्म, हर जाति का पढ़ा-लिखा इनसान 21वीं सदी की दहलीज पर ऐसी मांगों के खिलाफ वैचारिक लड़ाई लड़े. इस आधुनिक दुनिया, मजबूत देश-राज्य की अवधारणा के बीच जाति-धर्म के आधार पर राज्य की मांग हतप्रभ करनेवाली है. यह वैसी ही बात है, जैसे आज कोई सती प्रथा की बात करे. मनुष्य की उन्नति के इतिहास में, अतीत की वे सीढ़ियां जो बेड़ी बन गयी थीं, पुन उनका स्मरण, प्रतिगामी सोच है. आधुनिक राष्ट्र-राज्य में हम नया इनसान गढ़ें. एक विश्व का सपना देखें, तो गांधी-नेहरू-पटेल-मौलाना आजाद या इस देश को आकार देनेवाली महान पीढ़ी के ऋण से उऋण होंगे.

म.प्र. के स्थल-------------


१. आगर (शाजापुर) : अंग्रेजों द्वारा निर्मित विश्व का एक मात्र हिन्दु मंदिर जिसे कर्नल मार्टिन ने सन्‌ १८८२ में बनवाया था। यहां महादेव जी का मंदिर है।
२. अलीराजपुर (झाबुआ) : यह म.प्र. का नवनिर्मित जिला है। यहां होली के अवसर पर भील जनजाति का प्रणय उत्सव ”भगोरिया हाट” मनाया जाता है। यहां भील युवक युवतियों के बीच सहपलायन विवाह होता है।
३. अगरगांव (होशंगाबाद) : म.प्र. का एक मात्र स्थान जहां ”टंगस्टन” पाया जाता है।
४. एरण ( सागर ) : सन्‌ १९६५ में सागर विश्वविद्यालय के प्रो. श्री के.ड़ी बाजपेयी के नेतृत्व में यहां उत्खनन हुआ यहां बाराह अवतार की मूर्ति, विश्व का प्रथम सती प्रथा का साक्ष्य मिला। यहां अनेक गुप्तकालीन अवशेष, रामगुप्त के सिक्के पंचमार्क सिक्के, प्राचीन मानव के अवशेष आदिमानव की ताम्रयुगीन कुल्हाडी प्राप्त हुई है।
५. अमरकंटक ( अनुपपूर ) : यहां से नर्मदा, सोन, जोहिला, नामक नदियों का उद्‌गम होता है। यहां कपिल धारा, दुग्ध धारा, जलप्रपात, कपिलमुनि का आश्रम, माई की बगिया, श्री मेरूयन्त्र सहित, १०८ मंदिर स्थित है। इसे जैव विविधता क्षेत्र घोषित किया गया है।
६. ओरछा ( टीकमगढ ) :- यह बुन्देल राजाओं की राजधानी रहा है। यह बेतवा नदी पर स्थित है। यहां के दर्शनीय स्थलों में राधा स्वामी मंदिर, ”जहांगिरी महल”, सावन भादो स्तंभ आदि प्रमुख है।
७. असीरगढ ( खंडवा ) : असीर नामक व्यक्ति द्वारा बनाया गया। यह अपने विशाल किले के लिए प्रसिद्ध है। यह अकबर की अंतिम विजय थी। (सन्‌ १६०१)
८. ओंकारेश्वर ( खंडवा ): यहां म.प्र. का दूसरा ज्योर्तिलिंग स्थित है। यहां नर्मदा नदी ओम के आकार में बहती है। यहां नर्मदा पर इन्दिरा सागर परियोजना प्रारंभ की गई है।
९. आदमगढ ( होशंगाबाद ) ;नर्मदा के उत्तर में स्थित ”पाषाण युगीन कुल्हाडी एवं आदिम मानव के अवद्गोष मिले जिसे ”होमोइरेक्टस नर्मदालेन्सिस’ नाम दिया गया।
१०. अबरा ( मंदसौर ) : प्राचीन मानव के अवशेष प्राप्त हुए है।
११. आगासोद( बीना) यहां पर तेल शोधनशाला, ओमान के सहयोग से स्थापित की गई है।
                                                                                 
‘ B ‘
१. बानमोर ( मुरैना) :- यह नव स्थापित औद्योगिक केन्द्र है। यहां शक्कर बनाने के अनेक कारखाने लगाए गये है।
२. बरलाई ( देवास) यहां पर म.प्र. का शक्कर बनाने का सबसे बड़ा कारखाना स्थित है।
३. बोरगांव ( छिन्दवाडा) :- म.प्र. का नव स्थित औद्योगिक केन्द्र जहां जैविक खाद्य, एवं कृषि यंत्र बनाने के कारखाने स्थित है।
४. बागली ( देवास):- यहां से ”काली सिन्ध” नदी का उद्‌गम होता है।
५. बुरहानपुर :- इसे १५ अगस्त २००३ को नया जिला बना गया यहां म.प्र. का एकमात्र यूनानी चिकित्सा महाविद्यालय स्थित है। यह अपने केला उत्पादन के लिए प्रसिद्ध है। मुगल सम्राट शाहजहां की पत्नि मुमताज महल की १४ बच्चे को जन्म देते समय मृत्यु यहीं हुई थी।
६. बैढन (सिंगरौली ) – यहां संजय गांधी राष्ट्रीय ताप बिजली घर स्थित है। यह म.प्र.की ”ऊर्जा राजधानी” कहलाता है।
७. बावनगजा (बडवानी):- म.प्र. की सबसे ऊंची मूर्ति भगवान ”आदिनाथ” की यहां स्थित है।
८. विजयनगर ( गुना):- एच.बी.जे. पाईप लाईन पर आधारित गैस द्वारा उर्वरक बनाने का कारखाना स्थित है।
९. बुधनी (सीहोर):- यहां रेलवे ”स्लीपर” बनाने का कारखाना स्थित है।
१०. बेसनगर ( विदिशा) :- सन्‌ १९१५ में ”आर.जी.भण्डारकर के नेतृत्व में इसकी खुदाई हुई यहां शुगवंश,कुषाण,मौर्य, एवं गुप्तवंश के प्रमाण मिले। यहां पर यूनान के शासक अन्त्यालकीड्‌स ने अपना राजदूत हेलियोडोरस को भेजकर गरूड स्तम्भ स्थापित कराया।
११. भीम बेटका (भोपाल) :- इसकी खोज विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन के प्रो.श्रीधर विष्णु वाकणकर ने सन्‌ १९५५ मे की थी। यहां विश्व के सबसे प्राचीन शैलचित्र प्राप्त हुए। इसे २००३ में यूनेस्को ने विश्वविरासत सूची में शामिल किया है।
१२. भेडाघाट (जबलपुर):- संगमरमर नगरी के नाम से प्रसिद्ध है यहां के चौसठयोगनी मंदिर, तिलवाडाघाट, बन्दरकूदनी, आदि दर्शनीय स्थल है। यहां नर्मदा नदी धुआंधार नामक जलप्रपात बनाती है।
१३. भरहुत (सतना):- गुप्त कालीन शिव -पार्वती मंदिर के लिए प्रसिद्ध है।
१४. भिण्ड :- भिण्डी ऋषि द्वारा स्थापित| यहां मालनपुर नामक नव निर्मित औद्योगिक केन्द्र स्थित है।
१५. बाघ की गुफाएं (धार):- ”गुप्त शासको” ने अजंता गुफाओं की तरह म.प्र. के धार जिले में १० गुफाओं का निर्माण करवाया जो ”महात्मा बुद्ध” के जन्म से लेकर उनके सम्पूर्ण जीवन का चरित्र चित्रण करती हैं।
१६. भोपाल :- वर्तमान भोपाल की स्थापना सन्‌ १७०७ में दोस्त मोहम्मद ने की थी। यह १९७२ में जिला बनाया गया। यहां ताजुल मस्जिद, गौहर महल, भारत भवन, वन विहार, ऐशबाग स्टेडियम, इंदिरा गांधी मानव संग्रहालय, लक्ष्मी नारायण मदिर, आदि दर्शनीय स्थल है। सन्‌ १९५६ में यहां इग्लैण्ड़ के सहयोग से भारत हैवी इलेक्ट्रीकल्स लिमिटेड की स्थापना की गई। यहां ”राष्ट्रीय न्यायिक एकेडमी”, माखन लाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, राजा भोज मुक्त विश्वविद्यालय, बरकतउल्लाह विश्वविद्यालय, राजीव गांधी विश्वविद्यालय, मौलाना आजाद तकनीकी विश्वविद्यालय, आदि स्थित है।
१७. बैतूल :- यहां ग्रेफाइट का उत्पादन होता है एवं HMT घडियां बनाने का कारखाना स्थित है।
१८. भोजपुर (भोपाल) :-राजा भोज द्वारा स्थापित प्राचीन कालीन शिवमंदिर के लिए प्रसिद्ध है।
” C “
१ छिन्दवाडा :- क्षेत्रफल की दृष्टि से म.प्र.का सबसे बडा जिला है |यहां आदिम जाति अनुसंधान केन्द्र स्थित है। यहां पाये जाने वाले खनिजों में कोयला, मैग्नीज, बाक्साईट, फेल्सफार आदि प्रमुख है।
२. चन्देरी (गुना) :- यह जरी की साडियो के लिए विश्व प्रसिद्ध है |यहां हवा महल, खूनी दरवाजा, १०९ बावडियां एवं जौहरकुण्ड आदि के लिए प्रसिद्ध है।
३. चित्रकूट (सतना) :- मंदाकिनी नदी के किनारे स्थित, रामद्गिाला, हनुमान धारा, स्फर्टिकशिला, रामचन्द्र का आश्रम, गुप्त गोदावरी, ”सती अनुसुय्या” का आश्रम स्थित यहां ब्रम्हा, विष्णु, महेद्गा, ने बाल अवतार लिया।
४. चचाई जल प्रपात :- यहां बीहड नदी पर स्थित म.प्र. का सबसे उंचा जल प्रपात स्थित है।
५.छनेरा :- ”इंदिरा सागर परियोजना” से विस्थापित लोगों को ”छनेरा” नामक स्थान पर बसाया गया इसे ”नया हरसूद” नाम दिया गया।
” D “
१. दतिया :- यह गामा पहलवान की जन्म भूमि है।यहां सतखण्डा महल एवं पीताम्बरा पीठ स्थित है।
२. दालोदा (उज्जैन):- यहां शक्कर बनाने का कारखाना स्थित है।
३. धरमत (उज्जैन) : – मुगल सम्राट औरंगजेब एवं दाराशिकोह के बीच उत्ताराधिकारी का युद्ध सन्‌ १६५८ में यहां लड़ा गया। यहां प्रदेश का पहला पुरातात्विक संग्रहालय बनाया गया है।
५. देवास :- यहां बैंक नोट प्रेस स्थित है जिसमें २०रूप्ये मूल्य से लेकर १००० मूल्य तक के नोट छापे जाते है। यहां शारदा माता का मंदिर स्थित है। शिवपुत्र कोमकली (कुमार गन्धर्व ) की नगरी के नाम से इसे जाना जाता है। यहां चमडे से जूते बनाने के कारखाने स्थित है।
६. डिण्डोरी :- यह बैगा जनजाति के लिए प्रसिद्ध है बैगा जनजाति का निवास स्थान बैगाचक यहां स्थित है। जो अत्यंत पिछडा हुआ क्षेत्र है।
७. द्रोणागिर (छतरपुर):- यहां जैन तीर्थ स्थल है।
८. डांगवाला (उज्जैन) -यहां पाषाण कालीन मानव के अवशेष प्राप्त हुए है।
९. दसपुर (मंदसौर) :- प्राचीन कालीन सूर्य मंदिर के अवशेष प्राप्त हुए है।
१०. दीवानगंज (भोपाल):- यहां कचरे से जैविक खाद्य का निर्माण किया जाता है।
११. धुवेरा (नौगावं) :- मध्यप्रदेश का सबसे बडा ”म्यूजियम” यहां बनाया गया है।
१२. झातरा (नीमच) :-९ दिसम्बर २००० को म.प्र. मे ग्राम न्यायालय की शुरूआत यहीं से हुई थी।
१३. ढीमरखेडा (कटनी) :- यह भारत का ”केन्द्र बिन्दु” स्थल है।
१४. धूपगढ (पचमढी) यह म.प्र. की सबसे उंची चोटी है जिसकी ऊँचांई १३५० मी. है जो सतपुडा मेकल पर्वत श्रृंखला की चोटी है।

” G ”
१. गोपालपुरा (इन्दौर) :- हिंगोट युद्ध के लिए प्रसिद्ध है जो दीपावली के अवसर पर खेला जाता है।
२. गोटेगांव (श्रीधाम) :- त्रिपुर सुन्दरी (पार्वती) के मंदिर के लिए प्रसिद्ध है।
३. गोविंदगढ़ (रीवा) :- यहा सफेद शेरो की जन्म स्थली है।
४. गुज्जर्रा (दतिया) :- यहां मौर्य सम्राट अशोक का स्तम्भ लेखा मिला जिस पर अशोक का नाम लिखा हुआ मिला है।
५. गिन्नौरगढ (रायसेन) :- यह स्थान तोते के लिए प्रसिद्ध है।
६. घाटीगांव (ग्वालियर) :- यहां सोन चिडिया के लिए अभ्यारण्य बनाया गया है।
७. ग्वालियर :- ग्वालियर की स्थापना गालिक ऋषि के नाम पर महाराज जी सिंधिया ने की थी यहां पर बी.एस.एफ., वायु सेना प्रशिक्षण केन्द, मोहम्मद गौस, बैजू बावरा, तानसेन का मकबरा, रानी लक्ष्मी बाई की समाधि, जीवाजी पैलेस तेली का मंदिर, मानसिहं का किला, गूजरी महल, डाक प्रशिक्षण, अमूर्त संग्रहालय एशिया का एक मात्र शारीरिक प्रशिक्षण विश्वविद्यालय ,(इंदिरा गांधी शारीरिक प्रशिक्षण विश्वविद्यालय) स्थित है।
श्री अटल बिहारी बाजपेयी ग्वालियर के है।

“H”
१. हीरापुर (छतरपुर) :- यह राँक फास्फेट के लिए प्रसिद्ध है।
२. हिनोता (पन्ना) :- यहां हीरा उत्खनन का कार्य किया जाता है।
३. होशंगाबाद :- क्षेत्रफल में सबसे छोटा संभाग सिक्युरिटी (नोट) पेपर मिल स्थित है।

” I “
१. इन्दौर :- १७७० में रानी अहिल्या बाई द्वारा स्थापित यहां पर लालबाग पैलेस,राजवाडा, कांच मंदिर, अन्नापूर्णा मंदिर, लेजर परमाणु उर्जा अनसंधान केन्द्र, म.प्र. वित्त निगम का मुख्यालय राष्ट्रीय सोयाबीन अनुसंधान, समाज सेवा महाविद्यालय.,दंत चिकित्सा महाविद्यालय, म.प्र. लोक सेवा आयोग का मुख्यालय एवं लता मंगेशकर की जन्म भूमि है।
२. इन्द्रगढ़ :-सन्‌ १९७५ में इसकी खुदाई हुई यहां आदिम मानव के अवशेष प्राप्त हुए।
३. इटारसी (होशंगाबाद) :- म.प्र. का सबसे बडा ”रेल जंक्सन ” है।

” J “
१. जटकरा (खजुराहो) यहां पर हुयी खुदाई मे विशाल मंदिर प्राप्त हुआ है।
२. जबलपुर :- नर्मदा नदी के किनारे स्थित म.प्र. की संस्कारधानी के नाम से प्रसिद्ध, यहां पर मदन महल एवं टिगवा में गुप्तकालीन विष्णु भगवान का मंदिर म.प्र. शैक्षणिक अनुसंधान केन्द्र, उच्च न्यायालय गवर्मेन्ट आर्डिनेक्स फैक्ट्री, सेना वाहन निर्माण केन्द्र, पं. जबाहर लाल नेहरू ने कृषि विश्व विद्यालय”, स्थित है। सन्‌ ”१९२३ में झण्डा आंदोलन यहीं से शुरू हुआ।
३. जावरा (रतलाम) :- यहां शक्कर उत्पादन केन्द्र है।
४. जटकुडार (टीकमगढ ) :-यह किले के लिए प्रसिद्ध है। जिस पर ”वृन्दावन लाल वर्मा” ने उपन्यास लिखा है।

” K “
१. कायथा (उज्जैन) :- यहां आदिम मानव के अवशेष प्राप्त हुए है।
२. कस्तूरबा ग्राम (इन्दौर):- यह प्रदेश का प्रथम सौर उर्जा चलित गांव है।
३. करौदी (कटनी) :- यह भारत का केन्द्र बिन्दु है यहां महार्षि महेश योगी वि.वि. की स्थापना की गई है।
४. केन :- म.प्र., उत्तर प्रदेश एवं केन्द्र सरकार के बीच नदी जोड ने संबंधी देश का पहला नदी जोडों समझौता हुआ, इस नदी में केन अभ्यारण्य बनाया गया है। जिसमें घडियाल, मगरमच्छ पाले गये है।
५. केलारस (मुरैना) :-यह सीमेन्ट, कत्था उद्योग के लिए प्रसिद्ध है।
६. कटनी :-यह विस्फोटक कारखाना एवं चूना पत्थर के लिए प्रसिद्ध है।
७. कुम्रारागावं (रायसेन) :-यहां से ”बेतवा नदी का उद्‌गम होता है।
८. काकरी बार्डी (रायसेन) : -यह क्षिप्रा नदी का उद्‌गम स्थल है

९. कान्हा :- यहां १९३५ में कान्हा नामक गावं में अभ्यारण्य बनाया गया। जिसे १९५५ में राष्ट्रीय उद्यान का दर्जा दिया गया। इसमे १९७४ में प्रोजेक्ट टाइगर लागू किया गया।यहां ब्रेडरी नस्ल के हिरण पाये जाते है। कैप्टन ”फारसाइथ की पुस्तक” हाईलैण्डर ऑफ फार सेन्टरल इंडिया में वर्णित ”बंजर एवं हालो घाटी” इसी में स्थित है। यहां ८५ प्रकार के वन्य जीव एवं ६०० से अधिक किस्म के पक्षी पाये जाते है।
१०. खजुराहो :- इसकी खोज १८५७ में ”अल्फेड लायल” ने की थी। इसे ”१९८९ में विश्वविरासत सूची मे शामिल किया गया है। यह देश का एक मात्र गावं है जिसमें जेट विमान उतरते है।यह वैष्णव, शैव, एवं जैन तीन धर्मो का धार्मिक स्थल है यहां पर कदंरिया महादेव मंदिर, लक्ष्मणमंदिर ,मतंगेश्वर मंदिर , विश्वनाथ मंदिर आदि मुख्य है।
”चंदेल राजा नरसिहं वर्मन” प्रथम ने ९०५ ई. में यहां मंदिरों का निर्माण कार्य प्रारंभ किया। १०५० तक कुल ८५ मंदिर बनवाये गये जिसमे २५ मंदिर अभी अच्छी स्थिति में है।
११. खुरई :- म.प्र. में गेहूं की सबसे बड़ी मण्डी स्थित हैं।
१२. खरगौन :- यहां पर सबसे ज्यादा २६ सिनेमा घर है।
१३. खण्डवा :- म.प्र. का एक मात्र गांजा उत्पादक जिला (मेरिजुआना) कपास उत्पादक, एवं किशोर कुमार की जन्मभूमि के लिए प्रसिद्ध।
” L “
१ लम्हेघाट (ग्वालियर) :- यह चूना पत्थर का उत्पादन के लिए प्रसिद्ध है।
“M”
२. मुंगावली (अशोकनगर) : यहां खुली जेल स्थित है इसकी स्थापना १९७३ में की गयी।
३. मांडू (धार): आनन्द नगरी के नाम से प्रसिद्ध, बाज बहादुर और रानी रूपमती
का महल, जहाज महल, हिंडोला महल, आशर्फी महल, नीलकण्ठ मंदिर,
चम्पाबावडी, हाथीपोल, दिलावरखान, का महल , रानी रूपमती का महल,
बाजबहादुर का महल, भंगी दरवाजा, तरबूज-खरबूज महल आदि प्रसिद्ध हैं।
४ महेश्वर :यह नगर रानी अहिल्या बाई की राजधानी था यह अपनी जरी की साडियों,चूडियों, के लिए प्रसिद्ध है। नर्मदा नदी यहां सहस्त्रधारा जलप्रपात बनाती है।
५. मंदसौर – यह म.प्र. का एक मात्र अफीम उत्पादक जिला है। यहां विश्व का दूसरा पशुपतिनाथ का मंदिर स्थित है।

६. मैहर (सतना) : बाबा अलाउद्‌दीन खॉ की कर्मभूमि, शारदा माता का मंदिर, सीमेंट फैक्ट्री के लिए प्रसिद्ध है।
६. मुक्तागिरि (बैतूल) : यह जैन तीर्थ स्थल है।
७. मक्सी (शुजालपुर) : यहां एस्बेस्टस (अग्निरोधी) की चादरें बनाई जाती है।
८. मलाजखण्ड (बालाघाट) : एशिया की सबसे बड़ी तांबे की खुले मुँह की खदान स्थित है।
१०. मुलताई (बैतूल) : यहां से ताप्ती नदी का उद्‌गम होता है।
११. मंझगवा (सतना) : यह हीरा उत्पादन के लिए प्रसिद्ध है।
१२. महीदपुररोड (उज्जैन) : यह शक्कर उत्पादन के लिए प्रसिद्ध है।
१३. महू : इसका नया नाम अम्बेडकर नगर है। १४ अपै्ल सन्‌ १८९१ को यहां डॉ भीमराव अम्बेडकर का जन्म हुआ यहां डॉ.अम्बेडकर सामाजिक शोध केन्द्र एवं मिलिट्री हेड क्वार्टर्स ऑफ वार (MHOW) स्थित है।
१४. मंडीदीप (रायसेन) : एशिया का एकमात्र आप्टिकल फायबर बनाने का कारखाना स्थित है।
१५. मालनपुर (भिण्ड ) : नवनिर्मित औद्यौगिक जिला।
१६. मेघनगर (झाबुआ) : यहां सिलैण्डर, माचिस, सुपर फास्फेट बनाने के कारखाने स्थित है।
“N”
१. नागदा (उज्जैन) : कृत्रिम रेशे बनाने का कारखाना, म.प्र. का एकमात्र, निजी हवाई अड्‌डा स्थित है।
२. नेपानगर (बुरहानपुर) : एशिया का सबसे बडा अखबारी कागज बनाने का कारखाना स्थित है।
३. नानपुर (झाबुआ) : यह भगोरिया हाट के लिये प्रसिद्ध है।
४. नरवर (शिवपुरी) : यहां १८ अप्रैल १८५९ को प्रसिद्ध स्वतंत्रता संग्राम से सेनानी तात्याटोपे को फांसी दी गई।
५. नीमच : यहां एल्केलाइड फैक्ट्री, एवं सी.आर.पी.एफ.प्रशिक्षण केन्द है। १८५७ की क्रांति की शुरूआत मध्यप्रदेश में नीमच से हुई थी।
६. नरसिंहपुर : देश का प्रथम हिन्दी भाषी पूर्ण साक्षर जिला। यह नर्मदा नदी के तट पर स्थित है। यह गन्ना उत्पादन के लिए प्रसिद्ध है। यहां बोस्टल स्कूल स्थित है।

“P”
१. पचमढी :- १८५९ में कैप्टन फारसाइथ द्वारा इसकी खोज की गई। इसे देश का १४ बायोस्फियर रिजर्व क्षेत्र घोषित किया। यहां के दर्शयनीय स्थलों में धूपगढ, चौरागढ़, जटाशंकर , बसिया बेरिया गुफा, रजत जलप्रपात, पाण्डव गुफायें, अप्सरा विहार, नंदन अभ्यारण्य, संगम टूर, बडा महादेव, आदि दर्शयनीय स्थल हैं।
२. पान गुडरिया(होशंगाबाद):- यहां सम्राट अशोक का लघुशिलालेख पाया गया,एवं आदि मानव के अवशेष प्राप्त हुए है |
३. पांढुर्ना (छिदवाडा):- यहां प्रतिवर्ष जामुली नदी के किनारे ”गोटमार मेले”का आयोजन होता है।
४. पातालकोट (छिन्दवाडा):- यह छिन्दवाडा से ८५ कि.मी.उत्तर में तामिया तहसील में स्थित है। यह ३०० वर्ग किमी एरिया में फैला है। इसमें आदिम जनजाति भरिया का निवास स्थान है। जिसका मुख्य व्यवसाय कन्दमूल एकत्रित करना है।
५. पालपुरकुनों (मुरैना):- इसमें एशियन शेर गुजरात से लाकर रखे जाने का प्रस्ताव है।
६. पीथमपुर (धार):- भारत का डेट्राइट के नाम से प्रसिद्ध। यहां कायनेटिक होण्डा, मैसी एवं आएसर ट्रेक्टर, महेन्द्रा टैम्पो आदि वाहन बनाये जाते हैं।
७. परकोटा (सीधी):- यहां कोरण्डम पाया जाता है।
८. पुरैना (पन्ना):- यह नवनिर्मित औद्यौगिक केन्द्र है।
९. पीलूखेडी (राजगढ):- नवनिर्मित औद्यौगिक केन्द्र है।
१०. पन्ना :- यहां रेप्टाइल पार्क बनाया गया है। यहां हीरे का उत्खनन होता है।
” R “
१. राष्ट्रीय चम्बल अभ्यारण्य :- यह म.प्र. का सबसे बडा अभ्यारण है इसका क्षेत्रफल ३९०२ वर्ग किमी है। इसमें मगर, घडियाल, उदविलाव, डाल्फिन मछलियां पाली गयी है। ।
२. रानगिर (सागर):- यहां हरसिद्धि मां का मंदिर स्थित है।
३. रूपनाथ (जबलपुर):- यहां अशोक का लघु स्तंभ पाया गया।
४. राघोगढ (राजगढ):- यह प्राकृतिक सौन्दर्य से परिपूर्ण पर्यटन स्थल है।

” S”
१. सिथौली (ग्वालियर) :यहां रेल्वे स्लीपर, स्प्रिंग बनाने का कारखाना स्थित है।
२. सागर : इसकी स्थापना १६८० में उदालशय ने की थी। इसका पुराना नाम रविस है।
इस शहर के चारों ओर सौ गढ (किले)होने के कारण इसका नाम सौगढ़ पडा। यहां विधि
विज्ञान प्रयोगशाला, पुलिस एकेडमी, देश की सातवीं डीएनए लैब, स्थापित की गई है।
३. सांची :- सन्‌ १८१८ में जनरल टेलर ने इसकी खोज की। यह सम्राट अशोक के समय
हीनयान बौद्ध धर्म का प्रसिद्ध केन्द्र था। यहां विश्व का सबसे बडा स्तूप स्थित है इसमें
बुद्ध के दो प्रिय शिष्य सारिपुत्र एवं महामोदग्लायन की अस्थियां रखी हुई है इसे सन्‌१९८९
में विश्व विरासत सूची में रखा गया इसकी देखरेख श्रीलंका सरकार करती है।
४. सोहागपुर (शहडोल):- यह कोयला उत्पादन का प्रमुख क्षेत्र है।
५. शिवपुरी - प्रदेश का प्रथम पर्यटक शहर एवं प्रदेश का सबसे
ठण्डा क्षेत्र है
६. सैलाना (रतलाम):- यहां खरमौर पक्षी के लिए अभ्यारण्य बनाया गया है।
७. सोन अभ्यारण्य (सीधी):- यहां मगरमच्छ एवं घडियाल के लिए अभ्यारण्य बनाया गया है।
८. सिंगरौली (सीधी):- एशिया की सबसे बडी कोयले की खुले मुँह की खदान स्थित है। इसे मई २००८ नया जिला बनाया गया है।
९. स्लीमनाबाद (जबलपुर):- यह तांवा उत्पादन के लिए प्रसिद्ध है।
१०. संग्रामपुर (दमोह):- यहां पुरातत्व संग्रहालय बनाया जा रहा है।

“T “
१. त्रिपुरी :- यह जबलपुर का पुराना नाम हैं। यहां नेता जी सुभाष चंद्र बोस का ५२ हाथियों के साथ जुलूस निकाला गया था।
१४. तिगवा (जबलपुर) :- गुप्त कालीन विष्णु मंदिर (१६०० साल पुराना) के लिए प्रसिद्ध है।
१५. टेकनपुर (ग्वालियर) :- BSF का प्रशिक्षण केन्द्र, डॉग ट्रेनिंग स्कूल एवं वायुसैनिक प्रशिक्षण केन्द्र स्थित है।

“U”
१. उमरिया :- यहां बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान स्थित है।
२.उद्योग विहार (रीवा) :- यह नवनिर्मित औद्योगिक केन्द्र है।

Saturday, October 1, 2011

भारतीय संस्कृति का एक ऐसा उदाहरण .

ये है भारतीय संस्कृति का एक ऐसा उदाहरण ..जो विश्व में या भारत की राजनीती के इतिहास में न कही हुआ न कभी होगा ...! ये है लाल बहादुर शास्त्री ओर उनकी पत्नी ...! एक प्रधानमंत्री ..अपने कर्तव्य का निर्वाह कर रहा है और उनकी पत्नी उनके उत्साह को बढ़ाये रखने के लिए धार्मिक पुस्तक पढ़ कर अपना कर्तव्य निभाह रहीं हैं ....! सरलता सादगी का ये स्वरुप हर भारतीय के लिए गर्व की बात है न ...! हमे तो गर्व है ही ...!
                                                                               

भगतसिंह की माता विद्यावती का देश के नवयुवकों के नाम सन्देश जिसमें उन्होंने अपने हस्ताक्षर राष्ट्रभाषाहिन्दी में किये थे-----


सुखदेव, राजगुरु तथा भगत सिंह के लटकाये जाने की ख़बर - लाहौर के ट्रिब्यून के मुख्य पृष्ठ पर----


भगतसिंहः-जेल के दिन--------

जेल में भगत सिंह ने करीब २ साल गुजारे। इस दौरान वे कई क्रान्तिकारी गतिविधियों से जुड़े रहे। उनका अध्ययन भी जारी रहा। उनके उस दौरान लिखे गये ख़त आज भी उनके विचारों के दर्पण हैं। इस दौरान उन्होंने कई तरह से पूँजीपतियों को अपना शत्रु बताया है। उन्होंने लिखा कि मजदूरों का शोषण करने वाला एक भारतीय ही क्यों न हो, वह उनका शत्रु है। उन्होंने जेल में अंग्रेज़ी में एक लेख भी लिखा जिसका शीर्षक था मैं नास्तिक क्यों हूँ?" जेल में भगत सिंह व उनके साथियों ने ६४ दिनों तक भूख हडताल की। उनके एक साथी यतीन्द्रनाथ दास ने तो भूख हड़ताल में अपने प्राण ही दे दिये ।
                                                                                    
फ़ाँसी------------- भगतसिंह की माता विद्यावती का देश के नवयुवकों के नाम सन्देश जिसमें उन्होंने अपने हस्ताक्षर राष्ट्रभाषाहिन्दी में किये थे i २३ मार्च १९३१ को शाम में करीब ७ बजकर ३३ मिनट पर भगत सिंह तथा इनके दो साथियों सुखदेव व राजगुरु को फाँसी दे दी गई । फाँसी पर जाने से पहले वे लेनिन की नहीं बल्कि राम प्रसाद 'बिस्मिल' की जीवनी पढ़ रहे थे जो सिन्ध (वर्तमान पाकिस्तान का एक सूबा) के एक प्रकाशक भजन लाल बुकसेलर ने आर्ट प्रेस, सिन्ध से छापी थी। कहा जाता है कि जेल के अधिकारियों ने जब उन्हें यह सूचना दी कि उनके फाँसी का वक्त आ गया है तो उन्होंने कहा था- "ठहरिये! पहले एक क्रान्तिकारी दूसरे से मिल तो ले।" फिर एक मिनट बाद किताब छत की ओर उछाल कर बोले - "ठीक है अब चलो ।"
फाँसी पर जाते समय वे तीनों मस्ती से गा रहे थे -
मेरा रँग दे बसन्ती चोला, मेरा रँग दे;
मेरा रँग दे बसन्ती चोला। माय रँग दे बसन्ती चोला।।
फाँसी के बाद कहीं कोई आन्दोलन न भड़क जाए इसके डर से अंग्रेजों ने पहले इनके मृत शरीर के टुकड़े किए तथा फिर इसे बोरियों में भर कर फ़िरोजपुर की ओर ले गए जहाँ घी के बदले मिट्टी का तेल डालकर ही इनको जलाया जाने लगा । गाँव के लोगों ने आग जलती देखी तो करीब आए । इससे डरकर अंग्रेजों ने इनकी लाश के अधजले टुकड़ों को सतलुज नदी में फेंका और भाग गये। जब गाँव वाले पास आये तब उन्होंने इनके मृत शरीर के टुकड़ो कों एकत्रित कर विधिवत दाह संस्कार किया । और भगत सिंह हमेशा के लिये अमर हो गये। इसके बाद लोग अंग्रेजों के साथ-साथ गान्धी को भी इनकी मौत का जिम्मेवार समझने लगे । इस कारण जब गान्धी कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में हिस्सा लेने जा रहे थे तो लोगों ने काले झण्डों के साथ गान्धीजी का स्वागत किया । एकाध जग़ह पर गान्धी पर हमला भी हुआ किन्तु सादी वर्दी में उनके साथ चल रही पुलिस ने बचा लिया। बाद में गान्धी को अपनी यात्रा छुपकर करनी पड़ी ।
व्यक्तित्व-------------जेल के दिनों में उनके लिखे खतों व लेखों से उनके विचारों का अन्दाजा लगता है । उन्होंने भारतीय समाज में लिपि (पंजाबी की गुरुमुखी व शाहमुखी तथा हिन्दी और अरबी उर्दू के सन्दर्भ में विशेष रूप से), जाति और धर्म के कारण आयी दूरी पर दुःख व्यक्त किया था । उन्होंने समाज के कमजोर वर्ग पर किसी भारतीय के प्रहार को भी उसी सख्ती से सोचा जितना कि किसी अंग्रेज के द्वारा किए गये अत्याचार को ।
भगत सिंह को हिन्दी, उर्दू, पंजाबी तथा अंग्रेजी के अलावा बांग्ला भी आती थी जो उन्होंने बटुकेश्वर दत्त से सीखी थी । उनका विश्वास था कि उनकी शहादत से भारतीय जनता और उद्विग्न हो जायेगी और ऐसा उनके जिन्दा रहने से शायद ही हो पाये । इसी कारण उन्होंने मौत की सजा सुनाने के बाद भी माफ़ीनामा लिखने से साफ मना कर दिया । पं० रामप्रसाद 'बिस्मिल' ने अपनी आत्मकथा में जो-जो दिशा-निर्देश दिये थे उनका भगत सिंह ने अक्षरश: पालन किया।[1] उन्होंने अंग्रेज सरकार को एक पत्र भी लिखा, जिसमें कहा गया था कि उन्हें अंग्रेज़ी सरकार के ख़िलाफ़ भारतीयों के युद्ध का प्रतीक एक युद्धबन्दी समझा जाए तथा फ़ाँसी देने के बदले गोली से उड़ा दिया जाये ।
फ़ाँसी के पहले ३ मार्च को अपने भाई कुलतार को भेजे एक पत्र में भगत सिंह ने लिखा था -
उन्हें यह फ़िक्र है हरदम नयी तर्ज़-ए-ज़फ़ा क्या है
हमें यह शौक है देखें, सितम की इन्तहा क्या है
दहर से क्यों ख़फ़ा रहें,चर्ख से क्यों ग़िला करें
सारा जहाँ अदू सही,आओ! मुक़ाबला करें ।
इन जोशीली पंक्तियों से उनके शौर्य का अनुमान लगाया जा सकता है। शहीद भगत सिंह सदा ही शेर की तरह जिए। चन्द्रशेखर आजा़द से पहली मुलाकात के समय जलती हुई मोमबती पर हाथ रखकर उन्होंने कसम खायी थी कि उनकी जिन्दगी देश पर ही कुर्बान होगी और उन्होंने अपनी वह कसम पूरी कर दिखायी।

भगतसिंहः--------लाला जी की मृत्यु का प्रतिशोध------

१९२८ में साइमन कमीशन के बहिष्कार के लिये भयानक प्रदर्शन हुए। इन प्रदर्शनों मे भाग लेने वालों पर अंग्रेजी शासन ने लाठी चार्ज भी किया। इसी लाठी चार्ज से आहत होकर लाला लाजपत राय की मृत्यु हो गई। अब इनसे रहा न गया। एक गुप्त योजना के तहत इन्होंने पुलिस सुपरिंटेंडेंट सॉण्डर्स को मारने की सोची। सोची गई योजना के अनुसार भगत सिंह और राजगुरु सॉण्डर्स कोतवाली के सामने व्यस्त मुद्रा में टहलने लगे। उधर बटुकेश्वर दत्त अपनी साइकिल को लेकर ऐसे बैठ गये जैसे कि वो ख़राब हो गई हो । दत्त के इशारे पर दोनों सचेत हो गए। उधर चन्द्रशेखर आज़ाद पास के डी०ए०वी० स्कूल की चहारदीवारी के पास छिपे इनके घटना के अंजाम देने में रक्षक का काम कर रहे थे। सॉण्डर्स के आते ही राजगुरु ने एक गोली सीधी उसके सर में मारी जिसके तुरन्त बाद वह होश खो बैठा। इसके बाद भगत सिंह ने ३-४ गोली दाग कर उसके मरने का पूरा इन्तज़ाम कर दिया। ये दोनों जैसे ही भाग रहे थे कि एक सिपाही चानन सिंह ने इनका पीछा करना शुरू कर दिया। चन्द्रशेखर आज़ाद ने उसे सावधान किया -"आगे बढ़े तो गोली मार दूँगा।" नहीं मानने पर आज़ाद ने उसे गोली मार दी। इस तरह इन लोगों ने लाला लाजपत राय की मौत का बदला ले लिया ।
                                                                                      
एसेम्बली में बम फेंकना-----------------भगत सिंह मूलतः खूनखराबे के पक्षधर नहीं थे। पर वे कार्ल मार्क्स के सिद्धान्तों से प्रभावित अवश्य थे। यही नहीं, वे समाजवाद के पक्के पक्षधर भी थे। इसी कारण से उन्हें पूंजीपतियों की मजदूरों के प्रति शोषण की नीति पसन्द नहीं आती थी। उस समय चूँकि अंग्रेज ही सर्वेसर्वा थे तथा बहुत कम भारतीय उद्योगपति तरक्की कर पाये थे, अतः अंग्रेजों के मजदूरों के प्रति रुख़ से उनका ख़फ़ा होना लाज़िमी था। ऐसी नीतियों के पारित होने को निशाना बनाना उनके दल का निर्णय था। सभी चाहते थे कि अंग्रेजों को पता चले कि हिन्दुस्तानी जाग चुके हैं और उनके हृदय में ऐसी नीतियों के खिलाफ़ क्षोभ है। ऐसा करने के लिये उन लोगों ने दिल्ली की केन्द्रीय एसेम्बली में बम फेंकने की सोची।भगत सिंह चाहते थे कि इसमें कोई खून खराबा न हो तथा अंग्रेजो तक उनकी 'आवाज़' भी पहुँचे। हालांकि उनके दल के सब लोग ऐसा नहीं सोचते थे पर अन्त में सर्वसम्मति से भगत सिंह तथा बटुकेश्वर दत्त का नाम चुना गया। निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार ८ अप्रैल, १९२९ को केन्द्रीय असेम्बली में इन दोनों ने एक ऐसे स्थान पर बम फेंका जहाँ कोई मौजूद न था,अन्यथा उसे चोट लग सकती थी। पूरा हॉल धुएँ से भर गया। वे चाहते तो भाग भी सकते थे पर उन्होंने पहले ही सोच रखा था कि उन्हें फ़ाँसी कबूल है अतः उन्होंने भागने से मना कर दिया। उस समय वे दोनों खाकी कमीज़ तथा निकर पहने थे। बम फटने के बाद उन्होंने इंकलाब-जिन्दाबाद का नारा लगाया और अपने साथ लाये हुए पर्चे हवा में उछाल दिये। इसके कुछ ही देर बाद पुलिस आ गयी और दोनों को ग़िरफ़्तार कर लिया गया।

भगत सिंह जन्म और परिवेश--------

भगत सिंह का जन्म २८ सितंबर, १९०७,शनिवार सुबह ९ बजे लायलपुर ज़िले के बंगा गाँव (चक नम्बर १०५ जो अब पाकिस्तान में है) में हुआ था। हालांकि उनका पैतृक निवास आज भी भारतीय पंजाब के नवाँशहर ज़िले के खटकड़कलाँ गाँव में स्थित है। उनके पिता का नाम सरदार किशन सिंह और माता का नाम विद्यावती कौर था। यह एक सिख परिवार था जिसने आर्य समाज के विचार को अपना लिया था। अमृतसर में १३ अप्रैल, १९१९ को हुए जलियाँवाला बाग हत्याकांड ने भगत सिंह की सोच पर गहरा प्रभाव डाला था। लाहौर के नेशनल कॉलेज़ की पढ़ाई छोड़कर भगत सिंह हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन ऐसोसिएशन नाम के एक क्रान्तिकारी संगठन से जुड़ गए थे। भगत सिंह ने भारत की आज़ादी के लिए नौजवान भारत सभा की स्थापना की थी। इस संगठन का उद्देश्य ‘सेवा,त्याग और पीड़ा झेल सकने वाले’ नवयुवक तैयार करना था। भगत सिंह ने राजगुरु के साथ मिलकर १७ दिसम्बर १९२८ को लाहौर में सहायक पुलिस अधीक्षक रहे अंग्रेज़ अधिकारी जे०पी० सांडर्स को मारा था। इस कार्रवाई में क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर आज़ाद ने भी उनकी सहायता की थी। क्रान्तिकारी साथी बटुकेश्वर दत्त के साथ मिलकर भगत सिंह ने अलीपुर रोड पर स्थित दिल्ली की तत्कालीन सेण्ट्रल एसेम्बली के सभागार में ८ अप्रैल १९२९ को 'अंग्रेज़ सरकार को जगाने के लिये' बम और पर्चे फेंके थे। बम फेंकने के बाद वहीं पर दोनों ने अपनी गिरफ्तारी भी दी।
                                                                                     
इन्क़लाब से ताल्लुक------------- भगतसिंह का यह प्रसिद्ध हुलिया उनके २१वें वर्ष की वास्तविक तस्वीर से कहीं अलग था। फेल्ट हैट व क्लीन शेव वाला रूप उन्होंने गिरफ्तारी से बचने के लिए अपनाया था ।उस समय भगत सिंह करीब १२ वर्ष के थे जब जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड हुआ था। इसकी सूचना मिलते ही भगत सिंह अपने स्कूल से १२ मील पैदल चलकर जलियाँवाला बाग पहुँच गए। इस उम्र में भगत सिंह अपने चाचाओं की क्रान्तिकारी किताबें पढ़ कर सोचते थे कि इनका रास्ता सही है कि नहीं ? गान्धीजी के असहयोग आन्दोलन छिड़ने के बाद वे गान्धीजी के तरीकों और हिंसक आन्दोलन में से अपने लिए रास्ता चुनने लगे। गान्धीजी के असहयोग आन्दोलन को रद्द कर देने कि वजह से उनमें एक रोष (क्रोध) ने जन्म लिया और अन्ततः उन्होंने 'इंकलाब और देश की स्वतन्त्रता के लिए हिंसा' अपनाना अनुचित नहीं समझा। उन्होंने जुलूसों में भाग लेना शुरू किया तथा कई क्रान्तिकारी दलों के सदस्य बने। बाद मे वे अपने दल के प्रमुख क्रान्तिकारियों के प्रतिनिधि बने। उनके दल के प्रमुख क्रान्तिकारियों में चन्द्रशेखर आजाद, भगवतीचरण व्होरा, सुखदेव, राजगुरु इत्यादि थे।

वाकई भगत सिंह को गांधी ने मारा------------?

गांधी जी चाहते तो भगत सिंह को बचा सकते थे...नहीं , बल्कि यूं कहा जाए कि गांधी चाहता तो भगत सिंह को बचा सकता था। भगत को चाहने और ' मानने ' वाले लोगों के बीच यह जुमला काफी इस्तेमाल होता है। हालांकि ऐसा कहने वालों में से अधिकतर नहीं जानते कि ऐसा क्यों कहा जाता है और भगत सिंह को गांधी जी कैसे बचा सकते थे। फिर भी लोग ऐसा कहते हैं। मानते भी हैं।
                                                                               
लेकिन क्या वाकई भगत सिंह को गांधी ने मारा ? भगत ने जेल से कई चिट्ठियां लिखी थीं। उन्हीं में एक में उन्होंने लिखा था कि भगत सिंह मर नहीं सकता। अंग्रेज एक भगत सिंह को फांसी पर लटकाएंगे तो हजारों-लाखों भगत सिंह पैदा होंगे। इसलिए आप लोग इस बात का मलाल मत कीजिए कि अंग्रेज सरकार भगत सिंह को फांसी पर लटकाने जा रही है।
भगत को जब फांसी दी गई , तो वह एक इंसान , एक क्रांतिकारी या एक देशभक्त नहीं थे। वह एक सोच थे , जिसने लोगों के दिल-ओ-दिमाग में घर कर लिया था। वह एक जज्बा थे , जो हर खून में उबाल ले रहा था। वह एक अहसास थे , जिसे उस वक्त हर इंसान जी लेना चाहता था। इसीलिए अंग्रेज भगत सिंह को मार नहीं सके। तो फिर भगत सिंह को किसने मारा ?
भगत सिंह की मौत के लिए गांधी को कोसने वालों ( और नहीं कोसने वालों) के भीतर क्या भगत सिंह नाम की वह सोच , वह जज्बा , वह अहसास जिंदा है ? सरेआम एक प्रफेसर का कत्ल कर दिया जाता है। गवाही देने वालों के लाले पड़ जाते हैं। सैकड़ों लोगों की मौजूदगी में हुई घटना का एक भी गवाह नहीं। क्या वे सब लोग ' अन्याय के खिलाफ लड़ने का आह्वान करने वाले ' भगत सिंह के कातिल नहीं हैं ?
भरी पार्टी में जेसिका लाल का कत्ल होता है। लेकिन कातिल को किसी ने नहीं देखा। क्या वे लोग भगत सिंह के कातिल नहीं हैं ? रेप तो अपराध हो गया , लेकिन चलते लड़कियों को छेड़ने , तानाकशी करने वाले और भीड़ में चोरी से छूने की कोशिश करने वाले लोगों को क्या कहा जाएगा ? क्या वे भगत सिंह के कातिल नहीं हैं ?
करीब-करीब हर रोज हजारों लोगों को इसलिए नीचा देखना पड़ता है क्योंकि वे ' छोटी ' जाति के लोग हैं। ' पांच दलितों को जिंदा जलाया ' खबर का सिर्फ हेडिंग देखकर छोड़ देने वाले हम नौजवान क्या ' समान समाज का सपना ' देखने वाले भगत सिंह के कातिल नहीं हैं ?
मराठी, बिहारी, साउथ इंडियन, नॉर्थ इंडियन, पंजाबी, गुजराती के नाम पर बहस करने वाले क्या उस भगत सिंह के कत्ल में शामिल नहीं हैं, जिसने सारी दुनिया के एक हो जाने का ख्वाब देखा था ?
ये तो बहुत बड़ी-बड़ी बातें हैं। बिना टिकट सफर , ट्रैफिक नियम तोड़ने पर पुलिसवाले को 50-100 रुपये देकर छूटना , लाइन में न लगना पड़े इसलिए किसी की सिफारिश ढूंढना , कोई बड़ा काम आन पड़े तो जुगाड़ ढूंढना , वोट देने से पहले सोचना कि यह हमारी जाति का है या हमारे काम करवाएगा या नहीं वगैरह तो अब अपराध है ही नहीं। क्या इस तरह भगत सिंह कत्ल नहीं होता ?
भगत सिंह तो सब चाहते हैं, लेकिन पड़ोसियों के घर। इस कहावत को सुनकर हंस देने वाला हर आदमी क्या भगत सिंह का कातिल नहीं है ? और उससे भी अहम बात यह है कि जहां-कहीं थोड़ा-बहुत भगत सिंह जिंदा है, उसे बचाने के लिए क्या किया जाए ? आज इस वक्त भगत सिंह को आप क्या संदेश देना चाहेंगे ?

क्या भगत सिंह को फांसी से बचाया जा सकता था..........?

23 मार्च 1931 को 23 वर्षीय क्रांतिकारी भगत सिंह को उनके दो मित्रों सुखदेव व राजगुरु के साथ फांसी पर लटका दिया गया था. उनपर जनरल वांडर्स की हत्या का आरोप था. इतिहासकार आज भी इस सवाल का जवाब खोज रहे हैं कि क्या भगत सिंह को बचाया जा सकता था? क्या गांधीजी ने भगत सिंह को बचाने की सिफारिश नहीं की थी? यदि नहीं तो क्यों?
                                                                               
क्या वे भगत सिंह के तेवरों से दुखी थे, अथवा डर गए थे? ये ऐसे कठीन सवाल हैं जिनका जवाब मिलना मुश्किल है. यह ऐसा विवाद है जिसे कभी सुलझाया नही जा सकता.
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने अपनी किताब "इंडियन स्ट्रगल" मे लिखा कि भगत सिंह को बचाने के लिए गांधीजी पर बहुत दबाव था. और उन्होने इसके लिए प्रयत्न भी किया.
गांधीजी ने 17 फरवरी 1931 से लेकर 4 मार्च 1931 तक वाइसरॉय से कई मुलाकातें की थी और भगत सिंह का मुद्दा भी उठाया था.
पूर्व राष्ट्रपति आर. वेंकटरमन के प्रेस सचीव आर.के. भटनागर लिखते हैं कि कांग्रेस के कराची अधिवेशन के दौरान भी गांधीजी को कई बार यह सवाल पूछा गया था कि वे भगत सिंह को बचाने के लिए क्या कर रहे हैं?
वे कहते - मैं अपनी पूरी कोशिश कर रहा हुँ. मैने 23 मार्च को एक पत्र भी लिखा है. मैने अपनी पूरी जान इसमें लगा दी लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला.
लाहौर षड्यंत्र केस में जब भगत सिंह और राजगुरू तथा सुखदेव को फांसी दी गई तो समूचा भारत सकते में आ गया था. देश विदेश के अखबारों ने इसे सुर्खी बनाया था.
भगत सिंह और उनके साथियों को 24 मार्च को फांसी दी जानी थी पर उससे एक दिन पहले ही उन्हें फांसी दे दी गई. ......सरदार पटेल ने बाद में इस कृत्य की भ्रत्सना करते हुए कहा था कि, "अंग्रेजी कानून के अनुसार भगत सिंह को सांडर्स हत्याकांड में दोषी नहीं ठहराया जा सकता था. फिर भी उसे फांसी दे दी गई.
भगत सिंह एक किवंदती बन चुके थे, और आज भी हैं. उन्होनें कभी कहा था कि शहीदों की मजार पर हर साल मेले लगेंगे....................
दुख की बात है कि अब ऐसा नहीं है.

क्रांतिवीर — शहीद भगतसिंह------


भारत की आजादी के इतिहास को जिन अमर शहीदों के रक्त से लिखा गया है, जिन शूरवीरों के बलिदान ने भारतीय जन-मानस को सर्वाधिक उद्वेलित किया है, जिन्होंने अपनी रणनीति से साम्राज्यवादियों को लोहे के चने चबवाए हैं, जिन्होंने परतन्त्रता की बेड़ियों को छिन्न-भिन्न कर स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त किया है तथा जिन पर जन्मभूमि को गर्व है, उनमें से एक हैं — भगतसिंह।
                                                                          
भगतसिंह का जन्म 28 सितम्बर, 1907 को पंजाब के जिला लायलपुर में बंगा गांव (पाकिस्तान) में हुआ था । भगतसिंह के पिता सरदार किशन सिंह एवं उनके दो चाचा अजीतसिंह तथा स्वर्णसिंह अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ होने के कारण जेल में बन्द थे । यह एक विचित्र संयोग ही था कि जिस दिन भगतसिंह पैदा हुए उनके पिता एवं चाचा को जेल से रिहा किया गया । इस शुभ घड़ी के अवसर पर भगतसिंह के घर में खुशी और भी बढ गई थी । यही सब देखते हुए भगतसिंह की दादी ने बच्चे का नाम भागां वाला (अच्छे भाग्य वाला) रखा । बाद में उन्हें भगतसिंह कहा जाने लगा । एक देशभक्त के परिवार में जन्म लेने के कारण भगतसिंह को देशभक्ति और स्वतंत्रता का पाठ विरासत में पढने क़ो मिल गया था । भगतसिंह जब चार-पांच वर्ष के हुए तो उन्हें गांव के प्राइमरी स्कूल में दाखिला दिलाया गया। वे अपने साथियों में इतने अधिक लोकप्रिय थे कि उनके मित्र उन्हें अनेक बार कन्धों पर बैठाकर घर तक छोड़ने आते थे । भगतसिंह को स्कूल के तंग कमरों मे बैठना अच्छा नहीं लगता था। वे कक्षा छोड़कर खुले मैदानों में घूमने निकल जाते थे । वे खुले मैदानों की तरह ही आजाद होना चाहते थे । प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के पश्चात भगतसिंह को 1916-17 में लाहौर के डीएवी स्कूल में दाखिला दिलाया गया । वहां उनका संपर्क लाला लाजपतराय और अम्बा प्रसाद जैसे देशभक्तों से हुआ । 1919 में रोलेट एक्ट के विरोध में संपूर्ण भारत में प्रदर्शन हो रहे थे और इसी वर्ष 13 अप्रैल को जलियांवाला बाग काण्ड हुआ । इस काण्ड का समाचार सुनकर भगतसिंह लाहौर से अमृतसर पहुंचे । देश पर मर-मिटने वाले शहीदों के प्रति श्रध्दांजलि दी तथा रक्त से भीगी मिट्टी को उन्होंने एक बोतल में रख लिया, जिससे हमेशा यह याद रहे कि उन्हें अपने देश और देशवासियों के अपमान का बदला लेना है । 1920 के महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन से प्रभावित होकर 1921 में भगतसिंह ने स्कूल छोड़ दिया । असहयोग आंदोलन से प्रभावित छात्रों के लिए लाला लाजपतराय ने लाहौर में नेशनल कॉलेज की स्थापना की थी । इसी कॉलेज में भगतसिंह ने भी प्रवेश लिया । पंजाब नेशनल कॉलेज में उनकी देशभक्ति की भावना फलने-फूलने लगी । इसी कॉलेज में ही यशपाल, भगवती चरण, सुखदेव, तीर्थराम, झण्डासिंह आदि क्रांतिकारियों से संपर्क हुआ । कॉलेज में एक नेशनल नाटक क्लब भी था । इसी क्लब के माध्यम से भगतसिंह ने देशभक्तिपूर्ण नाटकों में अभिनय भी किया । ये नाटक थे — राण प्रताप, भारत-दुर्दशा और सम्राट चन्द्रगुप्त। वर्ष 1923 में जब उन्होंने एफ.ए. परीक्षार् उत्तीण की, तब बड़े भाई जगतसिंह की अकाल मृत्यु हो जाने के कारण उनके विवाह की चर्चाएं चलने लगीं । घर के लोग वंश को चलाने के लिए उनका विवाह शीघ्र कर देना चाहते थे । परन्तु भगतसिंह तो भारत मां की बेड़ियों को काट देने के लिए उद्यत थे । विवाह उन्हें अपने मार्ग में बाधा लगी । वे इस चक्कर से बचने के लिए कॉलेज से भाग गए और दिल्ली पहुंचकर दैनिक समाचारपत्र अर्जुन में संवाददाता के रूप में कार्य करने लगे । वर्ष 1924 में उन्होंने कानपुर में दैनिक पत्र प्रताप के संचालक गणेश शंकर विद्यार्थी से भेंट की । इस भेंट के माध्यम से वे बटुकेश्वर दत्त और चन्द्रशेखर आजाद के संपर्क में आए । बटुकेश्वर दत्त से उन्होंने बांग्ला सीखी । हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के सदस्य बने । अब भगतसिंह पूर्ण रूप से क्रांतिकारी कार्यों तथा देश के सेवा कार्यों में संलग्न हो गए थे । जिस समय भगतसिंह का चन्द्रशेखर आजाद से संपर्क हुआ, तब ऐसा प्रतीत होने लगा मानों दो उल्का पिंड, ज्वालामुखी, देशभक्त, आत्मबलिदानी एक हो गए हों । इन दोनों ने मिलकर न केवल अपने क्रांतिकारी दल को मजबूत किया, बल्कि उन्होंने अंग्रेजों के दांत भी खट्टे करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । भगतसिंह ने लाहौर में 1926 में नौजवान भारत सभा का गठन किया । यह सभा धर्मनिरपेक्ष संस्था थी तथा इसके प्रत्येक सदस्य को सौगन्ध लेनी पड़ती थी कि वह देश के हितों को अपनी जाति तथा अपने धर्म के हितों से बढक़र मानेगा । यह सभा हिन्दुओं, मुसलमानों तथा अछूतों के छुआछूत, जात-पात, खान-पान आदि संकीर्ण विचारों को मिटाने के लिए संयुक्त भोजों का आयोजन भी करती थी । परन्तु मई 1930 में इसे गैर-कानूनी घोषित कर दिया गया । 1927 के दिसम्बर महीने में काकोरी केस के संबंध में रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला, राजेन्द्र लाहिड़ी और रोशनसिंह को फांसी दी गई । चन्द्रशेखर आजाद अंग्रेजों के जाल में नहीं फंसे । वे अब भी आजाद ही थे । क्रांतिकारी दल में अस्त-व्यस्तता उत्पन्न हो गई थी । क्रांतिकारी दल की अस्त-व्यस्तता चन्द्रशेखर को खटक रही थी । अत: वे भगतसिंह से मिले । भगतसिंह और आजाद ने दल को पुन: संगठित किया । दल के लिए नए सिरे से अस्त्र-शस्त्र संग्रह किए गए । ब्रिटिश सरकार अब भगतसिंह को किसी भी कीमत पर गिरपऊतार करने के लिए कटिबध्द थी । 1927 में दशहरे वाले दिन एक चाल द्वारा भगतसिंह को गिरपऊतार कर लिया गया । उन पर झूठा मुकदमा चलाया गया । परन्तु वे भगतसिंह पर आरोप साबित नहीं कर पाए । उन्हें भगतसिंह को छोड़ना पड़ा । 8 और 9 सितम्बर, 1928 को क्रांतिकारियों की एक बैठक दिल्ली के फिरोजशाह के खण्डरों में हुई । भगतसिंह के परामर्श पर हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन का नाम बदलकर हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन रखा गया । वर्ष 1919 से लागू शासन सुधार अधिनियमों की जांच के लिए फरवरी 1928 में साइमन कमीशन मुम्बई पहुंचा । जगह-जगह साइमन कमीशन के विरुध्द विरोध प्रकट किया गया । 30 अक्तूबर, 1928 को कमीशन लाहौर पहुंचा । लाला लाजपतराय के नेतृत्व में एक जुलूस कमीशन के विरोध में शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहा था, जिसमें भीड़ बढती जा रही थी । इतने व्यापक विरोध को देखकर सहायक अधीक्षक साण्डर्स जैसे पागल हो गया था, उसने इस शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर लाठी चार्ज किया । लाला लाजपतराय पर लाठी के अनेक वार किए गए । वे खून से लहूलुहान हो गए । भगतसिंह यह सब कुछ अपनी आंखों से देख रहे थे। 17 नवम्बर, 1928 को लालाजी का देहान्त हो गया । भगतसिंह का खून खौल उठा, वे बदला लेने के लिए तत्पर हो गए । लाला लाजपतराय की हत्या का बदला लेने के लिए हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन ने भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव, आजाद और जयगोपाल को यह कार्य सौंपा । इन क्रांतिकारियों ने साण्डर्स को मारकर लालाजी की मौत का बदला लिया। साण्डर्स की हत्या ने भगतसिंह को पूरे देश का लाड़ला नेता बना दिया । इस अवसर पर जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में यह वर्णन किया है – भगतसिंह एक प्रतीक बन गया । साण्डर्स के कत्ल का कार्य तो भुला दिया गया लेकिन चिह्न शेष बना रहा और कुछ ही माह में पंजाब का प्रत्येक गांव और नगर तथा बहुत कुछ उत्तरी भारत उसके नाम से गूंज उठा । उसके बारे में बहुत से गीतों की रचना हुई और इस प्रकार उसे जो लोकप्रियता प्राप्त हुई । वह आश्चर्यचकित कर देने वाली थी । अंग्रेज सरकार से बचने के लिए भगतसिंह ने अपने केश और दाढी क़टवाकर, पैंट पहन कर और सिर पर हैट लगाकर वेश बदलकर, अंग्रेजों की आंखें में धूल झोंकते हुए कलकत्ता पहुंचे । कलकत्ता में कुछ दिन रहने के उपरान्त वे आगरा गए । हिन्दुस्तान समाजवादी गणतंत्र संघ की केन्द्रीय कार्यकारिणी की एक सभा हुई, जिसमें पब्लिक सेपऊटी बिल तथा डिस्प्यूट्स बिल पर चर्चा हुई । इनका विरोध करने के लिए भगतसिंह ने केन्द्रीय असेम्बली में बम फेंकने का प्रस्ताव रखा । साथ ही यह भी कहा कि बम फेंकते समय इस बात का ध्यान रखा जाए कि किसी व्यक्ति के जीवन को कोई हानि न हो । इसके बाद क्रांतिकारी स्वयं को गिरपऊतार करा दे । इस कार्य को करने के लिए भगतसिंह अड़ गए कि वह स्वयं यह कार्य करेंगे । आजाद इसके विरुध्द थे परन्तु विवश होकर आजाद को भगतसिंह का निर्णय स्वीकार करना पड़ा । भगतसिंह के सहयाक बने — बटुकेश्वर दत्त । 8 अप्रैल, 1929 को दोनों निश्चित समय पर असेम्बली में पहुंचे । जैसे ही बिल के पक्ष में निर्णय देने के लिए असेम्बली का अध्यक्ष उठा, भगतसिंह ने एक बम फेंका, फिर दूसरा । दोनों ने नारा लगाया इन्कलाब जिन्दाबाद… साम्राज्यवाद का नाश हो, इसी के साथ अनेक पर्चे भी फेंके, जिनमें अंग्रेजी साम्राजयवाद के प्रति आम जनता का रोष प्रकट किया गया था । बम फेंकने के उपरान्त इन्होंने अपने आपको गिरपऊतार कराया । इनकी गिरपऊतारी के उपरान्त अनेक क्रांतिकारियों को पकड़ लिया गया, जिसमें सुखदेव, जयगोपाल तथा किशोरीलाल शामिल थे । भगतसिंह को यह अच्छी तरह मालूम था कि अब अंग्रेज उनके साथ कैसा सलूक करेंगे ? उन्होंने अपने लिए वकील भी नहीं रखा, बल्कि अपनी आवाज जनता तक पहुंचाने के लिए अपने मुकदमे की पैरवी उन्होंने खुद करने की ठानी । 7 मई, 1929 को भगतसिंह तथा बटुकेश्वर दत्त के विरुध्द न्याय का नाटक शुरू हुआ । भगतसिंह ने 6 जून, 1929 के दिन अपने पक्ष में वक्तव्य दिया, जिसमें भगतसिंह ने स्वतंत्रता, साम्राज्यवाद, क्रांति आदि पर विचार प्रकट किए तथा सर्वप्रथम क्रांतिकारियों के विचार सारी दुनिया के सामने रखे । 12 जून, 1929 को सेशन जज ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 307 तथा विस्फोटक पदार्थ अधिनियम की धारा 3 के अंतर्गत आजीवन कारावास की सजा दी । ये दोनों देशभक्त अपनी बात को और अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाना चाहते थे इसलिए इन्होंने सेशन जज के निर्णय के विरुध्द लाहौर हाइकोर्ट में अपील की । यहां भगतसिंह ने पुन: अपना भाषण दिया । 13 जनवरी, 1930 को हाईकोर्ट ने सेशन जज के निर्णय को मान्य ठहराया । अब अंग्रेज शासकों ने नए तरीके द्वारा भगतसिंह तथा बटुकेश्वर दत्त को फंसाने का निश्चय किया । इनके मुकदमे को ट्रिब्यूनल के हवाले कर दिया । 5 मई, 1930 को पुंछ हाउस, लाहौर में मुकदमे की सुनवाई शुरू की गई । इसी बीच आजाद ने भगतसिंह को जेल से छुड़ाने की योजना भी बनाई, परन्तु 28 मई को भगवतीचरण बोहरा, जो बम का परीक्षण कर रहे थे, घायल हो गए तथा उनकी मृत्यु हो जाने के बाद योजना सफल नहीं हो सकी । अदालत की कार्यवाही लगभग तीन महीने तक चलती रही । 26 अगस्त, 1930 को अदालत का कार्य लगभग पूरा हो गया । अदालत ने भगतसिंह को भारतीय दंड संहिता की धारा 129, 302 तथा विस्फोटक पदार्थ अधिनियम की धारा 4 तथा 6 एफ तथा भारतीय दण्ड संहिता की धारा 120 के अंतर्गत अपराधी सिध्द किया तथा 7 अक्तूबर, 1930 को 68 पृष्ठीय निर्णय दिया, जिसमें भगतसिंह, सुखदेव तथा राजगुरु को फांसी की सजा दी गई । लाहौर में धारा 144 लगा दी गई । इस निर्णय के विरुध्द नवम्बर 1930 में प्रिवी परिषद में अपील दायर की गई परन्तु यह अपील 10 जनवरी, 1931 को रद्द कर दी गई । प्रिवी परिषद में अपील रद्द किए जाने पर न केवल भारत में ही बल्कि विदेशों से भी लोगों ने इसके विरुध्द आवाज उठाई । विभिन्न समाचारपत्रों में भगतसिंह और राजगुरु एवं सुखदेव की फांसी की सजा के विरुध्द अपनी पुरजोर आवाज बुलन्द की । हस्ताक्षर अभियान चलाए गए । यहां तक कि इंग्लैंड की संसद के निचले सदन के कुछ सदस्यों ने भी इस सजा का विरोध किया । पिस्तौल और पुस्तक भगतसिंह के दो परम विश्वसनीय मित्र थे, जेल के बंदी जीवन में जब पिस्तौल छीन ली जाती थी, तब पुस्तकें पढक़र ही वे अपने समय का सदुपयोग करते थे, जेल की काल कोठरी में रहते हुए उन्होंने कुछ पुस्तकें भी लिखी थी — आत्मकथा, दि डोर टू डेथ (मौत के दरवाजे पर), आइडियल ऑफ सोशलिज्म (समाजवाद का आदर्श), स्वाधीनता की लड़ाई में पंजाब का पहला उभार, जेल में पुस्तकें पढते-पढते वे मस्ती में झूम उठते ओर शहीद राम प्रसाद बिस्मिल की यह पंक्तियां गाने लगते – मेरा रंग दे बसंती चोला । इसी रंग में रंग के शिवा ने मां का बंधन खोला ॥ मेरा रंग दे बसंती चोला यही रंग हल्दीघाटी में खुलकर था खेला । नव बसंत में भारत के हित वीरों का यह मेला मेरा रंग दे बसन्ती चोला । फांसी का समय प्रात:काल 24 मार्च, 1931 निर्धारित हुआ था, पर सरकार ने भय के मारे 23 मार्च को सायंकाल 7.33 बजे, उन्हें कानून के विरुध्द एक दिन पहले, प्रात:काल की जगह संध्या समय तीनों देशभक्त क्रांतिकारियों को एक साथ फांसी देने का निश्चय किया । जेल अधीक्षक जब फांसी लगाने के लिए भगतसिंह को लेने उनकी कोठरी में पहुंचा तो उसने कहा , न्न सरदारजी । फांसी का वक्त हो गया है, आप तैयार हो जाइए न्न उस समय भगतसिंह लेनिन के जीवन चरित्र को पढने में तल्लीन थे, उन्होंने कहा, न्न ठहरो । एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल रहा है न्न और फिर वे जेल अधीक्षक के साथ चल दिए । सुखदेव और राजगुरू को भी फांसी स्थल पर लाया गया । भगतसिंह ने अपनी दाईं भुजा राजगुरू की बाईं भुजा में डाल ली और बाईं भुजा सुखदेव की दाईं भुजा में । क्षण भर तीनों रुके और तब वे यह गुनगुनाते हुए फांसी पर झूल गए – दिल से निकलेगी न मर कर भी वतन की उल्पएत मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वतन आएगी परन्तु ब्रिटिश सरकार द्वारा इन देशभक्तों पर किए जाने वाले अत्याचारों का अभी खात्मा नहीं हुआ था । उन्होंने इन शहीदों के मृत शरीर का एक बार फिर अपमान करना चाहा । उन्होंने उनके शरीर को टुकड़ों में विभाजित किया । उनमें अभी भी जेल के मुख्य द्वार से बाहर लाने की हिम्मत नहीं थी । वे शरीर के उन हिस्सों को बोरियों में भरकर रातों-रात चुपचाप फिरोजपुर के पास सतलुज के किनारे जा पहुंचे । मिट्टी का तेल छिड़कर आग ला दी गई । परन्तु यह बात आंधी की तरह फिरोजपुर से लाहौर तक शीघ्र पहुंच गई । अंग्रेजी फौजियों ने जब देखा की हजारों लोग मशालें लिए उनकी ओर आ रहे हैं तो वे वहां से भाग गए, तब देशभक्तों ने उनके शरीर का विधिवत दाह संस्कार किया । भगतसिंह तथा उनके साथियों की शहादत की खबर से सारा देश शोक के सागर में डूब चुका था । मुम्बई, मद्रास तथा कलकत्ता जैसे महानगरों का माहौल चिन्तनीय हो उठा । भारत के ही नहीं विदेशी अखबारों ने भी अंग्रेज सरकार के इस कृत्य की बहुत आलोचनाएं कीं । अंग्रेज शासकों के दिमागों पर भगतसिंह का खौफ इतना छाया हुआ था कि वे उनके चित्रों को भी जब्त करने लगे थे । भगतसिंह की शौहरत से प्रभावित होकर डॉ. पट्टाभिसीतारमैया ने लिखा है — यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि भगतसिंह का नाम भारत में उतना ही लोकप्रिय था, जितना की गांधीजी का । भगतसिंह तथा उनके साथियों को फांसी दिए जाने पर लाहौर के उर्दू दैनिक समाचारपत्र पयाम ने लिखा था — हिन्दुस्तान इन तीनों शहीदों को पूरे ब्रितानिया से ऊंचा समझता है । अगर हम हजारों-लाखों अंग्रेजों को मार भी गिराएं, तो भी हम पूरा बदला नहीं चुका सकते । यह बदला तभी पूरा होगा, अगर तुम हिन्दुस्तान को आजाद करा लो, तभी ब्रितानिया की शान मिट्टी में मिलेगी। ओ....भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव, अंग्रेज खुश हैं कि उन्होंने तुम्हारा खून कर दिया । लेकिन वो गलती पर हैं । उन्होंने तुम्हारा खून नहीं किया, उन्होंने अपने ही भविष्य में छुरा घोंपा है । तुम जिन्दा हो और हमेशा जिन्दा रहोगे ।

नवरात्र और नव दुर्गा की आराधना----

जिस प्रकार सृष्टि या संसार का सृजन ब्रह्मांड के गहन अंधकार के गर्भ से नवग्रहों के रूप में हुआ , उसी प्रकार मनुष्य जीवन का सृजन भी माता के गर्भ में ही नौ महीने के अन्तराल में होता है। मानव योनि के लिए गर्भ के यह नौ महीने नव रात्रों के समान होते हैं , जिसमें आत्मा मानव शरीर धारण करती है।
नवरात्र का अर्थ शिव और शक्ति के उस नौ दुर्गाओं के स्वरूप से भी है , जिन्होंने आदिकाल से ही इस संसार को जीवन प्रदायिनी ऊर्जा प्रदान की है और प्रकृति तथा सृष्टि के निर्माण में मातृशक्ति और स्त्री शक्ति की प्रधानता को सिद्ध किया है। दुर्गा माता स्वयं सिंह वाहिनी होकर अपने शरीर में नव दुर्गाओं के अलग-अलग स्वरूप को समाहित किए हुए है।
शारदीय नवरात्र में इन सभी नव दुर्गाओं को प्रतिपदा से लेकर नवमी तक पूजा जाता है। इन नव दुर्गाओं के स्वरूप की चर्चा महर्षि मार्कण्डेय को ब्रह्मा जी द्वारा इस क्रम के अनुसार संबोधित किया है।
प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी।
तृतीयं चन्द्रघंटेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम् ।।
पंचमं स्क्न्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च ।
सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम् ।।
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गाः प्रकीर्तिताः ।।
                                                                                  
प्रथम दुर्गा शैलपुत्री : पर्वतराज हिमालय की पुत्री पार्वती के स्वरूप में साक्षात शैलपुत्री की पूजा देवी के मंडपों में प्रथम नवरात्र के दिन होती है। इसके एक हाथ में त्रिशूल , दूसरे हाथ में कमल का पुष्प है। यह नंदी नामक वृषभ पर सवार संपूर्ण हिमालय पर विराजमान है। शैलराज हिमालय की कन्या होने के कारण नवदुर्गा का सर्वप्रथम स्वरूप शैलपुत्री कहलाया है। यह वृषभ वाहन शिवा का ही स्वरूप है। घोर तपस्चर्या करने वाली शैलपुत्री समस्त वन्य जीव जंतुओं की रक्षक भी हैं। शैलपुत्री के अधीन वे समस्त भक्तगण आते हैं , जो योग साधना तप और अनुष्ठान के लिए पर्वतराज हिमालय की शरण लेते हैं। जम्मू - कश्मीर से लेकर हिमांचल पूर्वांचल नेपाल और पूर्वोत्तर पर्वतों में शैलपुत्री का वर्चस्व रहता है। आज भी भारत के उत्तरी प्रांतों में जहां-जहां भी हल्की और दुर्गम स्थली की आबादी है , वहां पर शैलपुत्री के मंदिरों की पहले स्थापना की जाती है , उसके बाद वह स्थान हमेशा के लिए सुरक्षित मान लिया जाता है ! कुछ अंतराल के बाद बीहड़ से बीहड़ स्थान भी शैलपुत्री की स्थापना के बाद एक सम्पन्न स्थल बल जाता है।
द्वितीय ब्रह्मचारिणी : नवदुर्गाओं में दूसरी दुर्गा का नाम ब्रह्मचारिणी है। इसकी पूजा-अर्चना द्वितीया तिथि के दौरान की जाती है। सच्चिदानंदमय ब्रह्मस्वरूप की प्राप्ति कराना आदि विद्याओं की ज्ञाता ब्रह्मचारिणी इस लोक के समस्त चर और अचर जगत की विद्याओं की ज्ञाता है। इसका स्वरूप सफेद वस्त्र में लिपटी हुई कन्या के रूप में है , जिसके एक हाथ में अष्टदल की माला और दूसरे हाथ में कमंडल विराजमान है। यह अक्षयमाला और कमंडल धारिणी ब्रह्मचारिणी नामक दुर्गा शास्त्रों के ज्ञान और निगमागम तंत्र-मंत्र आदि से संयुक्त है। अपने भक्तों को यह अपनी सर्वज्ञ संपन्नन विद्या देकर विजयी बनाती है ।
तृतीय चन्द्रघंटा : शक्ति के रूप में विराजमान चन्द्रघंटा मस्तक पर चंद्रमा को धारण किए हुए है। नवरात्र के तीसरे दिन इनकी पूजा-अर्चना भक्तों को जन्म जन्मांतर के कष्टों से मुक्त कर इहलोक और परलोक में कल्याण प्रदान करती है। देवी स्वरूप चंद्रघंटा बाघ की सवारी करती है। इसके दस हाथों में कमल , धनुष-बाण , कमंडल , तलवार , त्रिशूल और गदा जैसे अस्त्र हैं। इसके कंठ में सफेद पुष्प की माला और रत्नजड़ित मुकुट शीर्ष पर विराजमान है। अपने दोनों हाथों से यह साधकों को चिरायु आरोग्य और सुख सम्पदा का वरदान देती है।
चतुर्थ कूष्मांडा : त्रिविध तापयुत संसार में कुत्सित ऊष्मा को हरने वाली देवी के उदर में पिंड और ब्रह्मांड के समस्त जठर और अग्नि का स्वरूप समाहित है। कूष्माण्डा देवी ही ब्रह्मांड से पिण्ड को उत्पन्न करने वाली दुर्गा कहलाती है। दुर्गा माता का यह चौथा स्वरूप है। इसलिए नवरात्रि में चतुर्थी तिथि को इनकी पूजा होती है। लौकिक स्वरूप में यह बाघ की सवारी करती हुई अष्टभुजाधारी मस्तक पर रत्नजड़ित स्वर्ण मुकुट वाली एक हाथ में कमंडल और दूसरे हाथ में कलश लिए हुए उज्जवल स्वरूप की दुर्गा है। इसके अन्य हाथों में कमल , सुदर्शन , चक्र , गदा , धनुष-बाण और अक्षमाला विराजमान है। इन सब उपकरणों को धारण करने वाली कूष्मांडा अपने भक्तों को रोग शोक और विनाश से मुक्त करके आयु यश बल और बुद्धि प्रदान करती है।
पंचम स्कन्दमाता : श्रुति और समृद्धि से युक्त छान्दोग्य उपनिषद के प्रवर्तक सनत्कुमार की माता भगवती का नाम स्कन्द है। अतः उनकी माता होने से कल्याणकारी शक्ति की अधिष्ठात्री देवी को पांचवीं दुर्गा स्कन्दमाता के रूप में पूजा जाता है। नवरात्रि में इसकी पूजा-अर्चना का विशेष विधान है। अपने सांसारिक स्वरूप में यह देवी सिंह की सवारी पर विराजमान है तथा चतुर्भज इस दुर्गा का स्वरूप दोनों हाथों में कमलदल लिए हुए और एक हाथ से अपनी गोद में ब्रह्मस्वरूप सनत्कुमार को थामे हुए है। यह दुर्गा समस्त ज्ञान-विज्ञान , धर्म-कर्म और कृषि उद्योग सहित पंच आवरणों से समाहित विद्यावाहिनी दुर्गा भी कहलाती है।
षष्टम कात्यायनी : यह दुर्गा देवताओं के और ऋषियों के कार्यों को सिद्ध करने लिए महर्षि कात्यायन के आश्रम में प्रकट हुई महर्षि ने उन्हें अपनी कन्या के स्वरूप पालन पोषण किया साक्षात दुर्गा स्वरूप इस छठी देवी का नाम कात्यायनी पड़ गया। यह दानवों और असुरों तथा पापी जीवधारियों का नाश करने वाली देवी भी कहलाती है। वैदिक युग में यह ऋषिमुनियों को कष्ट देने वाले प्राणघातक दानवों को अपने तेज से ही नष्ट कर देती थी। सांसारिक स्वरूप में यह शेर यानी सिंह पर सवार चार भुजाओं वाली सुसज्जित आभा मंडल युक्त देवी कहलाती है। इसके बाएं हाथ में कमल और तलवार दाहिने हाथ में स्वस्तिक और आशीर्वाद की मुद्रा अंकित है।
सप्तम कालरात्रि : अपने महाविनाशक गुणों से शत्रु एवं दुष्ट लोगों का संहार करने वाली सातवीं दुर्गा का नाम कालरात्रि है। विनाशिका होने के कारण इसका नाम कालरात्रि पड़ गया। आकृति और सांसारिक स्वरूप में यह कालिका का अवतार यानी काले रंग रूप की अपनी विशाल केश राशि को फैलाकर चार भुजाओं वाली दुर्गा है , जो वर्ण और वेश में अर्द्धनारीश्वर शिव की तांडव मुद्रा में नजर आती है। इसकी आंखों से अग्नि की वर्षा होती है। एक हाथ से शत्रुओं की गर्दन पकड़कर दूसरे हाथ में खड़क तलवार से युद्ध स्थल में उनका नाश करने वाली कालरात्रि सचमुच ही अपने विकट रूप में नजर आती है। इसकी सवारी गंधर्व यानी गधा है , जो समस्त जीवजंतुओं में सबसे अधिक परिश्रमी और निर्भय होकर अपनी अधिष्ठात्री देवी कालरात्रि को लेकर इस संसार में विचरण कर रहा है। कालरात्रि की पूजा नवरात्र के सातवें दिन की जाती है। इसे कराली भयंकरी कृष्णा और काली माता का स्वरूप भी प्रदान है , लेकिन भक्तों पर उनकी असीम कृपा रहती है और उन्हें वह हर तरफ से रक्षा ही प्रदान करती है।
अष्टम महागौरी : नवरात्र के आठवें दिन आठवीं दुर्गा महागौरी की पूजा-अर्चना और स्थापना की जाती है। अपनी तपस्या के द्वारा इन्होंने गौर वर्ण प्राप्त किया था। अतः इन्हें उज्जवल स्वरूप की महागौरी धन , ऐश्वर्य , पदायिनी , चैतन्यमयी , त्रैलोक्य पूज्य मंगला शारिरिक , मानसिक और सांसारिक ताप का हरण करने वाली माता महागौरी का नाम दिया गया है। उत्पत्ति के समय यह आठ वर्ष की आयु की होने के कारण नवरात्र के आठवें दिन पूजने से सदा सुख और शान्ति देती है। अपने भक्तों के लिए यह अन्नपूर्णा स्वरूप है। इसीलिए इसके भक्त अष्टमी के दिन कन्याओं का पूजन और सम्मान करते हुए महागौरी की कृपा प्राप्त करते हैं। यह धन-वैभव और सुख-शान्ति की अधिष्ठात्री देवी है। सांसारिक रूप में इसका स्वरूप बहुत ही उज्जवल , कोमल , सफेदवर्ण तथा सफेद वस्त्रधारी चतुर्भुज युक्त एक हाथ में त्रिशूल , दूसरे हाथ में डमरू लिए हुए गायन संगीत की प्रिय देवी है , जो सफेद वृषभ यानि बैल पर सवार है।
नवम सिद्धिदात्री : नवदुर्गाओं में सबसे श्रेष्ठ और सिद्धि और मोक्ष देने वाली दुर्गा को सिद्धिदात्री कहा जाता है। यह देवी भगवान विष्णु की प्रियतमा लक्ष्मी के समान कमल के आसन पर विराजमान है और हाथों में कमल शंख गदा सुदर्शन चक्र धारण किए हुए है। देव यक्ष किन्नर दानव ऋषि-मुनि साधक विप्र और संसारी जन सिद्धिदात्री की पूजा नवरात्र के नवें दिन करके अपनी जीवन में यश बल और धन की प्राप्ति करते हैं। सिद्धिदात्री देवी उन सभी महाविद्याओं की अष्ट सिद्धियां भी प्रदान करती हैं , जो सच्चे हृदय से उनके लिए आराधना करता है। नवें दिन सिद्धिदात्री की पूजा उपासना करने के लिए नवाहन का प्रसाद और नवरस युक्त भोजन तथा नौ प्रकार के फल-फूल आदि का अर्पण करके जो भक्त नवरात्र का समापन करते हैं , उनको इस संसार में धर्म , अर्थ , काम और मोक्ष की प्राप्ति होती है। सिद्धिदात्री देवी सरस्वती का भी स्वरूप है , जो सफेद वस्त्रालंकार से युक्त महा ज्ञान और मधुर स्वर से अपने भक्तों को सम्मोहित करती है। नवें दिन सभी नवदुर्गाओं के सांसारिक स्वरूप को विसर्जन की परम्परा भी गंगा , नर्मदा , कावेरी या समुद्र जल में विसर्जित करने की परम्परा भी है। नवदुर्गा के स्वरूप में साक्षात पार्वती और भगवती विघ्नविनाशक गणपति को भी सम्मानित किया जाता है।

श्री दुर्गा माता जी के प्रसिद्ध मंदिर---


देवी भागवत पुराण में 108, कालिकापुराण में छब्बीस, शिवचरित्र में इक्यावन, दुर्गा सप्तशती और तंत्रचूड़ामणि में शक्ति पीठों की संख्या 52 बताई गई है। साधारत: 51 शक्ति पीठ माने जाते हैं। लेकिन हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं वर्तमान में माँ दुर्गा के प्रसिद्ध मंदि‍रों की जानकारी।
1.दाक्षायनी (मानस)---
तिब्बत स्थित कैलाश मानसरोवर के मानसा के निकट एक पाषाण शिला पर माता का दायाँ हाथ गिरा था। यहीं पर माता साक्षात विराजमान हैं। यह माता का मुख्य स्थान है।
2.माँ वैष्णोदेवी----
भारतीय राज्य जम्मू और कश्मीर के जम्मू के पास कटरा से माता वैष्णोदेवी के दर्शनार्थ यात्रा शुरू होती है। कटरा जम्मू से 50 किलोमीटर दूर है। कटरा से पहाड़ी लगभग 14 किमी की पर्वतीय श्रृंखला की सबसे ऊँची चोटी पर विराजमान है माँ वैष्णोदेवी। यहाँ देशभर से लाखों भक्त दर्शन के लिए आते हैं।
3.मनसादेवी----
भारतीय राज्य उत्तरप्रदेश के हरिद्वार शहर में शक्ति त्रिकोण है। इसके एक कोने पर नीलपर्वत पर स्थित भगवती देवी चंडी का प्रसिद्ध स्थान है। दूसरे पर दक्षेश्वर स्थान वाली पार्वती। कहते हैं कि यहीं पर सती योग अग्नि में भस्म हुई थीं और तीसरे पर बिल्वपर्वतवासिनी मनसादेवी विराजमान हैं।
मनसादेवी को दुर्गा माता का ही रूप माना जाता है। शिवालिक पहाड़ पर स्थित इस मंदिर पर देश-विदेश से हजारों भक्त आकर पूजा-अर्चना करते हैं। यह मंदिर बहुत जाग्रत है।
4.पावागढ़-काली माता-------
गुजरात की प्राचीन राजधानी चंपारण के पास वडोदरा शहर से लगभग 50 किलोमीटर दूर पावागढ़ की पहाड़ी की चोटी पर स्थित है माँ काली का मंदिर। काली माता का यह प्रसिद्ध मंदिर माँ के शक्तिपीठों में से एक है। माना जाता है कि पावागढ़ में माँ के वक्षस्थल गिरे थे।
                                                                         
5.नयना देवी-----
कुमाऊँ क्षेत्र के नैनीताल की सुरम्य घाटियों में पर्वत पर एक बड़ी-सी झील त्रिऋषिसरोवर अर्थात अत्रि, पुलस्त्य तथा पुलह की साधना स्थली के समीप मल्लीताल वाले किनारे पर नयना देवी का भव्य मंदिर है। प्राचीन मंदिर तो पहाड़ के फूटने से दब गया, लेकिन उसी के पास स्थित है यह मंदिर।
6.शारदा मैया-----
भारतीय राज्य मैहर (मैयर) नगर की पहाड़ी पर माता शारदा का प्राचीन मंदिर है जिसे आला और उदल की इष्टदेवी कहा जाता है। यह मंदिर बहुत जागृत एवं चमत्कारिक माना जाता है। कहते हैं कि रात को आला-उदल आकर माता की आरती करते हैं जिसकी आवाज ‍नीचे तक सुनाई देती है।
7.कालका माता-----
भारतीय राज्य बंगाल के कोलकाता शहर के हावड़ा स्टेशन से पाँच मील दूर भागीरथी के आदि स्रोत पर कालीघाट नामक स्थान पर कालीकाजी का मंदिर है। रामकृष्ण परमहंस यहीं पर साधना करते थे। यह बहुत ही जाग्रत शक्तिपीठ है।
8.ज्वालामुखी-----
भारत के हिमाचल प्रदेश के काँगड़ा में जहाँ माता की जीभ गिरी थी उसे ज्वालाजी स्थान कहते हैं। इस स्थान से आदिकाल से ही पृथ्वी के भीतर से कई अग्निशिखाएँ निकल रही हैं। यह बहुत ही जाग्रत स्थान है।
9.भवानी माता------
महाराष्ट्र के पूना में भगवती के दो मंदिर हैं पहला पार्वती का प्रसिद्ध मंदिर दूसरा प्रतापगढ़ नामक स्थान पर भगवती भवानी का मंदिर। भवानी माता छत्रपति शिवाजी महाराज की इष्टदेवी हैं।
10.तुलजा भवानी-----
महाराष्ट्र के उस्मानाबाद जिले में स्थित है तुलजापुर। एक ऐसा स्थान जहाँ छत्रपति शिवाजी की कुलदेवी माँ तुलजा भवानी स्थापित हैं, जो आज भी महाराष्ट्र व अन्य राज्यों के कई निवासियों की कुलदेवी के रूप में प्रचलित हैं। तुलजा माता का यह प्रमुख मंदिर है। इंदौर के पास देवास की टेकरी पर भी तुलजा भवानी का प्रसिद्ध मंदिर है।
11.माँ चामुंडा देवी------
चामुंडा माता के मंदिर कई हैं किंतु हिमाचल के धर्मशाला से 15 किमी पर स्थित बंकर नदी के किनारे बहुत ही प्राचीन मंदिर स्थित है। इसके अलावा राजस्थान में जोधपुर के मेहरानगढ़ किले पर स्थित चामुंडा माता का मंदिर भी प्रख्यात है। इंदौर के पास देवास की पहाड़ी पर भी माँ चामुंडा का प्रसिद्ध मंदिर है।
12.अम्बाजी मंदिर ---------
गुजरात का अम्बाजी मंदिर बहुत ही प्रसिद्ध है। अम्बाजी मंदिर गुजरात और राजस्थान की सीमा से लगा हुआ है। माउंट आबू से 45 किलोमीटर दूरी पर स्थित है अम्बा माता का मंदिर जहाँ लाखों भक्त आते हैं।
13.अर्बुदा देवी-------
भारतीय राज्य राजस्थान के सिरोही जिले में स्थित नीलगिरि की पहाड़ियों की सबसे ऊँची चोटी पर बसे माउंट आबू पर्वत पर स्थित अर्बुदा देवी के मंदिर को 51 प्रधान शक्ति पीठों में गिना जाता है।
14 देवास माता टेकरी----------
मध्यप्रदेश के इंदौर शहर के पास स्थित जिला देवास की टेकरी पर स्थित माँ भवानी का यह मंदिर काफी प्रसिद्ध है। लोक मान्यता है कि यहाँ देवी माँ के दो स्वरूप अपनी जाग्रत अवस्था में हैं। इन दोनों स्वरूपों को छोटी माँ और बड़ी माँ के नाम से जाना जाता है। बड़ी माँ को तुलजा भवानी और छोटी माँ को चामुण्डा देवी का स्वरूप माना गया है।
15. बिजासन टेकरी-------
मध्यप्रदेश की व्यावसायिक नगरी इंदौर में बिजासन माता की प्रसिद्धि भी दूर दूर तक है। वैष्णोदेवी की मूर्तियों के समान यहाँ भी माँ की पाषाण पिंडियाँ हैं। यह मंदिर इंदौर एयरपोर्ट से कुछ ही दूरी पर स्थित है।
16.गढ़ कालिका-हरसिद्धि
भारत के मध्यप्रदेश राज्य के नगर उज्जैन में महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर के समीप शिप्रा नदी के तट पर हरसिद्धि माता का मंदिर है जो राजा विक्रमादित्य की कुलदेवी हैं। उज्जैन के कालीघाट स्थित कालिका माता का यहाँ बहुत ही प्राचीन मंदिर है, जिसे गढ़ कालिका के नाम से जाना जाता है। इसे कालिदास की इष्टदेवी माना जाता है।
17.मुम्बादेवी------------
महाराष्ट्र के प्रमुख महानगर मुंबई की मुम्बादेवी, कालबादेवी और महालक्ष्मी का मंदिर प्रसिद्ध है। महालक्ष्मी का मंदिर समुद्र तट पर, मुम्बादेवी के समीप तालाब है और कालादेवी का मंदिर अति प्राचीन माना जाता है।
18.सप्तश्रृंगी देवी----------
सप्तश्रृंगी देवी नासिक से करीब 65 किलोमीटर की दूरी पर 4800 फुट ऊँचे सप्तश्रृंग पर्वत पर विराजित हैं। सह्याद्री की पर्वत श्रृंखला के सात शिखर का प्रदेश यानी सप्तश्रृंग पर्वत, जहाँ एक तरफ गहरी खाई और दूसरी ओर ऊँचे पहाड़ पर हरियाली है। इसे अर्धशक्तिपीठ माना जाता है।
19.माँ मनुदेवी----------
महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश राज्यों को अलग करने वाला सतपुड़ा पर्वत श्रृंखलाओं की ‍वादियों में बसा हुआ है। यहाँ खानदेशवासियों की श्रीक्षेत्र कुलदेवी मनुदेवी का मंदिर। भुसावल से यावल 20 किमी की दूरी पर है। यावल से कुछ ही दूर आड़गाव में मनुदेवी का स्थान है।
20.त्रिशक्ति पीठम---------
श्रीकाली माता अमरावती देवस्थानम। इस पवित्र स्थान को त्रिशक्ति पीठम के नाम से भी जाना जाता है। आंध्रप्रदेश के विजयवाड़ा के गिने-चुने मंदिरों में से एक कृष्णावेणी नदी के तट पर बसा यह पवित्र मंदिर बेहद अलौकिक है।
21.आट्टुकाल भगवती----------
केरल के तिरुवनंतपुरम शहर में स्थित आट्टुकाल भगवती मंदिर की प्रसिद्धि पूरे दक्षिण भारत में है। पराशक्ति जगदम्बा केरल की राजधानी तिरुवनंतपुरम शहर की दक्षिण-पूर्व दिशा में आट्टुकाल नामक गाँव में भक्तजनों को मंगल आशीष देते हुए विराजती हैं।
22.श्रीलयराई देवी--------
गोवा प्रांत के गाँव में श्रीलयराई देवी का स्थान बहुत ही प्राचीन और प्रसिद्ध है। नवरात्र में यहाँ पूरे गाँव के लोग अंगारे पर बहुत ही सहजता से चलते हैं और उन्हें कुछ नहीं होता।
23. कामाख्या-------
भारतीय राज्य असम में गुवाहाटी से दो मिल दूर पश्चिम में ‍नीलगिरि पर्वत पर स्थित सिद्धि पीठ को कामाख्या या कामाक्षा पीठ कहते हैं। कालिका पुराण में इसका उल्लेख मिलता है।
24.गुह्म कालिका----
नेपाल के काठमांडू स्थित पशुपतिनाथ मंदिर से कुछ ही दूर स्थित वागमती नदी के गुह्मेश्वरीघाट पर माता गुह्मेश्वरी का मंदिर है। नेपाल के राजा की कुल देवी माता के दर्शन के लिए दूर-दूर से लोग आते हैं।
25.महाकाली--------
काशी में शक्ति का त्रिकोण है उसके कोनों पर क्रमश: दुर्गाजी (महाकाली), महालक्ष्मी तथा वागीश्वरी (महासरस्वती) विराजमान हैं। काशीक्षेत्र स्थित इसी स्थान को शक्तिपीठ कहा जाता है।
26.कौशिकी देवी--------
भारत के उत्तरांचल राज्य में काषाय पर्वतपर स्थित अल्मोड़ा नगर से आठ मील दूर कौशिकी देवी का स्थान है। दुर्गा सप्तशती के पाँचवें अध्याय में इसका उल्लेख मिलता है।
27.सातमात्रा-----
ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर से तीन मील पूर्व में नर्मादा के तट पर महत्वपूर्ण 'सातमात्रा' शक्तिपीठ स्‍थित है जिसे सप्तमात्रा भी कहा जाता है। दुर्गा सप्तशती में इसकी उत्पत्ति के बारे में उल्लेख मिलता है।
28.कालका-----
देहली-शिमला रोड पर कालका नामक जंक्शन है। यहीं पर भगवती कालिका का प्रा‍चीन मंदिर है। दुर्गा सप्तशती में इसका उल्लेख मिलता है।
29. नगरकोट की देवी----------
काँगड़ा पठानकोट-योगीन्द्रनगर लाइन पर एक स्टेशन है। यहाँ भगवती विद्येश्वरी का बहुत ही प्राचीन मंदिर है। इसको नगरकोट की देवी भी कहते हैं।
30. चित्तौड़-------
चित्तौड़ के दुर्ग के अंदर भगवती कालिका का प्राचीन मंदिर है। दुर्ग में तुलजा भवानी तथा अन्नपूर्णा के मंदिर भी हैं।
31.भगवती पटेश्वरी--------
भगवती पटेश्वरी मंदिर की स्थापना महाभारत काल में राजा कर्ण द्वारा हुई थी। सम्राट विक्रमादित्य ने इसका जीर्णोद्धार किया था। यह नाथ सम्प्रदाय के साधुओं का स्थान है।
32.योगमाया-कालिका
यहाँ दो शक्तिपीठ माने गए हैं। पहला कुतुबमीनार के पास योगमाया का मंदिर और दूसरा यहाँ से लगभग सात मील पर ओखला नामक ग्राम में कालिका का मंदिर है।
33. पठानकोट---------
पठानकोट का प्राचीन नाम पथकोट था, क्योंकि यहाँ प्राचीनकाल से ही बड़ी-बड़ी सड़कें थीं। यहीं पर जो कोट अर्थात किला है वहीं पथकोट की देवी (पठानकोट की देवी) का स्थान है। त्रिगर्त पर्वतीय क्षेत्र में इस देवी की आराधना प्राचीनकाल से ही होती आ रही है।
34.ललिता देवी---------
इलाहबाद के कड़ा नामक स्थान पर कड़े की देवी विशेष रूप से प्रसिद्ध है। इसके अलावा संगम तट पर ललिता देवी का प्रसिद्ध शक्तिपीठ है।
35.पूर्णागिरि-----
पुण्यागिरि या पूर्णागिरि स्थान अल्मोड़ा जिले के पीलीभीत मार्ग पर टनकपुर से आठ सौ मील पर नेपाल की सरहद पर शारदानदी के किनारे है। आसपास जंगल और बीच में पर्वत पर विराजमान हैं भगवती दुर्गा। इसे शक्तिपीठों में गिना जाता है।
36.माता कुडि़या-------
मद्रास (चेन्नई) नगर के साहूकारपेठ में सुप्रसिद्ध माता कुडि़या का मंदिर है। यहाँ कण्डे की आँच से मीठा चावल पकाकर देवी को भोग लगाया जाता है।
37.देवी चामुंडा--------
मैसूर की अधिष्ठात्री देवी चामुंडा हैं। मैसूर से लगी विशाल पहाड़ियों पर माता का स्थान है। चामुंडा को यहाँ भेरुण्डा भी कहते हैं।
38.विन्ध्याचल-------
कंस के हाथ से छूटकर जिन्होंने भविष्यवाणी की थी वही श्रीविन्ध्यवासिनी हैं। यहीं पर भगवती ने शुंभ और निशुंभ को मारा था। इस क्षेत्र में शक्ति त्रिकोण है। क्रमश: विन्ध्यवासिनी (महालक्ष्मी), कालीखोह की काली (महाकाली) तथा पर्वत पर की अष्टभुजा (महासरस्वती) विराजमान हैं।
39.तारादेवी-------
यह प्रदेश भी एक प्रसिद्ध शक्ति स्थल है। तारादेवी नामक स्टेशन के पास तारा का प्राचीन स्थान है और कण्डाघाट स्टेशन के पास ही देवी का प्राचीन मंदिर है।

अमेरिका, पाक के रिश्ते बिगाड़ता ‘हक्कानी’ आखिर है क्या?

अमेरिका और पाकिस्तान के रिश्ते अबतक के सबसे तल्ख दौर में पहुंच गए है और दोनों राष्ट्रों के बीच आई इस तल्खी का सबसे बड़ा कारण बना है 12000 प्रशिक्षित लड़ाके वाला आतंकवादी संगठन 'हक्कानी नेटवर्क'।अमेरिका ने हाल ही में आरोप लगाया है कि हक्कानी नेटवर्क को पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी इंटर सर्विसेज इंटेलिजेंस (आईएसआई) का संरक्षण प्राप्त है। इतना ही नहीं अमेरिका ने यहां तक कह दिया कि अगर पाकिस्तान इस आतंकवादी संगठन के खिलाफ कार्रवाई नहीं करता है तो वह एकतरफा कार्रवाई को बाध्य हो जाएगा।
पाकिस्तान ने भी अमेरिका को जवाब देने में देरी नहीं की और अमेरिकी रुख का उसने कड़ा विरोध किया। पाकिस्तान ने उसके आरोपों को यह कहते हुए खारिज किया है कि हक्कानी नेटवर्क अमेरिका की केंद्रीय खुफिया एजेंसी (सीआईए) का कई सालों तक चहेता रहा था।पिछले दिनों काबुल में अमेरिकी दूतावास पर हमले के लिए जिम्मेदार माने जा रहे हक्कानी नेटवर्क को लेकर अमेरिका और पाकिस्तान के बीच जारी आरोप-प्रत्यारोप के दौर ने दोनों देशों के रिश्तों में अब तक की सबसे बड़ी कड़वाहट ला दी है। आइए जानते हैं इस कड़वाहट की सबसे बड़ी वजह बने हक्कानी नेटवर्क के बारे में कि आखिर क्या है यह, कैसे इसकी उत्पत्ति हुई, कौन इसका मुखिया है और वह कहां और कैसे काम करता है।
हक्कानी नेटवर्क की मजूबती ----पाकिस्तान और अफगानिस्तान की सीमा के दोनों ओर के कबायली इलाकों को हक्कानी नेटवर्क का गढ़ माना जाता है। उत्तरी वजीरिस्तान कभी इसका मुख्य केंद्र हुआ करता था लेकिन अमेरिका और उत्तर अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) के लगातार हो रहे ड्रोन हमलों के कारण इस आतंकवादी संगठन ने अन्य कबायली इलाकों को अपना पनाहगाह बना लिया है।इस आतंकवादी संगठन का जनक मौलवी जलालुद्दीन हक्कानी है और उसी के नाम पर संगठन का नाम हक्कानी नेटवर्क रखा गया है। जलालुद्दीन हक्कानी कबायली जनजाति 'जदरान' से आता है। उसका जन्म अफगानिस्तान के पाकतिया प्रांत के गर्दा त्सेरे जिले के श्रानी में हुआ था। कहा जाता है उसकी दो पत्नियां हैं। पहली पत्नी खोस्त की जदरान कबायली है जबकि दूसरी अरब की है। इस वजह से उसका अरब और पश्तून के आंतकवादियों में अच्छी पैठ है। पश्तून में उसे लोगों का समर्थन मिलता है तो अरब से धन।सोवियत रूस द्वारा अफगानिस्तान पर कब्जा जमाने के दौर में हक्कानी जिहाद से जुड़ा और 90 के दशक में वह अलकायदा के बेहद करीब आ गया। 1990 में मुल्ला उमर के नेतृत्व वाला तालिबान जब उभरा तो हक्कानी ने पहले तो उससे दूरी बनाई लेकिन बाद में उसने उसका दामन थाम लिया।वर्ष 2001 में अमेरिकी हमले के बाद जब मुल्ला उमर की सरकार का पतन हो गया तब हक्कानी फिर से उत्तरी वजीरिस्तान पहुंचा और उसने फिर से अपने लोगों को साथ जोड़ा और नाटो के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया।नाटो के खिलाफ जंग में हक्कानी ने अपने परिवार के कई सदस्यों के जान गंवाए। उसने अपने दो बेटों, एक पत्नी, कम से कम आठ पोतों, एक बहन और बहनोई को ड्रोन हमलों में खोया है।
हक्कानी पर 50 लाख डॉलर का इनाम ------हक्कानी अब अपने नेटवर्क का आध्यात्मिक नेता की भूमिका में आ गया है। वह लोगों को जिहाद के लिए संगठन से जुड़ने के लिए प्रेरित करता है जबकि हक्कानी नेटवर्क की कमान उसके बेटे सिराजुद्दीन हक्कानी ने सम्भाल ली है। वह अपने लोगों के बीच खलीफा के नाम से मशहूर है। सिराजुद्दीन अब अमेरिका के मोस्ट वांटेड सूची में शीर्ष पर है। अमेरिका ने उसके ऊपर 50 लाख डॉलर का इनाम रखा है।संगठन की आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम देने की कमान सिराजुद्दीन के भाई बदरूद्दीन ने सम्भाली हुई है। अमेरिकी विदेश विभाग ने उसे वैश्विक आतंकवादियों की सूची में डाल रखा है। जलालुद्दीन हक्कानी का छोटा भई खलील हक्कानी इस आतंकवादी संगठन के वित्तीय विभाग का मुखिया है।पाकिस्तान के कबायली इलाकों के सभी आतंकवादी संगठन हक्कानी नेटवर्क के प्रति वफादारी निभाते हैं। पाकिस्तान तालिबान के विभिन्न धड़े जब जिहाद के नाम पर अफगानिस्तान पहुंचते हैं तो वे हक्कानी नेटवर्क के अधीन होकर अपने मंसूबों का सफल बनाने का प्रयास करते हैं।
हक्कानी नेटवर्क में 12 हजार प्रशिक्षित लड़ाके ----कहा जाता है कि हक्कानी नेटवर्क में कम से कम 12000 ऐसे लड़ाके हैं जो पूरी तरह प्रशिक्षित हैं। इनमें कुछ गुरिल्ला युद्ध में माहिर हैं तो कुछ विस्फोटक बनाने वाले हैं। कुछ आत्मघाती हमलावर भी हैं और कुछ शिक्षक जो लोगों को जिहाद के नाम पर खुद से जोड़ते हैं।अमेरिका के एक प्रभावशाली वैचारिक एवं नीतिगत संस्थान का कहना है कि पिछले दिनों काबुल में अमेरिकी दूतावास पर हुए हमले के लिए जिम्मेदारी आतंकी गुट हक्कानी नेटवर्क को पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई का संरक्षण मिलता है।जार्ज वाशिंगटन विश्वविद्यालय में होमलैंड सिक्योरिटी पालिसी इंस्टीट्यूट के निदेशक जे किलुफो ने अमेरिकी काग्रेस के सदस्यों के समक्ष हाल ही में कहा कि हक्कानी नेटवर्क के आतंकवादियों को पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई के लोगों की मदद मिलती है।उन्होंने कहा कि हक्कानी नेटवर्क को पाकिस्तानी सरकार के हिस्से के रूप में देखा जाता है, इसीलिए वहां की सरकार ने वजीरिस्तान के कबायली इलाकों में कार्रवाई करने से इंकार किया था।वजीरिस्तान सिर्फ हक्कानी नेटवर्क का ही नहीं, बल्कि अलकायदा से जुड़े समूहों के लिए एक सुरक्षित पनाहगार साबित हुआ है।इस थिक टैंक का मानना है कि हक्कानी नेटवर्क का एक ताकतवर धड़ा अफगानिस्तान में सक्रिय है। इन लोगों का निशाना गठबंधन सेना होती है।